संघर्ष की विरासत : पेरिस कम्यून : 150 वर्ष

पेरिस कम्यून : सर्वहारा क्रांति की विरासत

चंचल चौहान

 इस साल पेरिस कम्यून की 150वीं वार्षिकी दुनिया भर की सर्वहारा ताक़तें मना रही हैं। मानव इतिहास में पहली बार नवोदित सर्वहारावर्ग ने अपनी क्रांतिकारी ताक़त से विश्‍वपूंजीवाद के विनाश का बिगुल बजा दिया था, जब 18 मार्च 1871 के दिन फ्रांस के पूंजीपति वर्ग के हाथों से उसने पेरिस की  सत्‍ता छीन कर अपनी राजसत्‍ता क़ायम करने की पहली कोशिश की थी। यह कोशिश अनेक कारणों से नाकाम रही जिसमें कई हज़ार कम्युनिस्ट शहीद हो गये थे, पूंजीपतिवर्ग ने एक बड़ा क़त्लेआम करके सर्वहारा के प्रथम क्रांतिकारी उभार को दबा दिया था। पेरिस कम्यून पहला अवसर था जब सर्वहारा वर्ग इतनी बड़ी ताक़त से इतिहास के मंच पर प्रकट हुआ। पहली बार, नये क्रांतिकारी वर्ग ने यह दिखा दिया कि वह पूंजीवाद की राज्य सत्ता को उखाड़कर समतावादी समाज की नींव रखने में सक्षम है। पेरिस कम्यून की घटना ने यह साबित किया कि मानवसमाज के विकास के पूंजीवादी दौर में सर्वहारा ही वह क्रांतिकारी वर्ग है जो ऐसे समाज की रचना कर सकता है जिसमें मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण नहीं होगा, सच्चे मायनों में लोकतंत्र होगा यानी 'जनता द्वारा जनता के लिए सरकार' होगी।

पेरिस कम्यून को दुनियाभर के कम्युनिस्ट समय समय पर याद करते रहते हैं जिससे मज़दूरवर्ग यह न भूले कि उसे अपना क्रांतिकारी कार्यभार पूरा करना है, जहां भी जब भी वस्तुगत परिस्थितियां क्रांति के लिए तैयार हों, वह अपना दायित्व पूरा करे। पेरिस कम्यून के 20 बरस पूरे होने पर जब लंदन में 18 मार्च 1891 के दिन उसे याद किया गया तो उसमें फ़्रेडरिख़ एंगेल्स का ऐतिहासिक भाषण हुआ था जिसे मार्क्स की पुस्तक, फ्रांस में गृहयुद्ध के अंत में जोड़ दिया गया। मार्क्स की पुस्तक, 'अंतरराष्ट्रीय कामगारों की एसोशिएशन' के सामने दिये गये भाषणों का संग्रह है जो उसी दौर में लिखे गये थे जब फ्रांस के सर्वहारा की नयी क्रांति का उभार हुआ था और उस पुस्तक में शामिल तीसरे संबोधन में पेरिस कम्यून का पूरा विश्लेषण मार्क्स ने किया था, उन्होंने लिखा :  

The multiplicity of interpretations to which the Commune has been subjected, and the multiplicity of interests which construed it in their favor, show that it was a thoroughly expansive political form, while all the previous forms of government had been emphatically repressive. Its true secret was this:

It was essentially a working class government, the product of the struggle of the producing against the appropriating class, the political form at last discovered under which to work out the economical emancipation of labor.(कम्यून की जो भांति भांति की व्याख्याएं हुई हैं, और जिनमें भांति भांति के हित निहित दिखायी दिये हैं, उनसे यह साफ़ है कि यह क्रांति पूरी तरह विस्तृत राजनीतिक स्वरूप लिये हुए थी, जबकि इससे पहले की तमाम सरकारें पूरी तरह दमनकारी थीं, इसका रहस्य यह था कि : यह तत्वत: मज़दूरवर्ग की सरकार थी जो उत्पादनकर्ता के उस संघर्ष से उपजी थी जो उत्पादन को हड़प जाने वाले वर्ग के ख़िलाफ़ चला था, जिसने अंतत: ऐसी राजनीतिक व्यवस्था खोज निकाली थी जिसमें श्रम के आर्थिक शोषण से मुक्ति संभव थी।) 

 संक्षेप में यहां यह बता दिया जाये कि आख़िर पेरिस कम्यून में हुआ क्या था। दर असल, मुख्य घटना 18 मार्च 1871 को हुई जब मज़दूरवर्ग ने पेरिस में अपना प्रशासन लागू कर दिया। 1870 के फ्रांस-प्रशा युद्ध में सेडान में नेपोलियन बोनापार्ट की हार के सात महीने बाद यह ऐतिहासिक अवसर मज़दूरवर्ग को मिल गया। एक उभार 4 सितंबर 1870 को हुआ जब बोनापार्ट की सैन्य कार्रवाइयों द्वारा थोपी भीषण परिस्थितियों के ख़िलाफ़ पेरिस की सर्वहारा ताक़तें उठ खड़ी हुईं। जब गणतंत्र की घोषणा की गयी तब प्रशा के बिस्मार्क की सेना पेरिस के मुख्य दरवाज़े पर पड़ाव डाले हुए थी। प्रशा की सेना का मुक़ाबला करने और पेरिस की सुरक्षा के लिए गठित राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड्स को ज़िम्मेदारी दी गयी, जिनमें पहले निम्नमध्यम वर्ग की टुकड़ियां शामिल थीं, बाद में उसमें बड़ी तादाद में सर्वहारावर्ग शामिल हो गया और जिससे उसका स्वरूप ही बदल गया। प्रशियाई हमलावरों के ख़िलाफ़ जंग करते हुए नेशनल गार्ड्स को सैनिक अनुशासन का अनुभव हासिल हो गया। जब 131 दिन की घेराबंदी के बाद फ्रांस की सरकार ने प्रशा की सेना के साथ युद्ध विराम के समझौते पर दस्तख़त किये, तब पूंजीवादी गणतांत्रिक सरकार के नये नेता, एम थियरे ने समझा कि युद्धस्थिति की समाप्ति के साथ यह आवश्यक है कि पेरिस के सर्वहारा को तुरंत निहत्था कर दिया जाये। वह समझ रहा था कि शासक वर्ग के वजूद के लिए नेशनल गार्ड अब एक ख़तरा बन सकते हैं। तब 18 मार्च 1871 को थियरे ने पहले छल-कपट का सहारा लिया। उसने यह दलील दी कि हथियार राज्य की संपत्ति हैं इसलिए उसने 200 से अधिक तोपों से सज्जित राट्रीय सुरक्षा गार्डों के तोपख़ाने को, जिसे मज़दूरों ने मोमार्ट तथा बैलेविली में छिपा दिया था, छीनने के लिए सेना की टुकड़ियां भेजीं। मज़दूरों के कारगर प्रतिरोध और सेना व पेरिस की आबादी के बीच पैदा हुए भाईचारे के कारण एम. थियरे की चाल नाकाम रही। पेरिस के रक्षकों को निहत्था करने की चाल ने पूंजीवादी सरकार के विरुद्ध पेरिस के अवाम को ही खड़ा कर दिया और इससे पेरिस के रक्षक सर्वहारा वर्ग और वर्साई में छिप कर बैठी पूंजीवादी सरकार के बीच गृहयुद्ध छिड़ गया। 18 मार्च को राट्रीय सुरक्षा गार्डों की केंद्रीय कमेटी ने, जिसने अस्थायी तौर पर सत्ता की बागडोर संभाली थी, घोषणा की : 'शासक वर्गों की फूटपरस्ती और ग़द्दारियों के बीच राजधानी के सर्वहारा ने समझ लिया है कि अब घड़ी आ गयी है कि वह सार्वजनिक मामलों को अपने हाथों में लेकर स्थिति को नियंत्रण में करे (...)। सर्वहारा ने समझ लिया है कि यह उसका नैतिक अधिकार और पूर्ण कर्तव्य है कि वह अपने भाग्य को अपने हाथों में ले ले, और इसकी जीत को सुनिश्चित करने के लिए सत्ता पर कब्ज़ा कर ले'। उसी दिन कमेटी ने सार्वभौम मताधिकार के आधार पर विभिन्न ज़िलों से प्रतिनिधियों को निर्वाचित करने की घोषणा की। ये चुनाव 26 मार्च को संपन्न हुए; और दो दिन बाद कम्यून की घोषणा कर दी गयी। इसमें बहुत सारे रुझानों का प्रतिनिधित्व था : जहां ब्लांकीवादियों का बहुमत था वहीं अल्पमत के सदस्य अधिकतर 'इंटरनेशनल वर्कर्स एसोशियेसन' (प्रथम इंटरनेशनल) से जुड़े प्रूधोंवादी समाजवादी थे।

वर्साई शहर में जा बैठी, पूंजीवाद से नाभिनालबद्ध फ्रांस की सरकार ने सर्वहारा वर्ग के कब्ज़े से पेरिस को वापिस हासिल करने के लिए वहशी हमला किया। फ्रांस का पूंजीपतिवर्ग प्रशा की सेना द्वारा राजधानी पर जिस अमानवीय बमबारी की रातदिन भर्त्सना करता था, वही अमानवीय बमबारी लगातार दो महीने तक, पेरिस कम्यून पर फ्रांस की उसी पूंजीवादी सरकार ने की। प्रशा के पूंजीवादी शासकों ने भी फ्रांस के कई हज़ार बंदी सिपाही रिहा करके थियरे सरकार को सौंप दिये जो पेरिस कम्यून पर वहशी हमला करने के काम में मददगार साबित हुए। 28 मई 1871 को पेरिस कम्यून का वह पहला प्रयोग पूंजीवाद के ख़ूनी जबड़ों में समा गया। इसमें शहीद होने वाले कामरेडों की तादाद हज़ारों में थी। मार्क्स की सबसे छोटी बेटी ने एक ऐसे कामरेड से पेरिस कम्यून का इतिहास लिखवाया जो उस क्रांति में शामिल था और क़त्लेआम से किसी तरह बचकर लंदन पहुंच गया था, उस इतिहास का अनुवाद अंग्रेज़ी में ख़ुद उसी बेटी ने किया था और अपनी भूमिका के अंत में उस दौर के दो अख़बारों में से शहीदों की तादाद वाली कतरनें भी दी थीं। इसी बरस यानी 2021 के 18 मार्च के गार्जियन अख़बार ने भी उस दौर के अख़बारों के अंशों को दुबारा प्रकाशित करके दुनिया के सामने इस सच्चाई को पेश किया कि किस तरह पूंजीपतिवर्ग सर्वहारा को गुलाम बनाये रखने के लिए किस हद तक बर्बर और वहशी हो सकता है, उन कतरनों से भी यह अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है कि शहीद होने वाले व घायल हुए कामरेडों की तादाद साठ हज़ार से ऊपर ही रही होगी। लेनिन ने 1911 में प्रकाशित अपने एक लेख में इस संख्या को एक लाख तक बताया। इससे पहले एंगेल्स की ही तरह 18 मार्च 1908 को पेरिस कम्यून की वार्षिकी के अवसर पर जेनेवा में एक अंतरराष्ट्रीय सभा में लेनिन का व्याख्यान हुआ था जिसमें बहुत ही प्रेरणाप्रद तरीक़े से उन्हींने उस क्रांति की व्याख्या पेश की थी। बाद में एक व्याख्यान 1911 में छपा, उसके बाद तो 1917 में लिखी मशहूर किताब, राज्य और क्रांति में मार्क्स-एंगेल्स आदि के द्वारा पेरिस कम्यून से संबंधित तमाम विश्लेषणों की व्याख्या लेनिन ने उसमें शामिल की। लगता है, लेनिन एक पल के लिए भी पेरिस कम्यून को नहीं भूले थे।

पेरिस कम्यून के रूप में नवोदित सर्वहारावर्ग के नेतृत्व में हुई पहली क्रांति से ले कर आज तक करोड़ों की तादाद में दुनिया के तमाम देशों में कामरेडों के साथ इस तरह का वहशी सलूक होता चला आ रहा है। सिर्फ़ इसलिए क्योंकि वे इस इंसानी दुनिया को शोषणमुक्त बनाने के संघर्ष में शामिल होने में ही अपने जीवन की सार्थकता समझते हैं, मगर इंसान व इंसान के बीच ग़ैरबराबरी और ग़ुलामी को वैध समझने वाली व्यवस्था को यह संघर्ष क़तई बरदाश्त नहीं।

पेरिस कम्यून की अल्पकालिक सर्वहारा क्रांति की विफलता और उसके बाद फिर सर्वहारा की 1917 की अक्टूबर क्रांति की लंबे अरसे के बाद विफलता के कारणों की पड़ताल अपने अपने वर्गीय नज़रिये से दुनिया के विचारकों ने की। मार्क्स-एंगेल्स ने खुद ही उस घटना की व्याख्या की। उनकी व्याख्या में मुख्य ज़ोर इस वैज्ञानिक सत्य पर था कि वर्गसमाज में दमनतंत्र (सेना, पुलिस, कार्यपालिका, न्यायपालिका आदि) शोषकशासक वर्गों के हाथ में होता है, भले ही राजसत्ता किसी भी राजनीतिक घटक के पास आ जाये। एंगेल्स ने 20वीं वार्षिकी के अवसर पर अपने व्याख्यान में इसी मत को दुहराया :

In reality, however, the state is nothing but a machine for the oppression of one class by another, and indeed in the democratic republic no less than in the monarchy; and at best an evil inherited by the proletariat after its victorious struggle for class supremacy, whose worst sides the proletariat, just like the Commune, cannot avoid having to lop off at the earliest possible moment, until such time as a new generation, reared in new and free social conditions, will be able to throw the entire lumber of the state on the scrap-heap.   (Engels - London, on the 20th anniversary of the Paris Commune, March 18, 1891.)

(सच्चाई यह है कि राज्य एक वर्ग के द्वारा दूसरे वर्ग पर दमन करने की मशीन के अलावा और कुछ नहीं होता है, लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी उतना ही जितना सामंती व्यवस्था में। जब सर्वहारा अपनी वर्गीय श्रेष्ठता के संषर्ष में विजयी होता है जैसा कि पेरिस कम्यून में हुआ, तो उसे भी इस दमनतंत्र की विरासत एक अनिवार्य बुराई के रूप में मिलती है जिसे वह तब तक झेलता है जब तक जल्द ही वह नये आज़ाद सामाजिक परिवेश में पली बढ़ी नयी पीढ़ी को तैयार नहीं कर लेता जो पुराने राज्यतंत्र को समाप्त कर सके।) 

ज़ाहिर है कि पेरिस कम्यून की केंद्रीय कमेटी को यह सब करने के लिए समय ही नहीं मिला जिसका उल्लेख मार्क्स व एंगेल्स ने इस विषय पर व्यक्त अपने विचारों में किया था। लेनिन ने भी पेरिस कम्यून की व्याख्या, अपने नज़रिये से की और उसकी शक्ति और सीमाओं को बेलाग तरीक़े से विश्व सर्वहारा के सामने रखा, उसके अनुभवों से सीख लेते हुए सोवियत क्रांति में सफलता हासिल की। यह दुहराने की ज़रूरत नहीं कि विश्वसर्वहारा के मुक्तिसंघर्ष के ये दो बड़े पड़ाव थे, जो कुछ वस्तुगत और निजगत (objective and subjective) कारकों की वजह से असफल हो गये और विश्वपूंजीवाद के पक्ष में दुनिया का वर्गीय संतुलन फिर से क़ायम हो गया। आज हम ऐसे ही दौर में रह रहे हैं जिसमें विश्वपूंजीवाद अपने चरम विकसित और नये रूप यानी अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी की शक्ल में ग्लोबल विलेज पर अपना वर्चस्व क़ायम कर चुका है, उसे फ़िलहाल किसी विश्वसर्वहारा शक्ति से चुनौती नहीं मिल रही है।

पेरिस कम्यून और सोवियत क्रांति की विफलता के कारणों पर बहुत तरह की बहस हुई है, मगर एक वस्तुगत भूल को कम ही रेखांकित किया गया है। पेरिस कम्यून की विफलता पर लेनिन ने अप्रैल 1911 में लिखे एक लेख में ज़रूर उस भूल की ओर इशारा किया था :

For the victory of the social revolution, at least two conditions are necessary: a high development of productive forces and the preparedness of the proletariat. But in 1871 neither of these conditions was present. French capitalism was still only slightly developed, and France was at that time mainly a country of petty-bourgeoisie (artisans, peasants, shopkeepers, etc.). On the other hand there was no workers’party, the working class, which in the mass was unprepared and untrained, did not even clearly visualise its tasks and the methods of fulfilling them. There were no serious political organisations of the proletariat, no strong trade unions and co-operative societies. (समाजवादी क्रांति के लिए कम से कम दो परिस्थितियां अनिवार्य होती हैं : उत्पादक शक्तियों का उच्च विकास और सर्वहारा की अपनी तैयारी। मगर 1871 में इनमें से कोई परिस्थिति मौजूद नहीं थी। फ्रांसीसी पूंजीवाद अभी थोड़ा सा ही विकसित हुआ था, उस समय वह मुख्य रूप से निम्नपूंजीवादी आबादी (कारीगरों, किसानों, दुकानदारों आदि) का ही देश था। इसके अलावा वहां मज़दूरवर्ग की कोई पार्टी नहीं थी, सर्वहारा के बड़े हिस्से की न तो कोई तैयारी थी और उसे कोई ट्रेनिंग मिली थी। इसलिए वह अपने कार्यभार और उन्हें अमल में उतारने की कोई स्पष्ट रूपरेखा देख पाने में समर्थ नहीं था। उसकी अपनी कोई गंभीर राजनीतिक संस्थाएं, मज़बूत ट्रेड यूनियनें या कोआपरेटिव सोसाइटियां वग़ैरह भी नहीं थीं)

लेनिन की उक्त व्याख्या का एक हिस्सा सोवियत संघ के विघटन पर भी उतना ही लागू होता है जितना पेरिस कम्यून की विफलता पर। लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविकों ने पेरिस कम्यून, और खुद के 1905 के जनवादी उभार से सीख हासिल करते हुए अक्टूबर क्रांति को सफल बनाया तो इस वजह से कि तब तक विश्व सर्वहारा वर्ग हर जगह एक पार्टी के रूप में और ट्रेड यूनियनों व अन्य क्रांतिकारी अनुशासित दस्तों के रूप में बेहद संगठित था, रूस में उस समय सबसे अधिक संगठित और शक्तिशाली भी था, मगर 'उत्पादक शक्तियों का उच्च विकास' रूस में भी नहीं था। रूस में पूंजीवाद विश्वपूंजीवाद की 'सबसे कमज़ोर कड़ी' था, इसीलिए मार्क्स की अवधारणा के विपरीत, लेनिन ने यह कहा कि सर्वहारा क्रांति उन्हीं देशों में संभव होगी जो 'विश्वपूंजीवाद की सबसे कमज़ोर कड़ी' होंगे। इसमें एक कारक और जोड़ना होगा, क्रांति तभी सफल होगी जब शासकवर्ग समाज पर किसी भी तरह अपना शासन करने की शक्ति खो बैठेगा। अब तक जो भी क्रांतियां हुई हैं उनमें यह कारक भी काम करता आया है। पिछले अरसे में नेपाल में हुए घटनाविकास को भी इसी रोशनी में समझा जा सकता है।

सोवियत संघ के विघटन के अनेक कारकों में से एक यह भी था कि विश्व सर्वहारा वर्ग ने पूंजीवादी विकास की मंज़िल का दोषपूर्ण आकलन किया था और उसमें उत्पादक शक्तियों के विकास की अभूतपूर्व क्षमताओं को न समझ पाने की भूल की थी। लेनिन ने पेरिस कम्यून पर पहले व्याख्यान में क्रांति के लिए पूंजीवाद में 'उत्पादक शक्तियों के चरम विकास' की जो बात कही थी, उसे भुला दिया गया। सन् 1960 में विश्व की 81 कम्युनिस्ट पार्टियों का एक सम्मेलन हुआ था। उस समय के घटनाक्रमों को देखते हुए उसमें जो दस्तावेज़ पारित हुआ था उसमें ही विश्वपूंजीवाद के बारे में एक ग़लत समझ बना ली गयी थी कि मानव समाज के विकास का मौजूदा दौर विश्वपूंजीवाद के 'पतन' का दौर है और समाजवाद के 'उत्थान' का। विश्वपूंजीवाद को मरणासन्न मानने का वह भ्रांतिपूर्ण विचार उस दिन तक दुनियाभर के कम्युनिस्टों में गहरे तक बैठा हुआ था जिस दिन आसानी से सोवियत संघ ढहा दिया गया, इस बार कोई ख़ूनख़राबा भी नहीं हुआ, और विश्वपूंजीवाद ने अपना वर्चस्व फिर से क़ायम कर लिया। दुनियाभर का सर्वहारावर्ग चकित, स्तब्ध और शोकमग्न था, उसकी आंखों के सामने अक्टूबर क्रांति से बनी नयी व्यवस्था भरभराकर ध्वस्त हो रही थी, लेनिन की मूर्ति ही नहीं, उनका सपना भी तोड़ा जा रहा था। जहां विश्वपूंजीवाद उत्पादक शक्तियों को विकास के शिखर की ओर ले जा रहा था, टेक्नालॉजी के अभूतपूर्व उत्थान में निवेश कर रहा था, अधिक से अधिक मुनाफ़े के लिए नये से नये अनुसंधानों को बढ़ावा दे रहा था, वहीं सोवियत व्यवस्था टेक्नोलॉजी के सर्वांगीण विकास में अवरोधक बन रही थी, खेती के क्षेत्र में भी अवरोध आ चुका था। विश्वपूंजीवाद अपनी पुरानी मंज़िल पार कर 'अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी' की नयी मंज़िल में दाख़िल हो चुका था जिसका संकेत ख़ुद लेनिन ने आंकड़े दे कर, अपनी कालजयी रचना, साम्राज्यवाद : पूंजीवाद की उच्चतम मंज़िल के बिल्कुल अंतिम हिस्से में दिया था।

विश्वपूंजीवाद ने अपना नया चोला, यानी अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी का चोला, लेनिन की मृत्यु के ठीक बीस साल बाद यानी 1 जुलाई से 22 जुलाई 1944 तक आयोजित किये गये 'ब्रेटन वुड्स' सम्मेलन में धारण किया जहां से आइ एम एफ़, विश्वबैंक और डब्ल्यू टी ओ जैसी नयी संरचनाएं वजूद में आयीं और आज सारी दुनिया उन्हीं की गिरफ़्त में है। विश्व की कम्युनिस्ट पार्टियां इस नये घटनाविकास को 1960 तक नहीं समझ पा रही थीं, वे उल्टे विश्वपूंजीवाद को 'पतनशील' और 'समाजवाद' को विकासशील मानने की भ्रांति का शिकार हो रही थीं। यह भ्रांति सोवियत व्यवस्था के पतन के बाद कुछ कम्युनिस्टों को समझ में ज़रूर आयी, मगर व्यापक हिस्सों में अभी भी विश्वपूंजीवाद को 'पतनशील' 'मरणासन्न' मानने का साठोत्तरी विचार मज़बूती से गहरे पैठा हुआ है।

विश्वपूंजीवाद मार्क्स के ज़माने से ही थोड़े थोड़े अंतराल के बाद भयंकर आर्थिक संकट का शिकार होता रहता है, क्योंकि उसकी फ़ितरत ही असमान विकास की ओर समाज को धकेलने की है जिसकी वजह से इज़ारेदारियां अपार पूंजी का संचय कर लेती हैं, और शोषित तबक़ों में उत्पादित माल ख़रीदने की ताक़त नहीं रहती जिससे पूंजीवाद हर बार आर्थिक संकट का सामना करता है। मगर टेक्नोलॉजी में क्रांति लाकर वह इस संकट से उबरता रहता है। खुद मार्क्स ने अपने मैनिफ़ैस्टो में इस महत्वपूर्ण सिद्धांत का प्रतिपादन किया था, जिसे अक्सर भुला दिया जाता है, उन्होंने मैनीफ़ैस्टो के पहले ही अध्याय में लिखा था कि 'The bourgeoisie cannot exist without constantly revolutionising the instruments of production, and thereby the relations of production, and with them the whole relations of society.'

यही तो घटित हुआ! विश्व की तमाम कम्युनिस्ट पार्टियों के 1960 के दस्तावेज़ को वेदवाक्य मानकर विश्वपूंजीवाद को अशक्त, वृद्ध या पतनशील, ह्रासोन्मुख समझने की ग़लती ने काफ़ी नुक़सान कर दिया। दुनियाभर की प्रगतिशील साहित्यिक रचनाओं में भी इसका प्रतिबिंब देखा जा सकता है। सोवियत संघ का नेतृत्व यह देख ही नहीं पा रहा था कि उसके चारों ओर विश्वपूंजीवाद किस तरह हर क्षेत्र में नयी टेक्नोलॉजी, हर रोज़ नये आविष्कार, हर रोज़ आम उपभोक्ता के काम आने वाले उत्पाद बनाकर दुनियाभर के बाज़ार पर कब्ज़ा किये जा रहा है, किस तरह सारी दुनिया के श्रम का अतिरिक्त मूल्य 'अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी' में तब्दील हो कर आइ एम एफ़, विश्वबैंक व अन्य वित्तीय संस्थाओं के माध्यम से उत्पादन के साधनों को विकसित करने में लगा हुआ है। सोवियत संघ इस दौड़ में बहुत पीछे रह गया था, उपभोक्ता सामग्री ही नहीं, कृषि में भी नये नये बीज आदि के जो प्रयोग पूंजीवादी देशों में हो रहे थे, वहां ठहराव था। इसीलिए जनता को सोवियत व्यवस्था के बजाय पूंजीवाद में उत्पादक शक्तियों के विकास की संभावनाएं नज़र आयीं और इसीलिए जनता ने सोवियत व्यवस्था को आसानी से ढह जाने दिया। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने इस युगीन यथार्थ को ठीक से समझा और अपने यहां की उत्पादक शक्तियों के विकास के लिए उसने विश्वपूंजीवाद के नये अवतार से पूरा फ़ायदा उठाया। चीन ने अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी से जो क़र्ज़ा ले रखा है उसमें से विश्वबैंक की एक शाखा आइ बी आर डी और दूसरी आइ डी ए का कुल क़र्ज़ 2019 तक क्रमश: 1,620.6 और 521.8 मिलियन डालर है। अंतरराष्ट्रीय क़र्ज़ चीन काफ़ी पहले से लेता आ रहा है जिससे वह अपने यहां उत्पादक शक्तियों को उच्चतम स्तर तक पहुंचा सके। उसके विदेशी क़र्ज़ के नीचे दिये गये कुछ आंकड़ों से इस यथार्थ को समझा जा सकता है: (ये आंकड़े मिलियन अमेरिकी डालर में हैं)

वर्ष 2009 2015     2016    2017        2018              2019

क़र्ज़       454,515     1,333,777 1,413,804  1,704,516    1,961,528      2,114,163 

चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का मानना है कि चीन में 'समाजवाद' की स्थापना 2049 में हो पायेगी जब उत्पादक शक्तियों का 'चरम विकास' शायद हो जायेगा। अभी तक अनेक कम्युनिस्ट पार्टियां पूंजीवाद के सामने नया आर्थिक संकट आते ही यह मान लेती हैं कि बस अब 'समाजवाद' की स्थापना का समय आ गया है। उनके हर दस्तावेज़ में यह अंकित किया हुआ देखा जा सकता है। जब 2008 में ऐसा संकट आया था तब इस तरह के विचार ख़ूब सामने आ रहे थे, मगर विश्वपूंजीवाद अपने नये अवतार यानी अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के रूप में उससे आसानी से उबर गया। अभी उस संकट के दस साल बाद 2018 में संकट का दूसरा दौर शुरू हुआ तो उससे उबरने में कोविड-19 ने मदद कर दी, पहले से बना हुआ माल बिक गया, मज़दूरों को वेतन नहीं देना पड़ा। नयी टेक्नोलॉजी से नये उत्पाद, मास्क, पीपीइ किट, नयी दवाइयां, नयी वैक्सीन, नये कंप्यूटर, नये मोबाइल फ़ोन आदि का उत्पादन होने से अवरोध टूट गया, सारे उद्योगों और बैंको को नया जीवनदान मिल गया, अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी ने दुनियाभर के देशों को नये क़र्ज़ों से लाद दिया, उसी के निर्देशों पर आम जनता पर नये करों का बोझ डालने, महामारी की आड़ में अनेक तरह के जनविरोधी क़ानून पारित करने और शोषण की प्रक्रिया तेज़ करने में क़र्ज़ों से लदी सरकारों ने बहुत ही फ़ुर्ती दिखायी। 'आत्मनिर्भर' और 'विश्वगुरु' भारत का जुमला हर वक्त़ उच्चारित करने वाले यह नहीं बताते कि इस देश पर भी मौजूदा सरकार ने कितना विदेशी क़र्ज़ लाद दिया है। रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया के अनुसार भारत पर यह क़र्ज़ मार्च 2020 तक 558.5 मिलियन अमेरिकी डालर हो गया है जबकि 2014 में वह 440.6 मिलियन डालर था। अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के दबाव में मोदी सरकार तमाम जनतांत्रिक मूल्यों को रौंदती हुई कारपोरेट पूंजी के निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए जनविरोधी, असहिष्णु, बर्बर और निरंकुश हो गयी है। श्रमशील जनता का शोषण दमन तेज़ हो रहा है। यह ज़रूर है कि इस दौर में पेरिस कम्यून जैसी घटना इस दमनचक्र के विरोध में भले ही कहीं न हो रही हो, कारपोरेट पूंजी के बढ़ते शिकंजे का प्रतिरोध करने के लिए भारत के किसानों ने ज़रूर एक व्यापक जनआंदोलन का उभार दुनिया को दिखा दिया है जिसकी मिसाल दुनिया के इतिहास में नहीं है। यह प्रतिरोध जारी है।

ऐसे समय में पेरिस कम्यून की याद आना स्वाभाविक ही है। उस समय की फ्रांस की 'लोकतांत्रिक' सरकार आम जन को राहत देने में नाकारा थी, उस पर भयंकर करों का बोझ था, प्रशा के हमले से भी खुद की रक्षा करने में भी वह सक्षम नहीं थी, नेशनल गार्डों में शामिल सर्वहारा के दस्तों ने ही पेरिस की हिफ़ाज़त की थी, और अल्पकाल के लिए ही सही, पेरिस में एक आदर्श प्रशासन चला कर दुनिया के सामने नया माडल पेश किया था जिसे पूंजीपतिवर्ग ने वहशी तरीक़े से रौंद डाला था। पेरिस कम्यून के बहादुर कामरेडों के बलिदानों को हम कैसे भूल सकते हैं?

मो. 9811119391

 

 

 

  

No comments:

Post a Comment