यारों ने कितनी दूर बसायी हैं बस्तियां
असग़र वजाहत
आधी सदी पुराना दोस्त मंगलेश डबराल चला गया। सन् 1968 में नौकरी की तलाश में जब दिल्ली आया था तो एक बूढ़े नौजवान से मिला था। बीस बाइस साल का एक छोटे क़द, गोरे रंग का लड़का था जो सबका इतना ख़याल रखता था जैसे बुज़ुर्ग रखते हैं। तुमने खाना खाया? तुमने चाय पी? तुम्हारे पास बस का किराया है? तुम्हारी चप्पल टूट गयी है दूसरी ले लो। उस ज़माने में न तो वह बहुत बड़ा कवि था और न मैं लेखक था। न मुझे कोई जानता था, न उसे कोई जानता था। हम दोनों 'अ' लिखना सीख रहे थे। हमारी रचनाएं इधर-उधर छपा भी करती थी। मेरे लिए यह कम हैरत की बात नहीं थी कि मंगलेश ने पहली ही मुलाक़ात में धर्मयुग में छपी मेरी कहानी का हवाला दिया था। एक नये और अनजान लेखक की किसी रचना को याद रखना कोई आसान बात नहीं है।
हिंदी पेट्रियट में सब-एडिटर की तनख़्वाह क्या हुआ करती थी, याद नहीं। लेकिन डेढ़ दो सौ महीना से ज़्यादा किसी हालत में नहीं मिलता था और बुज़ुर्ग लड़का दो बेरोज़गार लड़कों की ज़िम्मेदारी निभाता था। मैं और एक दूसरा बेरोज़गार इस लड़के के अकाउंट में सरदार के ढाबे जाकर खाना खा लिया करते थे। महीने के आख़िर में इस लड़के के ऊपर ढाबे की देनदारी उसकी तनख़्वाह से ज़्यादा हो जाया करती थी। मंगलेश के माध्यम से एक पूरी दुनिया मेरे ऊपर धीरे-धीरे खुल गयी थी। मंगलेश कि मुझे पहली बार टी हाउस ले गया था कॉफ़ी हाउस ले गया था उसी ने सलाह दी थी कि दूसरे अख़बारों में भी लिखा करो। उसी की सलाह थी कि मैं अपने लेखन में क्या सुधार करूं। उस ज़माने में दिल्ली में जितने बेसहारा, संघर्ष करने वाले लेखक थे, जिनका अड्डा कॉफ़ी हाउस हुआ करता था, मंगलेश के दोस्त थे।
हिंदी पेट्रियट के अलावा मंगलेश ने दिल्ली के तमाम छोटे बड़े अख़बारों में काम किया था। और जहां भी काम किया, वहां अपनी मेहनत का सिक्का जमाया था। लेकिन एक वक्त़ ऐसा आया था जब मंगलेश को दिल्ली में कोई काम नहीं मिल रहा था और फिर मंगलेश की एक लंबी यात्रा शुरू हुई थी । भोपाल, लखनऊ, इलाहाबाद होते हुए मंगलेश लौटकर फिर दिल्ली आ गया था और इन तमाम वर्षों में उसने कविता में जो साधना की थी उसका लोहा माना जा रहा था। मंगलेश की कविता में जिस प्रकार की गहरी मानवीय संवेदना है वह अन्यत्र देखने को कम ही मिलती। इसका कारण भी यह है कि मंगलेश का पूरा जीवन और पूरा व्यक्तित्व मानवीय संवेदना से पूरी तरह लबरेज़ रहा है। अपने अलावा उसने उन सब के बारे में बहुत किया है जो उसके नज़दीक़ आये हैं। ऐसे तमाम प्रसंग है जिन्हें याद किया जा सकता है और ये सारे प्रसंग उसकी कविता में चमकते हुए दिखायी देते हैं।
मंगलेश की कविता के बारे में काफ़ी लिखा गया है। उसे हिंदी के समकालीन कवियों में एक बड़ा स्थान दिया गया है। कुछ लोग उसे रघुवीर सहाय की परंपरा का कवि मानते हैं और कुछ लोग उसे शमशेर बहादुर सिंह से अधिक निकट पाते हैं। मेरे विचार से मंगलेश की कविता एक अलग रास्ता बनाती हुई दिखायी देती है। यह रास्ता अगर कहीं किसी से जाकर जुड़ता है तो वह 'निराला' से ही जुड़ पाता है। वे 'निराला' जैसी गहन संवेदना के कवि हैं, उसी तरह की संवेदना मंगलेश की कविताओं में देखी जा सकती है। साधारण को असाधारण बना देना अच्छे कवि की पहचान मानी जाती है। इस प्रसंग में मंगलेश की कविता उल्लेखनीय है। छोटे-छोटे प्रसंगों से व्यापक मानवीय प्रसंग सामने आते हैं। मंगलेश के गद्य पर ज़्यादा काम नहीं किया गया। शुरू शुरू में उन्होंने कुछ कहानियां भी लिखी थीं। उनकी उस समय लिखी हुई कहानियों को ज्ञानरंजन ने पसंद किया था। कुछ वर्षों बाद मंगलेश ने कहानियां लिखना बंद कर दिया था और अपनी सारी ताक़त कविता लिखने में लगा दी थी। उन्होंने कुछ यात्रा संस्मरण भी लिखे हैं जो उनकी रचनाशीलता के नये आयाम प्रस्तुत करते हैं। मंगलेश का गद्य उनकी कविताओं से कम नहीं ठहरता।
यह भी मैं विश्वास के साथ कह सकता हूं कि हमारी लंबी दोस्ती में साहित्य का कोई ऐसा स्थान नहीं था जिसे बहुत महत्त्व दिया जाये या आधार माना जाये। ठीक है हम दोनों लिखते थे। मैं कहानी, उपन्यास, नाटक और मंगलेश कविता, कहानी, यात्रा संस्मरण, लेकिन हम दोनों के बीच संबंध इससे ऊपर थे। दोस्ती और सिर्फ दोस्ती। पचास साल से अधिक पुराने संबंधों के आधार पर यह कह सकता हूं की मंगलेश जैसे लोग और कवि कम ही होते हैं।
मो. 9818149015
उसी ने सलाह दी थी कि दूसरे अख़बारों में भी लिखा करो। उसी की सलाह थी कि मैं अपने लेखन में क्या सुधार करूं। उस ज़माने में दिल्ली में जितने बेसहारा, संघर्ष करने वाले लेखक थे, जिनका अड्डा कॉफ़ी हाउस हुआ करता था, मंगलेश के दोस्त थे।
हिंदी पेट्रियट के अलावा मंगलेश ने दिल्ली के तमाम छोटे बड़े अख़बारों में काम किया था। और जहां भी काम किया, वहां अपनी मेहनत का सिक्का जमाया था। लेकिन एक वक्त़ ऐसा आया था जब मंगलेश को दिल्ली में कोई काम नहीं मिल रहा था और फिर मंगलेश की एक लंबी यात्रा शुरू हुई थी । भोपाल, लखनऊ, इलाहाबाद होते हुए मंगलेश लौटकर फिर दिल्ली आ गया था और इन तमाम वर्षों में उसने कविता में जो साधना की थी उसका लोहा माना जा रहा था। मंगलेश की कविता में जिस प्रकार की गहरी मानवीय संवेदना है वह अन्यत्र देखने को कम ही मिलती। इसका कारण भी यह है कि मंगलेश का पूरा जीवन और पूरा व्यक्तित्व मानवीय संवेदना से पूरी तरह लबरेज़ रहा है। अपने अलावा उसने उन सब के बारे में बहुत किया है जो उसके नज़दीक़ आये हैं। ऐसे तमाम प्रसंग है जिन्हें याद किया जा सकता है और ये सारे प्रसंग उसकी कविता में चमकते हुए दिखायी देते हैं।
मंगलेश की कविता के बारे में काफ़ी लिखा गया है। उसे हिंदी के समकालीन कवियों में एक बड़ा स्थान दिया गया है। कुछ लोग उसे रघुवीर सहाय की परंपरा का कवि मानते हैं और कुछ लोग उसे शमशेर बहादुर सिंह से अधिक निकट पाते हैं। मेरे विचार से मंगलेश की कविता एक अलग रास्ता बनाती हुई दिखायी देती है। यह रास्ता अगर कहीं किसी से जाकर जुड़ता है तो वह 'निराला' से ही जुड़ पाता है। वे 'निराला' जैसी गहन संवेदना के कवि हैं, उसी तरह की संवेदना मंगलेश की कविताओं में देखी जा सकती है। साधारण को असाधारण बना देना अच्छे कवि की पहचान मानी जाती है। इस प्रसंग में मंगलेश की कविता उल्लेखनीय है। छोटे-छोटे प्रसंगों से व्यापक मानवीय प्रसंग सामने आते हैं। मंगलेश के गद्य पर ज़्यादा काम नहीं किया गया। शुरू शुरू में उन्होंने कुछ कहानियां भी लिखी थीं। उनकी उस समय लिखी हुई कहानियों को ज्ञानरंजन ने पसंद किया था। कुछ वर्षों बाद मंगलेश ने कहानियां लिखना बंद कर दिया था और अपनी सारी ताक़त कविता ने लगा दी थी। उन्होंने कुछ यात्रा संस्मरण भी लिखे हैं जो उनकी रचनाशीलता के नये आयाम प्रस्तुत करते हैं। मंगलेश का गद्य उनकी कविताओं से कम नहीं ठहरता।
यह भी मैं विश्वास के साथ कह सकता हूं कि हमारी लंबी दोस्ती में साहित्य का कोई ऐसा स्थान नहीं था जिसे बहुत महत्त्व दिया जाये या आधार माना जाये। ठीक है हम दोनों लिखते थे। मैं कहानी, उपन्यास, नाटक और मंगलेश कविता, कहानी, यात्रा संस्मरण, लेकिन हम दोनों के बीच संबंध इससे ऊपर थे। दोस्ती और सिर्फ दोस्ती। पचास साल से अधिक पुराने संबंधों के आधार पर यह कह सकता हूं की मंगलेश जैसे लोग और कवि कम ही होते हैं।
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