कहानी चर्चा-1

  हमारे समय की गवाही

संजीव कुमार

 योगेंद्र आहूजा और राकेश तिवारी, दोनों हमारे समय के अनिवार्य कहानीकार हैं—ऐसे कहानीकार जिन्हें छोड़कर आज के कथा-परिदृश्य पर बात करना संभव नहीं। दोनों के ताज़ा संग्रहों—क्रमशः लफ़्फ़ाज़ और अन्य कहानियां तथा चिट्टी ज़नानियां—के आने के पहले से इनके पास एकाधिक कहानियां ऐसी हैं जिन्हें असाधारण कहा जा सकता है। योगेंद्र आहूजा की ‘मर्सिया’, ‘पांच मिनट’, ‘स्त्री विमर्श’, ‘खाना’, ‘ऐक्कयुरेट पैथोलॉजी’ और राकेश तिवारी की ‘मुकुटधारी चूहा’, ‘मुर्गीखाने की औरतें’, ‘कठपुतली थक गयी’ बार-बार पढ़ी जाने लायक़ कहानियां हैं। मज़े की बात यह है कि ये दोनों अपने सरोकारों में गहरी समानता रखते हुए भी कहानी-कला की दृष्टि से बिल्कुल अलहदा हैं। योगेंद्र की कहानियों में जहां वाचक बहुत मुखर है और पाठक कार्यव्यापार से ज़्यादा वाचक के आविष्ट कथनों या भाष्यों में रुचि लेता है, वहीं राकेश के यहां ओवर्ट नैरेशन और वाचकीय टिप्पणियां कहीं कम तो कहीं बहुत कम हैं और कहानी में आपकी रुचि ज़्यादातर अनखुली-अधखुली बातों के नियंत्रित उद्घाटन पर निर्भर करती है। योगेंद्र की कथाभाषा आविष्ट और बिंबधर्मी है, तो व्यंग्य और इशारे राकेश की कथाभाषा की विशेषता हैं। योगेंद्र की कहानियों का बर्ताव गुरु-गंभीर है और एक तरह से वहां हंसने या मज़े लेने की मनाही है, वहीं राकेश के कथा-बर्ताव में अक्सर एक खिलंदड़ापन मिलता है जो कहानी पढ़ते हुए लगातार गंभीर बने रहने से आपको रोकता है। ग़रज़ कि दोनों दो तरह की कहानी-कला के प्रतिनिधि ठहरते हैं। पर इनमें एक गहरी समानता अपने समय के नये उद्विकासों के प्रति तीक्ष्ण संवेदनशीलता के रूप में दिखायी देती है। दोनों की कहानियां अपने समय के राजनीतिक खेलों, व्यवस्था की चालाकियों और उनके व्यापक प्रभावों की गहरी समझ का प्रमाण प्रस्तुत करती हैं। साथ ही, इन्हें स्थूल विवरणों में पेश करने से दोनों के यहां परहेज़ है। मानवीय संबंधों के सूक्ष्म तंतुओं का स्पर्श करने की सलाहियत भी दोनों के यहां अपने उत्कर्ष पर देखी जा सकती है। इसके साथ-साथ, अपनी-अपनी वजहों से दोनों की ज़्यादातर कहानियां एक पढ़त में पूरी ख़र्च नहीं होतीं और दुबारा पढ़ने का दबाव बनाती हैं। 

योगेंद्र आहूजा के नये संग्रह लफ़्फ़ाज़ और अन्य कहानियां में तीन लंबी कहानियां हैं और तीनों तीन तरह की हैं। ‘लफ़्फ़ाज़’ का केंद्रीय चरित्र लफ़्ज़ों से खेलने वाला एक पेशेवर ठग है जो अपनी बोली से लोगों का विश्वास और दिल जीतना जानता है। वह बाबरी मस्जिद गिराने वालों की तरफ़ से भी उत्तेजक भाषण दे सकता है और उसके तुरंत बाद सांप्रदायिकता-विरोधी मुहिम का हिस्सा बनकर दिलों को जोड़ने का आह्वान भी कर सकता है। बैंक मैनेजर का विश्वास जीतकर, ग़लत नाम और पते से, सार्वजनिक भलाई के बड़े कामों के लिए लोन ले लेना और फिर चंपत हो जाना, जवानी और जोश की दवाएं बेचने वाला हकीम बनकर कमाई करना—ये सब इस व्यक्तित्व की विशेषताएं हैं। प्रथम पुरुष वाचक एक लंबी समयावधि में उसके सारे धंधों और उसकी केंद्रीय दक्षता से परिचित होता जाता है। कहानी में उसका दिखना और छिपना चलता रहता है। अंततः लंबे अंतराल के बाद वाचक की तलाश ख़त्म होती है। लफ़्फ़ाज़ नाम के इस आदमी से उसकी वृद्धवस्था में उसके घर पर वाचक की मुलाक़ात होती है। वाचक बहुत व्यग्रता से इस दिन की प्रतीक्षा कर रहा था कि यह अवसर आये और उस शख्स से पूछा जाये कि क्या उसके अपने भी कुछ विश्वास हैं, कोई जीवन-दर्शन है? आख़िर वह है कौन? उसे सीधा और साफ़ उत्तर मिलता है, ‘एक लफ़्फ़ाज़, बस।’

लफ़्फ़ाज़’ जब आप पढ़ना शुरू करते हैं तो काफ़ी दूर तक यह व्यक्ति-वैचित्र्य की कहानी लगती है, पर धीरे-धीरे इसका विचित्र केंद्रीय चरित्र हमारे समय के प्रतिनिधि चरित्र के रूप में उभर आता है। यह इस कहानी की बड़ी विशेषता है और कथा का विस्तृत प्रक्रिया-पक्ष हमारे अंदर इस चरित्र की प्रातिनिधिकता के इसी अहसास को उभारने की साधना है। राजनीति से लेकर समाज और अर्थतंत्र तक जैसी वाग्मितापूर्ण ठगविद्या पसरी हुई है, लफ़्फ़ाज़ नाम का चरित्र गोया उसका सारकृत द्रव्य/कॉन्सेंट्रेट है जहां शब्दों की शानदार ठगी अपनी उच्चतम डिग्री में है। यह विस्तृत प्रक्रिया-पक्ष, जिसमें कई तरह के प्रसंग और विवरण हैं, अगर न होता तो विचित्र से प्रतिनिधि तक की यह यात्रा न हो पाती। किंचित आश्चर्यजनक है कि वैभव सिंह ने पल प्रतिपल के एक अंक में योगेंद्र आहूजा पर लिखते हुए इस कहानी में ‘बहुत सारे फ़ालतू विवरण और विस्तार’ की शिकायत की है जिन्हें ‘संपादित करके हटाया जा सकता था’। उन विवरणों को 'फ़ालतू' मानकर हटा देने का मतलब है, ऐसे अंशों को हटा देना जिनमें कहानी की जान बसी हुई है। ‘लफ़्फ़ाज़’ उन कहानियों में से है जिनकी जान प्रक्रिया-पक्ष में बसती है, परिणति-पक्ष में नहीं। बहरहाल, यह लंबी बहस का विषय है और इसे एक समीक्षा में निपटाने का मेरा कोई इरादा नहीं।

संग्रह की दूसरी कहानी ‘मनाना’ भी प्रेम, बचपन और हिंसा के सूक्ष्म अंकन तथा सिनेमैटिक प्रभाव उत्पन्न करने वाले वातावरण निर्माण के कारण असाधारण हैं। पर तीसरी कहानी ‘डॉग स्टोरी’ संभवतः संग्रह की सबसे दीर्घजीवी कहानी है। घोषित रूप से इस ‘बच्चों की कहानी’ पर थोड़े में कुछ भी कहना मुश्किल है, पर यह तो निस्संकोच कहा जा सकता है कि गली के एक कुत्ते को वाचक बनाकर वर्गीय समाज का और बुद्धिजीवियों-पत्रकारों के ख़िलाफ़ उभरी हत्यारी असहिष्णुता का जैसा प्रभावशाली चित्रण इस कहानी में हुआ है, वह दुर्लभ है। यह योगेंद्र की कहानियों में शायद सबसे सुगठित भी है, इस लिहाज से कि इसमें कथा का सघन प्रक्रिया-पक्ष उसे जिस परिणति तक ले जाता है, उसमें एक स्पष्ट उठान और क्लोज़र है जो पाठक को कहानी के मुक़म्मल होने का संतोष देता है। कहानी के अंत में बस्तियां जलाने वालों और जनपक्षधर बुद्धिजीवियों की हत्या करने वालों के ख़िलाफ़ कुत्ते अपने को तैयार करते हैं और एक फ़ैसलाकुन घड़ी के आगमन की सूचना के साथ कहानी ख़त्म होती है। यहां तक आते-आते गली के कुत्ते एक बहुत विराट, सजग सर्वहारा का प्रतीकार्थ भी ग्रहण कर लेते हैं जो कहानी को नयी ऊंचाई तक ले जाता है। कहानी के अंत से यह थोड़ा लंबा अंश देखा जा सकता है:

रात की सबसे खामोश घड़ी में, फ़ैक्ट्री के अहाते में पिघली हुई ईंटों, लक्कड़ पत्थर, छेने, हथौड़े और जाली हुई मशीनों के ढेर के बीच सोते हुए मुझे बहुत दूर एक जीप की आवाज़ सुनायी दी, क़रीब आती हुई। मैंने नींद में ही पहचान लिया, यह फिर वही अजाब था, वही जीप, वही तबाही का इरादा, वो ही साये, दस्ताने। पास आती आवाज़ ने बताया कि सिर्फ़ एक नहीं, बहुत सारी जीपें थीं, बहुत सारे कट्टे, मिट्टी के तेल के बहुत सारे कनस्तर। मैंने कुछ दूरी पर सो रहे सिकंदर की गर्दन पर हौले से अपने नाख़ून गड़ाकर उसे जगाया, कहा – वे आ गये।

थर्राते तारों और बहुत बारीक़ चांद के नीचे तमाम कुत्तों ने धीरे-धीरे आंखें खोलीं। हमारा ‘सेनापति’ सिकंदर एक-एक के पास जाकर उनके कान में कहता रहा – उठो प्यारे शेर, वक़्त आ गया। शायद कोई नींद में कुनमुनाया होगा, जिसे जगाने के लिए उसने अधीर होकर जो कहा, मैं दूर से सुनता रहा – जल्दी, दोस्त, इसलिए कि कभी-कभी थोड़ी देर का मतलब हो सकता है बहुत देर, हमेशा के लिए।  

 राकेश तिवारी के संग्रह चिट्टी ज़नानियां में मझोले आकार की दस कहानियां हैं। इनमें से ‘चिट्टी ज़नानियां’, ‘कीच’ और ‘मंगत की खोपड़ी में स्वप्न का विकास’ निस्संदेह यादगार कहानियां हैं। बाद की दोनों कहानियां बहुत तीखे ढंग से हमारे समय की घिनौनी राजनीति को सामने लाती हैं। ‘मंगत की खोपड़ी में स्वप्न का विकास’ शीर्षक में आया हुआ ‘विकास’, इस शब्द के साथ पिछले कुछ वर्षों में राष्ट्रीय स्तर पर जो मज़ाक़ हुआ है, उसकी ओर इशारा है। कहानी के मुख्य पात्र, फुटपाथ पर सिलाई मशीन लेकर बैठने वाले मंगत को एक दिन ब्रह्ममुहूर्त में कहीं पांच सौ का नोट पड़ा मिल जाता है। उसके चार दिन बाद कुछ ऐसा होता है जिससे उसके अंदर अपने उज्ज्वल भविष्य की ग़लतफ़हमी जन्म ले लेती है। एक सामाजिक कार्यकर्त्ता टाइप आदमी उससे मेहनताने के बारे में मोल-तोल करता हुआ उसके मुंह से ग़रीबी का हवाला सुनकर कहता है, ‘अबे काहे का ग़रीब? अब तुम्हारे दिन भी फिरने वाले हैं।’ फिर वह उसे ऐसा मंत्र पढ़ाता है कि उसके मन में ‘अच्छे दिन’ आने की अतार्किक बात जड़ें जमाने लगती है। उसे लगता है कि चार दिन पहले पांच सौ का नोट मिलना अच्छे समय के बयाना-पेशगी जैसा ही था। वाचक स्पष्ट शब्दों में यह बताता नहीं कि उसे उस ‘छुटभैये नेता या धार्मिक-सामाजिक कार्यकर्त्ता’ ने क्या पट्टी पढ़ायी थी, पर पाठक को समझने में कोई कठिनाई नहीं होती कि वह सपने दिखाने वाले अभी के निज़ाम की धोखेबाज़ भाषा ही बोल रहा होगा, जिसके झांसे में देश की जनता का एक बड़ा हिस्सा आ गया है। ‘बस यहीं से शुरुआत हुई थी विकास का सपना देखने वाले लोकतंत्र के एक निरीह नागरिक की खोपड़ी में स्वप्न के विकास की।’ आगे की घटनाएं बहुत मार्मिक तरीक़े से इस झांसे में आकर अपनी तर्कबुद्धि खो बैठने की त्रासदी को बयान करती हैं। हमारे समय के आम आदमी की पीड़ा मंगत और उसके परिवार की दुर्दशा के वर्णनों में साकार हो गयी हैं।

मौजूदा निज़ाम का ही एक दूसरा पक्ष, अभिव्यक्ति पर हमला करने और 'लव-जेहाद' के नाम पर उत्पात मचाने वाला फ़ासिस्ट चरित्र, ‘कीच’ कहानी में सामने आया है। पूरी कहानी इशारों में चलती है और उनसे ही हमारे समय का वह पूरा परिदृश्य उभर आता है जिसमें हिंसक ‘भक्तों’, बाबाओं और सांप्रदायिकता को भुनाने वाले नेताओं की कारस्तानियां लगातार जारी हैं। आलोचनात्मक सोच रखने वाले मुट्ठी भर लोग अलग-थलग पड़े हैं और उनका प्रतिनिधित्व करने वाला पात्र गुच्ची पागल समझा जाता है। इशारों में चलना इस कहानी की शक्ति भी है और सीमा भी। हो सकता है, पहली पढ़त में आपको कुछ दूर तक इसकी हवा ही न लगे कि कहानी में आख़िर चल क्या रहा है! पर एक बार ख़त्म करके दुबारा शुरुआत करने पर सभी संकेत अपनी गिरहें खोलने लगेंगे और आप कहानीकार के अंदाज़े-बयां पर वारी जायेंगे। अर्थ की पहली परत के लिए भी दुबारा पढ़े जाने की यह अपेक्षा कहानी में निहित होना अच्छी बात है या नहीं, इसके बारे में मैं किसी निर्णय पर नहीं पहुंच पाया हूं। अलबत्ता यह ज़रूर कहा जा सकता है कि सामान्यतः दूसरी पढ़त का प्रयोजन अर्थ की पहली परत से नीचे उतरना ही होना चाहिए।

यह बहुत दिलचस्प है कि राकेश तिवारी के यहां संवेदनशील, समझदार और आलोचनात्मक सोच रखने वाले तार्किक लोगों को आम आदमी की निगाह में पागल ठहराया जाना एक मोटिफ़ की तरह आता है। उनके उपन्यास फसक में प्रेम प्रकाश पंत और लाल बुझक्कड़ ऐसे ही पात्र हैं। समीक्ष्य संग्रह की कहानियों में ‘कीच’ के अलावा ‘चिट्टी ज़नानियां’और ‘ख़तरनाक’ में भी संवेदनशील और मानवीय गुणों से परिपूर्ण लोग दूसरों की निगाह में पागल हैं। गोया तार्किकता और संवेदनशीलता जैसे गुण, जो अच्छेपन की कसौटी हुआ करते थे, अब विचित्रता या ऐबनॉर्मैलिटी के लक्षण बन गये हैं। ‘चिट्टी ज़नानियां’ तो इस लिहाज़ से अद्भुत कहानी है, जिसमें मतलबी प्रकृति के प्रथम पुरुष वाचक को स्वार्थ से परे, पारिवारिक संबंधों के प्रति समर्पित चार स्त्रियां बिल्कुल समझ में नहीं आतीं और वह उन्हें असामान्य मानता रहता है। वाचक के चरित्र, और वह ज़मीन का ग्राहक बनकर जिन स्त्रियों के घर पहुंचा है, उनके चरित्र को आमने-सामने रखती यह कहानी अपनी मार्मिकता और बारीक़ी में असाधारण है।

कहने की ज़रूरत नहीं कि 2020 में छपे ये दोनों कहानी-संग्रह ऐसे हैं जिनकी ओर साहित्यिक समाज का ध्यान जाना चाहिए। गया भी है। पर ये शायद उससे अधिक के हक़दार हैं।

मो. 9818577833

 पुस्तक संदर्भ  

लफ़्फ़ाज़ और अन्य कहानियां, योगेंद्र आहूजा, आधार प्रकाशन, पंचकुला, 2020

चिट्टी ज़नानियां, राकेश तिवारी, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2020

 

 

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