काव्य चर्चा-1

कुछ कविता संग्रहों को पढ़ते हुए : कुछ नोट्स

राजेश जोशी

 1. कवि मन जनी मन: आदिवासी स्त्री कविताएं

यह समीक्षा नहीं है। कुछ कविता संग्रहों को पढ़ते हुए बने इम्प्रेशन्स हैं। वंदना टेटे ने आदिवासी स्त्री कविताओं का एक संकलन संपादित किया है -कवि मन: जनी मन। स्त्री के लिए 'जनी' शब्द मैंने अपनी नानी के मुंह से कभी सुना था। वे मालवा की थीं। शहरी भाषा में विस्मृत हो गये इस शब्द की स्मृति को वंदना ने पुनः जीवित कर दिया। इन कविताओं में ऐसे दर्जनों शब्द हैं , जैसे  टोनही नरेटी, टोकी, पियार, पिठोर, खुखड़ी, रूगड़ा,कांदो आदि जो हिंदी कविता में कहीं नहीं सुनायी या दिखायी देंगे। आदिवासी कविता ने हमारी भाषा को ही नये शब्द नहीं दिये हैं, उसने शहर और गांव तक सीमित हमारे भूगोल को जंगलों तक विस्तृत कर दिया है। डॉ. रोज केरकेट्टा की कविता ‘पत्थलगढ़ी’ हिंदी कविता के लिए बिल्कुल नया अनुभव है। उसकी मार्मिक पंक्तियां हैं : 'भाई मेरे तुमसे अपील करता / बहन से भी निवेदन करता / कभी किसी दिन माघ महीने में / कर देना पत्थलगड़ी / याद कर भाई को।' हिंदी कविता में बहुत सारे नये अनुभव इन कविताओं से जुड़ रहे हैं।    

कवि मन जनी मन आदिवासी स्त्री कविताओं का पहला संग्रह है। वंदना टेटे ने अपनी भूमिका में लिखा है कि इससे पहले आदिवासी स्त्री कवियों का कोई साझा संकलन प्रकाशित नहीं हुआ । इसमें बारह स्त्री कवियों यथा सुषमा असुर, डॉ. रोज केरकेट्टा, ग्रेस कुजूर, प्यारी टूटी, डॉ. फ्रांसिस्का कुजूर, उज्ज्वला ज्योति तिग्गा, डॉ. दमयन्ती सिंकु, डॉ. शांति खलखो, यशोदा मुर्मू, ज्योति लकड़ा, जसिंता केरकेट्टा और वंदना टेटे की कविताएं, उनके परिचय के साथ संकलित की गयी हैं। वंदना टेटे ने भूमिका में लिखा है कि आदिवासी स्त्री का चिंतन केंद्र स्व, समुदाय और सामुदायिकता के साथ ही प्रतिध्वनित होता रहा है। इसलिए इस संग्रह को ‘नारीवाद’ की प्रस्तावना या अभिव्यक्ति मान लेना किसी भी रूप में उचित नहीं होगा। यह संकलन महज़ आदिवासी स्त्रियों को एक साथ पढ़ने-सुनने के लिए है। वंदना टेटे का मत है कि आदिवासी जनी मन का धरातल बिल्कुल दूसरी तरह का है। आदिवासियत के दर्शन पर खड़ा सम भाव ही उसकी मूल प्रकृति है। सामाजिक सत्ता द्वारा थोपा गया कोई दूसरा नक़ली भेद नहीं है। वंदना ने लिखा है कि सामंती क्रूरता और धार्मिक आडंबरों के क़िले में आदिवासी स्त्री बिल्कुल क़ैद नहीं है। आदिवासी समाज में पुरुष सत्ता नहीं होने से स़्त्रीवाद भी नहीं है। वंदना का मत है कि कहीं-कहीं कविता में पुरुष उत्पीड़न के दृश्य मिलते हैं, तो उसकी वजह ‘सभ्यता’ नामक बीमारी है, आदिवासी दर्शन और संस्कृति नहीं। ‘सभ्यता’ से संपर्क से पहले पुरुष सत्ता जैसी कोई अवधारणा आदिवासियों की सामाजिक व्यवस्था में हमें नहीं मिलती। यह बात यशोदा मुर्मू भी मानती हैं कि जो स्त्रीपन कविताओं में आया है, वह निस्संदेह ग़ैरआदिवासी समाज के प्रभाव से सामने आया है। ज्योति लकड़ा ने भी इसे बाहरी प्रभाव माना है। लेकिन चाहे ज्योति लकड़ा की ‘तुम्हारा डर’ या ‘टोनही’ जैसी कविताएं हों या यशोदा मुर्मू की ‘स्वाधीन भारत में है कहां नारी का स्थान’ कविता हो, स्वयं वंदना टेटे की ‘तुम कौन हो?  जैसी कविता हो,  इन सबमें कहीं न कहीं स्त्री के उत्पीड़न की निशानदेही की जा सकती है। लेकिन फिर भी मराठी कवि भुजंग मेश्राम का वह मत मायने रखता है कि आदिवासी समाज की संरचना अलग तरह की है, अतः उसको दलित विमर्श से अलग करके देखा जाना चाहिए।

इन बारह स्त्री-कवियों की कविताएं पढ़ते हुए लगता है कि आदिवासी स्त्री-कविता के केंद्र में प्रकृति, जातीय संस्कृति और अलग अलग समुदायों की भाषा को बचाने की चिंता प्रमुख है। साथ ही, यह कविता विकास की अवधारणा और योजनाओं के कार्यान्वयन में हो रहे भेदभाव पर भी लगातार सवाल उठाती है। आदिवासी स्त्री-कविता सिर्फ़ विचार के स्तर पर ही काम नहीं कर रही है । ज़्यादातर कवि हिंदी के अलावा अपनी भाषा में अध्ययन भी कर रही हैं और उसमें लिख भी रही हैं । कई कवि एक्टिविस्ट हैं और जनआंदोलनों से जुड़ी हैं। संस्कृति के सवाल तो लगभग सभी स्त्री कवियों ने अपने अपने स्तर पर उठाये ही हैं। ये सारे सवाल एक दूसरे से जुड़े हैं। भाषा का सवाल संस्कृति का सवाल भी है :

जाकर बताओ सबों को / कुड़ुख है मेरी मातृभाषा।

इसी कविता में डॉ. फ्रांसिस्का कुजूर आगे कहती हैं:

भाषा है समाज का मेरुदंड

बचाता है जो समाज की संस्कृति 

बचाता है जो अपनों की पहचान 

समझो सभी कुड़ुख भाई बहनो !

भाषा के इस गूढ़ रहस्य को 

भाषा गयी ,पहचान गयी, अस्मिता गयी

इसी तरह सुषमा असुर कहती हैं कि 'पहाड़ का घर खतम हो रहा है। भाषा भी नहीं रहेगी तो / गीतों का मेला कहां लगेगा।' पहाड़ और भाषा के ख़त्म होने की चिंता विकास की प्रक्रियाओं पर भी सवाल उठाती है। इसी कविता में आगे सुषमा कहती हैं कि 'हमने बनाया था लोहा / अब उसी लोहे से कंपनी वाले / धरती कोड़ कोड़ लहू बहा रहे हैं / उसी लोहे से मार रहे हैं / रो रहे हैं असुर सारे।'      

उज्ज्वला ज्योति तिग्गा की कविता ‘शिकारी दल अब आते हैं’ की पंक्तियां हैं :

विकास के नये माडल्स के रूप में 

दिखाते हैं सब्ज़ बाग़

कि कैसे पुराने जर्जर जंगल 

का भी हो सकता है कायाकल्प

कि एक कोने में पड़े

सुनसान उपेक्षित जंगल भी

बन सकते हैं

विश्वस्तरीय वन्य उद्यान 

जहां पर होगी 

विश्वस्तरीय सुविधाओं की टीमटाम 

और रहेगी विदेशी पर्यटकों की रेल-पेल 

और कैसे घर बैठे खायेंगी

शेर-हाथी और भालू की 

अनगिन पुश्तें।

आदिवासी स्त्री-कविता में विकास के मॉडल को लेकर बार बार सवाल उठाये गये हैं । इसी मॉडल ने उन्हें उनकी ही ज़मीन से विस्थापित कर डाला है। डॉ. शांति खलखो की एक दिलचस्प कविता है, ‘वैश्वीकरण’ । कुछ पंक्तियां दृष्टव्य हैं :

हमारे बीच में घुस गया है ये ‘करण’ 

औद्योगीकरण, शहरीकरण,  संस्कृतीकरण,

इन सबसे हम हैं परेशान

इससे निकलना नहीं है आसान 

बहुत बड़े बड़े हैं ये ‘करण’

बाज़ारीकरण,  उदारीकरण,  वैश्वीकरण

ये 'करण' हमें निगल रहा 

तन मन को पूरा ही लील रहा।

जसिंता केरकेट्टा की कविता एक जिरह करती कविता है । विकास के मॉडल और विस्थापन के सवाल पर जसिंता की अनेक चर्चित कविताएं हैं। 'पहाड़ों पर उगे असंख्य बांसों का रहस्य' में एक तरह की फ़ैंटेसी भी है और नाटकीयता भी। इसमें प्रतिरोध को, बल्कि कहना चाहिए कि सीधे संघर्ष को सुना जा सकता है।

मैं कुरूआ में सो रहा था 

अचानक ज़मीन हिलने लगी 

देखा ज़मीन का एक टुकड़ा 

जेसीबी मशीन के पंजों पर था

अपनी ज़मीन के टुकड़े के साथ

मैं भी लटका था मशीन पर

तब महसूस हुआ मुझे 

अपनी ज़मीन सहित उखड़ जाने का दर्द।

इसी कविता के अंत में वाचिका कहती है कि 'इस बार बांस बाज़ार नहीं जायेंगे / वे हाथों में तीर धनुष बनेंगे।' और इसी से उसे पहाड़ों पर उगे असंख्य बांसों का रहस्य समझ में आता है। ग्रेस कुजूर भी अपनी कविता – ‘एक और जनी-शिकार’ में भी इसी तरह के सीधे संघर्ष की बात कहती है : 'मैं बनूंगी एक बार और / सिनगी दई / बांधूंगी फेंटा /और कसेगी फिर से / बेतरा की गांठ / और होगा / झारखंड में / फिर एक बार / एक जबरदस्त जनी-शिकार।'  वंदना टेंटे ने अपनी कविता, 'पके धान के खेतों से दूर' में सलवा जुड़ूम के डर का सवाल भी उठाया है। उन्हें उम्मीद है कि यह डर दूर होगा और फिर से घोटुल में हंसी गूंजेगी।

कहना न होगा कि आदिवासी विमर्श एक स्तर पर आदिवासी समाज के विकास के मॉडल का विमर्श भी है । वंदना टेटे को इसीलिए यह चिंता भी है कि 'नहीं जान पायेंगे मेरे बच्चे / बारिश से पहले क्यों चीटियां / अपने अंडे लिये भागती हैं।'            

2. लछमनिया का चूल्हा

विश्वासी एक्का का यह पहला कविता संग्रह है । एक्का ने लिखा है कि 'संग्रह का यह नाम रखने की प्रेरणा उनको गांव में चूल्हा फूंकती स्त्रियों से मिली। कभी कभी एक पंक्ति, एक बिंब या एक आब्ज़र्वेशन बता देता है कि कवि कहां से देख रहा है, क्या देख रहा है और उसके देखने का दृष्टिकोण क्या है।' वंदना टेटे ने एक्का की कविताओं की भूमिका में यह सवाल उठाया है कि 'कविता के बारे में पूरी परंपरा की और रामचंद्र शुक्ल की जो समझ है, आदिवासी कविता की समझ उससे अलग है। क्योंकि आदिवासी समाज का तो पूरा जीवन ही काव्यात्मक है।' वंदना टेटे का मत है कि 'कविता सिर्फ़ रस की अनुभूति, सुंदरता का अर्थ बताने और मात्र मनुष्य के रागात्मक संबंध की रक्षा के लिए नहीं होती।’ वह असल में सुंदरता और असुंदरता की परिधि से बाहर समूची सृष्टि की अभिव्यक्ति होती है । वंदना को लगता है कि हम सिर्फ़ मनुष्यों की भाषा जानते हैं, इसलिए सृष्टि के अन्य तत्वों की कविता को नहीं समझ पाते। उनको लगता है कि आदिवासी समाज और ग़ैरआदिवासी समाज में कविता की समझ को लेकर यही मूल अंतर है। आदिवासी कविता वस्तुतः कठिन और जटिल जीवन संघर्षों की कविता है । यहां उसे लगातार भूख से,  कॉरपोरेट कंपनियों से, फ़ौजी संगीनों से और सलवा जुडूम जैसे सरकार द्वारा प्रायोजित हिंसक समूहों से हर पल संघर्ष करना पड़ रहा है। कॉरपोरेट घराने फ़ौजों और सलवा जुडूम जैसे पालतू हिंसक समूहों के द्वारा आदिवासियों को लगातार उनके जल, जंगल और ज़मीन से बेदख़ल करने में जुटे हैं। इन उत्पीड़नों और संघर्षों के दृश्य पूरी आदिवासी कविता में देखे जा सकते हैं।

विश्वासी एक्का की कविता में अक्सर एक प्रच्छन्न सी छोटी कहानी मौजूद होती है। एक दृश्य मौजूद होता है। उसमें पात्र अपने नाम के साथ दाख़िल होते हैं। संज्ञाओं की ऐसी उपस्थिति शहरी कविता में अक्सर नहीं होती और अगर होती है तो वहां पात्र का नाम किसी नाटकीय प्रयोजन को पूरा कर रहा होता है। एक्का की कविता में पात्र सहज ही अपने नाम के साथ आता है , अपने सारे सुख दुख के साथ। सुखमतिया का सुख है, तो उसका दुख भी है। उसकी गठरी में, 'भुना चना, उबला हुआ सरई/ और इमली बीज मिला / मीठा महुआ / और ढोंसा रोटी' है तो इस गठरी के बोझ से सुखमतिया की कमर झुक जाने का दुख भी है। 'भूख' कविता में भूख की भयावह तस्वीर है, पर बिना किसी बलाघात के या बिना किसी अतिशयोक्ति और शोर के। भयावहता को किसी अतिशयोक्ति की ज़रूरत नहीं होती। इस बरजोर भूख में - 'लोग भूखे, गाय बैल भूखे, शेर भूखा।' शेर दहाड़ता है। मिट्टी के घरों के आसपास चक्कर काटता है। इससे परिवार के लोग तो भयभीत हैं ही लेकिन, भूख से बेहाल होकर बाड़ा तोड़ कर बारहासिंघा भी बाहर निकल आया है। और इसी भयावह दृश्य में बुधना बाहर निकल कर शेर का अधखाया शिकार उठा लाता है। सतझरी यानी सप्ताह भर चलती बारिश रुक गयी है । बुधना स्वयं गुमसुम है लेकिन आसपास जिसने भी इस घटना के बारे में सुना, वह कहता है कि बुधना बड़ा बहादुर है। इस भयावह और क्रूर विडंबना को एक्का कितने सहज ढंग से लगभग एक छोटी सी कथा की तरह अपनी कविता में कह देते हैं। एक्का की कविता वस्तुतः आदिवासी समाज की विडंबनाओं की कविता है। उसमें सहजता है। उसके आब्ज़र्वेशन कई बार अचंभित कर देते हैं। 'बया का घोसला', 'गोंदना', 'ज़हर और ज़हरीली हवा' जैसी कविताओं में विडंबनाओं को पकड़ने की एक्का की क्षमताओं को देखा जा सकता है। बचाना है आदिवासियों को’ में व्यंग्य की कचोट को महसूस किया जा सकता है:

आदिवासी न होते

तो कैसे होता स्वागत

नेताओं का

कौन बजाता तालियां भीड़ बढ़ाकर 

कौन करता करमा और शैला नृत्य। 

इसके साथ ही इन आदिवासियों का हमारे शहरी और तथाकथित सभ्य समाज के लिए और क्या क्या उपयोग हैं, वे भी एक्का ने गिना दिये हैं। एक तो इन्हें खूबसूरत पेंटिंग में बदला जाता है। इन पर शोध होते हैं। इनके विकास की और इनके संरक्षण और संवर्धन की बातें होती हैं। लेकिन विडंबना यह है कि दस बरस बाद जब जनगणना होती है, तो इनकी जनसंख्या कम हो जाती है। इन बहुतेरी योजनाओं के लिए आदिवासियों को बचाकर रखना ज़रूरी है।

यह बहुत छोटा सा संग्रह अपने में बहुत कुछ समेटे है। इसको पढ़ते हुए हम सिर्फ़ आदिवासी समाज की समस्याओं, सुख-दुख और विडंबनाओं को ही नहीं जानते हैं, इससे हमारे तथाकथित सभ्य समाज के चरित्र की भी कलई उतरती है।

 जड़ों की ज़मीन 

जड़ों की ज़मीन जसिंता केरकेट्टा की कविताओं का दूसरा संग्रह है, जो अपनी कविताओं के अंग्रेज़ी अनुवाद के साथ प्रकाशित हुआ है। इसके प्राक्कथन में जसिंता ने अपनी मां के बारे में लिखा है कि उन्होंने अपना गांव कभी इसलिए नहीं छोड़ा क्योंकि अपने गांव की ज़मीन से उनका स्वाभिमान जुड़ा है। और इसमें वृहद् आदिवासी समाज की जल-जंगल-ज़मीन-ज़मीर और ज़ुबान के संघर्ष का सार दिखता है मुझे। यानी यह संघर्ष सिर्फ़ जल, जंगल और ज़मीन तक नहीं, बल्कि ज़मीर और ज़ुबान का संघर्ष भी है। गांव और शहर के बीच के संबंध और द्वंद्व को तलाशने और रेखांकित करने की कोशिश इस पूरे संग्रह में दिखायी देती है। अपने इस संग्रह के बारे में जसिंता ने लिखा है कि 'जंगल, फूल, नदी, पहाड़, स्त्री, गांव, शहर सबसे जुड़ी संवेदनाओं का संग्रह मैं अपने इस संग्रह को मानती हूं।' यह सही है कि प्रकृति की उपस्थिति लगातार जसिंता की कविता में बनी रहती है लेकिन इस संग्रह के केंद्र में शहर की बेचैनी मौजूद है। शहर को लेकर ‘यहीं कहीं इसी शहर में’, ‘ शहर और गाय’, ‘शहर की नसों में’, ‘शहर की नाक’, ‘शहर की बेचैनी’ जैसी कविताएं तो हैं ही, साथ ही अन्य कई कविताओं में भी शहर किसी न किसी रूप में मौजूद है : 

आधी रात की बेचैनी में

पसीने से भीगा यह शहर 

उठेगा एक दिन

और मांगने लगेगा तुमसे 

अपना सुकून

अपना पहाड़

अपना असली चेहरा।

शहर से संवाद करती यह कविता मुझे लगता है कि इस संग्रह की केंद्रीय थीम है। जसिंता को महसूस होता है कि शहर का वर्तमान चेहरा उसका वास्तविक चेहरा नहीं है। कम से कम वह चेहरा नहीं है जो शहर का होना चाहिए। इसलिए उसको लगता है कि एक दिन ऐसा आयेगा जब यह शहर सारे दरवाज़ों को तोड़कर, अपने असली चेहरे की तलाश में यात्रा पर निकल जायेगा। जब तुम उससे यह सवाल करोगे कि वह तुम्हें छोड़ कर क्यों जा रहा है, तो वह पलटकर तुमसे पूछेगा:

लाखों आविष्कार किये तुमने 

पर तुम्हारी कोख से

क्यों जन्म नहीं लेता

कोई बुद्ध, कोई बिरसा मुंडा ?

तुम दलील दोगे 

आख़िर आदमी को सभ्य किसने बनाया? 

वह कहेगा 

'एक पेड़ किसी आदमी को

बुद्ध बना सकता है 

कोई जंगल 

किसी को बिरसा मुंडा 

तो फिर तुम्हारी ज़रूरत क्या है ?

यह सिर्फ़ शहर के वर्तमान स्वरूप पर ही उठाया गया सवाल नहीं है। यह सभ्यता के वर्तमान स्वरूप पर भी उठाया गया सवाल है। एक स्तर पर सभ्यता समीक्षा। कविता में यह चिंता भी है कि ऐसे ही शहर लगातार बनाये जायेंगे जिनमें हर स्तर पर बहुलता को नष्ट करके एकसापन स्थापित कर दिया जाये।

एक कुनबा निकल पड़ता है

फिर कोई नया शहर तैयार करने की कवायद पर 

जिन पर थोपी जा सके

ऐसी विरासतों को संभालने की ज़िम्मेदारी

या फिर कोई ऐसी कोख ढूंढने का जतन 

जो एक ही चेहरा 

एक ही विचार

एक ही व्यवहार वाले बच्चों को 

पैदा करने को अभिशप्त हो।

यह जैसे हमारी पूरी शहरी सभ्यता पर की गयी टिप्पणी है जो प्रकृति की और संस्कृति की बहुलता को नष्ट करके एकसापन थोपने की कोशिश में लगी है। तानाशाही इसकी कोख में मौजूद है। जसिंता की कविता की एक बड़ी खूबी यह है कि वह सिर्फ़ विक्टिम या उत्पीड़ित व्यक्ति की कविता नहीं है, वह एक लड़ते हुए आदमी की, एक जुझारू समाज की कविता है । इसलिए उसमें हर मुद्दे पर लगातार चलती जिरह भी है और लड़ने वाले समाज के दृश्य भी ।

 जसिन्ता की एक छोटी-सी कविता, ‘खिड़की’ उसके अपने स्वभाव और दृष्टि को भी स्पष्ट कर देती है। कविता की अंतिम पंक्तियां हैं :

यह खिड़की सिखाती है मुझे

अंदर रहते हुए

कैसे देखा जाता है बाहर।  

यह कविता अंदर को छोड़ कर बाहर निकल जाने की नहीं, बल्कि अंदर रहते हुए बाहर को देखने की कविता है। जहां हर तरह के अन्याय के ख़िलाफ़ सब एक साथ निकल पड़ते हैं।

 मो. 9424579277

पुस्तक संदर्भ

1. कवि मन: जनी मन : आदिवासी स्त्री कविताएं  : सं. वंदना टेटे,  राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2019

2. लछमनिया का चूल्हा : विश्वासी एक्का,प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन, रांची, 2018

3. जड़ों की ज़मीन : जसिन्ता केरकेट्टा, भारतीय ज्ञानपीठ. नयी दिल्ली, 2018

 

 

 

 

 

 

 

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