उपन्यास चर्चा-1

 न्यायतंत्र में उलटबांसी दिखानेवाले दो उपन्यास

रवींद्र त्रिपाठी

 (दो ताज़ा उपन्यासों की चर्चा पर केंद्रित यह आलेख समकालीन भारत में न्याय व्यवस्था से जुड़ी कुछ अंतर्दृष्टियों को सामने लाता है। इसमें दो स्वतंत्र से लगनेवाले आलेखों को एक साथ मिलाया गया है। कुछ इस तरह कि दोनों की स्वायत्तता भी बची रहे और उनमें निहित विषयगत साम्य भी दिखे - लेखक।) 

 

 कभी कभी ऐसा  होता है कि किसी उपन्यास को पढ़ना रोचक होता है, लेकिन जैसे ही आप उसका मूल्यांकन करने बैठें, कठिनाई आ जाती है। रोचक और सरल-सी लगनेवाली रचना अचानक अर्थ के स्तर पर जटिल हो जाती है। `आख़िर इसे  कैसे समझें?’- यह सवाल सामने आ जाता है । राजू शर्मा के उपन्यास, क़त्ल ग़ैरइरादतन के साथ भी यही होता है । प्रथम दृष्टया तो लगता है कि यह उपन्यास एक अपराध-कथा है और सटीक रूप से कहें, तो एक हत्या-कथा, लेकिन जैसे जैसे इसकी कहानी आगे बढ़ती है वैसे-वैसे पाठक को लगता है कि वह एक ऐसे इंद्रजालिक भवन में आ गया है जिसके मुख्य द्वार पर जो नेमप्लेट लगी है  वह कुछ संकेत कर रही है, मगर भीतर के दृश्य कुछ अलग हैं। दूसरे शब्दों मे कहें तो यहां ऐसी अपराध कथा है जिसमें अपराध करने वाला तो शरीफ़ बदमाश लगने लगता है और न्याय करनेवाली संस्थाएं खलनायक की तरह हो जाती हैं। खलनायक भी ऐसा जो ऊपरी तौर पर पवित्र की मानिंद है लेकिन उसका अंतर विकृतियों से भर गया है। आप कहेंगे यह तो उलटबांसी है।  किंतु यह उलटबांसी है तो भी क्या हर्ज़ है? क्या मात्र कबीर या नाथपंथी योगी ही उलटबांसी रचते थे? हमारे समय में भी तो उलटबांसी रचनेवाले हैं।

  यह उपन्यास यही प्रतीति कराता है कि  फ़िलहाल जो भारतीय तंत्र है उसके यथार्थ को उलटबांसी ही सामने लाती  है। जिसे आप न्याय की प्रतिमूर्ति (या न्यायमूर्ति)) समझते हैं वही सबसे बड़ा अन्यायी है और जो विकास करने का दावा कर रहा है वही विनाश पुरुष है। नाथपंथी योगियों और कबीर की उलटबांसियों को अभी तक काव्यशैली समझा गया है। कम से कम विश्वविद्यालयों में ऐसे ही उनकी व्याख्या की गयी है, लेकिन उन्होंने जो बयान किया वह सिर्फ़ काव्यसत्य नहीं था। वह एक युगसत्य भी था। सार्वयुगीन युगसत्य। उलबांसियों का युगसत्य उनके रचनाओं के पूर्व भी मौजूद था, रचनाकाल के दौरान भी था और आज भी है। बस कबीर और नाथपंथियों ने उसे व्यक्त करने की एक काव्यात्मक शैली ईजाद की। क़त्ल ग़ैरइरादतन हमारे उलटबांसीमय वर्तमान को प्रतिबिंबित करता है।

अब ज़रा उपन्यास की तरफ़ लौटें।

क्या ऐसा हो सकता है कि अपराध कोई करे और सज़ा किसी और को मिले? या बेगुनाह ही अपराधी करार दिया जाये? या ऐसा होने की आशंका हो? होना तो नहीं चाहिए। क्योंकि चाहे कैसा भी न्यायतंत्र हो निर्दोष को सज़ा नहीं होगी; भले ही दस गुनाहगार छूट जायें। यही माना जाता रहा है। आख़िर हर देश में न्यायतंत्र कुछ मूल्यों पर आधारित होता है। एक संविधान होता है जो सैद्धांतिक स्तर पर यह सुनिश्चित करता है कि अन्याय न हो। पर क्या व्यावहारिक स्तर पर यह संभव हो पाता है? आज भारत ही नहीं दुनिया के कई देशों में न्यायतंत्र की धज्जियां उड़ रही हैं। जिन संस्थाओं पर यह दायित्व था (और कहने को अभी भी है) कि उनका व्यवहार भी ऐसा हो रहा है जैसे वे इंसाफ़ के आवरण में बेइंसाफ़ी करने पर तुली हैं। विधायिका, कार्यपालिका और न्याय पालिका- जिन पर आधुनिक राष्ट्र का ढांचा टिका माना जाता है, न सिर्फ भ्रष्ट और पथच्युत हो गयी हैं बल्कि अन्यायी ताक़तों की सहयोगी बन गयी हैं। आज कोई जन प्रतिनिधि इसलिए नहीं बनता है कि जनता के हितों की देखभाल करेगा (या करेगी) बल्कि निहित स्वार्थों के सिंडिकेट में शामिल हो जाये इसलिए जन प्रतिनिधि चुना जाना चाहता है। राजनीतिक दल भी धीरे धीरे और कमोबेश कॉरपोरेट की तरह हो गये हैं जो किसी अन्य कॉरपोरेट की मदद भी करते हैं और उनसे उनकी प्रतिद्वंद्विता भी होती है।

और न्यायपालिका और कार्यपालिका की तो मत ही पूछिए। वे भी राजनीतिक आक़ाओं को संतुष्ट करने में लगी हैं। कहने को न्यायपालिका स्वंतंत्र है लेकिन कितनी? आम जन इसे रोज़ ही महसूस कर रहा है। राजू शर्मा का उपन्यास, क़त्ल ग़ैरइरादतन भारतीय नौकरशाही और न्यायपालिका  में आयी और बढ़ती जा रही  गिरावटों को साफ़ साफ़ लक्षित करता है। ज़िला स्तर पर नौकरशाही किस तरह दबावों, लालच और भ्रष्टाचार में आकंठ डूबती जा रही है और सरकारी अधिकारी धीरे धीरे क्रमश: दलाल के रूप में परिवर्तित होते जा रहे है – इसको यह रचना बड़ी गहराई से दिखाती है। और ऐसा भी नहीं है कि अधिकारी जान बूझकर ऐसा कर रहे हैं। उनके ऊपर दबाव भी ऐसे हैं कि फ़र्ज़ी चीज़ें करने को विवश होना पड़ता है ताकि नौकरी चलती रहे। एक दबाव तो ऊपरी सत्ता का होता है जो नौकरशाही के सामने ऐसे ऐसे लक्ष्य रखती है कि वह आंकड़ेबाज़ी का खेल करके ही अपने को राज्य सत्ता के सामने कुशल और सक्षम साबित कर सकती है। अगर सरकार विकास करने का दावा करती है तो अधिकारी यही दिखाने में जी जान लगा देता है कि `विकास हो गया’ या `घर घर पहुंच’ गया। 

  दूसरा दबाव राजनीतिक होता है। यानी जिस पार्टी की राज्य सत्ता है उसके सामने झुककर और उसके आगोश में पड़कर ही अधिकारी अपने को सुरक्षित समझता है। और एक बार जब वह अपने को सुरक्षित महसूस करने लगता है तो उसकी अपनी लिप्साएं बढ़ जाती हैं और वह धीरे धीरे खुद अपना एक स्वार्थयुक्त तंत्र विकसित कर लेता है या ऐसा करने की कोशिश करता है।

राजू शर्मा, जो खुद भारतीय प्रशासनिक सेवा में रहे हैं, नौकराशाही के तंत्र को बखूबी जानते हैं। इस उपन्यास में  वर्तमान भारतीय नौकरशाही के उस ढांचे को सामने लाया गया है जो भीतर से नैतिक स्तर पर घटिया और स्खलित हो गया है। इसमे केंद्रीय पात्र सदाकांत अनुकूल शास्त्री है, जिसे उपन्यास में मुख्य रूप से कांत कहा गया है, हालांकि उसकी पत्नी पायल उसे कुछ प्यार से और कुछ व्यंग्य से सैडी कहती है। अब भला सैडी भी अपनी पत्नी को एक प्यार भरा नाम क्यों नहीं देगा?  सो वह उसे जोई कहके बुलाता है। कांत का एक दोस्त है जो सरकारी अधिकारी भी है। नाम है मुकुंद, जिसे कांत मिकी नाम से संबोधित करता है। मिकी एक बेहद धूर्त, कुटिल और भ्रष्ट अधिकारी है। वह अपनी पत्नी अपेक्षा के नाम से एक एनजीओ भी शुरू कर देता है और कांत को बताये बिना या उसके धोखे में रखकर उसके माध्यम से सरकारी ग्रांट भी हड़प लेता है।

वैसे तो कांत एक ईमानदार अधिकारी है। पर क्या वह भी आख़िर तक एकदम निष्कलुष रह पाता है?  वह सीधे सीधे भ्रष्टाचार तो नहीं करता लेकिन अनजाने या असावधानी से उससे एक क़त्ल हो जाता है। जारा अफ़रोज़ नाम की छोटे स्तर की सरकारी कर्मचारी का। और इस हत्या के शक में पकड़ा जाता है मिकी। हालांकि मिकी भ्रष्ट है लेकिन यह क़त्ल उसने नहीं किया है। क्या कांत उसकी मदद करेगा? आख़िर जारा की मृत्यु तो उसके हाथों हुई है? लेकिन नहीं। कांत मिकी की मदद नहीं करता बल्कि तरक्क़ी पाकर राज्य की राजधानी में चला जाता है।

वैसे तो कांत उस तरह का भ्रष्ट नहीं है जैसा मिकी है लेकिन वह नौकरशाही मे सीढ़ियां चढ़ते चढ़ते आख़िरकार नैतिक स्खलन का शिकार हो जाता है और उन वत्स जी की कोई मदद नहीं पर पाता जो दलितों, आदिवासियों और समाज के कमज़ोर तबक़ों के लिए संघर्षरत हैं और गिरफ़्तार होकर जेल की हवा खा रहे हैं। उनको ज़मानत भी नहीं मिलती। वह कैलाश जी नाम के उस शख़्स के आगे पीछे डोलता रहता है जो हिंदूवादी संघी है और पाखंडी भी। हालांकि वह क्रमश: कैलाश से दूर होता जाता है लेकिन वत्स जी से भी पूरी तरह जुड़ नहीं पाता जिनको वह अपना आदर्श मानता है। क्यों? इसलिए कि कैरियर प्यारा है।

यह उपन्यास  यह भी दिखाता है कि हमारी पूरी राज्य व्यवस्था ऐसी होती जा रही है जिसमें इंसाफ़ नाम की चीज़ धीरे धीरे नेपथ्य में जा रही है। हक़ मांगनेवाली संस्थाओं और उनसे जुड़े लोगों को अवमूल्यित और बदनाम किया जाता है। ऐसा प्रचारित कराया जाता है कि वही असली गुनहगार हैं, अपराध उन्होंने किये हैं। वत्स जी को न्यायालय भी क़सूरवार की तरह देखता है। क्या यह सब वर्तमान भारतीय न्यायवस्था  भी नहीं कर रही है?

क़त्ल ग़ैरइरादतन में इन सबको लेकर एक गहरा मंथन है। इसके पात्रों के मन में उपन्यासकार जिस तरह प्रवेश करता है, उनके धूर्त व चालाक मनोभावों को प्रकट करता है वह पाठक को कई स्थलों पर ठहरा देता है। इसलिए कि वे ठंडे होकर इनको समझ सकें कि मनुष्य-मन के कितने स्तर हैं। उपन्यासकार ने कबीर की उलटबासियों के अलावा नामदेव ढसाल और बर्टोल्ट ब्रेष्ट की कविताओं का प्रयोग किया है ताकि यह रचना सिर्फ़ यथार्थवादी न रह जाये और एक काव्यानुभूति भी बन जाये।

यह एक राजनीतिक उपन्यास है जो अपराध कथा के लबादे में ढंका हुआ है।

 वैधानिक में प्रवेश करता अवैधानिक

 चंदन पांडे का उपन्यास, वैधानिक गल्प, आज के भारत के उस पहलू को सामने लाता है जिसमें वैधानिक और अवैधानिक यानी क़ानूनी और ग़ैरक़ानूनी के बीच का फ़र्क़ मिटता जा रहा है। दूसरे शब्दों में कहें तो ग़ैरक़ानूनी को क़ानूनी जामा पहनाया जा रहा है। और ऐसा होने में वैधानिक संस्थाओं - ख़ासकर पुलिस – का भी इस्तेमाल हो रहा है और मीडिया- अख़बार एवं टीवी चैनलों- की भी इसमें सक्रिय साझेदारी है। इस कारण भारत में नागरिकता की अवधारणा पर भी लगातार प्रहार किये जा रहे हैं। भारतीय नागरिक की पहचान उसकी जाति या मज़हब से किये  जाने पर बल बढ़ रहा है। हालांकि ऐसा नहीं था कि यह सब पहले नहीं था। लंबे समय तक भारतीय समाज में व्यक्ति की पहचान इस बात से होती रही कि वह किस जाति या धर्म का है। लेकिन जब आज़ादी की लड़ाई के दौरान जाति-मज़हब मुक्त भारतीयता की अवधारणा विकसित हुई और स्वतंत्रता के बाद जब भारत में संविधान लागू हुआ तो सभी भारतवासियों को भारतीय होने की औपचारिक पहचान मिली। हालांकि व्यवहार के स्तर पर पहचान की पुरानी रिवायतें भी क़ायम रहीं लेकिन क़ानूनी स्तर पर नहीं।

लेकिन राजनीतिक दलों के बीच बढ़ती सत्ता की लड़ाई की वजह से पुरानी पहचानों पर फिर से ज़ोर बढ़ रहा है। अब तो राम बनाम परशुराम की बात भी सामने आ रही है। पिछले कुछ बरसों से भारतीय संविधान-प्रदत्त पहचान को मिटाने की कोशिश की जा रही है, हालांकि राज्य द्वारा औपचारिक स्तर पर संविधान की रक्षा का संकल्प भी दुहराया जा रहा है लेकिन व्यवहार में  संवैधानिक मूल्यों को मिटाने का सिलसिला भी चल रहा है। वैधानिक गल्प इसी सिलसिले को चीन्हने में हमारी मदद करता है। और यह जानने में भी कि कैसे राजसत्ता में अवैधानिक तत्व घुसपैठ करते जा रहे हैं।

उपन्यास रफ़ीक़ नील नाम के किरदार के इर्दगिर्द रचा गया है। नाम से साफ़ है कि वह मुस्लिम है। वह उत्तर प्रदेश के देवरिया ज़िले के नोमा नाम के क़स्बे के एक कॉलेज में हिंदी पढ़ाता है। मध्यकालीन भक्ति काव्य और तुलसी भी। पर अस्थायी शिक्षक है और लंबे वक्त़ से काम करने के बावजूद स्थानीय राजनीति की वजह से उसे स्थायी नहीं किया गया है। नोमा के कुछ लोग यह भी चाहते हैं कि रफ़ीक़ क़ॉलेज और नौकरी छोड़ दे। 

रफ़ीक़ अध्यापन के अलावा नाटक भी करता है। नुक्कड़ नाटक भी। उसकी नाट्य मंडली में उसके कॉलेज के कुछ विद्यार्थी हैं,जिनमें लड़कियां भी शामिल हैं। एक दिन रफ़ीक़ ग़ायब हो जाता है। रफ़ीक़ ने अनसूया नाम की लड़की से अंतर्धार्मिक शादी की है। उसके ग़ायब होने पर अनसूया अपने पुराने मित्र और दिल्ली में रहनेवाले अर्जुन को फ़ोन करती है। अपनी पत्नी के कहने पर अर्जुन अनसूया से मिलने नोमा पहुंचता है तो पाता है कि इस क़स्बे में रफ़ीक़ के ग़ायब होने के क़िस्से बनाये गये हैं। चूंकि रफ़ीक़ के अलावा उसकी नाट्य मंडली में सक्रिय और उसकी छात्रा जानकी  भी ग़ायब है, इसलिए पूरे मसले को `लव जिहाद’ बताया जा रहा है। कुछ लोग इसे `लव-त्रिकोण’ भी कहते हैं जिसमें रफ़ीक़. अनसूया और जानकी को शामिल किया जाता है। पुलिस भी इसी क़िस्से को प्रचारित करने में लगी है और उसे न रफ़ीक़ को ढूंढ़ने में दिलचस्पी है और न इस बारे में रपट (एफ़आईआऱ) लिखने में। नोमा का दारोग़ा रफ़ीक़ को ढूंढने के बजाय उसके बारे में प्रचलित  किये जा रहे क़िस्से को ढूंढ़कर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेता है। अख़बार वाले भी इसी क़िस्से को दुहराते-तिहराते हैं और यह नहीं लिखते या छापते कि रफ़ीक़ ग़ायब है। उनमें प्रकाशित समाचारों का भी ज़ोर इस बात पर है कि रफ़ीक़ के साथ जानकी फ़रार है। यानी एक बनावटी क़िस्सा हक़ीक़त पर चेंप दिया जाता है और एक फ़रेबी हक़ीक़त तैयार की जा रही है। फ़ेक न्यूज़ गांव गांव में पहुंच गयी है।

अर्जुन के बारे में भी यह फैलाया जाता है कि वह नोमा रफ़ीक़ को ढूंढ़ने नहीं अपनी पुरानी प्रेमिका, एक्स गर्लफ्रेंड, अनसूया से मिलने आया है। नोमा के ताक़तवर लोग, जिनमें पैसेवालों से लेकर प्रशासन से जुड़े व्यक्ति शामिल हैं, बतौर लेखक अर्जुन का स्वागत सत्कार भी करते हैं लेकिन सूक्ष्म तरीक़े से धमकी भी देते रहते हैं कि ज़्यादा मत फैलो और जल्दी दिल्ली लौट जाओ, नोमा में रहने की ज़रूरत नहीं है। अर्जुन ने अपने नोमा आने  को लेकर फ़ेसबुक पर जो एक निहायत ही अहिंसक-सा पोस्ट लिखा है उसके बारे में भी उससे कहा जाता है, इससे शहर की इज़्ज़त ख़राब की जा रही है। मतलब पोस्ट हटा लो।

रफ़ीक़ (और जानकी) को खोजने या उनका अता-पता मालूम करने के क्रम में अर्जुन के मन में ख़याल आता है- ` ..रफ़ीक़ का पता लगाने के साथ हमसे उसके जीवन पर रच दी गयी कहानियों का जाला साफ़ करना कभी संभव हो पायेगा? उसकी डायरी, नोट्स, पटकथाएं सब सच बतला रही थीं लेकिन सबकी पहुंच से बाहर अख़बार थे, पुलिस थी, मोर्चा था, नरमेधी महत्वाकांक्षाएं थीं।‘

`नरमेधी महत्तवाकांक्षाएं’।ये किसकी हैं? इन प्रश्नों के उत्तर खोजने में ज़्यादा परिश्रम नहीं करना होगा। आये दिन भारतीय समाज में ऐसी घटनाएं हो रही हैं जो यह बताती हैं कि नरमेधी महत्वाकांक्षांए किसकी हैं। आख़िर क्यों किसी अल्पसंख्यक समुदाय के शख़्स को गोमांस रखने या बेचने के फ़र्ज़ी आरोप में मार दिया जाता है? आख़िर क्यों देश के अलग अलग हिस्सों में `मॉब लिंचिंग’ यानी समूह द्वारा हत्या के वाक़ये हो रहे हैं? बलात्कार के आरोपियों के पक्ष में जुलूस निकाले जाते हैं, क्यों? यह सब नरमेधी महत्वाकांक्षा नहीं तो और क्या है? क्या रफ़ीक और जानकी इनके ही शिकार नहीं हुए? ये महत्वाकांक्षाएं सिर्फ़ हत्याएं नहीं करातीं, बल्कि चरित्र हनन भी करती या कराती हैं। इसीलिए तो रफ़ीक़ के साथ जानकी के चरित्र हनन का सामूहिक प्रयास भी हो रहा है।

ऐसा  अर्जुन देखता और अनुभव करता है।

अर्जुन के नोमा पहुंचने के बाद रफ़ीक़ की नाट्य मंडली के दो और सदस्य भी ग़ायब हो जाते हैं। रहस्य धीरे धीरे और गहराता जाता है कि आख़िर वह कौन सी शक्तियां हैं जिनके कारण नोमा में लोग, या यों कहें कि संस्कृतिकर्मी, ग़ायब हो रहे हैं। क्या उनको सुनियोजित तरीक़े से ग़ायब करवाया जा रहा है? या वे खुद ही किसी कारण - भय या दबाव से- ऐसा कर रहे हैं? यह ताक़त किसकी है? क्या किसी राजनीतिक दल की या दल के भीतर उभरे किसी गुट की वैधानिक गल्प यही सब सोचने की तरफ़ ले जाता है।

  उपन्यास भारत में उभरते प्रछन्न राज्य (अग्रेज़ी में `डीप स्टेट’) की तरफ़ भी संकेत करता है जिसमें पुलिस, प्रशासन, मीडिया और दूसरी ताक़तवर शक्तियां मिल कर राजनीतिक बदलाव की आकांक्षा लिए हर चाहत या कोशिश को तुच्छ बना देते हैं, उनको बदनाम करते हैं और एक दूसरा जाली क़िस्सा गढ़कर मूल मसले को दूसरी दिशा में मोड़ देते हैं। रफ़ीक़ तो सिर्फ़ नाटक करता है। लेकिन प्रछन्न राज्य चलाने वालों को यह भी पंसद नहीं आता। आख़िर रफ़ीक़ अपने नुक्कड़ नाटक में किस मसले को उभार रहा है जो कुछ लोगों को नापसंद है? इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए कोई शोध नहीं करना पड़ेगा। सब सामने है।

  देश में प्रशासनिक स्तरों पर ही नहीं कुछ राजनीतिक दलों के भीतर भी ऐसे संगठनों का वर्चस्व बढ़ा है जिनका अपना हिंसक एजेंडा है। ये भीतरी संगठन राजनीतिक दलों को भी नियंत्रित करने में लगे हैं। `मंगल मोर्चा’ एक ऐसा ही संगठन है। इस मोर्चे की नोमा इकाई शहर में दोल मेले का आयोजन करती है। इस स्थानीय इकाई पर शहर के एक रसूख़दार और धनी शख़्स, सुरेंद्र मालवीय उर्फ़ दद्दा का वरदहस्त है। दद्दा की अपनी राजनीतिक आकांक्षाएं हैं। उनका बेटा अमित मालवीय उन आकांक्षाओं की पूर्ति में लगा है। इसी कारण नियाज नाम के एक शख़्स की, जो अल्पसंख्यक समुदाय का है, हत्या की योजना बनायी जाती है। भीड़ द्वारा हत्या कराने की योजना। अमनदीप सिंह नाम का पुलिस अधिकारी, जो सिख है, नियाज की जान बचाता है तो उसे आर्थिक ग़बन के आरोप में निलंबित कर दिया जाता है। रफ़ीक़ नियाज के साथ हुए प्रकरण को लेकर ही एक नुक्कड़ नाटक कर रहा था। और यही बात मालवीय परिवार को पसंद नहीं आयी थी क्योंकि इससे मालवीय परिवार की राजनीतिक आकांक्षाएं पूरी होने से रह गयीं। रफ़ीक़ की डायरी में दर्ज है-`एक व्यक्ति को भी अगर यह नाटक किसी हत्यारी भीड़ के विरुद्ध खड़ा कर सका, हमारा ध्येय सफल होगा’।

इस डायरी से और भी राज़ खुलते हैं और रहस्य पर से पर्दे उठने लगते हैं। इसमें अमनदीप सिंह एक जगह कहता है-`जिसे हम लोग या कम से कम मैं एक मामूली घटना मानकर बैठा था वह आज की तारीख़ में उभरती एक समानांतर व्यवस्था है। ये दूसरी ही दुनिया के लोग हैं। पुलिस के समानांतर इनके पास गुंडे हैं। ख़ालिस अपराधी। पहले यह सत्ता सारी हत्याएं पुलिस से कराती थी अब पुलिस वाले इनके लिए दूसरा निमित्त हैं।‘ इसी डायरी में अमनदीप के हवाले से यह प्रसंग भी खुलता है `.. एक बात ये सुनने में आयी है कि मोर्चा (यानी मंगल मोर्चा)  की राज्य स्तरीय बैठक में दद्दा के बेटे अमित मालवीय की और उसके हरामखोर गैंग की खिंचाई हुई है। इस बात पर हुई है खिंचाई कि एक विधर्मी तो तुमसे मारा नहीं जाता और चाहिए दद्दा को लखनऊ, दिल्ली का टिकट? उस समीक्षा बैठक के बाद इन लोगों ने मेरा निलंबन कराया है। ये पुलिस को ही संदेश दे रहे हैं।‘

कौन हैं जो पुलिस को ये संदेश दे रहे हैं कि विधर्मियों को मारो। ये `मंगल मोर्चा’ जैसी समानांतर संस्थाएं हैं जो यह तय करती हैं कि किसको विधानसभा या लोकसभा का टिकट मिले। `प्रछन्न राज्य’ (डीप स्टेट) का जो उदय भारतीय राजनीतिक मानचित्र पर हुआ है वह सिर्फ़ राज्य की संस्थाओं तक सीमिति नहीं है बल्कि राजनीतिक दलों के भीतर भी पसरता गया है। वहां भी राजनीतिक प्रक्रिया के तहत चुनावी टिकट नहीं दिये जाते बल्कि उनके भीतर जन्मी और उनके द्वारा पालित-पोषित  समानांतर संस्थाओं की सहमति और स्वीकृति से बांटे जाते हैं।

  पुलिस और प्रशासन पर भी ऐसी समानांतर संस्थाओं का दबाव बढ़ा है। औपनिवेशिक काल में जन्मी भारतीय पुलिस तो वैसे भी पूरी तरह से जनपक्षीय नहीं रही। और अब तो उसके ऊपर अपने राजनीतिक आक़ाओं के अलावा इन समानांतर संस्थाओं का दबाव भी है जिससे उसके भीतर क्रूरता के तत्व बढ़ रहे हैं। आकस्मिक नहीं कि रफ़ीक़ की पत्नी अनसूया के साथ स्थानीय पुलिसवाले का व्यवहार इस तरह का है -` उस नीच, माफ़ कीजिए नीचे बैठे पुलिस वाले ने अपना रोल उठाया जिसके निचले सिरे पर गीली मिट्टी लगी थी और ड्रिल करने के उसी अंदाज़ में अनसूय़ा के पेट में चुभा दिया, घुमाने लगा और अक्षरों को चबा-चबा कर `पूछा, कितने महीने का है?’

साहित्य से, ख़ासकर उपन्यास से, यह अपेक्षा की जाती है वह अपने समय और समाज का साक्ष्य बने। हालांकि इस बात को लेकर भी पर्याप्त बहस है कि ऐसा वह, यानी उपन्यास, किस तरह करे क्योंकि साक्ष्य होने की कोई एक निश्चित और सर्वमान्य प्रक्रिया नहीं है और न ही कोई सर्वस्वीकृत परिभाषा। पर फ़िलहाल अगर हम परिभाषाओं के गुंजलक में ना फंसे, तो यह कहना पर्याप्त होगा कि वैधानिक गल्प हमारे समाज  में जो हो रहा है उसके एक अंश का गवाह है। यह तो लगातार महसूस किया जा रहा है कि भारतीय लोकतंत्र पिछले कुछ समय से अपनी लोकतांत्रिकता खोता जा रहा है। उसमें अलोकतांत्रिक प्रक्रियाएं तो काफ़ी पहले से पनप रही थीं, लेकिन पिछले कुछ बरसों में यह प्रक्रिया तेज़ी से बढ़ी है। वैधानिक गल्प उस तेज़ होती प्रक्रिया को चिन्हित करनेवाली रचना है।

  पर इन पहलुओं से अलग एक और पक्ष को रेखांकित करना आवश्यक है। रफ़ीक़ की डायरी से लगता है कि उसकी नाट्य मंडली यून फोस्से के लिखे नाटक करने का मन बना रही थी। नॉर्वेजियन नाटककार यून फोस्से सामाजिक समस्याओं से जुड़े नाटक नहीं लिखते। जैसा कि उनके बारे में प्रचारित है, वह वैयक्तिक स्मृतियों और प्रश्नों को उठाते हैं। ईसाइयत, ख़ासकर कैथोलिक मत, का उनके ऊपर गहरा प्रभाव है और उनके नाटकों में उस तरह का प्लॉट नहीं होता जैसा कि भारत में, या इंग्लैंड-अमेरिका के रंगमंच में, अमूमन होता है। यही वजह है कि इंग्लैंड और अमेरिका में भी उनके नाटक बहुत कम खेले गये हैं यद्यपि बाक़ी यूरोप में वे ख़ासे लोकप्रिय हैं। फिर रफ़ीक़ या उसकी मंडली फोस्से के नाटक क्यों करना चाहती है? हालांकि रफ़ीक़ की डायरी में इसका कारण यह बताया गया है कि उसके नाटक में, विशेषकर द गर्ल ऑन सोफ़ा, में निर्देशकीय स्कोप बहुतायत में है। पर यह कोई विश्वसनीय तर्क नहीं लगता है, यह मानने के बावजूद कि कोई कलाकार किसी अन्य देश या भाषा के किसी ऐसे लेखक से प्रभावित या प्रेरित हो सकता है जो उसकी अपनी राजनीतिक सोच से अलग हो। इसलिए रफ़ीक़ या उसकी नाट्य मंडली का फोस्से-प्रेम प्रश्नांकित तो नहीं किया जा सकता लेकिन यह पाठक को खटकता ज़रूर है और`दूर की कौड़ी’ जैसा लगता है।

आख़िर में, प्रसंगवश, यह बता देना भी ज़रूरी है कि लेखक ने इस उपन्यास को उत्तराखंड के एक पुलिस अधिकारी गगनदीप सिंह को समर्पित किया है। गगनदीप सिंह वह शख़्स है जिसने 2018 में उत्तराखंड में अल्पसंख्यक समुदाय के एक युवक को हत्यारी भीड़ से बचाया था। इसे लेकर उनकी सराहना भी हुई थी, लेकिन एक राजनीतिक दल से जुड़े कुछ लोगों ने उसकी इस काम के लिए आलोचना भी की थी। उपन्यास को पढ़ते हुए लगता है कि अमनदीप सिंह का चरित्र कहीं न कहीं इन्हीं गगनदीप सिंह से प्रेरित है।

मो. 9873196343

 पुस्तक संदर्भ

1.  क़त्ल ग़ैर इरादतन : राजू शर्मा, सेतु प्रकाशन, नोएडा, 2020

2.  वैधानिक गल्प :  चंदन पांडे, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्‍ली, 2020

 

 

 

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