काव्य चर्चा-1

                                                   गंगा जमनी तहज़ीब के दो शायर

हृदयेश मयंक

 

1. हर्फ़े इंकार: याक़ूब राही : सब तो यहां अपने-अपने उजालों में गुम हैं  

 याक़ूब राही कहते हैं कि बीसवीं सदी ख़त्म होने को है, इसी सदी में विभाजित होकर भारत हसीन ख़्वाबों के साथ आज़ाद भी हुआ और अब धीरे-धीरे पाश-पाश ख़्वाबों की ख़लिश बनकर एक बार फिर अनोखी आर्थिक ग़ुलामी, राजनीतिक माफ़ियागर्दी, मज़हबी और सांस्कृतिक फ़ासिज़्म के शिकंजे में जकड़ता जा रहा है। मेरी शायरी इसी भारत के घायल, लेकिन संवेदनशील हृदय की आवाज़ है और इक्कीसवीं सदी के संभावित संघर्ष का हर्फ़े-आगाज़ यहां हमें पीछे मुड़कर देखना होगा कि हम बीसवीं सदी के किन-किन अंतर्विरोधों से गु़ज़रे हैं। इस सदी में रूस में बोलशेविक क्रांति हुई। औपनिवेशिक ग़ुलामी से ढेर सारे मुल्कों को मुक्ति मिली। नस्लवाद के ख़िलाफ़ युद्ध हुए, स्त्रियों की जागृति हुई। सामाजिक न्याय, समानता, बंधुत्व व धर्म निरपेक्षता पर आधारित जीवन दृष्टियां परवान चढ़ीं। इस सदी में दो विश्वयुद्ध भी हुए। यातना शिविर स्थापित हुए। नव उपनिवेशवाद ने शोषण व दमन के नये-नये तरीक़े ईजाद किये। संसार भर में सत्ता और आदमी के बीच भयावह अंतराल पैदा हुआ।

आधुनिकतावाद के बहुत सारे भ्रम टूटे। मनुष्य के सामने उसकी सांस्कृतिक अस्मिता का संकट पैदा हो गया। इसने जीवन के हर क्षेत्र को अपनी चपेट में ले लिया। भारत में राष्ट्रीय मुक्ति का विराट संघर्ष हुआ। आज़ादी तो मिली पर विभाजन की क़ीमत पर। छठें-सातवें दशक के आते-आते नेहरू के स्वप्नों से सबका मोह भंग हो गया। जनता निराशा के घोर अंधकार में डूब गयी। बाज़ार के विकसित हो जाने की वजह से विज्ञान व मानविकी के संबंध लगभग टूटते गये, क्योंकि तकनीक का विकास जनोन्मुख न होकर लाभोन्मुख हुआ। परिणामस्वरूप देश की आबादी का बड़ा भाग भूख, ग़रीबी, अशिक्षा का शिकार बनता गया। शहरों का विकास हुआ, पर गांव उपेक्षित के उपेक्षित रह गये। रोज़ी-रोटी की तलाश में पूरा का पूरा ग्रामीण युवा वर्ग शहरों की ओर पलायन करने लगा। राजनीति में भाई-भतीजावाद, जाति व धर्मों के आधार पर गुट बने। बड़ी पार्टियों में राजे-महाराजों के साथ गुंडे, माफ़ियाओं और अपराधियों का वर्चस्व बढ़ा। परिणामस्वरूप छोटे-छोटे और क्षेत्रीय स्तर पर अनगिनत दलों का वजूद उभर कर आया। हर ओर स्वप्न भंग की स्थिति पैदा हो गयी। आज़ादी के सपने बिखर गये और जनता का सत्ता से मोह भंग हो गया। विषम आर्थिक व सामाजिक परिस्थितियों ने जनता के धैर्य का बांध तोड़ दिया। परिणामस्वरूप संसदीय प्रणाली के विरोध में छोटे-छोटे जन-आंदोलन उभरने लगे। उसी दौरान हुए नक्सलवाड़ी के सशस्‍त्र  किसान विद्रोह ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। इस विद्रोह ने संस्कृतिकर्मियों को सर्वाधिक प्रभावित किया। सर्वत्र वर्ग चेतना की लहर दौड़ पड़ी। किसान, मज़दूर, शोषित व दलित समाज में आशा की किरण फूटती दिखलायी पड़ी ।

साथी याक़ूब राही की कविताएं इन्हीं स्थितियों की उपज हैं। वर्ग चेतना से लैस एक कवि के साथ यही होना था। वह अपनी सोच में सर्वत्र विद्रोही बन जाता है। यही कारण है कि व्यवस्था के प्रति नकार व उसे उलट फेंकने की मंशा याक़ूब राही की सोच व लेखन दोनों में दिखलायी देने लगी। लेकिन याक़ूब राही जिस मार्ग पर चल पड़े थे उस पर चलने वाले गिने-चुने ही थे। लिहाजा लेखक समाज में धीरे-धीरे अकेले पड़ते जाना उनकी नियति सी बन गयी। अधिकतर लेखक सत्ता-व्यवस्था की चाटुकारिता के दम पर पुरस्कार व बड़े ओहदों को हथियाने की दौड़ में शामिल हो गये। प्रगतिशील शायरों को पुरस्कारों, पदों से उसी दौरान नवाज़ा गया। सत्ता के गलियारों में अकादमियां व इदारे पैदा किये गये। 

इसी समय हिंदी की नयी कविता में प्रयोगवाद व उर्दू में जदीदियत का प्रचलन बढ़ा। एक कुलीनतावादी सोच, एक भव्यता, स्वप्नजीवी रूमानियत, घर, परिवार, नदी, चिड़िया, रिश्ते तो इन कवियों के यहां ख़ूब आये पर वो सोच नहीं थी जिसकी जूझते समाज को ज़रूरत थी। ये सारे कवि-शायर एक तरह से प्रगतिशील विचारधारा को कुंद करने की फ़िराक में थे। बतौर विजय कुमार, वे सबके सब भव्यता के प्रेमी, स्वप्नजीवी और अपनी ही रूमानी छवि के बंदी थे। विचार से उन्हें परहेज़ था। ये लोग भारतीय संस्कृति के भाववाद से लड़े बिना, आधुनिकता बोध, बुद्धिवाद और व्यक्ति स्वातंत्र्य को स्थापित करना चाहते थे। घालमेल की यह कोशिश कविता में भी थी और राजनीति में भी। नक्सलवादी आंदोलन के बाद के दौर में पुराने कवियों में वही संभले जिनमें प्रगतिशील जनवादी रुझान बच गयी थी। ऐसी सूरत में याक़ूब राही को अलग से खड़ा किया जा सकता है। उर्दू अदब की पारंपरिक ज़मीन पर विद्रोह की निराली रवायत शुरू करना और उसी पर चलते रहना इतना आसान नहीं था, पर याक़ूब राही को दाद दी जानी चाहिए कि उन्होंने भीड़ से अलग अपनी शिनाख़्त बनायी। उर्दू में मुशायरों व रवायती फ़ॉर्म से बचे रहना बहुत ही मुश्किल था। आज शायर व कवि वही है, जो जनता की लोकप्रियता की कसौटी पर खरा उतरता हो। लेकिन याक़ूब राही अन्य कवियों, शायरों के बीच रहते हुए भी उनके साथ नहीं होने की पहचान कराते रहे हैं। चाहे  फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की जन्म शताब्दी का जलसा हो या यहां होने वाले मुशायरे, उनमें याक़ूब राही का न होना साधारण-सी बात है। यहां हम देवनागरी लिपि में प्रकाशित उनकी पुस्तक, हर्फ़े इंकार के बहाने उनके लेखन पर बात करना ज़रूरी समझ रहे हैं। याक़ूब राही अपनी एक नज़्म में कहते हैं,
 

दोस्तो! / फिर चलो / इस धुंध से टकरा के चलो / ज़िंदगी /

कश्मकशोजंगो-सफ़र जब ठहरे / कश्मकश से न डरो /

ज़ुल्मते-शब से उलझ जाओ /

अंधेरों में भटकता हुआ सूरज ढूंढ़ो (‘फिर अकेले ही चलो, पृष्ठ 94)  

एक नये सूरज की तलाश उस दौर के लेखन का जैसे मूलतत्व हो गया था। हिंदी-उर्दू अदब के प्राय: सभी रचनाकारों ने नये सूरज की वकालत करते हुए उसे व्यवस्था विरोधी उपमान दे दिया था। मुक्तिबोध ने हिंदी में व्यवस्थाविरोध की मशाल जलायी थी। उनकी मशहूर नज़्म, अंधेरे में उन तमाम हालात का ज़िक्र है जिनसे याकूब राही भी टकराते रहे हैं । याक़ूब राही की नज़्म की ये पंक्तियां भी देखें :

                              सुबह सूरज की किरन / कूचाकूचा / तेरी उम्मीद में भटकती है /

शाम होते ही अंधेरों में बिखर जाती है / टूटती आस की मानिंद /

तेरे दर्द की लौ / रात भर आंखों में रह-रह कर उभर आती है /

सुबह से पहले धुली आंखों में बुझ के रह जाती है। (‘ख़ुदफ़रेबी’, पृष्ठ 15)

इस दौर की शायरी या लेखन में तीली, माचिस, मशाल जैसी अनेक शब्दावलियां आम फ़हम थीं जो व्यवस्था के प्रतिरोध में उपयोग में लायी जा रही थीं। याक़ूब राही का कवि चीख कर कह उठता है :

क़तरा क़तरा भीख न मांगों/ तरसे तरसे होठों में /

प्यास की सारी रेत छुपा लो /

कुछ न कहो प्यास की शिद्दत ख़ुद ही बढ़कर /

छीन झपट कर / अपनी प्यास बुझायेगी। (‘तरसे-तरसे होठों में,पृष्ठ 18)

याक़ूब राही की कविताओं को पढ़ते हुए एक ओर उम्मीद को पर लगते नज़रआते हैं, वहीं नाउम्मीदी को झटक फेंकने का हौसला भी देने वाले शब्द मिलेंगे। उनकी पंक्तियां देखें :

अपनी ताबीर के सहरा में /

जले ख़्वाबों की इस राख को तुम /

राख का ढेर ही क्यों कहते हो /

बढ़ के इस राख के सीने में / उतर कर ढूंढ़ो /

इसका इमकान है / तुम राख के इस ढेर में भी /

चंद चिंगारियां / रह रह के दमकती देखो /

और शायद तुम को /

फिर से जीने का बहाना मिल जाये। (‘इमकान’, पृष्ठ 19)

उस दौर में अन्य भारतीय भाषाओं के कई कवि तक़रीबन उसी सोच को जी रहे थे। उन कवियों का उल्लेख करना हो तो पाश, वरवर राव, आलोक धन्वा, वेणु गोपाल, चेरवन्डा राजू, ज्वालामुखी, नामदेव ढसाल समेत दर्जनभर कवि आपको मिल जायेंगे। इन सबने अपने पूरे जीवन को इसी सोच की आग में झोंक रखा था। याक़ूब राही उन्हीं में से एक हैं। उनकी ज़िंदगी आग है, नज़्म में शब्‍दों से भी आग की लौ झरती है, विचारों में व्यवस्था की चिंदिया उधेड़ने की ज़िद है। इशारों-इशारों में भी व्यवस्था को आग लगाने का इशारा करने में वे नहीं चूकते। उनकी छोटी-छोटी नज़्में मानो विचारों की आग के पिंड हों। वे अपनी सोच वालों को भी कहते हैं कि इस राह को फूलों की सेज समझ कर मत चलो वरना / जल कर ख़ाक हो जाओगे।' वे अपने लिए एक प्यारी, ख़ूबसूरत नज़्म,हर्फेइंकारमें कहते हैं :

जब कहीं / मदहे-कातिल में ल़फ़्ज़ों को रुसवा किया जा रहा हो /

उस घड़ी / जब किसी गोश--सर्द से /

 हर्फ़े इंकार उभरे तो समझो / वो मैं हूं । (पृष्ठ 29)

हर क्रांतिकारी सोच वाले के दिल में प्रेम गहरे तक पैठा रहता है। सच कहें तो बिना प्रेम के क्रांतिकारी सोच पनपती ही नहीं। यह प्रेम देश के लिए, प्रकृति के लिए और मानवता के लिए और अपनों के लिए समान रूप से रहता है। याक़ूब राही के प्रेम को दर्शाती कुछ ख़ूबसूरत पंक्तियां : 

तुम सूखी सूखी-सी नदी, मैं आवारा बादल /

उड़ता-उड़ता रिमझिम बरसूं, बढ़ कर तुमसे लिपटूं /

तरसा-तरसा जिस्म तुम्हारा, बर्फ़ की सूरत पिघले /

ज़र्रा-ज़र्रा टूटे-बिखरे, अपनी प्यास बुझाये /

धरती की गीली रग-रग से, कोंपल कोंपल फूटे (‘तुम नदी मैं बादल’, पृष्ठ 11)

मां की याद में उनकी एक छोटी नज़्म मन को छू लेने वाली है :

उसे / मुद्दत हुई / दफ़ना के आया हूं /

मगर लगता है जैसे वो खुली खिड़की में बैठी आज भी है /

मुंतज़िर मेरी।  

इसी तरह याकूब राही की एक और ख़ूबसूरत नज़्म है, जो पढ़ते हुए मुझे बहुत अच्छी लगी।  संभवत: इसे उन्होंने अपनी पत्नी के लिए लिखा होगा :

ए चिड़ियों की चहकार / फूलों की ख़ुशबू, ए दीवारो-दर /

ए बेटे बहू, घर की आराइशें, सारी ज़ेबाइशें  /

अपनी-अपनी जगह पर हैं लेकिन / तुम्हारे न होने से लगता है /

जैसे अकेला हूँ मैं / चली आओ तुम - आ भी जाओ /

कि बेचैन आंखें तुम्हें ढूंढ़ती हैं। (पृष्ठ 52)

इसी तरह अपनी बेगम की याद में कही उनकी नज़्म रुला देती है ।  एक पंक्ति की एक नज़्म देखें :

मेरी आंखों में / उमड़े आंसुओं को /

पोंछकर तुम किस तरफ़ चल दीं /

कि गहरी नींद से उठकर तुम्हीं को ढूंढ़ता हूं मैं।  (पृष्ठ 68)

 पोते, पोतियों, बेटे, नवासों के लिए कई ख़ूबसूरत ऩज्मों से सजी हर्फ़े इंकार कई और मामलों में भी अमूमन इस दौर की शायरी से अलग है। लंबी-लंबी दलीलों, लफ़्फ़ाज़ी से बचते हुए कम शब्दों में बड़ी बातें कहतीं और पूरे हालात को समेटतीं ये नज़्में सिर्फ़ काग़ज़ काले करने के लिए नहीं लिखी गयी हैं। ये सबकी सब बयान हैं, हलफ़नामे हैं दबे-कुचले अवाम की ओर से। कठघरे में खड़े आम आदमी की ज़बान हैं जो कलम से नहीं दिल से लिखी गयी हैं। याक़ूब राही की कविताओं का यह सफ़र तन्हा उन्हीं का नहीं है, उन जैसी सोच वाले लोगों के लिए ये कविताएं हमेशा प्रेरणा के केंद्र में रहेंगी। 

राही साहब को पढ़ते हुए मुझे कई जगह नयी ज़मीन की ग़ज़लें दिखायी दीं। उन्होंने न केवल फ़ॉर्म के स्तर पर, बल्कि विचार के स्तर पर भी ग़ज़ल की नयी ज़मीन पैदा की है। वे नयी राहों के अन्वेषी हैं। उनके शेर देखें :

संगो-आहन को फिर झिंझोड़ चलो,

क़तरा-क़तरा लहू निचोड़ चलो

एक ही रुख़ पे चल रही है हवा

सिम्त-बेसिम्त इसको मोड़ चलो (पृष्ठ 94)

और

सुर्ख लावे की तरह तपके निखरना सीखो

सूखी धरती की दरारों से उभरना सीखो (पृष्ठ 95)

 याक़ूब राही जीवन को निरंतर संघर्ष का, इंक़लाबी परिवर्तन का, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक असमानताओं को समाप्त कर इंसान को इंसान समझने का ही नाम मानते हैं और अदब को इस क्रांतिकारी संघर्ष के साथ निरंतर ज़िंदादिली के साथ चलने वाला कमिटमेंट व मिशन मानते हैं। वे संभवत: अपने संघर्षों में और जीवन को ज़िंदादिली के साथ जीने में सफल भी रहे हैं। सुखों-दुखों की धूप-छांव तो ज़िंदगी का हिस्सा है। बिना उसके न तो जीवन चलता है और न ही संघर्ष। आज के बदले माहौल में एक बार फिर से याक़ूब राही की डगर पर चलने की ज़रूरत आन पड़ी है। फ़ासिस्ट ताक़तें साम्राज्यवाद के साथ गठजोड़ कर अपने नये मंसूबों के साथ सत्ता व्यवस्था पर काबिज़ हैं। हम नाउम्मीद तो नहीं हो सकते, प्रतीक्षा करेंगे कि कल फिर लोग उठ खड़े होंगे.  भूख, ग़रीबी, नाइंसाफ़ी के ख़िलाफ़ उठ खड़े होंगे.  साम्राज्यवादी मंसूबों के ख़िलाफ़, मज़हब और भाषा के नाम पर, जाति और नस्ल के नाम पर एकजुट हो रहीं ताक़तों के ख़िलाफ़ एक बवंडर-सा लोग उठ खड़े होंगे ज़रूर। आयें, उम्मीद करें ऐसा हो। याक़ूब राही की इस नज़्म के साथ मैं अपनी बात ख़त्म करता हूं :

मेरी आंख से / कोई देखे तो उस पार /

सबके लिए कितने सारे उ़फ़क हैं /

उ़फ़क ता उ़फ़क / फूल ही फूल /

ख़ुशबू ही ख़ुशबू / हवाओं के झोंके / पिंरदों की डोर

धनक चांद तारे / भरे खेत, खलिहान किलकारियां हैं /

मगर कौन देखे / किसे क्या

पड़ी है / मेरी तरह देखे / कि सब तो यहां /

अपने अपने उजालों में गुम हैं। (‘उस पार, पृष्ठ 51)

 

2. बांट लें, आ कायनात : शमीम अब्‍बास :  दूसरा तुझ-सा कोई मिल जाये मुमकिन ही नहीं

मेरे नज़दीक शमीम अब्बास साहब का व्यक्तित्व मह़ज एक जदीद शायर का ही नहीं है बल्कि एक ऐसे ख़ूबसूरत इंसान का व्यक्तित्व है जिसमें, अवध की माटी की ख़ुशबू, वहां की ऐतिहासिक विरासतों का ग़ुरूर, लफ़्ज़ों  में किसानी के दु:-दर्द और आशिक़ाना अंदाज़, दिल में दुनिया जहान का दर्द, भागती-दौड़ती मुंबई के जीवन की आवारगी और एक ऐसी बेफ़िक्री जो शायरी के लिए भी ज़रूरी है और कठिन स्थितियों के मुक़ाबले के लिए भी। ज़ुबान ऐसी कि सुनने पढ़ने वालों के जिगर फाड़ती हुई। उन्हीं के लफ़्ज़ों में कहूं तो कसूं मैं लफ़्ज़ों को इतना के जां निकल आये। एक बंजारा शख़्स जो दिल की दुनिया की चाह लिये दर-दर भटकता फिरे। उर्दू जगत में अपने मिजाज़ व नयेपन के लिए बहुचर्चित शमीम भाई से मेरी मुलाक़ात बहुत देर से हुई। उर्दू की जदीद शायरी में निदा फ़ाज़ली व उनकी शायरी से वास्ता पड़ चुका था। उर्दू ज़ुबान की मिठास व कानों को भा जाने वाली अदा का दीवाना बने बिना नहीं रह सका। शायर मुस्तहसन अज़्म से मुलाक़ात क्या हुई कि मुझ पर ग़ज़लों की सनक सवार हो गयी। ग़ज़लें, पढ़ते-सुनते उर्दू भाषा की नज़ाक़तों व लताफ़तों के मोह फांस में ऐसा फंसा कि एक दीवानगी सर चढ़कर बोलने लगीं। एकाध शेर लिये शहर भर हंगामा करता रहा। ग़ज़ल के हुस्न से लुत़्फ उठाने के शौक ने निदा फ़ाज़ली, हसन कमाल, अजीज़ कैशी व मेरे स्व. मित्र विजयवीर त्यागी के अनेक मित्रों तक पहुंचा दिया और उन लोगों ने बेहद प्रभावित किया। जब शमीम अब्बास से मुलाक़ात हुई तो लगा कि शायरी किस तरह मिट्टी की सतह से उठकर सर चढ़ती है और बोलने लगती है। बोलचाल की आम फ़हम ज़ुबान। हर सुनने वालों के पल्ले पड़ने वाली और समझने वालों के लिए अहमियत रखने वाली। बांट ले कायनात तू मिरा बाक़ी तिरी लोग सोचते, सुनते रहें। जिनको सर धुनना है धुनें, जिनको बारीक़ियां तलाशनी हों तलाशें। कह दिया सो कह दिया। ऐसा अनूठा व सादगी भरा रंग मुझे ख़ूब भाया।

शमीम भाई को सुनना एक अलग तरह के अनुभवों से गुज़रना था। विचार के जिस रास्ते चलते हुए हम जिस एक वर्गीय नज़रिये से सब कुछ जांचने-परखने के आदी हो चुके थे, उस दृष्टि से एक बारगी मुझे लगा कि इनकी पड़ताल किस तरह की जाये। यहां तो पूरा का पूरा मामला दिल का और आसपास के जीवन का है। कहीं से ल़फ़्फ़ाज़ी या दर्शन के जुमले दूर-दूर तक नहीं हैं। भारतीय दर्शन के फ़लसफ़ों को बखानते निदा जैसे शेर भी नहीं हैं। फिर शमीम को वैसे पढ़ा और समझा जाये। मैं निरंतर इसी उधेड़बुन में ही था कि तब तक उनका एक संग्रह लिप्‍यतंरित हो देव नागरी में छपकर आ गया, बांट लें, आ कायनात। एक बारगी पढ़ गया। थोड़ी भाषाई दिक़्कते भी आयीं। चीज़ें पल्ले भी पड़ीं। उनकी बेबाक़ ज़बान और एक अलग अंदाज़ मुझे तनिक परेशान भी करता रहा। गांव की सोंधी माटी की भीनी सुगंध व मुहावरों के देसज अंदाज़ से लगा कि शमीम खांटी अवधी बोलचाल के शायर हैं। पर एक दिन पूछने पर पता चला कि बचपन में ही गांव से आने के बाद उनका गांव से दूर-दूर का भी रिश्ता नहीं रहा था। शायरी के क्रम में उन्होंने देश भर की यात्राएं कीं और वतन भी उसी सिलसिले में जाना-आना हुआ। उन्होंने बताया कि वालिद और अम्मी से वाक़ई विरासत में देसज शब्दावलियां और जीवन जीने का अंदाज़ उन तक पहुंचा। एक बहुत ही लोकप्रिय शेर जिसे प्राय: हर अदबी जलसे में लोग शमीम भाई के मुंह से सुनना चाहते हैं देखें :

बड़ी सर्द रात थी कल मगर बड़ी आंच थी बड़ा ताव था

सभी तापते रहे रात भर तिरा जिक्र क्या था अलाव था

या फिर

कहीं जो सोच लें कोई जबा निकल आये

हम अपनी झोंक में देखो कहां निकल आये

...
मेरा जुर्म विरासत था सो यूं थका और शेर कहे

क्या कीजिएगा की पुरखों के आएद कर्दा जुर्माने थे

 स्मृतियों, सुखों-दुखों और जीवन की आपाधापी के बीच शमीम का शायर अपनी कलम उन तमाम विषयों पर चलाता रहा जो ज़रूरी थे और जो उसके मन मिजाज़ को भाते रहे। प्रेम, प्यार तो कविता और शायरी का स्थायी भाव है। जीवन की उधेड़बुन में जब भी मन पीछे लौटता है मधुर स्मृतियां हिलोरे लेने लगती हैं शमीम भी कह उठते हैं, पहली-पहली मुलाक़ातें याद आती हैं/  बेढंगी, बचकानी बातें याद आती हैं / छल्ला, चूड़ी, कंगन, बूंदें,/  फूल रूमाल छोटी-छोटी सौगातें याद आती हैं।

कुछ देसज प्रयोग शमीम को उनके समकालीन शायरों से अलग करते हैं। उनके व्यक्तित्व में जो एक खांटी अवधीपन है, उससे आभास होता है कि सहज सामान्य जीवन जीने वालों के प्रति अनुराग करने वाला विचारवान शायर है, वह उनकी कलम की नोंक पर पूरे अनुभवों के साथ उतरता है और दुनिया-जहान की पीड़ाएं उतरवा लेता है। पीड़ा उनकी शायरी का मूल व स्थायी भाव है जो उनकी हर अभिव्यक्ति में उतरने को आकुल रहता है। शमीम भाई सबसे मिलने को उत्सुक, सबसे संवाद करते रहने में विश्वास रखने वाले शायर हैं। उनका एक शेर देखें :

खट्टा-मीठा, कड़वा-तीखा सबसे हूं मैं आशना

एक तेरी सोहबत की लज़्ज़त है कि जो चख्खी नहीं

इम्तहां मेरा न ले इतना कि रिश्ता टूट जाये

तू बहुत कुछ है ये माना, कम मगर मैं भी नहीं

शमीम अब्बास प्रयोगों के अद्भुत शायर हैं। उनका एक प्रयोग अलगनी पर सुखाने के लिए डाले गये उड़ते हुए कपड़ों को देखें, बदन अल्गनी पर उड़े जा रहे हैं गुलाबी, शहाबी, बसंती ओ धानी

उर्दू और हिंदी ग़ज़लों की दुनिया में एक से बढ़कर एक शायर नयी भाषा, नये तेवर लेकर, इससे अधिक दावे लेकर मैदान में उतरे दिखलायी पड़ते हैं। शमीम अब्बास कहीं कोई दावा नहीं करते, पर उनकी नज़र जिन विषयों पर जाती है वहां दूसरे किसी की नज़र नहीं जाती। जो छूट रहा है जो बिसर रहा है उसे याद करना और लफ़्ज़ों में पिरोकर धरोहर जैसा संजोकर रखना वे अपनी ज़िम्मेदारी मानते हैं। आज के समय में पीछे मुड़कर याद करती इस ग़ज़ल के कुछ शेर देखें :

ईद, दसहेरा, दीवाली और आशूरा ताज़िये, दंगल, मेले-ठेले, पलटे हैं

मट्ठा, महुआ, सत्तू, रसावल, भेली राब जबां पे लज़्ज़त है चटखारे पलटे हैं

घोर पे मुरगी और बतख़ तालाब में हैं गाय बछड़ा, नांद और बाड़े पलटे हैं

कल, परसों, जब बिछड़े कंगाल थे हम आज सरों पर चांदी लादे पलटे हैं

अदीबों, शायरों की सोच में पूरी कायनात होती है। उसका अपना जो कुछ भी है वह भी उसका कहां होता है। शायद यही कारण है कि वह अन्याय, शोषण, व नाइंसाफ़ी के ख़िला़फ़ अकेले खड़ा हो जाता है। जब ज़रूरत होती है, वह संपूर्ण मानवता का प्रहरी बनकर खड़ा नज़र आये। शमीम भाई के ये शेर देखें :

हर किसी दिल में सजी एक न इक मूरत थी मैंने वल्लाह हर इक सीने में मंदिर देखा

लंबी चौड़ी-सी है फ़ेहरिस्त मिरे ख़्वाबों की सब जहां के लिए इक अपनी ही ख़ातिर देखा

पूरी इंसानियत व शायरी अदीबों की कर्ज़दार है। उनकी मोहब्बतों का क़र्ज़ा कभी कोई चुकता नहीं कर सकता।  शमीम का एक शेर देखें,हमारा मक़रूज़ वो कभी था, हमारा मक़रूज़ आज भी है दुकानदारी हमें जो आती तो काहे सौदा उधार करते। अदीबों, शायरों के लबों पर मुस्कुराहट भला बहुत देर तक कैसे ठहरती। वे तो दु:ख और करुणा के ही गायक हैं.  कविता पैदा ही हुई थी करुणा से :

मुझे ख़बर ना तुझे पता है

मैं तुझको तू मुझको जी रहा है

शमीम अब्बास का पूरा जीवन ही शायरी का पर्याय है! उन्हें जानने के लिए अपने पूरे दौर के सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक दौर की पहचान करनी होगी। एक शायर के दिल पर कब-कब क्या-क्या गुज़रती है उसे वह ही जानता है। एक,एक शेर के लिए न जाने कितनी रातें वह गंवाता है। तब एक शेर ही नहीं एक जीवन काग़ज़ पर उतरता है। शमीम के पूरे जीवन और उनकी अदबी दुनिया को इस एक ग़ज़ल से जाना जा सकता है :

कहीं खपाये बिना तुम अपने को चैन से मर सकोगे क्या?

चलो जो ख़ुद को बचा भी लो, तो बचे हुए का करोगे क्या?

ये छत टपरिया, ये टीन -टप्पर, यूं ही धरा का धरा रहा

ज़रा-सी बदली पे बावलापन, तो भींगने से बचोगे क्या?

कभी तो दम भर को चुप रहो भी, लगाम अपनी ज़बां को दो भी

हमेशा अपनी ही जब कहोगे, तो फिर किसी की सुनोगे क्या?

जो तब थे, तब थे पर आज क्या हो जो आज हो कल रहोगे भी?

ज़मीन पैरों तले मुसलसल खिसक रही है टिकोगे क्या?

कमीना, कमज़र्फ़, बेहया, लानती, फ़रेबी मैं था मैं हूं

शरी़फ़ज़ादो! बताओ सच सच, तुम अपना सच यूं कहोगे क्या?

शमीम अब्बास जी ऐसे ही शेर और भी कहते रहें, ऐसी कामना करता हूंउन्‍हीं के शब्‍दों में उनको को सलाम करता हूं।

ये नहीं, ये भी नहीं और वो नहीं, वो भी नहीं

दूसरा तुझ-सा कोई मिल जाये, मुमकिन ही नहीं

मो : 9869118707

पुस्तक संदर्भ

1. हर्फ़े इंकार: याक़ूब राही, परिदृश्य प्रकाशन, मुंबई, 2019

2. बांट लें, आ कायनात : शमीम अब्बास, (अच्छी सी कोई बात शीर्षक से माई बुक प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित, 2019)

 

 

 

 

 

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