स्मृति शेष : जो साथ रहेंगे हरदम -1

 बंसी कौल का रंग क्षेत्र और रंग रसायन

रामप्रकाश त्रिपाठी

 

बंसी कौल! नाटक की दुनिया की जानी-पहचानी शख़्सियत। यह शख़्सियत वह है जो दुनिया-जहान के सामने है। बहुत ही कम बल्कि बेहद अंतरंग लोग ही जानते हैं कि इस बंसी का कोई एक सुर नहीं है। एक बंसी में कई बंसी हैं। कवि बंसी, चित्रकार बंसी, लेखक-साहित्यकार बंसी, चिंतक-विचारक बंसी, श्रमजीवी और अलाल बंसी। और भी बंसी हो सकते हैं उसकी शख़्सियत में पिनहा-मैंने सिर्फ़ उनका ज़िक्र किया जिनसे मैं परिचित हूं, जैसे दोस्त बंसी, दुश्मन बंसी, भावाकुल बंसी, व्यावहारिक बंसी।

मैं बंसी को ग्वालियर से जानता हूं। वे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से रंगमंच स्नातक होकर ‘रंगश्री' लिटिल बैले ट्रुप' के साथ काम करने के लिये आये थे। अभिनेता बंसी, नाट्य निर्देशक बंसी, कोरियोग्राफ़र बंसी और संस्थाबाज़ बंसी। 'रंगश्री' के नाट्य प्रकोष्ठ की तरह शुरू हुआ 'रंग-विदूषक'। आधुनिक और पारंपरिक रंगमंच की प्रयोग भूमि। 'विदूषक' में रंजक भाव तो है लेकिन बुद्धि-विवेक और जनपक्षधरता की संवेदना के साथ। भारतीय शास्त्रीय रंगमंच में विदूषक की परिकल्पना ही ऐसी है।

महाराजा अग्निवरण के पैर, आला अफ़सर, की एक ज़माने में धूम हुआ करती थी। ये नाटक बंसी की निर्देशकीय प्रतिभा के ही नहीं उनकी सोच और विचारधारा के परिचायक भी रहे हैं। यों तो ‘रंगश्री से जुड़ना ही उनके वैचारिक रुझान का परिचय देने के लिए काफ़ी था, फिर भी विचार और विचारधारा का सृजन में प्रस्फुटित होना ज़रूरी था। यह उनके नाटकों की परिकल्पना और प्रस्तुतियों ने किया।

‘रंगश्री, उसके संस्थापक शांतिबर्धन, गुलबर्धन और लंबे समय तक प्रिंसिपल, कोरियोग्राफ़र रहे प्रभात गांगुली, उदय शंकर के अल्मोड़ा स्थित नाट्य शिविर, कम्युनिस्ट  पार्टी के सेंट्रल स्कॉड, इप्टा से आते हैं। शांतिदा तो बाक़ायदा क्रांतिकारियों में से रहे हैं और फ़रारी काटी है। गुलबर्धन पार्टी की कार्ड होल्डर रही हैं। सब कुछ के बावजूद इन सबकी और ‘रंगश्री की ख़ूबी यह रही है कि वे कला का प्रयोग मनुष्य के परिष्कार और रुचिबोध के उन्नयन के लिए करते रहे हैं। दलगत राजनीति में वे नहीं रहे। स्वाभाविक था कि रंगभूमि पर जहां बैले यानी नृत्यनाटिका के क्षेत्र में सर्वसमावेशिता और सांस्कृतिक बहुलता का पल्लवन हो रहा हो, वहां बंसी के सींग आसानी से समा सकते थे। बंसी ने अपनी युवावस्था का बेशक़ीमती वक्त़ और ऊर्जा का भाग 'रंगश्री' को दिया, बल्कि नवोन्मेषी, बहुजन हिताय रंग-चेतना को दिया। इससे उनकी वैचारिक और सकर्मक संकल्पना और समर्पण को समझा जा सकता है।

'रंगश्री', रामायण, पंचतंत्र, डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया, पशुतंत्र आदि नृत्यवाटिकाओं द्वारा जहां भारतीय बैले की अवधारणा को शास्त्रीय और लोक तत्वों के रसायन से तैयार कर रहा था, तथा इतिहास को कलात्मक संवेदना के साथ मंचित कर रहा था, वहीं उसमें नये समय की गति और समकालिक दृष्टि विषयक कमजोरियां नज़र आ रही थीं। इस बर्फ़ को तोड़ने के लिए बंसी ने एक बैले तैयार किया, आकारों की यात्रा । छतरियों के द्वारा ऐसी-ऐसी सम्मोहक छवियां उन्होंने कल्पनाशील संयोजन से गढ़ीं कि लोग दांतों तले उंगली दबाकर रह गये। इस तरह यहां उन्होंने कोरियाग्राफ़ी में भी अपना लोहा मनवाया। ऐसा ही उन्होंने संस्था द्वारा नवीन बैले अतीत की स्मृतियां (मेमोरी ऑफ़ सैडऩेस) के अंतिम दिनों में अपनी जादुई संस्पर्श से किया।

यह बैले गैस कांड पर आधारित था। भोपाल गैस कांड के बाद बदहवास शहर के सामान्यीकरण में जैसी रचनात्मक भूमिका बंसी ने निभायी, वह कलाकारों के लिए प्राय: दुर्लभ होती है। गहरी करुणा और जनसंवेदी हुए बिना यह संभव नहीं होता है।

बंसी नाट्य जगत में कुशल अभिनेता, कुशल निर्देशक और कुशल मंचशिल्पी के रूप में ख्यात हैं। उनकी कीर्ति पुरस्कारों, सम्मानों की मैं बात नहीं कर रहा हूं, न उनकी वैश्विक छवि को उकेरने का उपक्रम कर रहा हूं। मैं पूरी विश्वसनीयता, दावे और चाक्षुष प्रमाणों के आधार पर कहता हूं कि बंसी बेहद डरपोक रंगकर्मी रहे। हालांकि उनकी ज्ञान-गुंडई और बैख़ौफ़ मुंहफटपन से मैं औरों की तरह ख़ूब वाक़िफ़ हूं लेकिन जिस तरह अपनी प्रस्तुति के बाद वे दर्शकों, प्रशंसकों, रिपोर्टरों और समीक्षकों से आंख चुराते रहे, यह मैंने ख़ूब देखा है और यह सबको आश्चर्यचकित करता रहा है।

 वजहें क्या रही होंगी इसकी?

क्या बंसी के प्रॉडक्शंस इतने ख़राब होते थे कि वे दर्शकों को मुंह नहीं दिखाना चाहते थे? या यह कि वे रूबरू दर्शकों की आलोचना या निंदा बर्दाश्त नहीं कर सकते थे? क्या वे आलोचना असहिष्णु थे? ऐसा तो नहीं हो सकता। प्राय: रंगकर्म में उनकी जादूगिरी के दर्शक क़ायल रहे। प्रयोगधर्मिता का जहां तक सवाल है, उसमें वे किसी से पीछे नहीं थे। मध्यप्रदेश का शिखर सम्मान, भारत सरकार की संगीत नाटक अकादमी द्वारा दी गयी उपाधि और पद्मश्री उन्हें कोई पेड़ पर लटके नहीं मिल गयी थी। यक़ीनन तुझमें कोई बात होगी, ये दुनिया यूँ ही पागल तो नहीं है’ (ताज)। फिर इतना, डर, इतना संकोच, इतनी भीति पब्लिक से क्यों?

दरअसल बंसी एक बैचैन आत्मा रहे। संतोष-धन उनके खाते में नहीं था। वे अमोघ असंतोष के साधक थे। सबसे ज़्यादा असंतुष्ट वे स्वयं और स्वयं की कृतियों से रहते रहे । उन्हें अपना हर सृजन अधूरा और अपूर्ण लगता रहा । वे उस पाज़िटिविटी के मुख़ालिफ़ रहे जो स्वेटमार्डन से शिवखेड़ा तक के लोग परोस रहे थे। वे  सृजन-शंकालु रहे। अर्थात-अपने ही सृजन के प्रति शंकालु। शायद वे आलोचना से उतना नहीं डरते थे जितने कि आत्मालोचन से आत्म प्रताड़ित होते थे। इसलिए वे हर प्रस्तुति के बाद ज्यादा सिगरेट फूंकते और सामान्य से ज़्यादा पैग पीते और अनर्गल गप्प-गोष्ठियों में मुब्तिला नज़र आते थे, साथ ही प्रस्तुति पर चर्चा से बचते थे । मुझे लगता है कि बंसी को यही बात विशिष्ट और बड़ा सर्जक भी बनाती है।

मैंने उन्हें बहुत क़रीब से रंग निर्देशन करते देखा है। उनकी 'रेपट्री' के अभिनेता प्रस्तुति के बाद कितने ही ख़ुश नज़र क्यों न आते हों, लेकिन पूर्वाभ्यास के दौरान वे हलकान ही रहते थे। वजह यह है कि प्रस्तुति के मंच पर जाते-जाते निर्देशक बंसी के दिमाग़ में नया विचार कौंधता था, तो वे या तो प्रस्तुति के ढंग में परिवर्तन कर देते थे अथवा सेट या संगीत में बदलाव ला देते थे। अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इससे पूर्वाभ्यास के तकाज़ों के चलते मंचस्थ रंगकर्मियों को कितना तनाव झेलना पड़ता होगा। कभी-कभी कलाकार से चूक भी हो जाती थी और कभी-कभी आशा से अधिक परिणाम वे देते थे। बहरहाल अपनी प्रस्तुति के प्रति संशयशीलता उनमें बनी ही रहती थी। अपनी रचना के लिए वे शंकालु रहते थे आश्वस्त नहीं। यह निराश्वति ही उनको नये से नया और, ‘जो है उससे बेहतर करने के लिए प्रेरित करती थी। चूंकि वे स्वयं संतुष्ट नहीं होते इसलिए प्रशंसा बटोरते भी नहीं फिरते थे। यह लिखे जाने तक उनके द्वारा निर्देशित तुक्के पे तुक्का नामक व्यंग्य नाटक के भारतीय उपमहाद्वीप में सौ से ज़्यादा प्रस्तुतियां हो चुकी हैं। कई कलाकार बदले, कलाकारों की पीढिय़ां बदली, मगर उदय शाहणे पर से बंसी का भरोसा नहीं बदला। उन्होंने अब तक 100 प्रस्तुतियों में तुक्कू की भूमिका निभायी है। इसमें एक नवाब का किरदार है। वह राजनीतिक परिदृश्य के हिसाब से बदल जाता है। इंदिरा गांधी के ज़माने में नवाब महिला (समता सागर) थीं और मोदी काल में उन्हीं की क़द काठी के हर्ष द्रोण की पुन: वापसी हो गयी। पूरा नाटक फ़ार्स है, मगर वह पक्षपात, भाई-भतीजावाद, राजनीतिक षड्यंत्र, दुरभिसंधियों से विदूषकी अंदाज़ में संवाद करता है। यह संवाद तात्कालिक रूप से दर्शकों को गुदगुदाता भी है और उनकी चेतना या संवेदना को झकझोरता भी है, वैकल्पिक दुनिया के लिए प्रेरित भी करता है।

सीढ़ी-दर-सीढ़ी उर्फ़ तुक्के पे तुक्का का उदाहरण मैं ख़ासतौर पर इसलिए दे रहा हूं क्योंकि यह एक नयी नाट्य-शैली है जो बंसी ने बहुत खाक छानने के बाद ईजाद की। हबीब तनवीर के अतिरिक्त अकेले बंसी ऐसे रंग निर्देशक थे जिनकी बिलकुल अपनी और भिन्न शैली थी। दोनों में दिलचस्प यह है कि दोनों की शैलियों के रंग-शिल्प लोक आधारित रहे। हबीब जी की प्राय: सारी बतकही मुहावरे में है। बंसी वक्त़ के तकाज़े के मुताबिक़ लोक का विस्तार करते नज़र आते थे। बंसी के रंग-रसायन में केवल एक क्षेत्र विशेष का लोक-संस्कार नहीं है। वहां लोक के विविध रंगों के साथ अखाड़ेबाज़ी भी है, नटगीरी भी है, चौपाल चर्चा भी है। कथागायकी भी है और असमाप्त लंतरानियां भी। इसलिए बंसी के ‘रंग विदूषक (जो 1984 से स्वतंत्र रूप में सुस्थापित हुआ।) में - क़िस्से आफ़ती के, अंधेर नगरी, गधों का मेला, नैन नचैया, बेढब थानेदार, सौदागर और रंगबिरंगी दुनिया का भावबोध गड्डमड्ड होता है, तो वह न कल्चर का घल्लू घारा होता है न अमलगमेशन बल्कि वह अनेकता में एकता वाले विश्वमानव की तलाश में हांका लगता, जन जागरण की तरह का तमाशा होता है। वहां खोजा नसीरुद्दीन, वीरबल, तेनालीराम रंग अनुभव में परकाया प्रवेश करते दीखते हैं, ब्रेख्त से संवाद करते दृष्टिगोचर होते हैं। यह अदभुत होता रहा है।

अब हमारे कतिपय आधुनिकतावादी या उच्च आधुनिकतावादी रंगप्रेमियों को इसमें सिर्फ़ भांड-मिराशीपन या अतार्किक उछलकूद नज़र आती हो तो नज़र आये और रूढ़ शास्त्रीयता पर परंपरावादियों को यह शास्त्रीयता का लंघन नज़र आता है तो आये, लोक-कलाओं के स्वयंभू विवेचकों, व्याख्याकारों को इसमें लोक नज़र में न आता हो तो न आये, मगर जो सर्वसमावेशिता में यक़ीन करते हैं, उन्हें बंसी का विदूषक विश्वसनीय दीखता है। मेरे मत से ठीक ही दीखता है क्योंकि इसमें हास्य बोध भी है, सामाजिकता में अर्जित विचारधारात्मक प्रवाह भी है, सहज-सरल प्रतिरोध और आक्रोश भी है। कहना चाहिए कि असहमतियों के साथ दृढ़ प्रतिज्ञा भी है, रंजकता में पोशीदा गहरी करुणा भी है इसलिए 'रंग विदूषक' का नाटक जब गुदगुदाता है तो दर्शक की आंखें नम भी होती हैं। उसके नेत्र विस्फारित भी होते हैं क्योंकि वह साधारणीकरण के ज़रिये दर्शक के दुख-दर्द-घुटन-पीड़ा पर उंगली भी रख देता है।

बंसी में यह करुणा, यह पीड़ा पैबस्त है। मैं, यानी रामप्रकाश अपने रहन-सहन के मामले में उदासीन हूं। सजने की इच्छा पर हमेशा ऐसी क्या पड़ी है का भाव हावी रहता है। बंसी उम्र में मुझसे छोटे पर अनुभव में शायद बड़े। एक बार मैं उनके घर द्वारका के सतीसर अपार्टमेंट में ठहरा। शहर में घूमा भी। अचानक उन्होंने गाड़ी बाटा के शोरूम पर रुकवायी। मुझे लगा जूता-चप्पल कुछ लेना होगा। यों भी बंसी ब्रांडेड चीज़ें चाव से पहनते और बरतते थे। अंदर गये तो वे मेरी तरफ़ इशारा करके बोले, 'इनके नाप का जूता दिखाओ।' मैं हतप्रभ! मैंने कहा, 'यह क्या बकवास है, मैं अच्छा ख़ासा जूता पहने हुए हूं।' बस इतना कहना था कि कश्मीरी पंडित के मुंह से 'मातृ देवो भव', 'पितृ  देवो भव' क़िस्म के श्लोक झरने लगे। मैंने सार्वजनिक प्रदर्शन को स्थगित करवाने में ही ख़ैर समझी। बहरहाल, सरेबाज़ार बंसी ने मुझे जूते दे दिये। गाड़ी में बैठने के बाद बारी मेरी थी। बंसी ने कहा कि 'तुम समझोगे नहीं। मेरा बचपन बहुत गुरबत में बीता है। कश्मीर में जब बर्फ़ ही बर्फ़ होती और पास में फटे पुराने जूते होते या न भी होते तो भारी तकलीफ़ होती। तुम मैदान के लोग नहीं समझ सकते कि बर्फ़ के शूल कैसे चुभते हैं। तबसे जूते मेरा कॉम्पलेक्स हैं। अच्छे जूते मेरा सपना रहे हैं। तुम्हारे पुराने और थेगड़ेदार जूते को देखकर मेरा कॉम्पलेक्स जाग उठा' और बंसी यह कहकर हंसे। मगर यह सिर्फ़ हंसी नहीं थी-उसमें गहरा दर्द भी था। वार्तालाप को हलका करने के लिए मैंने कहा कि 'तुम सारे बर्फ़ के चाकू के मारे हुए हो। वैसे जूते मैं कम ही पहनता हूं। ज़्यादा चप्पलें पहनता हूं। पर जब भी जूते पहनता हूं तो उनमें बंसी की पैबस्त यातना न चाहकर भी दिख जाती है।

बंसी ने अपनी स्वतंत्र रेपट्री बच्चों से शुरू की। रंग बिरंगे जूते, मोची की अनोखी बीवी, रेपट्री के आरंभिक नाटक थे। यह 1984-1985 का दौर था। दिलचस्प है कि इन नाटकों की कार्यशालाओं में प्रशिक्षित बच्चे आज भी 'रंग विदूषक' परिवार के सदस्य हैं। कुछ तो 'रंग विदूषक' के नाटकों का निर्देशन करते हैं। 'रंग विदूषक' प्रकटत: ड्रामा स्कूल नहीं है लेकिन उसमें कलाकार का परिष्कार और विकास गुरुकुल की तरह होता है। मैंने रंग संस्थाएं बहुत देखी हैं। सूत्रधार का निर्माण, संचालन भी किया है। अनुभव से कह सकता हूं कि कोई भी नाटक मंडली एक निर्देशक के नाम पर चलती है। लेकिन 'रंग विदूषक' में ऐसा नहीं था। उसके कलाकारों ने अपनी नाट्य मंडिलयां भी बनायीं, लेकिन 'रंग विदूषक' में रहते हुए संस्था के नाटकों का निर्देश किया है और कई-कई जगह मंचन किया है। यह  सचमुच दुर्लभ है। यह दुर्लभता मात्र संयोग नहीं है। उसमें वही पैबस्त करुणा का सृजन है जो न दिखता है न दिखाया जाता है।

कला की या नाटक की दुनिया का आदमी नहीं था बंसी। वह सामाजिक था। समसामयिक विषयों से वह मंच को सिर्फ रचता नहीं था और न सिर्फ मुद्दे-दर-मुद्दे कलात्मक मुठभेड़ करता था रंग माध्यम से। उसे यह ग़लतफहमी भी नहीं थी कि उसके बदले से समाज बदल जायेगा। हां, नयी और बेहतर दुनिया का सपना ज़रूर था उसके पास।  दिल्ली के पास साहिबाबाद में जब जन नाटय मंच के कलाकार-निर्देशक सफ़दर हाशमी का बेरहमी से क़त्ल किया गया था, तब देशभर के रंगकर्मियों को जुटाने और राष्ट्रव्यापी प्रतिरोध खड़ा करने में बंसी की भूमिका बहुत अहम और उग्र थी। रंग जगत के सावयवी, अग्रगामी और विचारधारा समृद्ध मंच  सहमत के गठन में भी उसकी उल्लेखनीय सहभागिता रही। यह सब कानों सुनी बात है। आंखिन देखी, गतिविधि तो 1992 के भोपाल के सांप्रदायिक दंगो के दौरान की है। दिसंबर भोपाल के लिए त्रासद महीना रहा । दिसंबर में ही भोपाल गैस कांड (2 दिसंबर 1984) हुआ था और दिसंबर में ही बाबरी मस्जिद ढहायी गयी थी (6 दिसंबर 1992)। उसके बाद उस भोपाल में भी सांप्रदायिक कारणों से 142 लाशें गिरी थीं। जिस भोपाल में भारत-पाक विभाजन के दौरान ख़ून तो दूर, किसी का पसीना तक नहीं बहा था। पहली बार भोपाल के दामन पर धर्मांध-सांप्रदायिकता ने ख़ून के छींटे डाले थे। औसत भोपालियों की तरह बंसी भी दुखी थे। अतिरिक्त संवेदनशीलता के चलते। मगर बंसी अनिद्रा के शिकार हो गये।

कर्फ़्यू आलूद शहर। आठों दिशाओं की ओर से उठते गहरे काले धुएं की मोटी-मोटी लकीरें जैसे धरती और आसमान को तक़्सीम करने पर आमादा थी। पुलिस-फ़ौज की दौड़ती चिंघाड़ती जीपें। प्रोफ़ेसर कालोनी की एक छत पर खड़े होकर बंसी ने भी यह देखा। बंसी ने जो देखा वह इस सबसे ज्य़ादा था। घर से बच्चे भी बाहर नहीं निकल सकते थे। वे पतंगें उड़ा रहे थे। बंसी ने धुआं-धुआं आसमान में पतंगें देखीं और सोचा :

जो कुछ आज है वो कल तो नहीं है

ये शामे ग़म मुसलसल तो नहीं है। (ताज भोपाली)

...और आसमान की पतंगें उड़ाने का मन बना बंसी का। फ़ोन खटकाये गये। मध्यप्रदेश विज्ञानसभा, भारत ज्ञान विज्ञान समिति, एकलव्य, जनवादी लेखक संघ, प्रलेस के साथी दंगों में घायल, उजड़े लोगों की मदद कर रहे थे। मध्यप्रदेश मेडीकल रिप्रजेंटेटिव एसोसिएशन के साथी सेंपल वाली सारी दवाएं और उपकरण मुहैया करा रहे थे। कर्फ़्यू लंबा खिंच रहा था। दिन में कर्फ़्यू में ढील के वक्त़ कांग्रेस पार्टी ने नीलम पार्क में अमन का जुलूस निकालने के लिए आह्वान किया। मतभेदों को झटककर सभी लोग जुटे। मैं, राजेश जोशी, बंसी कौल, विनोद रायना, संतोष चौबे, राजेंद्र शर्मा, सतीश मेहता, एस आर आज़ाद, डॉ. अजय खरे, किशोर उमरेकर, प्रेम गुप्ता, विनोद तिवारी आदि-आदि , सभी वहीं थे। मंच पर से दिग्विजय सिंह ने घोषणा की कि अमन-जुलूस निकालने की इजाज़त पुलिस नहीं दे रही है। हम प्रशासन की मदद के मददेनज़र अमन जुलूस स्थगित कर रहे हैं।

हम सबको धक्का लगा। नेताओं से हुज्जत भी की, मगर नतीजा नहीं निकला। तब हम सबने बैठकर वहीं नीलम पार्क में सांस्कृतिक मोर्चे का गठन किया और अमन जुलूस निकालने का फ़ैसला किया। नये भोपाल में दिन का कर्फ़्यू नहीं था लिहाजा अरेरा कालोनी, एकलव्य कार्यालय में मोर्चे की बैठक हुई। जुलूस की थीम बनी।

पहले थीमेटिक नारे थे- ख़ून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद और ख़ून फिर ख़ून है टपकेगा तो जम जायेगा बंसी ने कहा जुलूस सिर्फ़ जुलूस न हो, उसमें बड़े-बड़े आकार की पतंगें हों, उनमें नारे और संदेश लिखे हों। उन्होंने कहा कि एक चादर हो जो ख़ून में लिथड़ी दिखायी दी। ठेले हों जिनमें श्रमिक काम कर रहे हों, मगर उन पर एक जाल डला हो और उनके हाथ मजबूरन रुक गये हों। ताज़िये के जुलूसों में या दिल्ली की फूलवालों की सैर के दौरान जैसे नेज़े निकलते हैं वैसे कलात्मक नेज़े तैयार किये जायें। सबकी सहमति बनी। स्व. भगवत रावत, राजेशी जोशी, संतोष और विनोद ने कवितांश और आप्त संदेश ढूंढ़े। बंसी ने थियेट्रिकल डिवाइस से जुलूस डिज़ाइन किया।

शहरभर के लेखकों, कलाकारों, रंगकर्मियों, संस्कृतिकर्मियों को फ़ोन से सूचित किया गया। जुलूस की तिथि निर्धारित हुईं। पुलिस अधीक्षक ने शांति जुलूस की इजाज़त देने से इंकार किया। मगर सब अड़ गये। अधीक्षक ने कहा कि अवज्ञा करेंगे तो हमें सख़्ती पर मजबूर होना पड़ेगा। हम सबने कहा, 'ठीक है आप शांति जुलूस पर लाठी चलवाइए, गोलियां बरसाइए, मगर यह कार्रवाई नहीं रुकेगी। आख़िर यह गांधी का देश है।

अंतिम से एक दिन पहले 90 फ़ीट लंबी चादर पर ख़ूब सारा ख़ूनी लाल रंग डाला गया। एकलव्य कैंपस में उसे बिछा दिया गया। जब छत पर चढ़कर बंसी ने देखा तो दौड़ते हुए नीचे आये और बोले कि नहीं, यह भयानक है। ख़ून का ऐसा प्रदर्शन दहशत पैदा करेगा। तब तमाम, पेस्टल कलर्स लाये गये और ख़ून के लाल रंग को तमाम रंगों में सराबोर कर दिया गया। ज़ाहिर था कि तब जुलूस की थीम, जो बैनर पर लगनी थी वह अप्रासांगिक हो गयी। लिहाज़ा नयी थीम बनी, जो राजेश और बंसी ने मिलकर बनायी - सब रंगों का एक ही नाम-हिंदुस्तान-हिंदुस्तान।

जीपों-कारों, तांगों में लादकर जब इस चलित मंचीय सामग्री को लेकर हम इक़बाल मैदान पहुंचे तो हमारे आश्चर्य का ठिकाना नहीं था कि धारा 144 लागू होने के बावजूद हमारे पांच सौ अमनपसंद लोगों के टारगेट से छह गुना लोग वहां प्रतीक्षारत थे। पुलिस के पास इस उत्साह और संकल्प को रोकने का मनोबल नहीं था। लिहाज़ा वे इस शांति जुलूस की व्यवस्थाओं में जुट गये।

सब रंग चादर जैसे किसी मज़ार पर चढऩे वाली पवित्र चादर की तरह हो गयी। हर आदमी उसे छूकर देखता। जुलूस में जीपों पर, ठेलों पर नेज़ों पर पतंगें ही पतंगें। ऐसा प्रभावी जुलूस कि पुलिस अफ़सर ने हमारे निर्धारित रूट से 14 किलोमीटर ज़्यादा चलवाया। गोया कि पूरे कथित दंगा प्रभावित क्षेत्र से गुज़रने को मजबूर किया। इस जुलूस में जाति, धर्म, संप्रदाय, पेशा किसी में फ़र्क़ नहीं था। एक झटके में लंबे समय से लगा कर्फ़्यू का आतंक टूट गया। इसमें बेशक बहुतों की मेहनत का योगदान था, लेकिन बंसी की डिज़ाइन ने कमाल कर दिया। लीलाधर मंडलोई भोपाल रेडियो स्टेशन के केंद्र निदेशक थे। उन्होंने इस जुलूस की रनिंग कमेंट्री करवायी। इस तरह दैहिक उपस्थिति के अलावा श्रव्य माध्यम से भी पूरा शहर इस अमन अभियान में जुटा। दूसरे दिन भोपाल कर्फ़्यू मुक्त था। और बच्चे गिर्रियां-पतंगें लेकर सड़कों पर थे। जीवन पटरी पर था।

यह जो था वह रंगकर्म ही था। ऐसा रंगकर्म जो नाट्यशास्त्र के आचार्य भरत की बतायी  रंगपीठ के आयतन और आकार से कहीं बड़ा, पूरे शहर का था। इसमें किरदार प्रोफ़ेशनल्स या शौकिया कलाकार न होकर आमजन थे। एक डिज़ाइन पोस्टरों से भरा हुआ प्रेम गुप्ता का भी था जो सबरंग से मिलकर एक रंग हो गया था।

मुझे लगता है कि एक रंगकर्मी को, एक अभिनेता को, एक रंग निर्देशक को इस तरह समाज का होना चाहिए जैसा बंसी ने करके दिखाया। यह हस्तक्षेपकारी थियेटर है। बंसी की रंग समीक्षा, आलोचना करने वाले बहुत हैं, इसलिए मैंने सोचा - बंसी के रंग-रूट को उनकी स्मृति के साथ खोजा जाये। नहीं मालूम कितना खोज पाया। पर कुछ तो पता चल ही गया होगा कि एक समाज संपृक्त रंग कर्मी का रंग-रसायन कैसे बनता है।

मो. 9753425445 

 

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