कहानी चर्चा-1

 कहानी की नयी इबारत

हरियश राय

आज का कथाकार अपने आसपास के परिवेश को देख और समझ कर रचनात्मक स्‍तर पर अपनी कहानियों में व्यक्त कर रहा है। वह राजनीतिक संबद्धता व बने बनाये फ़ार्मूलों से बाहर निकलकर, संवेदना और कलात्मकता को कहानी का प्रमुख आधार बना रहा  है। उपभोक्‍तावाद, बाज़ारवाद, अपसंस्‍कृति, संप्रदायवाद के बीच से गुज़रते हुए, आज की कहानी ने मनुष्य के दुखों की अभिव्यक्ति तक अपना विस्तार किया है। जिन तीन कथा संकलनों पर चर्चा इस लेख में की जा रही है, वे तीनों कथा संकलन हमारे आज के दौर को रेखांकित करते हुए कहानी की नयी ज़मीन तलाश करते हैं और कहानी के वर्तमान क्षितिज पर अपनी सार्थक पहचान दर्ज करते हैं ।

समकालीन कहानी धर्मांधता और धार्मिक कठमुल्‍लेपन के विरोध को शिद्दत के साथ दर्ज कर रही है। नूर ज़हीर भी इसका अपवाद नहीं है । वे अपनी कहानियों में उस मुस्लिम परिवेश में मौजूद उन कुरीतियों और जड़ताओं को सामने लाती हैं जो स्त्रियों के लिए एक शोषक की भूमिका निभाता है। वे धर्म के जड़ स्वरूप पर खुलकर प्रहार  करती हैं और अपने पाठक को एक ऐसी आधार भूमि पर ले जाती हैं जहां इन कुरीतियों के ख़िलाफ़ अपने आप को खड़ा कर पाता है।   

नूर ज़हीर, की  ‘सयानी दीवानी’ कहानी एक विचलित कर देने वाली विशिष्‍ट  कहानी है जिसे पढ़कर धार्मिक कठमुल्‍लेपन के ख़िलाफ़ एक स्‍त्री को खड़े होता देख सुखद अनुभूति का एहसास होता है। विशिष्‍ट इसलिए कि कहानी की नुजहत जिसे कहानी में दीवानी कहा गया, मुस्लिम परिवेश में रहते हुए, अपने पति रज़ा इमाम की हरकतों को बर्दाश्‍त नहीं करती और उसके पुरुष होने की असलियत को ज़ाहिर करने की धमकी देकर  मेहर की रक़म अपने हक़ स्वरूप लेती है। इतना ही नहीं, वह दरवेश बाबा के सामने एक मज़बूत चट्टान की तरह खड़ी होकर फ़रिश्तों को नपुंसक, कहती हुई यह सवाल करती है कि ‘अकेली औरत क्‍या करे’ ?  वह दरवेश बाबा की ’सब्र करने’  और ‘दुआ मांगने’  की सलाह को न मानकर अपने पति रज़ा इमाम की कसकर पिटाई कर देती है और फ़ख्र से मेहर की रक़म लेकर, और यूनानी हिकमत का सर्टिफ़िकेट हासिल कर, तीन कमरों वाले घर में दो कुत्तों, पाच बिल्लियों, तीन बकरियों और एक अदद तोते के साथ रहती है और गाय का दूध घटने से लेकर टीबी जैसी बीमारियों के बारे में लोगों को सलाह देते हुए ज़िंदगी बसर करती है। पर उसे दीवानी क्यों कहा जाता है, नुजहत इसका जवाब देती है, ‘इबादत, नमाज़, तलावत, रोज़े को समय बर्बाद करना कहे, वह दीवानी नहीं तो और क्‍या है?’ पर दरअसल वह दीवानी नहीं, सयानी है जो मुस्लिम समाज की इन कुरीतियों के ख़िलाफ़ अपने आप को खड़ा करते हुए एक नये विमर्श को सामने लाती है। ‘बरामदे के पेड़’  कहानी की नहीद भी अपने ससुराल से आये बुर्क़े को पहनने से इंकार कर देती है और अपने आप को धर्म की जकड़नों से मुक्त करती है। वह बारिश में नहाने का मन बनाकर अपने घर से बाहर निकल आती है।

नास्तिक कुनबा’ कहानी में नूर ज़हीर ने सोसम्‍मा को केंद्र में रखकर, चर्च के आडंबर और पाखंड को बहुत गहराई से उजागर किया है। बावन साल की उम्र में पति की मृत्यु होने के बाद सोसम्‍मा चर्च में पसरे जाति दंश के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ बुलंद करती है। चर्च में जाति के दंश के कारणों का पता लगाने के लिए वह अपनी बहन के घर जाती है, उसकी बहन बहुत ही कम उम्र की नन को दुत्‍काराती, फटकारती और सज़ा देती है क्योंकि उस नन ने इशु मसीह की मूर्ति को पोंछ डाला और पवित्र जल के प्याले और मोमबत्ती दान को छुआ। अपनी बहन के इस आचरण से आहत होकर सोसम्‍मा चर्च जाना छोड़ देती है। ईसाइयों के मोहल्‍ले से निकाले जाने और तमाम तरह की प्रताड़ना सहने के बाद भी सोसम्‍मा चर्च की सत्‍ता को ख़ारिज कर देती है। छह साल बाद सोसम्‍मा की मित्र आर्या जब आइ ए एस बनकर वापस अपनी बस्ती में आती है तो उसे पता चलता है कि फ़ादर और चर्च का विरोध करते हुए सोसम्‍मा ने अपने घर में दम तोड़ दिया। ईसाई धर्म का नकार,चर्च की सत्‍ता का नकार और मानवीयता की प्रतिष्ठा इस कहानी का मुख्य स्‍वर है।

नूर ज़हीर की यह ख़ासियत है कि वे अपनी कहानियों में ऐसे स्‍त्री पात्रों की भी रचना करती हैं जो पुरुष प्रधान समाज द्वारा निर्धारित रूढ़ियों और रिवायतों में बंध कर जीवन जीती हैं और इस प्रक्रिया में वे लगातार टूटन का शिकार होती हैं। 'तन्‍हाई भोजी'  कहानी में ज़रीना है जो लंदन स्‍कूल आफ़ इकनॉमिक्‍स से पीएचडी करने के बाद फ़ोर्ड फ़ाउंडेंशन की प्रोग्राम डायरेक्‍टर है, जिसका परिवार उसी की कमाई पर ऐश कर रहा है। यह परिवार पहले तलाक़शुदा औरत से शादी करने के ख़िलाफ़ था लेकिन जब उन्हें अच्‍छा खाना पीना, रहने को बड़ा घर मिल जाता है  तो यही परिवार ज़रीना का गुणगान करने लगता है। ज़रीना साठ साल की उम्र में नौकरी से रिटायर होने के बाद अपनी आपबीती लिखती है और अमरीका में रह रही अपनी बेटी नरगिस को मेल कर देती है। अपनी ज़िंदगी की दास्‍तां बताती हुई वह लिखती है, ‘खुद को तोड़ने से बेहतर है, मैं सांचों को तोड़ने की कोशिश करूं।’ कहानी पाठक को बने बनाये सांचों से बाहर निकाल कर अपने लिए नये सांचे बनाने की ओर ले जाती है। ‘नायिका अभिसारिका’ की सलीमा पुरुषवादी समाज से बत्तीस वर्ष बाद अपनी आज़ादी पाकर खुश होती है। अपनी इस खुशी का इज़हार वह कत्थक नृत्य के माध्यम से करती है। 'ज़रूरी माल' कहानी का केंद्रीय पात्र नीरजा कैंसर से पीड़ित है। किसी बस में उसके इलाज की फ़ाइल गुम हो जाती है। उस फ़ाइल में रिपोर्ट, एक्‍सरे वग़ैरह हैं और उसी के हिसाब से नीरज़ा का इलाज होना है। नीरजा के पति सुधाकर को जब यह पता चलता है तो वह बौखला जाता है। वह इतना आत्‍मग्रस्‍त और अहंकारी है कि कैंसर से पीड़ित बीमार पत्नी की फ़ाइल तलाशने के लिए हाथ पैर भी नहीं मारता। नूर ज़हीर ने इस कहानी में आटो रिक्शा के ड्राइवर का एक सकारात्मक चरित्र गढ़ा है। ड्राइवर को जब पता चलता है कि नीरजा कैंसर जैसी भयानक बीमारी से ग्रस्त है तो वह अपना रोज़ा खोलने की बात भूलकर तेज़ी से ऑटो बस स्‍टैंड की ओर मोड़ता है। जब नीरजा मस्जिद में अज़ान की आवाज़ सुनकर उससे कहती है कि ‘मेरे पास फल हैं बाबा, आप रोज़ा तोड़ लीजिए’, तो वह कहता है, ‘रोज़ा तो आपके फलों से तोड़ूंगा लेकिन फ़ाइल मिलने के बाद।’ जब फ़ाइल मिल जाती है तो नीरजा को बस ड्राइवर की बात याद हो आती है कि ’ज़रूरी माल संभाल कर रखना चाहिए और जान तो सबसे ज़रूरी माल है, संभाले रहना।’ तब उसे एहसास होता है कि उसकी ज़िंदगी ही सबसे ज़रूरी माल है जिसे उसे पुरुषों की क्रूर मानसिकता से बचा कर रखना है। एक सकारात्मक चरित्र को लेकर लिखी गयी यह कहानी हमें एक ऐसे बिंदु पर ले जाती है जहां संकीर्णता और अहमन्‍यता के आगे मानवीयता और उदारता की जीत होती है।

'चक्‍कर घिन्‍नी' कहानी तलाक़ के दंश को झेलती सकीना की कहानी है जिसका शौहर उसे चार बार तलाक़  देकर पांचवी बार निकाह करना चाहता है। कहानी इद्दत, हलाला, तलाक़, निकाह जैसे सवालों से गुज़रती हुई क़ुरआन के ‘सुरा-ए- निस्‍सा‘ जैसे अध्‍यायों पर बुनियादी सवाल खड़े करती है। कहानी यह रेखांकित करती है कि मुस्लिम समाज को भी अपने भीतर व्याप्त कुरीतियों जैसे तीन तलाक़, बहु विवाह आदि पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाना होगा  और अपनी सोच से इन कुरीतियों को बाहर निकालना होगा ।

संग्रह की ये कहानियां भारतीय मुस्लिम परिवार के अंदरूनी परिवेश में स्त्रियों की स्थितियों को पूरी जटिलता के साथ सामने लाती हैं। साथ ही मुस्लिम परिवारों में धार्मिकता और जड़ता कितने गहरे तक समायी हुई है, संकलन की कहानियां इस ओर भी नज़र डालती हैं। 'सड़क चलने लगी',  'दर बदर', 'मामूली लड़की’ जैसी कहानियां मुस्लिम परिवेश में स्त्रियों की स्थितियों को नये कोण से देखने की पेशकश करती हैं। कहानियों के पात्र समय और परिस्थितियों के दबाव झेलते हुए उस माहौल को बदलने की कोशिशों में लगे रहते हैं जो इन कहानियों की एक ख़ासियत है।  

नूर ज़हीर पुरुष प्रधान समाज में स्त्रियों की स्थितियों को मानवीय करुणा की भावभूमि पर व्यक्त करने वाली कथाकार हैं। उनकी कहानियों के ब्योरे और उनके कहानी कहने का अंदाज विशेष रुप से उल्लेखनीय है। वे अपनी कहानियों में परिवेशगत स्थितियों और पात्रों की मनोदशाओं और कहानी के ब्योरों का ऐसा जीवंत और मार्मिक वर्णन करती हैं कि पाठक अनायास ही उनकी कहानियों से बंध जाता है। वे बहुत छोटे छोटे दृश्यों और संवादों के माध्यम से कहानी का ऐसा तानाबाना बुनती हैं कि कहानी पाठक को उसकी अपनी कहानी लगती है। उनकी कहानियों के कथानक सघन और विश्‍वसनीय लगते हैं। इस संकलन की कहानियां मुस्लिम स्त्रियों को  सांचों में ढलने के लिए नहीं, बल्कि इन सांचों से बाहर निकलने और अपने लिये नये सांचे बनाने की तरफ़ भी इशारा करती हैं। जैसा कि मार्क्‍स ने कहा था, दार्शनिकों ने तरह तरह से दुनिया की व्याख्या की है जबकि सवाल उसे बदलने का है।’

 आज के दौर में ऐसे कथाकार भी समकालीन कहानी में सक्रिय हैं जो जन आंदोलन से जुड़े रहे और इस आंदोलन के साथ जो वैचारिक मज़बूती उन्‍होंने हासिल की, उस वैचारिक मज़बूती के साथ वे कहानी के क्षेत्र में सक्रिय हैं। अंजली देशपांडे एक ऐसा नाम है जिनकी कहानियों में वैचारिकता और संवेदना का अदभुत सामंजस्य है। वे अपने कहानी संकलन, अंसारी की मौत की अजीब दास्‍तान  में पुलिसतंत्र के आतंक की कहानी कहती हैं।  कहानी में एक प्रोफ़ेसर अंसारी  है जिसमें नक़ली दिल लगा हुआ है। वह सूफ़ी संगीत सुनने के लिए अपनी पत्नी के साथ एक सभा में जाता है और जब वह सुरक्षा जांच से गुज़रता है तो वहां लगी मशीनों से 'बीप' की आवाज़ सुनायी देती है। पुलिस उसे मानव बम समझ कर पकड़ लेती है। प्रोफ़ेसर अंसारी और उसकी पत्नी पुलिस वालों को सफ़ाई देते हैं कि वह आतंकवादी नहीं है, उसकी छाती में नक़ली दिल लगा हुआ है और जो तार देख रहे हैं, वह दिल को चार्ज करने वाली तार है, किसी बम की नहीं। लेकिन पुलिस वाले उसकी एक नहीं सुनते और अंतत: उसकी मौत हो जाती है। कहानी पुलिस के काम करने के तौर तरीक़ों और उसके आंतक को सामने लाती है। कहानी में अंजली देशपांडे ने एक संदर्भ को लिया है,  एक प्रोफ़ेसर द्वारा अपनी पत्नी सहित सूफ़ी संगीत सुनने जाना और पुलिस की गिरफ़्त में आ जाना। इस संदर्भ को अंजली देशपांडे हमारे आज के व्यापक परिवेश से जोड़ देती हैं। पुलिस का आंतक और एक सीधे सादे आदमी को मानव बम समझने की सोच, कहानी का केंद्रीय स्‍वर बन जाते  हैं। यह कहानी पुलिस तंत्र और उनकी कार्यशैली पर बहुत बड़े सवाल खड़े करती है।

कहानी में सांप्रदायिक सोच का एक धरातल है तो सांप्रदायिक सोच का दूसरा धरातल उनकी कहानी, 'भूल' में देखने को मिलता है। 'भूल' कहानी प्रेम-कहानी है, लेकिन इस प्रेम में हिंदुस्‍तान के बंटवारे व मुसलमानों के प्रति भेदभाव के कई प्रसंग समाहित हैं जो कहानी को ताक़त देते हैं। कहानी श्रीपाद और तसनीम जहान के प्रेम संदर्भों की है, जिससे कहानी की केंद्रीय संवेदना बनती है। दोनों कॉलेज में पढ़ते थे और इसी दौरान दोनों में प्रेम हुआ। बंटवारे के दौरान तसनीम जहान कराची चली जाती है क्योंकि उसके पिता रज़ाकार थे। तसनीम जहान के पाकिस्तान जाने के बाद श्रीपाद  हिंदुस्‍तान में रह जाते हैं। इन दोनों की शादी नहीं हो पाती। हालांकि श्रीपाद तसनीम जहान से शादी करने के लिए कलमा पढ़ने को भी तैयार हो गये थे लेकिन उनकी बहन छाया नहीं चाहती थी कि उसके भाई की शादी एक मुस्लिम लड़की से हो। अपनी बहन के इस व्यवहार से श्रीपाद ने उनसे अपना नाता ख़त्‍म कर लिया था। इस नाते के ख़ात्‍मे के मूल में एक कारण और भी था और वह यह कि उसके बहनोई ने ही तसनीम के पिता के बारे में पुलिस को ख़बर दी थी और उन्‍हें गिरफ़्तार करवाया था। उम्र के आख़िरी पड़ाव पर जब छाया की बेटी आशा के प्रयासों से उन दोनों की मुलाक़ात होती है तो वह मुलाक़ात बेहद उदास और सपाट सी होती है। कहानी इस प्रेम प्रसंग के माध्यम से हिंदुस्‍तान के बंटवारे को एक भूल के रूप में याद करती हुई कई सवाल हमारे सामने खड़े करती हुई एक विशिष्‍ट कहानी बन जाती है । कहानी के बीच बीच में विभाजन के दौरान हुए दंगों व राष्ट्रवाद, मुस्लिमों के प्रति वैमनस्य ,खुले दिमाग़ के लोगों द्वारा भी दंगे करवाने, पाकिस्तान के प्रति मुज़ाहिरों का मोह भंग जैसे कई ऐसे प्रसंग हैं जो परस्पर गुंथे हुए हैं। ये सभी प्रसंग कहानी के कथ्य को एक राजनीतिक आयाम देते हैं।

  संघर्षशील स्त्रियों के संघर्षों को कहानी में चित्रित करने को कहानी के एक मुख्‍य स्‍वर के रुप में देखा जा सकता है । उनकी कहानी, 'हक़' को संघर्षशील स्त्रियों की सोच और सरोकारों को सामने लाने वाली कहानी के रुप में देखा जा सकता है। कहानी ओनिमा और जैसन पुथुपल्‍ली के संबंधों की कहानी है, लेकिन उनके संबंधों के साथ साथ असम आंदोलन को केंद्र में रखती हुई तत्कालीन राजनीति को सामने लाती है। एक लंबे समय तक असम में आंदोलन चला; इस आंदोलन में असम में बाहरी लोगों,  ख़ासतौर पर बांग्लादेश से आये लोगों को बाहर निकालने के लिए कोशिशें हुईं । कहानी की ओनिमा असम आंदोलन से गहराई से जुड़ी है। वह एक पत्रिका में जैसन पुथुपल्‍ली के लेखों को पढ़कर प्रभावित होती है जिसमें असम के आंदोलनों को जन आंदोलन कहा जाता है। लेकिन जब उसे यह पता चलता है कि जैसन पुथुपल्‍ली एक बंगाली है तो ओनिमा की सोच बदल जाती है। वह उसे असम आंदोलन के विरोधी के रुप में देखने लगती है। कहानी असम आंदोलन से जुड़े अनेक तर्कों से गुज़रते हुए इस निष्कर्ष‍ तक पहुंचती है कि ‘आंदोलन से कोई हल नहीं निकला वही छात्र शासक बन गये।’  कहानी सवाल करती है कि क्‍या ब्रह्मपुत्र के मीनारों पर नौकाओं से वसूली करने वालों का आंतक कम हुआ था? या क्‍या ब्रह्मपुत्र के किनारे अपने हो गये थे? या क्‍या बाहरियों से छुटकारा मिल गया था? कहानी में एक दूसरा स्‍तर ओनिमा के संबंधों का भी है जो बचपन में अपना घर, अपना हक़ छोड़कर निकल गयी थी। आंदोलन की विफलता के साथ ही उसे लगता है कि उसे अपना हक़ नहीं छोड़ना चाहिए था। इस स्‍तर पर कहानी को एक नयी ऊंचाई मिलती है। अंजली देशपांडे ने इस कहानी के कथ्य के माध्यम से आक्रामक राष्ट्रवाद के जिन प्रभावों का रेखांकन किया है, वे आज के समय में और भी ज़्यादा सघन हो गये हैं।

अंजली देशपांडे की  'असमान कहानी' स्त्रियों के वजूद और उनके स्वाभिमान की कहानी है। कहानी में ज़र्द चेहरे और बदरंग त्वचा वाली स्‍त्री को धंधे वाली समझ कर एक पुरुष द्वारा नोट दिखाकर लालच दिया जाता है कि वह उसके साथ चले। नोट देखते ही स्‍त्री का स्वाभिमान जागृत हो जाता है और बात यहां तक बढ़ जाती है कि दोनों पुलिस स्टेशन पहुंच जाते हैं। स्‍त्री चाहती है कि पुलिस उसकी शिकायत दर्ज करे लेकिन ऐसा हो नहीं पाता और अंतत: रत्‍ना उस व्यक्ति को पुलिस की मौजूदगी में एक ज़ोरदार थप्पड़ मारती है। कहानी संवेदना के स्‍तर पर रत्‍ना के साथ खड़ी होकर स्‍त्री विमर्श के तमाम दायरों से अपने आप को मुक्त करती हुई स्‍त्री के गौरव को केंद्र में लाती है ।

अंजली देशपांडे की कहानी, 'रामचंद्र जी का लंच' रामलीला के पात्रों के प्रति भक्तिभाव तथा इस भक्तिभाव के प्रतिकार की कहानी है।  रामलीला के राम को अपने अपने घरों में भोजन कराने की होड़ सी लगी रहती है। तमाम औरतों की तरह दीपा भी चाहती है कि रामलीला में राम का अभिनय करने वाला पात्र  उसके घर में भोजन करे, लेकिन उसके पास इतना वक्‍त़ नहीं है कि वह दीपा के घर आ सके । कहानी में सत्‍या, राम के नाम से चली आ रही व्‍यवस्‍था का विरोध करती हुई कहती है कि ‘क़सूर हमारा है। हम ही भूल गये थे कि आपने शंबूक की हत्या की है, हमारी बिसात क्‍या?’ कहानी में स्त्रियों द्वारा  रामलीला में राम का अभिनय करने वाले पात्र को पूजने, उनके प्रति अपनी भक्ति व्यक्त करने के कई प्रसंग हैं जो कहानी को जीवंत और अर्थवान बनाते हैं ।

आज की कहानी ग्रामीण परिवेश में व्याप्त पूंजी और उससे उत्‍पन्‍न विसंगतियों के ऐसे अनूठे चित्र पेश कर रही है जो कहानी की व्यापकता को बढ़ाते हैं। व्‍यवस्‍था द्वारा विकास का जो मॉडल पेश किया जा रहा है आज की कहानी उसे पूरी तरह नकार देती है । कैलाश बनवासी के कहानी-संग्रह, कविता पेटिंग पेड़ कुछ नहीं की कहानी, 'विकास की पतंग' इस दृष्टि से उल्लेखनीय कहानी है। इस कहानी में कैलाश बनवासी ने सहजता के साथ वर्तमान शासनतंत्र में एक सीनियर इंजीनियर के जीवन के संदर्भों को संवेदनात्‍मक स्‍तर पर सामने रखा है। कहानी के विकास देवांगन को जब आर्थिक मंदी के कारण नौकरी से निकाल दिया जाता है, तब उसके जीवन में संकटों का दौर शुरू होता है। वह तमाम प्रयास करता है कि किसी तरह उसका जीवन सामान्य रूप से चल सके, लेकिन ऐसा होता नहीं है। वह चुनाव भी लड़ता है और चुनाव में हारने के बाद फिर से पार्टी आफ़िस में इस उम्मीद से  काम करने लगता है कि कभी उसे भी कोई न कोई बड़ा पद सरकार में मिल ही जायेगा।

कहानी में कैलाश बनवासी ने विकास देवांगन के चरित्र के बारीक़ रेशों को कलात्मक तरीक़े से प्रस्‍तुत करते हुए यह सवाल उठाया है कि इस मंदी के दौर में क्‍यों क्रिकेटरों को करोड़ों रुपयों में ख़रीदा जा रहा है और विजय माल्‍या की किंग फिशर कंपनी में सैकड़ों कर्मचारी हड़ताल क्यों कर रहे हैं और क्यों उसका मालिक मालदीव, मारिशस, सिंगापुर, पटाया में सुंदरियों के बीच कैलेंडर के लिए तस्‍वीरें खिंचवाता है ? और क्‍यों अरबपति मालिकों के जीवन में इस मंदी का असर नहीं हुआ?  कैलाश बनवासी ने इस कहानी में जिन जीवन संदर्भों को उठाया है , वे आज की व्‍यवस्‍था से ही उपजे हैं, जो बेहद दुखदायक और त्रासद हैं।  इस  कहानी का प्रभाव इसलिए भी ज़्यादा पड़ता है क्‍योंकि इसमें देश के लोगों पर थोपी गयी मंदी के कारण तबाह होती ज़िंदगी की तस्‍वीर देखने को मिलती है। अपने जीवन को बेहतर बनाने की लालसा विकास को पार्टी आफ़िस में ले जाती है जहां से भी उसे निराशा ही हाथ लगती है लेकिन एक सपना उसके मन में अभी भी पल रहा है कि शायद कभी उसे भी सफलता हासिल हो। कहानी का यह मार्मिक अंत कहानी को एक नयी ऊंचाई पर ले जाता है।

कैलाश बनवासी ने ‘झांकी’ कहानी में हमारे आज के समय के शिक्षातंत्र को पहचानने के कई सूत्र दिये हैं। शिक्षातंत्र किस तरह पूंजी और मुनाफ़ा बटोरने वाले एक बहुत बड़े जाल में बदल चुका है, कहानी इस का खुलासा करती है। मेडिकल कॉलेज का सरगना राठी, मेडिकल कॉलेजों की सहायता से करोड़ों का कारोबार करता है। कहानी में ऐसे कई दृश्य मौजूद हैं जो वर्तमान शिक्षा व्‍यवस्‍था के ढांचे को कठघरे में खड़ा करते हैं। स्‍कूल टीचर धीरेंद्र मिश्रा साढ़े तीन लाख रुपये डोनेशन देकर अपने बेटे को डेंटल कॉलेज में दाख़िला दिलाना चाहता है। मेडिकल संस्थान की भव्‍यता व चकाचौंध को देखकर हैरान भी रह जाता है। उसके मन में यह सवाल भी उठता है कि राठी के संस्थान की नयी बिल्डिंग बनाने वाले मज़दूरों के मन में यहां पढ़ रहे बच्‍चों को देखकर यह ख़याल आता होगा कि काश हमारे बच्‍चे भी यहां पढ़ सकते । इस बिंदु पर आकर कहानी नये अर्थ खोलती है।

समकालीन कहानी अपने समय की राजनीति के अंतविर्रोधी स्वरूप को पहचानने में और उसे व्यक्त करने में पूरी तरह सक्ष्‍म है । कैलाश बनवासी की कहानियां इसकी एक मिसाल हैं। उनकी कहानियों की एक खूबी यह है कि वे बिना राजनीतिक विषयों के भी अपने समय की राजनीतिक कहानियां बन जाती हैं। किसी भी कहानी में किसी भी तरह का राजनीतिक संदर्भ नहीं है, लेकिन उनकी कहानियां राजनीति में आम आदमी की त्रासद स्थितियों को संवेदनात्‍मक स्‍तर पर सामने रखती हैं। ‘कविता, पेटिंग पेड़ कुछ नहीं’ कहानी के पात्र चाहे वह स्‍कूल टीचर नंदिता हो या उसके पैंसठ वर्षीय पिता जी द्वारा अपने सामने ही गूलर के पेड़ को लेकर लिखी गयी कविता हो, ये सब धर्म और संप्रदाय की राजनीति करने वाले राजनीतिज्ञों के सामने कुछ नहीं हैं। यह कहानी का एक पक्ष है लेकिन कहानी का दूसरा पक्ष भी है और वह है कि सत्‍ता का विरोध करने के लिए पेंटिंग और कविता से बढ़कर दूसरा कोई औजार नहीं है। कहानी की सार्थकता तब और भी बढ़ जाती है जब पिता जी अपनी कविता में यह लिखते हैं, ‘ईश्वर के नाम पर / ईश्वर के भक्तों ने नहीं / काट गिराया है  तुम्हें ईश्वर की सेना ने / जिन्हें नहीं मालूम तिल-तिल कटने की पीड़ा / और उजड़ जाने का दर्द।’

इसी तरह ‘बड़ी ख़बर’ कहानी में मीडिया चैनलों के द्वारा नक़ली ख़बरों के प्रसारण से नफ़रत का माहौल पैदा करना लोगों की मानसिकता को एक ख़ास दिशा की ओर ले जाने का संकेत है। बैंक में चैक जमा कराने गया व्यक्ति देखता है कि बैंक के परिसर में लगा टीवी बड़ी ख़बर के रुप में ‘सर्जिकल स्‍ट्राइक के बाद सकते में है पाक’, ‘कब तक बचेगा पाक’,’सीमावर्ती गांवों में पाक ने दागे मोर्टार’, 'हमारी सेना हर हमले का जवाब देने में सक्षम’ जैसी उत्तेजक और सनसनीपूर्ण ख़बरों का प्रसारण कर लोगों के ज़ेहन में ज़हर फैला रहा है, लेकिन उस व्यक्ति के लिए ये सब ख़बरें, ख़बरें नहीं हैं। उसके लिए तमाम झूठ के बावजूद बैंक में अपने काम से आये लोगों के बच्‍चो का खेल खेलना ख़बर है। तमाम घृणित ख़बरों के बीच बच्‍चों के खेलने के सहज आनंद को बचाये रखने की कोशिश करती हुई यह कहानी पाठकों को ऐसे मुक़ाम तक ले जाती है जहां पाठकों के लिए मीडिया की बड़ी ख़बरों से अधिक बड़ी ख़बर बच्‍चों का खेलना बन जाती है।

कैलाश बनवासी अपनी कहानियों में एक आम आदमी के मन में पाकिस्तान को लेकर जो खिंचाव और अलगाव है, उसे व्यक्त‍ करते हैं। पिछले कुछ समय से हमारे देश में पाकिस्तान को लेकर एक ऐसा माहौल बनाया गया कि आम आदमी भी उस माहौल से अछूता नहीं रहा और अनजाने ही उसे पाकिस्तान की हर चीज़ से एक नफ़रत सी हो गयी । हिंदुस्‍तान पाकिस्तान का क्रिकेट मैच एक खेल नहीं, एक तरह से  युद्ध की तरह  होता है और देश की अधिकांश आबादी इस खेल को एक जुनून और बदले की भावना से देखती है। हिंदुस्‍तान  किसी भी सूरत में पाकिस्तान से हारे, यह इस देश के लोगों को देखना क़बूल नहीं है। किक्रेट मैच में पाकिस्तान की हार के बाद कहानी के जग्‍गू को मुसलमानों को जलाने में असीम सुख हासिल होता है। मैच देखते देखते किस तरह उनमें एक सांप्रदायिक सोच समा जाती है कैलाश बनवासी ने अपनी कहानी, 'चक दे इंडिया' में बखूबी सामने रखा है। इस घृणास्‍पद माहौल के बीच कैलाश बनवासी ने इस कहानी में राशि शुक्‍ला और आसिफ़ की प्रेमकथा को भी पिरोया है जो कहानी को एक सकारात्मक बिंदु की ओर ले जाता है। हिंदू मुस्लिम संबंधों को प्राणवान और सौहार्दयुक्त बनाने के लिए जिस संवेदनशीलता की ज़रूरत है, वह कहानी में एक अंत:सलिला की तरह मौजूद है और वही कहानी की ताक़त है। कैलाश बनवासी की दृष्टि इस व्‍यवस्‍था के दमनचक्र की ओर भी जाती है और इस चक्र को वे अपनी कहानियों में कई स्‍तरों पर रूपांतरित करते हैं। 'वाइब्रैट जगतरा' कंपनियों द्वारा किसानों की ज़मीन हड़पने तथा किसानों के दमन व संघर्ष की कहानी है। कहानी का जगन उस पात्र का प्रतिनिधि है जो ग्रामीण विकास के नाम पर भ्रष्टाचार करता है और गांव की राजनीति में केंद्रीय भूमिका निभाते हुए सत्‍ता के सूत्रों को अपने हाथ में रखता है। यह कहानी ग्रामीणों द्वारा अपने हक़ की लड़ाई की आवाज़ को बुलंद करते हुए पाठकों की चेतना को एक नया विस्तार देती है।

कैलाश बनवासी हमारे समय के उन रचनाकारों में से हैं जो अपने रचनात्‍मक अनुभवों को अपने परिवेश से संबद्ध करते हैं और कहानी की संवेदना में इस तरह पिरोते हैं कि कहानियां पाठकों की चेतना को गहराई से प्रभावित करती हैं।  संग्रह की अधिकांश कहानियों के दृश्य परस्पर जुड़े रहते हैं । संवादों को परिस्थितियों के अनुकूल ढालने को कैलाश बनवासी की कहानी कला की एक विशेषता के रूप में देखना चाहिए । इन तीनों संकलनों की कहानियों की एक खूबी यह भी है कि ये कहानियां हमारे समय के सरोकारों को गहराई से सामने रखते हुए कहानी लेखन की नयी इबारत लिखती हैं। ये कहानियां राज्य की भूमिका, राष्ट्रवाद और अंधराष्‍ट्रवाद व सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के फ़र्क़ की पहचान को लेकर भी सतर्क हैं। इन संकलनों के माध्यम से आज की कहानी किस मुक़ाम तक आन पहुंची है,  इसका अंदाज़ा सहजता से लगाया जा सकता है। 


फोन : 9873225505

पुस्तक संदर्भ

1. सयानी दीवानी : नूर ज़हीर , राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा0 लि0, 2020

2. अंसारी की मौत की अजीब दास्‍तान : अंजली देशपांडे, सेतु प्रकाशन, नोएडा, 2019
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.  कविता पेटिंग पेड़ कुछ नहीं : कैलाश बनवासी, सेतु प्रकाशन, नोएडा, 2020

 

 

 

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