आलोचना संवाद-1

 दलित विमर्श संबंधित कुछ पुस्‍तकों पर चर्चा

चंचल चौहान

 

मैंने 1980 में एक दलित मज़दूर रामदीन पर कविता लिखी थी, जो 1982 में प्रकाशित मेरे कविता-संकलन, खोलो बंद झरोखे में संकलित है, तब हिंदी में दलित साहित्य की अलग से गहन चर्चा शुरू नहीं हुई थी। जब डा. धर्मवीर की पुस्तक, कबीर के आलोचक पढ़ी तो लगा कि यह नयी दृष्टि है साहित्य के भीतर के सत्य को देखने समझने की। उस किताब का एक संक्षिप्त रिव्यू दैनिक हिंदुस्तान के लिए लिखा, उस पुस्तक पर जनवादी लेखक संघ के कार्यालय में एक अंतरंग गोष्ठी आयोजित की जिसमें डा. धर्मवीर ने शिरकत की। उसी से प्रेरित हो कर पिछली सदी के अंत में एक लेख, 'दलित साहित्य : विवादों के घेरे' लिखा था, अपने प्रिय मित्र मुद्राराक्षस के आग्रह पर। वह कथाक्रम में प्रकाशित हुआ, सन् 1999 के आसपास, मगर वह अंक मुझसे खो गया, इसलिए सही संदर्भ दे पाना मुश्किल है। लेख की पांडुलिपि मेरे पास बची हुई है। उस लेख में मैंने अपना पर्सपेक्टिव रखा था, बहस के केंद्र में नामवर सिंह, दूधनाथ सिंह और परमानंद श्रीवास्तव के बहसतलब विचार थे जो उन्होंने राजेश जोशी के संपादन में भोपाल से प्रकाशित नया पथ-26 (जनवरी 1998) के अंक में साक्षात्कार के रूप में रखे थे। पिछले साल बजरंग बिहारी तिवारी के आग्रह पर एक टिप्पणी, 'हिंदी दलित साहित्य : वर्तमान की चुनौतियां और भविष्य की आहट' शीर्षक से कथादेश के लिए लिखी, जो सितंबर 2019 के कथादेश के दलित विशेषांक में छपी।  यह 'आपन चरित कहा मैं गाई', इसलिए कि दलित लेखन के प्रति मेरा एक अलग पर्सपेक्टिव रहा है, उसी के तहत कुछ पुस्तकों को लेकर यहां चर्चा करने की हिमाकत कर रहा हूं।

        जब मराठी में दलित आंदोलन की प्रबलता से प्रेरित होकर दलित रचनाएं गुण और मात्रा में खूब आने लगीं तो दलित लेखकों में उन पर आलोचकीय टिप्पणी देखने की लालसा भी पैदा हुई, यह स्वाभाविक ही था क्योंकि सवर्ण लेखकों के लेखन पर आलोचकीय सौंदर्यशास्त्रीय विमर्श तो खूब उपलब्ध था, सदियों से, संस्कृत के युग से तमाम सिद्धांत सवर्णों को मिले हुए थे, फिर पश्चिम के सौंदर्यशास्त्रीय विमर्श भारतीय साहित्य पर हावी होने लगे तो उनका इस्तेमाल भी सवर्णों के लेखन ने ही किया, दलित लेखन इस सौंदर्यशास्त्रीय विमर्श में कहीं नहीं था। इस पीड़ा से परिचालित हो कर दलित रचनाकारों और चिंतकों ने खुद ही दलित साहित्य के लिए सौंदर्यशास्त्र रचने की पहल की। इसी सोच के फलस्वरूप शरणकुमार लिंबाले ने एक पुस्तक लिखी, दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र। रमणिका गुप्ता ने इसे हिंदी में अनूदित करके सन् 2000 में वाणी प्रकाशन से छपवा दिया। हिंदी में यही लालसा ओमप्रकाश वाल्मीकि में जाग्रत हुई, तो उन्होंने भी इसी नाम से एक पुस्तक लिखी जो 2001 में राधाकृष्ण प्रकाशन से छपी।

          दोनों ही लेखक बेहद सजग अध्येता और विचारक रहे हैं, दोनों ने ही विभिन्न दलित और ग़ैरदलित आलोचकों के उद्धरण देते हुए अपनी अपनी शैली में दलित साहित्य का पक्ष रखा है, लेकिन ऐसा कुछ भी नया सौंदर्यशास्त्र निर्मित होता नहीं दिखायी दिया जिससे दलित साहित्य का भाष्य करने में मदद मिल सके। हिंदी दलित साहित्य के मुक़ाबले मराठी दलित साहित्य कहीं अधिक प्रौढ़ माना जाता है, इसलिए पहले मैं अपनी धारणा को स्पष्ट करने के लिए शरणकुमार लिंबाले के सौंदर्यशास्त्र के, उन्हीं के द्वारा पेश, सारतत्व को यहां देना चाहता हूं । उन्होंने लिखा :

दलित साहित्य के मूल्यांकन के लिए निम्नलिखित कसौटियां निश्चित की जा सकती हैं :

(1)  कलाकार को अपने अनुभव के साथ ईमानदार होना चाहिए।

(2)  कलाकारों के अनुभवों का सार्वजनीकरण होना चाहिए।

(3) कलाकार के अनुभव में प्रदेश की सीमा पार करने की शक्ति होनी चाहिए। (4)  कलाकार का अनुभव किसी भी काल में ताज़ा लगना चाहिए।

(दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, पृ. 21)

यहां ‘कलाकारों’ से उनका आशय ‘लेखकों’ से है, संगीतकारों या फ़िल्म और रंगमंच के अभिनेताओं पर या चित्रकला पर ये कसौटियां लागू नहीं होतीं। अपने सौंदर्यशास्त्र को उक्त चार सूत्रों में बांध कर शरणकुमार लिंबाले अंत में ‘सवर्ण’ समीक्षकों से अपना पथ अलग बताते हुए कहते हैं, कि ‘अपना पथ अलग है।       अपनी दिशा अलग है। तब अपने पथ पर चलना और अपनी दिशा की खोज करना इसमें ही अपनी सभी शक्ति ख़र्च करनी चाहिए’। (वही) विचारधारा के स्तर पर लिंबाले जी आंबेडकर और मार्क्स के समन्वय के हामी हैं। सही ऐतिहासिक समझ तो यही है कि 'मुक्ति कभी अकेले में नहीं मिलती/ यदि वह है तो सबके साथ है।' (मुक्तिबोध)

            उक्त चार सूत्रीय सौंदर्यशास्त्रीय कसौटियों पर बारीक़ी से ग़ौर करें तो यह समझने में देर नहीं लगेगी कि ये कसौटियां उसी समीक्षा-चिंतन की प्रतिबिंब है जिसे वे ‘सवर्ण’ समीक्षा कहते हैं। पहली कसौटी अनुभव की ईमानदारी है, इसे हमारे आधुनिकतावादी दौर में सभी ग़ैरदलित लेखकों ने ‘अनुभूति की प्रामाणिकता’ कह कर पेश किया था, महान मार्क्सवादी चितंक एंगेल्स ने जो मार्क्स के सहयोगी सहचर थे और जन्मना उच्च वर्ग के थे इस ‘ईमानदारी’ की कसौटी का उल्लेख मिन्ना काउत्स्की को 25 नवंबर 1885 को लिखे एक पत्र में किया था, जो उन्होंने अपने समय व अपने देश में लिखे जा रहे दलित सर्वहारा उपन्यास पढ़ने के बाद लिखा था। एक दूसरे पत्र में भी जो मिस हार्कनैस को अप्रैल 1888 में लिखा था, ईमानदार चित्रण को यथार्थवादी रचना के लिए एक कसौटी के रूप में पेश किया था। हिंदी के महान मार्क्सवादी कवि चिंतक मुक्तिबोध ने भी जो जन्मना मराठी ब्राह्मण थे अपने सौंदर्यशास्त्रीय लेखन में ‘ईमानदारी’ की इस कसौटी पर बहुत विस्तार से लिखा, उनकी रचनावली के खंड-4 में उनके पांच लेख इसी कसौटी पर हैं, ‘घृणा की ईमानदारी’,’कलाकार की व्यक्तिगत ईमानदारी’(तीन लेखों की सीरीज़), ‘व्यक्तिगत ईमानदारी और कला’। इनमें से पहला लेख हर दलित लेखक को ज़रूर पढ़ना चाहिए क्योंकि दलित लेखन में ‘घृणा’ एक कलात्मक मूल्य है, यह सवर्णों की सदियों की घृणा का प्रतिशोध है जिसे मूल्य  के रूप में पहली बार दलित साहित्य ने रचा है, यह आश्चर्य की बात है कि इसे अपने सौंदर्यशास्त्रीय चिंतन में न शरणकुमार लिंबाले ने शामिल किया न ओमप्रकाश वाल्मीकि ने, (इसलिए फिलहाल इस अंतर्दृष्टि पर मेरा कापीराइट समझा जाये।)

              शरणकुमार लिंबाले की ‘सार्वजनीकरण’ नामक दूसरी कसौटी को भी बारीक़ी से देखें तो साहित्य का कोई भी सजग पाठक समझ जायेगा कि यह सवर्ण काव्यशास्त्र के रस-सिद्धांत का ‘साधारणीकरण’ ही है जिसे लिंबाले जी ने अपने शब्दों में कसौटी बनाकर पेश किया है, पाश्चात्य काव्यशास्त्र में अरस्तू के ‘विरेचन सिद्धांत’ से हमारे हिंदी प्राध्यापकों ने इसे पुष्ट किया है, मार्क्सवादी चिंतकों ने ‘यथार्थवाद’ की बहसों में इसे शामिल किया है, सवर्णों के महापूज्य कवि तुलसीदास भी ‘सुरसरि सम सब कहं हित होई’ यानी ‘सार्वजनीकरण’ को रचना की कसौटी मानते थे। इससे यह स्पष्ट है कि शरणकुमार लिंबाले की कसौटियां घूमफिर कर भारतीय और पाश्चात्य सौंदर्यशास्त्र से ही निकल कर आ रही हैं, कोई मौलिक शोध नहीं हो पाय है। ओमप्रकाश वाल्मीकि तो अपनी किताब में, भारतीय और पाश्चात्य दोनों ही कसौटियों को ख़ारिज करते हैं : ‘हिंदी साहित्य का सौंदर्यशास्त्र संस्कृत और पाश्चात्य सौंदर्यशास्त्र पर आधारित है। इसलिए उसकी कसौटियां दलित साहित्य के मूल्यांकन में अक्षम साबित होती हैं।’ (पृ. 45) मगर शरणकुमार लिंबाले उसी सौंदर्यशास्त्र की साधारणीकरण की कसौटी को अपना रहे हैं।

           लिंबाले जी की तीसरी और चौथी कसौटी को एक साथ इस तरह कहा जा सकता है कि दलित साहित्य को ‘देश-काल’ को अतिक्रमित करना चाहिए। यह कसौटी हर महान साहित्य पर लागू होती रही है। यह एक पहेली भी है, मार्क्स के सामने भी यह पहेली थी कि क्यों हमें मानव सभ्यता के बचपन में रचे गये ग्रीक साहित्य और सदियों पहले के अनेक देशकालों में रचे गये साहित्यिक ग्रंथ आज भी मोहते हैं, सामाजिक व्यवस्थाओं के बदल जाने पर सौंदर्य के पैमाने, हमारे आचारविचार, हमारे नियम क़ानून और हमारी सोच में आमूलचूल परिवर्तन आने के बावजूद हम पुराने देशकाल की रचनाओं को पढ़ते और सराहते हैं। इसी अनुभव से यह कसौटी बनी है कि महान साहित्य वह होता है जो अपने देशकाल का अतिक्रमण करता है। लेकिन यह कसौटी तो सर्वसमावेशी हुई, दलित साहित्य के लिए यह सवर्णों वाली कसौटी ही तो लिंबाले जी सुझा रहे हैं। इससे यह निष्कर्ष निकालना क्या ग़लत होगा कि मराठी दलित साहित्य के सामने अभी भी एक वैचारिक चुनौती बनी हुई है कि उस साहित्य का आलोचनाशास्त्र क्या हो जो पारंपरिक सवर्ण आलोचनाशास्त्र से भिन्न हो और जो किसी दलित चिंतक लेखक द्वारा रचित हो क्योंकि किसी ग़ैरदलित द्वारा रचा गया आलोचनाशास्त्र उस संवेदना की तह तक पहुंच ही कैसे पायेगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि आलोचना के अलग ‘टूल्स’ तलाश करने की ज़िद ही मिथ्याचेतना पर टिकी हो जबकि जीवन व्यवहार में प्रयोग में आने वाले ‘टूल्स’ इस तरह की ‘दलित’ और ‘सवर्ण’ कोटि में नहीं बंटे हैं, रोज़मर्रा की भाषिक संरचनाएं और बोली बानी भी ‘दलित’ और ‘सवर्ण’ कोटि में नहीं बंटी हैं। मुझे लगता है कि इसीलिए अलग से एक नयी कोटि की खोज संभव नहीं हो पा रही, क्योंकि दलित मध्यवर्ग की शिक्षा दीक्षा भी उन्हीं स्रोतों से हुई जिनसे ‘सवर्ण’ लेखकों की। इसलिए चिंतन की उसी सीमा के भीतर कुछ नया खोजने की कोशिश दलित लेखक करते हुए दिखायी देते हैं।

         हिंदी दलित साहित्य के लिए सौंदर्यशास्त्र की रचना की कोशिश मरहूम ओमप्रकाश वाल्मीकि ने की, वे भी बहुपठित विद्वान और प्रतिभाशाली दलित लेखक थे, उनकी पुस्तक का नाम भी वही है, दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र जो उनकी प्रतिभा का प्रमाण है। उनकी किताब का एक ही अध्याय जो किताब के शीर्षक को जस्टीफ़ाइ करता है बहुत संक्षेप में दलित साहित्य को जांचने परखने के लिए कसौटियां निर्धारित करता है। मगर अफ़सोस, वे कसौटियां भी नयी और अलग नहीं हैं। मुख्यरूप में वे कसौटियां दुनिया भर के जनवादी आलोचकों द्वारा ‘रूपवाद’ के खिलाफ़ किये गये संघर्ष  का सारसंक्षेप हैं, सिर्फ़ शब्द नये कर दिये हैं, मसलन अंग्रेज़ी के 'कंटेंट’ को ‘आशय’ और ‘फ़ार्म’ को ‘आकार’ नाम दे दिया है :

 दलित साहित्य के सौंदर्यशास्त्र पर विचार करने के लिए किसी भी कृति के ‘आकार’ और ‘आशय’ को दृष्टि में रखना होगा। जिस ‘रूप’ को हम देखते हैं वह उस कृति का ‘आकार’ होता है। ‘आकार’ में जो सारतत्व या सारत्व बोध विद्यमान होता है, वह ‘आशय’ कहलाता है। हिंदी साहित्य हो या संस्कृत साहित्य, वह आकृतिनिष्ठ ही है। वहां आकार की प्रधानता है। शब्द की रमणीयता समीक्षकों के लिए बौद्धिक विलास का काम करती है।‘   (पृ. 49)

 इस सिद्धांत निरूपण के बाद वे भी जनवादियों की तरह रूपवाद का खंडन करते हैं और उसी तरह कंटेंट को प्रमुखता देते हैं। मराठी लेखक डा. म. न. वानखेड़े का जो उद्धरण वे देते हैं, वह इसी की पुष्टि करता है। इस तरह ओमप्रकाश वाल्मीकि मुख्यतया मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र की अवधारणाओं को अपनाते हैं, सुंदरता वस्तु में है या देखने वाले की नज़र में, यानी वह विषयगत है या विषयीगत। ओमप्रकाश जी सही ही इस सौंदर्यशास्त्रीय बहस में भौतिकवादी पक्ष लेते हैं। लेकिन उनका यथार्थवादी सौंदर्यशास्त्र मौलिक नहीं है, सदियों से चले आ रहे वर्गसंघर्ष में जो सौंदर्यशास्त्रीय मान्यताएं और धारणाएं भौतिकवादियों ने हमें विरसे के तौर पर दी हैं, वे ही उन्होंने पेश कर दी हैं, वे सारे साहित्य की व्याख्या में इस्तेमाल की जा रही हैं, दलित साहित्य के लिए अलग से कोई सौंदर्यशास्त्र नहीं बन पाया है। यह आकस्मिक नहीं है कि ओमप्रकाश वाल्मीकि के इस अध्याय का समापन जन्मना ब्राह्मण, एक मार्क्सवादी आलोचक मैनेजर पांडेय के उद्धरण से होता है और अपने विचार की पुष्टि के लिए।

         ‘दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र’ से संबंधित उक्त दो स्वतंत्र पुस्तकों के अलावा एक पुस्तक और देखने का मौक़ा मिला, यह पुस्तक है  आर. डी. आनंद की, दलित साहित्य का नया सौंदर्यशास्त्र (परिकल्पना, 2019)। इसी विषय पर संपादित पुस्तकों में से दो और देखने को मिलीं:

     1.दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र. सं. डा. मुन्ना तिवारी (भारती, 2013)

     2. अस्मितामूलक साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, सं. डा. कर्मानंद आर्य (The Marginalised Publication, 2018)   

  ये संपादित पुस्तकें मुख्य रूप से दलित साहित्य पर आयोजित करवाये गये सेमिनारों में पेश किये गये आलेखों पर आधारित हैं और एकेडेमिक नज़रिये से तैयार की गयी हैं। बंधे बंधाये ढांचे में ये लेख ज़्यादातर दलित साहित्य या अस्मितामूलक साहित्य में निहित आक्रोश व अन्य भावों की अभिव्यक्ति की व्याख्या भर करते हैं। इसी तरह दूसरी पुस्तकें भी दलित साहित्य पर केंद्रित एक साहित्यशास्त्र रचने की बालसुलभ कोशिशें हैं, उनमें किसी नये सौंदर्यशास्त्र की रचना नहीं, जैसा कि ठीक ही बजरंगबिहारी तिवारी ने आर. डी. आनंद की पुस्तक की भूमिका में कहा है कि ‘मेरे ख़याल से इस किताब को सौंदर्यशास्त्र से ज़्यादा आलोचनाशास्त्र की किताब मानना उचित है।’ (पृ. 7) डा. मुन्ना तिवारी ने भी अपनी संपादकीय भूमिका में स्पष्ट लिखा हे, 'यह पुस्तक दलित सौंदर्यशास्त्र बनाने का दावा नहीं करती'...। लेकिन इन कोशिशों का भी एक महत्व है। इन तमाम लेखों से पता लगता है कि दलित और सवर्ण लेखकों की एक भारी तादाद इन कोशिशों में शामिल है जिसके लिए दलित साहित्य मानो एक चुनौती है जिसके भाष्य के लिए एक नये आलोचनाशास्त्र का आविष्कार करना है, कमोबेश यह आकुल इच्छा शरणकुमार लिंबाले से ले कर आर. डी. आनंद तक के रचनाकर्म में झलकती है। शरणकुमार लिंबाले अपनी पुस्तक का अंत जिन वाक्यों में करते हैं, उनमें सवर्णों के आलोचनाशास्त्र से अलग रास्ते की खोज की वही इच्छा निहित हैः ‘अपना पथ अलग है। अपनी दिशा अलग है। तब अपने पथ पर चलना और अपनी दिशा की खोज करना, इसमें ही अपनी शक्ति ख़र्च करनी चाहिए’। (पृ.121)

            डा.आर. डी. आनंद इससे आगे जाकर सिर्फ़ साहित्यशास्त्र की अलग दिशा की खोज तक खुद को सीमित नहीं रखते, वे इस खोज को सामाजिक बदलाव यानी क्रांति की दिशा की खोज तक ले जाते हैं, जो कि वैज्ञानिक रूप में सही भी है, उसी से सौंदर्यशास्त्र भी बदलेगा। वे मौजूदा व्यवस्था की जांच परख करके उसके शोषणपरक चरित्र को बेलाग तरीके़ से पेश करते हैं और क्रांति के लिए आंबेडकर के विचारों और मार्क्स के विचारों से लैस दलितों और गै़रदलित शोषितों की एकजुटता का स्वप्न संजोते हैं, इस तरह वे एक दिशा की खोज करते हैं जो आलोचनाशास्त्र में भी बदलाव लायेगी।

यहां यह समझना ज़रूरी है कि सारे दलित लेखकों की तरह ही डा. आर. डी. आनंद अपने जन्मना वर्ण को अतिक्रमित करके एक आधुनिक आर्थिक कैटेगरी के हिसाब से ‘निम्नमध्यवर्ग’ में रूपांतरित हो गये हैं। इसलिए उसी वर्ग की उस विचारधारा को भी आत्मसात कर बैठे हैं जिसे ‘सर्वनिषेधवाद’ कहा जाता है जो साठोत्तरी दौर में अकविता की ‘एंग्री यंग जेनरेशन’ में उपजा था। अंतर इतना है कि डा. आनंद की घोषित प्रतिबद्धता ‘सर्वहारा’ व ‘दलित’ के प्रति है और इस शोषणपरक सामाजिक व्यवस्था से मुक्ति ही उनका स्वप्न है। अकविता के दौर में यह प्रतिबद्धता नदारद थी। डा. आनंद में इसीलिए एक अंतर्विरोध है। व्यवस्था से मुक्ति के लिए, एक वैज्ञानिक सोच लिये हुए वे सारे दलितों, वंचितों और शोषितों की विशाल एकता के पक्षधर हैं। वे लिखते हैं:

जाति व्यवस्था आमने सामने की लड़ाई नहीं है। यह एक व्यवस्था है। उस व्यवस्था के आधार को तोड़ना होगा। आधार को तोड़ने के लिए सभी जातियों के प्रगतिशील और क्रांतिकारी साथियों को साथ लेना होगा। यदि दलित अकेला रहता है और विद्वेष से काम लेता है तो कमज़ोर होता जायेगा।       (पृ. 247)

वे यह भी सलाह देते हैं कि ‘...गुस्साया मत करो। हमें दोस्ती करनी सीखनी होगी’। यह सही सोच है। लेकिन पुस्तक का अंत पूरी तरह गुस्साये हुए सर्वनिषेधवादी एंग्री यंगमैन की विचारधारा से होता है जो आंबेडकर से ले कर उनके रचे संविधान को, संसद को, सारे कम्युनिस्टों व पार्टियों को पीटता जाता है। मुझे लगता है कि उन पर उस उग्रवादी कम्युनिज़्म की वह चेतना हावी है जो निम्नमध्यवर्गीय वामचेतना मानी जाती है जिसे लेनिन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक में ‘बचकाना मर्ज़’ कहा था और जिसकी वैचारिक गिरफ़्त में अनेक खेमों में बंटे नक्सली ग्रुप हमारे यहां हैं।

सच्चाई तो यह है कि मौजूदा समाज के वर्गविभाजन और वर्णविभाजन को समझते हुए समाज के विकास की अगली मंज़िल का निर्धारण करना होता है और उस मंज़िल को हासिल करने के लिए दोस्त वर्गों की व्यापक एकता बनाने का श्रमसाध्य प्रयत्न करना होता है, संसद के भीतर, संसद से बाहर, सभी सामाजिक क्षेत्रों में, हर गली, नुक्कड़ पर, सभी संरचनाओं में, और साहित्य व सौंदर्यशास्त्र व ज्ञान के सभी भागों विभागों में भी यह संघर्ष चलता है, बक़ौल कबीर, ‘सार सार को गहि रहै, थोथा देय उड़ाय।’ किताब के अंत में गुस्साये डा. आनंद सलाह देते हैं कि ‘छद्म’ आंबेडकरवादियों से और ‘छद्म’ मार्क्सवादियों से बच कर रहो, मगर यह नहीं बताते कि एक एक व्यक्ति की परख करने और फिर ‘सच्चे’ होने का प्रमाणपत्र कौन देगा? वे यहां तक कहते हैं कि ‘कम्युनिस्ट्स के घरों में जाकर देखो कि वह सर्वहारा संस्कृति को जीता है कि नहीं, उसके बच्चे कम्युनिस्ट चरित्र हासिल किये कि नहीं।...’ क्या आनंद जी के पास इतनी बड़ी इंस्पेक्शन टीम है कि वह इस देश के सारे कम्युनिस्टों के घर में ज़बरन घुस कर उनके आदेश को अमली जामा पहना सके!! व्यक्ति व्यक्ति पर आधारित नज़र से तो अपने अलावा सारे ही दोषी पाये जा सकते हैं, सर्वशुद्ध तो सोना, चांदी, लोहा आदि धातुएं भी नहीं होतीं तो आदमी की क्या बिसात, फिर ऐसा पारखी कहां से लायेंगे जो सभी इंसानों को और सभी धातुओं की शुद्धता तय करे!! डा. आनंद अपनी पुस्तक का अंत इसी तरह की नसीहत से करते हैं:

मार्क्सवाद को हमें छद्म लोगों से सीखने की ज़रूरत नहीं है। मार्क्सवाद उन पंडे-पुजारियों की ज़रूरत नहीं है। मार्क्सवाद बेहूदे लोगों की ज़रूरत नहीं है। मार्क्सवाद की ज़रूरत ग़रीबों, मज़लूमों, दलितों व शोषितों की ज़रूरत है; इसलिए मार्क्सवाद के लिए हमें किसी का इंतज़ार नहीं करना चाहिए। मार्क्सवाद आंबेडरकरवाद की ज़रूरत है। छद्म मार्क्सवादियों से लड़कर मार्क्सवाद को मुक्त कराओ, क्योंकि मार्क्सवाद ही आंबेडकरवादियों को शोषण से मुक्त करा सकने में सक्षम है।

यहां आह्वान लोगों को छेंकने का है जबकि पृ. 247 पर गुस्सा न करने की और सबको साथ लेने की, दोस्त बनाने की अपील थी। गुस्से में किताब का अंत करने से भाषा भी ‘ज़रूरत’ से ज़्यादा गड़बड़ा गयी! सौंदर्यशास्त्र की खोज भी ग़ायब हो गयी।

           इस विषय पर दो संपादित पुस्तकों का भी उल्लेख मैंने ऊपर किया है, एक डा. मुन्ना तिवारी द्वारा संपादित, दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, दूसरा, डा. कर्मानंद आर्य के संपादन में, अस्मितामूलक साहित्य का सौंदर्यशास्त्र। जैसाकि मैंने ऊपर बताया है, दोनों संकलनों में इसी विषय पर आयोजित सेमिनारों में पेश किये गये लेखों को एक जगह पुस्तक रूप में प्रकाशित करा लिया गया है। दोनों में ही अकादमिक क़िस्म के आलेख हैं, किसी वैचारिकी की खोज का प्रयास नहीं है। कर्मानंद आर्य की पुस्तक में दलित, आदिवासी, स्त्री और अन्य अस्मितामूलक विमर्शों जैसे ट्रांसजैंडर तक को शामिल किया गया है और इसमें शामिल लेखक भी कमोबेश इन्हीं विमर्शों के बीच के ही हैं। इन विमर्शों के विस्तार को समझने में यह संकलन मददगार है, लेकिन इनके लिए कोई वैचारिकी ईजाद नहीं की गयी है, अकादमिक विवरण हैं, ख़ासतौर से प्रकाशित रचनाओं के बारे में ही विमर्श को रखा गया है। अपवाद के तौर पर इसमें दामोदर मोरे का लेख बहुत ही महत्वपूर्ण है और नये सौंदर्यशास्त्र की रचना की पूरी संभावनाओं को दर्शाता है।

           डा. मुन्ना तिवारी का संकलन मुख्यरूप से सवर्ण शोधार्थियों या प्राध्यापकों के लेखों का पिटारा है, जो शायद दलितों के साथ सहानुभूति रखते हों, लेकिन लेखन में उनके संस्कारों की, उनकी परंपरावादी सोच की झलक हर जगह मिलती जाती है। इसमें डा. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी की तो प्रतिक्रयावादी सोच भी मौजूद है जो दलित समाज के लिए सबसे अधिक घातक है। वे अपने ‘दो शब्द’ में ही एक ब्राह्मण उपदेशक की तरह महीन तरीक़े से दलित लेखकों को तरह तरह के उपदेश दे डालते हैं जिनमें सबसे महीन उपदेश यह है कि दलित लेखकों को राजनीति से दूर रहना चाहिए, राजनीति उन्हें ‘रंगांध बनायेगी’(पृ.9), दलित लेखकों के ‘आचरण’ को अपवित्र कर देगी, ‘अर्थात वही सुखवादी, उपभोगवादी आचरण’। दलित लेखकों को वही पवित्रतावादी ब्राह्मणवादी उपदेश कि ‘संतन को कहा सीकरी सौं काम?’ या तुलसी की मंथरा की तरह की चेतना का प्रचार कि ‘चेरी छांड़ि न होउब रानी’। इसमें वे अपनी खुद की भगवा रंग की राजनीति से प्राप्त ‘सुखवादी, उपभोगवादी आचरण’ छिपा जाते हैं। 'पर उपदेस कुसल बहुतेरे/ जे आचरहिं ते नर न घनेरे।।'

उक्त संकलन में सबसे पहला लेख डा. मैनेजर पांडेय का है और महत्वपूर्ण है, पूरी सह-अनुभूति से लिखा हुआ। वे यह भी जानते हैं और ईमानदारी से स्वीकारते हैं कि सवर्णों द्वारा लिखे साहित्य में उनके जन्मजात संस्कारों और चेतना-अंशों के अवशेष बने रहते हैं, दलित लेखक जिस तरह सदियों की गुलामी की चेतना के बारे में सचेत होते हैं तो उनके लेखन में अभिव्यक्त वेदना का स्वरूप प्रामाणिक होता है, उसकी नक़ल की जा सकती है लेकिन कहीं कुछ ऐसा ज़रूर छूट जाता है, जो दलित चेतना से बने सौंदर्यशास्त्र की आलोचना दृष्टि से पहचाना जा सकता है। यह देखना दिलचस्प होगा कि मैनेजर पांडेय के इसी लेख में दलितों का पक्ष लेते हुए वे एक पारंपरिक ब्राह्मण की तरह लिख बैठते हैं कि ‘शूद्रों को जब देववाणी संस्कृत पढ़ने की ही छूट नहीं थी, तब वे उसमें अपने जीवन के बारे में साहित्य कैसे रच सकते थे?’ (पृ. 23) इस लेख में इसी पृष्ठ पर आगे जहां भी ‘संस्कृत’ का उल्लेख है, उसके साथ ‘देववाणी’ जुड़ा हुआ है, क्या मैनेजर पांडेय मार्क्सवादी होकर देवी देवताओं में आस्था रखते हैं, अगर नहीं तो इंसानों की भाषा ‘देववाणी’ कैसे हो गयी? यह हर ब्राह्मण के संस्कारों में बैठा हुआ है कि संस्कृत ‘देववाणी’ है और लिपि ‘देवनागरी’ है, केरल के ब्राह्मण कहते हैं कि केरल ‘देवभूमि’ है! मार्क्सवादियों की आलोचना करते हुए डा. मैनेजर पांडेय स्वयं ईमानदारी से यह स्वीकार करते हैं कि जातिवादी संस्कार के ‘प्रभाव से मुक्त होना सहज और सरल नहीं है... वह उनके चिंतन और लेखन में जाने-अनजाने गुप्त या प्रकट रूप में मौजूद रहता है।’

दलित सौंदर्यशास्त्र की तलाश में लिखे इस अपार साहित्य का अध्ययन न तो संभव है और न अब उसकी ज़रूरत ही लगती है क्योंकि सारी कोशिशें दलितों के लिखे रचनात्मक साहित्य के लिए आलोचना शास्त्र तैयार करने की हैं जबकि शिक्षा दीक्षा से जो ज्ञान और बोध लेखकों को मिला है, उसी का दायरा और उसी की मैथडोलॉजी उन्हें किसी नयी वैचारिकी की गहरी तलाश करने से रोकती है। शौकिया उस पुराने दायरे को ही ‘दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र’ कहने की हड़बड़ी में इस तरह के बौद्धिक लगे हैं।

दरअसल, गंभीर चिंतन से लैस दलित लेखकों के बीच और बहुत से ग़ैरदलित लेखकों के बीच यह सत्य स्पष्ट है कि सामाजिक बदलाव के बग़ैर अकेले साहित्य में नयी दिशा की खोज संभव नहीं। विश्वसाहित्य में आये बदलावों पर वैज्ञानिक नज़र से विचार करें तो यह स्पष्ट होगा कि वे बदलाव समाज के आंदोलनों की देन थे। भारत के साहित्य में आये बदलावों पर भी यही बात सच बैठती है। दलित साहित्य मराठी में या अन्य भाषाओं में तभी लेखकों की चेतना का हिस्सा बना जब दलितों ने अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना शुरू किया। बाबा साहेब आंबेडकर के विचारों पर भी गहन विचार-विमर्श की ज़रूरत भी इसीलिए महसूस की गयी। सामाजिक आंदोलन और दलित साहित्य के आपसी संबंध को उजागर करने वाली एक किताब, पिछले दिनों बजरंग बिहारी तिवारी की, केरल में सामाजिक आंदोलन और दलित साहित्य (नवारुण, जनवरी 2020) चर्चा के केंद्र में आयी है, इसी तरह दलित मुक्ति के संघर्ष से जुड़े बहुत से सवालों पर सोशल मीडिया पर लिखे लेखों का एक संकलन इतिहासज्ञ रतन लाल का आया है, वंचित भारत : संशय, सवाल और संघर्ष (द मार्जिनलाइज़्ड पब्लिकेशन : 2019) ये दोनों किताबें भी दलित मुक्ति के आंदोलनों से सरोकार रखने वाले लेखकों की शोधपरक चेतना का उत्पाद हैं, इन पर चर्चा होनी ही चाहिए।

पहले बजरंग बिहारी तिवारी की किताब पर अपने विचार प्रस्तुत करना चाहूंगा। इस पुस्तक का बड़ा हिस्सा केरल के सामाजिक आंदोलनों पर केंद्रित है जो ज़ाहिर करता है कि यह पुस्तक कितने शोधपरक श्रम से लिखी गयी है। बजरंग बिहारी मलयाली नहीं है, किंतु केरल के दो तीन सदी के सामाजिक यथार्थ को, विशेषकर वहां की वर्णवादी संरचनाओं को वैज्ञानिक नज़रिये से विश्लेषित करने के लिए उन्होंने अकूत सामग्री जुटायी है। मेरी दिलचस्पी इस किताब में यह देखने की रही, कि किस तरह दास व्यवस्था हर देश और हर काल में उसी विचारधारा को जन्म देती है जिसे मैं अपने आलोचनात्मक लेखन में "क्लासीकल विचारधारा' कहता आया हूं, जिसका वर्चस्व ग्रीक दास समाज में प्लेटो, अरस्तू के समय से भी पहले के रचनाकारों में दिखायी देता है, जिसमें दासों को अपने अधीन बनाये रखने के लिए मिथकों का सृजन होता है, भाग्यवाद और ईश्वर से अनुमोदित गुलामगीरी का फ़लसफ़ा समाज में फैला दिया जाता है, ब्राह्मणवाद उसी क्लासीकल विचारधारा का भारतीय संस्करण है, उसी को ईसाई शासकों के समय में 'चेन ऑफ़ बीइंग' के नाम से जाना गया। केरल की दासव्यवस्था का सटीक चित्रण बजरंग बिहारी की पुस्तक में है, उससे मुक्ति के लिए कौन कौन से आंदोलन हुए, यह विवरण भी है, कम्युनिस्ट आंदोलन के उद्भव और विकास का इन आंदोलनों से क्या रिश्ता है, दलित समाज की मुक्ति के लिए मार्क्सवादी विचारधारा से लैस सरकारों ने क्या क़दम उठाये, क्या क्या कमियां रह गयीं, इन सब तथ्यों का सुसंगत हवाला पुस्तक में है, दासों की वेदना, उनका आक्रोश समय समय पर किस तरह दलित साहित्य के रूप में केरल में व्यक्त हुआ, उस अभिव्यक्ति को सारी विधाओं में प्रतिबिंबित होते हुए देखा जा सकता है, यह पुस्तक इस तरह केरल के सामाजिक आंदोलनों और साहित्य के बीच के रिश्ते को व्याख्यायित करती है।

सामाजिक न्याय से जुड़े आंदोलनों का लेखाजोखा लेने वाली एक अन्य पुस्तक, वंचित भारत, इतिहासविद् रतन लाल की आयी है। वे दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कालेज में प्राध्यापक हैं, उनकी पुस्तक उनके समय समय पर पत्र-पत्रिकाओं में और सोशल मीडिया पर लिखे लेखों का संचयन है, उन्होंने इन लेखों को दो हिस्सों में बांटकर एक तरतीब दे दी है, पहला खंड 'वैचारिकी' का है, दूसरा खंड 'समसामयिकी' का है। 'वैचारिकी' खंड में गांधी, आंबेडकर, कैलाश प्रसाद जायसवाल, सांकृत्यायन और रामधारी सिंह 'दिनकर' पर विचारोत्तेजक टिप्पणियां है, 'समसामयिकी' के कई लेख दलित विमर्श पर हैं, कुछ बिहार की राजनीति, शिक्षा व्यवस्था आदि अलग अलग विषयों पर हैं। रतन लाल का नज़रिया भी दलित और वाम के समन्वय का है, बल्कि दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक तथा ओबीसी के समन्वय का है क्योंकि वे जानते हैं कि शोषित वंचित भारत की मुक्ति इन सबके साझा आंदोलन से ही होगी। दलित और ओबीसी के समन्वय के लिए वे कहते हैं कि आंबेडकर ने संविधान की रचना करते समय 'जमात' के हितों का ख़याल रखा, सिर्फ़ अनुसूचित जातियों और जनजातियों तक के हितों तक अपनी सोच को सीमित नहीं किया, रतनलाल के शब्दों में,

 

जाति व्यवस्था पर डॉ. आंबेडकर के जीवन भर के परिश्रम और शोध की परिणति आप संविधान के प्रावधानों में पायेंगे। उन्होंने हज़ारों विखंडित जातियों और समुदायों को वर्ग में तब्दील किया, अर्थात SC, ST, OBC और सबकी सुरक्षा के लिए संविधान में प्रावधान किये --(देखें OBC के लिए ARTICLE 340, SC के लिए  ARTICLE 341और ST के लिए ARTICLE 342) डॉ. आंबेडकर ने  संविधान में सबसे पहले  OBC  के लिए प्रावधान किया। अर्थात डॉ. आंबेडकर ने जमात के अधिकार सुरक्षित किये, जिसमें जातियां सन्निहित थीं।    (पृ. 31)  

रतनलाल का इरादा नेक है, वे ओबीसी को यह भरोसा दिलाना चाहते हैं कि आंबेडकर ने सबसे पहले उनका ध्यान रखा, संविधान के अनुच्छेदों की तरतीब को अपने इरादे के अनुकूल उद्धृत करके इसे पुष्ट किया। वैसे मूल संविधान में खंड 16 आरक्षण के प्रावधानों की व्यवस्था करता है जो अनुच्छेद 330 से शुरू होता है। सबसे पहले लोकसभा और विधानसभाओं में अनुसूचित जाति व जनजाति के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गयी, इसी में ऐंग्लोइंडियन समुदाय के लिए भी आरक्षण की व्यवस्था है, ओबीसी के लिए नहीं थी। अनुच्छेद 338 में अनुसूचित जातियों, जनजातियों व ओबीसी की दशा जानने के लिए 'स्पेशल ऑफ़ीसर' की नियुक्ति का प्रावधान बाबा साहेब ने किया था, जिसमें संशोधन करके बाद में 'कमीशन' के गठन का प्रावधान कर दिया गया, फिर एक और संशोधन करके मूल में से 'अनुसूचित जनजाति' हटाकर अलग से उनके लिए एक दूसरा अनुच्छेद 338ए जोड़ दिया गया।  मूल संविधान में 'अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों' के हितों को एक साथ ही रखा गया था। उसके बाद अनुच्छेद 339 में संविधान के पारित होने के दस साल बाद जनजातियों के हालात जानने के लिए एक कमीशन की नियुक्ति की व्यवस्था की गयी थी, और जिस अनुच्छेद 340 का उल्लेख रतन लाल ने ओबीसी के लिए किया है, उसमें भी कमीशन के गठन का ही प्रस्ताव है, वह सबसे पहले नहीं, उसी क्रम में है, यानी अनुसूचित जाति, जनजाति और ओबीसी व अन्य आर्थिक रूप से विपन्न समुदाय। इसके बाद के अनुच्छेद 341 व 342 सूची तैयार करने के बारे में है, यानी किस जाति को अनुसूचित जाति और किसे अनुसूचित जनजाति माना जाये। बाबा साहेब से एक चूक यह भी हो गयी कि उन्होंने इन शोषित दलित हिस्सों के लिए नौकरियों में आरक्षण को मूल संवैधानिक अधिकार नहीं बनाया, अनुच्छेद 16 में आरक्षण देने या न देने का अधिकार केंद्र और राज्यों के हाथों सौंप दिया, उसी का फ़ायदा उठाकर बीजेपी आर एस एस के अधीन राज्य जैसे उत्तराखंड नौकरियों में आरक्षण को ख़त्म कराने में कामयाब हो गये और सुप्रीम कोर्ट भी कोई राहत नहीं दे पाया। बीजेपी सरकार निजीकरण के माध्यम से और अब सुप्रीम कोर्ट के आदेश की आड़ में नौकरियों में आरक्षण ख़त्म करने पर पूरी तरह आमादा है, मनुस्मृति पर आधारित 'हिंदू राष्ट्र' बना डालने का एजेंडा तेज़ी से लागू हो रहा है जिसके विरोध में आंबेडकर पूरी तरह खड़े रहे।

          रतन लाल जिस तरह अपने लेखों से दलित तथा ओबीसी को एकजुटता में बांधने की कोशिश करते हैं, उसी तरह इस गठबंधन में मुस्लिम समुदाय को भी शामिल करने की ख़्वाहिश का इज़हार करते हैं! वे सही कहते हैं कि 'मुसलमानों की स्थिति और दलित की स्थिति में समानता है। इसलिए सीधे राजनीतिक हस्‍तक्षेप के लिए दलित और मुस्लिम को सहयोग के साथ एक दिशा में बढ़ना चाहिए।'  (पृ. 53) इसी गठजोड़ में वे 'वामपंथ' को भी शामिल करते हैं, जो कि सही नज़रिया है। वे लिखते हैं कि 'दलित राजनीति और वामपंथ में एक ख़ास समानता है। दोनों परिवर्तन और शोषणमुक्‍त समाज बनाने की राजनीति में विश्‍वास करते हैं। इसलिए उन्‍हें अंतर्विरोधी तो क़तई नहीं कहा जा सकता।' (पृ.131) इसी यथार्थवादी समझदारी से वे दलित, ओबीसी, मुस्लिम, वामपंथ के एक महागठबंधन की सदिच्‍छा अपने लेखन में व्‍यक्‍त करते हैं! इसे वैचारिकी के आधार पर कल्पित करना बुद्धिजीवियों के लिए आसान है, (इसलिए लेखकों के बीच यह एकता पूरी तरह देखी जा सकती है,) मगर उसे राजनीति में अमली जामा पहनाना बहुत ही मुश्किल है, इससे भी शायद रतन लाल वाकि़फ़ होंगे। इसका एक प्रमुख कारण शायद दलित नेतृत्व के बूर्जुआकरण में निहित है, वे संपन्न होते ही मध्यवर्ग में परिणत होकर उसी की विचारधारा आत्मसात करके अवसरवाद के शिकार होते आये हैं, जगजीवन राम से लेकर, मायावती, पासवान और रामराज उर्फ़ उदितराज तक, दक्षिण के ब्राह्मणवादविरोधी सुधारकों से प्रेरित दल भी, इज़ारेदार पूंजी की हित साधक बड़ी राजनीतिक संरचनाओं के ही सहयोगी बनते हैं, वाम मोर्चे के नहीं। रतन लाल के वैज्ञानिक फ़ार्मूले से 'सोशल इंजीनियरिंग' करने की पहल शायद इसीलिए दलित संपन्न नेतृत्व नहीं करता, अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के वर्चस्व से उपजे नवउदारवादी आर्थिक शोषणतंत्र से भी वह बेख़बर है, उससे साझा संघर्ष करने के लिए वह वामदलों के साथ नहीं आता, भले ही वामपंथ मायावती जैसे नेतृत्व को प्रधानमंत्री के चेहरे के रूप में पेश करने की कोशिश करे, यह एक यथार्थ है, शायद कटु यथार्थ।   

मो. 9811119391

 पुस्तक संदर्भ

1. दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र :  शरणकुमार लिंबाले : वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2000 

2. दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र :  ओमप्रकाश वाल्मीकि, : राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2001.

3. दलित साहित्य का नया सौंदर्यशास्त्र : आर. डी. आनंद, परिकल्पना, दिल्‍ली, 2019

4. दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र. सं. डा. मुन्ना तिवारी, भारती पब्लिशर्स, फ़ैज़ाबाद, 2013

5. अस्मितामूलक साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, सं. डा. कर्मानंद आर्य, मार्जिनलाइज़्ड पब्लिकेशन, नयी दिल्ली, 2018

6. केरल में सामाजिक आंदोलन और दलित साहित्य : बजरंग बिहारी तिवारी, नवारुण, ग़ाजि़याबाद, 2020 

7. वंचित भारत : संशय, सवाल और संघर्ष : रतन लाल, मार्जिनलाइज़्ड पब्लिकेशन, नयी दिल्ली, 2019    

 

 

 

 

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