शब्द और संगीत के स्वर-साधक रमेश रंजक
अजय बिसारिया
‘मैं हूं उस धरती का बेटा, जिसका नाम अलीगढ़ एटा’—रंजक जी से ये पंक्तियां सुनने का स्मरण है। अलीगढ़-एटा और वृहत्तर रूप से समूचा ब्रज-अंचल रमेश रंजक के सामाजिक और कवि व्यक्तित्व का केंद्र-बिंदु है। जब उन्होंने कविता लिखना आरंभ किया तो मंच के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि बलवीर सिंह ‘रंग’ थे, जिनकी काव्य-प्रतिभा की सब ओर धूम थी। दुष्यंत कुमार से लेकर रमेश रंजक तक अनेक (उनके समक्ष) युवा कवियों को उनका सहज स्नेह और अभिभावकीय मार्गदर्शन प्राप्त था। 1953-54 के सोरों कवि-सम्मेलन में रंजक जी को मंच पर लाने का श्रेय उन्हीं को है।1
अलीगढ़ में उस दौर में छेदालाल ‘मूढ़’, निरंजन लाल ‘लट्ठ’ और साहब सिंह मेहरा के ब्रज में लिखे लोकगीतों की धूम थी। परवर्ती काल में गोपालदास ‘नीरज’ ने मंच पर लोकप्रियता की ऊंचाइयों को छुआ, तो रवींद्र भ्रमर ने नवगीतकार के रूप में ख्याति अर्जित की। मेरे पिता रमेश बिसारिया, ज्ञानेंद्र अग्रवाल, मनमोहन तिवारी आदि स्थानीय पत्रों में और मंचों पर लोकप्रिय थे। बचपन में कई बार पिताजी की घरेलू गोष्ठियों में रंजक जी, प्रेमशंकर जी आदि को देखा ज़रूर था, पर कुछ विशेष स्मरण नहीं।
1982 में जनवादी लेखक संघ की स्थापना हुई। अलीगढ़ इकाई का मैं भी स्थापना-सदस्य बना और सह-सचिव भी। प्रो. कुंवरपाल सिंह के नेतृत्व औ मार्गदर्शन में अलीगढ़ साहित्यिक गतिविधियों का सबसे सक्रिय केंद्र बना। बड़े-बड़े समारोहों के साथ-साथ प्रायःअलीगढ़ पधारने वाले साहित्यिकों के सम्मान में अनेक छोटी-बड़ी गोष्ठियां होती रहतीं।
शायद 1985 की बात है, रंजक जी अलीगढ़ पधारे। दो-तीन दिन का नगर-प्रवास और फिर अपने गांव। वे डॉ. पुष्पेंद्र कुमार शर्मा के आवास पर ठहरे थे, जहां मैं और पुष्पेंद्र जी संध्याकाल में नित्य ही उनसे चर्चा-परिचर्चा करते। उनका काव्य-पाठ भी जलेस की ओर से आयोजित किया गया था। अब उन्हें नज़दीक से जानने-सुनने-समझने का मौक़ा मिला। वे समय के हिसाब से बहुत अधिक स्पष्टवादी, सामने वाले को बुरी लगने की हद तक दो टूक बात कहने वाले और साहित्य, विशेषतः कविता के क्षेत्र में कोई समझौता न करने वाले व्यक्ति थे। उनके स्वभाव में आवेग, बेचैनी और तीखापन था, जो आभिजात्य और शिष्टता का मुखौटा पहने रहने वाले लोगों को अक्खड़पन, अहंकार या हीनता-बोध लग सकता था। पर, वे अपने समूचे व्यक्तित्व में ख़ासे पारदर्शी, ज़मीन से जुड़े और साफ़गो इंसान थे। तभी आयोजित काव्य-गोष्ठी में उनसे सुना था:
जो बात धारदार है वो रूबरू कहो,
वरना बिगाड़ देंगे ये ज़ालिम दुभाषिये।
कविता की साधना में वे हरदम लगे रहते। अकेले या बातचीत के बीच भी उनको छंद और लय साधते और शब्दों का उनसे तालमेल बैठाते हम देखते थे। उन्हें इस संदर्भ में भवानी प्रसाद मिश्र बहुत प्रिय थे। उन्होंने मुझसे कहा भी था, ‘भई, शब्द और भाव की लय में तो भवानी भाई का जवाब नहीं है।’ फिर वे गुनगुनाने लगे, ‘यहां दो फूल मुंह से मुंह सटाये बात करते हैं...।’ उन्हीं ‘भवानी भाई’ का रंजक जी के बारे में यह विचार था: ‘ऐसे कवि कम होते हैं जो अपनी शैली बना दें, किसी दूसरे की शैली को छू दें तो वह अपनी हो जाये। रमेश रंजक ऐसे ही कवि हैं।’2
नवगीतकारों का दावा था कि उन्होंने छायावादी (उत्तरछायावादी भी) भावबोध, भाषा और शिल्प से गीत को मुक्त किया। लेकिन आप ग़ौर करें तो पायेंगे कि भावबोध से उनका आशय दर असल विषयगत विस्तार से है। अधिकांश गीतों में अब तेज़ी से बढ़े मध्यवर्ग की नवीन जीवन-स्थितियों के, सामाजिक विसंगतियों के और उनके बीच द्वंद्वग्रस्त व्यक्ति-मानस के बिंब दीख पड़ते हैं, मगर यह कहना शायद ग़लत न होगा कि उनका ट्रीटमेंट प्रायः रोमानी ही है। ये गीत कथ्य (विषय) के स्तर पर तो समय के यथार्थ को अभिव्यक्त करने का प्रयास करते हैं, किंतु यथार्थ की अभिव्यक्ति का स्वर काफ़ी हद तक रोमानी ही बना रहता है। यथार्थ को देखने की दृष्टि में रोमानियत बरक़रार रहती है। जन-जीवन में गहरी पैठ से बनी यथार्थ-दृष्टि, जो रोमानी भावबोध को तार तार कर डाले, के दर्शन रमेश रंजक जैसे कुछ ही गीतकारों में होते हैं। यहीं रंजक जी की अपनी शैली को चिह्नित किया जा सकता है; उदाहरणार्थ देखिए :
चला आया दिन जमाई-सा
इसे क्या दें
करें कैसे भाल पर टीका
टकों के बिन
चला आया दिन3
या फिर देखिए :
सुर्ख हुई कनपटी मकानों की
आंख खुली अंधे दालानों की
गुज़र गयी किरन चपत मारकर
अनबुहरे आंगन को पार कर
...
नंगी हो गयीं चारपाइयां
अलस भरी चूड़ियां बजीं
घुली-घुली मिट्टी में स्नान कर
कलमुंहीं अंगीठियां सजीं
सर्पित धूमिल मीनार पर
बैठ गया सन्नाटा हार कर4
या
पोंछ पसीना
ली अंगड़ाई
थकी क्रियाओं ने
सौंप दिये
मीठे संबोधन
खुली भुजाओं ने
जोड़ गया संदर्भ मनचला मौसम हरा-भरा5
अर्थाभाव से ग्रस्त गृहस्थ के लिए दिन की 'जमाई' से तुलना, ‘कलमुंही अंगीठियों के घुली हुई मिट्टी से स्नान कर कुछ भी पका देने से हार बैठा 'सन्नाटा’ और ‘शृंगार के स्थान पर पसीना पोंछ थकी हुई प्रिया को भुजाओं में लेना’ ऐसे बिंब हैं, जो रोमानी भावबोध वाले मध्यवर्गीय रचनाकारों के यहां प्रायः अनुपस्थित मिलेंगे। अभावों के बीच भी ज़िंदगी को भरपूर जी लेने वाला श्रमिक-वर्ग या निम्न मध्यवर्ग रंजक जी की रचनाओं का केंद्र बिंदु है। उनकी काव्य-दृष्टि इन वर्गों (वास्तविकता के धरातल पर एक ही वर्ग) के जीवन-यथार्थ की गहरी समझ से विकसित हुई है। रचना का संवेदन-बिंदु चाहे जीवन-स्थितियों से जुड़ा हो या प्रकृति के रूप-सौंदर्य से, कवि की काव्य-दृष्टि उसमें परिलक्षित होती है :
लहरों पर रोशनी गिरी पानी में पड़ गयी दरार।
चांदी की
एक अरगनी बांध गयी कांपते कगार।6
इस सुंदर दृश्य-बंध में ‘अरगनी’ शब्द रंजक की इसी काव्य-दृष्टि को दर्शाता है। यह काव्य-दृष्टि लंबे जीवन-संघर्ष और रचनात्मक संघर्ष से उपजी है। इस संघर्ष में कवि ने बहुत कुछ झेला है, किंतु वह उस झेले हुए को अपने अहं की तुष्टि का उपादान नहीं बनाता और न ही दुनिया-समाज को कोसता है; वह तो उससे फिर नयी ऊर्जा ग्रहण करता है :
तुम्हारी चुप्पियों ने, फ़बतियों ने, गालियों ने भी
सुझाये रास्ते मुझको उजाले के - अंधरे में।
नहीं तो टूट जाता मैं कलम के साथ घेरे में।।7
रंजक अगर टूटते नहीं हैं, तो उसका कारण है उनका आत्मसंघर्ष। वे हर आलोचना को अपने आत्मसंघर्ष का बिंदु बना डालते हैं, हर कठिनाई को भी और हर पीड़ा को भी। उनका आत्मसंघर्ष उन्हें व्यक्ति इकाई से समूह इकाई की ओर ले जाता है :
हम स्वयं संसार होकर हम नहीं होते
फूटते हैं रोशनी के इस कदर सोते
हर जगह से देह-पर्वत फोड़ जाते हैं
दिन हमें जो तोड़ जाते हैं
वे इकहरे आदमी से जोड़ जाते हैं।8
मगर, रंजक के यहां ‘जुड़ना’ जितना महत्त्वपूर्ण है, उतना ही स्पष्ट है ‘इनकार’ और ‘अस्वीकार’ :
ये महंगे दस्ताने मैंने हाथ नहीं माने
लाख बार समझौते लेकर
आये तहख़ाने9
तथा
हां! जिन्हें मैंने नहीं माना
नहीं ही माना...10
‘इनकार’ और ‘अस्वीकार’ की स्पष्टता उनके व्यक्ति को बार-बार परेशानी में डालती रही, छकाती-थकाती रही, जिसकी अभिव्यक्ति उनकी कविता में यत्रतत्र दिखायी दे जाती है :
नाम भर अनुप्रास
जीवन भर विरोधाभास
अधलिखी लंबी कहानी-सी
अपाहिज प्यास
मेरे पास।11
लेकिन, यह स्थिति बराबर नहीं बनी रहती, प्रकृति का वैभव कवि की थकन, प्यास और मन की शुष्कता को दूर कर देता है :
थकन भरे सपनों के सिरहाने
चंदनी हवा उतरी
प्यास के सिवाने पर ढुलक गयी
ऋतुओं की रस-गगरी
पोर-पोर भीज गयी चुनरी हियतल की।12
वेदना, करुणा और संवेदना का यह क्रम कवि की प्रतिबद्धता को अक्षय ऊर्जा प्रदान करता है, प्रतिबद्धता ज़िद में तब्दील होने लगती है :
लिख रही हैं वे शिकन
जो भाल के भीतर पड़ी हैं
वेदनाएं जो हमारे
वक्ष के ऊपर गड़ी हैं
बंधु! जब-तक
दर्द का यह स्रोत-सावन नहीं टूटेगा
हरापन नहीं टूटेगा।13
आम जन के साथ खुद की पहचान रंजक को उनके दुख-दर्द की भीतरी सतह तक ले जाती है और आत्म-शैली में वे उसकी अभिव्यक्ति करते हैं। नवगीत वाले दौर में भी यह प्रतिबद्धता स्पष्ट दिखायी पड़ती है और जब वे जनगीतों का सर्जन करते हैं, तब भी नवगीत के दौर की कलात्मकता बरक़रार रहती है। दरअसल, रंजक किसी आंदोलन से ऊपरी तौर पर प्रभावित नहीं होते। आंदोलन उनकी रचनात्मक-दृष्टि और प्रतिभा को नये-नये क्षितिज प्रदान करते हैं। तभी नागार्जुन जैसे सिद्धहस्त कवि कहते हैं : ‘मिट्टी बोलती है कल ही मिली, ऐसी जानदार, इतनी जीवनधर्मी। इस प्रकार फड़कती, कड़कती, धड़कती रचनाएं एक साथ। बार-बार पढ़ने-गुनगुनाने लायक़ हैं।’14
रमेश रंजक की काव्य-प्रतिभा जीवन के विविध आयामों का विविध कलात्मक रूपों में संस्पर्श करती है। विभिन्न जीवन-स्थितियों और संघर्ष के अनेकविध रूपों को उन्होंने कलात्मक सौंदर्य के साथ अभिव्यक्त किया है। यह कलात्मक सौंदर्य गढ़ा हुआ नहीं है, यह कवि की रागात्मकता से उद्भूत है। विषय चाहे प्रेम हो या आर्थिक अभावों के बीच की मन:स्थिति या फिर व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष और विद्रोह, कवि ‘विचार’ को ‘भाव’ बनाकर ही व्यक्त करता है। कह देने की कोई जल्दबाज़ी नहीं है, इसलिए गर्वोक्तियां, मसीहाई मुद्रा, उपदेश, उद्बोधन, नारेबाज़ी से वाह-वाह लूटने या तालियां पिटवाने वाली अभिव्यक्तियों से रंजक दूर ही रहते हैं। उनके यहां संवेदना और अनुभूति अत्यंत सहज और आत्मीय रूप में प्रस्तुति पाती हैं। जीवन-यथार्थ का गहरा बोध और कला-रूपों की निरंतर साधना उनके गीतों को पाठक-श्रोता के मन में देर तक गूंजते रहने का सामर्थ्य प्रदान करते हैं।
सबसे पहले हम प्रेम-संबंधी कुछ गीतों पर निगाह डालते हैं। किशोरवय की प्रेमानुभूति की व्यंजना कवि ने काव्यशास्त्रीय उपादानों के माध्यम से इस प्रकार की है :
छंद सरीखी गठन देह की
मनमोहनी पंक्ति-सी चितवन
अलंकार उभरे यौवन के
पढ़-पढ़ रीझ गया भावुक मन
भाषा थी
जानी-पहचानी
शैली थी अनजान तुम्हारी।15
देह-गठन के लिए ‘छंद’, चितवन के लिए ‘मनमोहनी पंक्ति’, यौवन के उभारों के लिए अलंकार का प्रयोग और जानी-पहचानी ‘भाषा’ में शैली के भिन्न होने से विलक्षणता को व्यक्त करना, निस्संदेह, श्लाघ्य है। लेकिन, यही कवि जब काल के अजस्र प्रवाह के बीच चिर स्मरणीय बने पलों को ‘जल-प्रवाह के थम जाने’ और ‘दर्पण में बिंब के रम जाने’ से इस तरह अभिव्यक्त करता है जिस प्रकार गतिशील क्रिया का कोई स्टिल फ़ोटोग्राफ़ अलबम में हमेशा के लिए सुरक्षित हो गया हो, तो शब्दों की मितव्ययिता, ‘थमे’ और ‘रमे’ की अपारंपरिक और दुःसाध्य तुक की योजना उसकी साधना के उच्चतर स्तर का संकेत करती है। ऐसी पंक्तियां निराला के गीतों की कसावट का स्मरण कराती हैं :
वे पल
थमे जल-से थमे
रमे जैसे
बिंब दर्पण में रमे
वे पल16
निराला की एक कविता है, ‘मौन’, जिसमें दो प्रेमियों (या सदियों) के निकट किंतु मौन बैठने का आग्रह है। सांसारिक झमेलों के बीच कुछ न कहते-सुनते हुए समीप बैठे युगल के अपनी अपनी मनःस्थितियों से जूझने-उबरने की परिणति ‘मौन मधु हो जाय’ की इच्छा में होती है। अज्ञेय भी ‘हरी घास पर क्षण भर’ में शहर की आपाधापी के बीच युगल के मौन ही प्रकृति के एक नमूने-मात्रा को महसूसने से सृष्टि के रागात्मक बोध की अभिव्यक्ति की गयी है। रमेश रंजक के यहां भी एक युगल है, स्वातंत्रयोत्तर भारत का एक युगल; किंतु यह युगल एक-दूसरे से मौन रहकर कुछ महसूस करने का रोमानी अनुरोध नहीं करता; यह स्थितियों से टूटा हुआ युगल है, जो कुछ कहने की स्थिति में है ही नहीं, जो अपने ‘भीतर’ के टूटने-बिखरने को किसी भी तरह व्यक्त नहीं होने देना चाहता, जो एक दूरी को बनाये-बचाये रखना चाहता है; किंतु उसके लिए यह सब कर पाना संभव नहीं हो पाता। देखिए, रंजक इसे किस संश्लिष्टता से अभिव्यक्त करते हैं :
दूरियों के पास
बैठे रहे हम-तुम
बेवजह ही जल-सतह
छू आदतन
एक संजीदा हवा-से
बहे हम-तुम
....
कथ्य सारा कह गये
अनकहे हम-तुम
ढहे हम-तुम
दीखते अनढहे हम-तुम
दूरियों के पास17
गीतिकाव्य की प्रमुख विशेषताओं में ‘भाव की तीव्रता’ और शब्दों की मितव्ययिता तथा मैत्री का विशेष स्थान है। रंजक के गीतों में ‘सांकेतिकता’ का गुण पर्याप्त पाया जाता है और वे ख़ासे संश्लिष्ट बिंब देने के साथ साथ भाव की दुरूहता से साफ़ बच निकलते हैं, यानी भाव की तीव्रता पाठक या श्रोता के लिए अधिक बौद्धिक व्यायाम के बाद हासिल किये जाने वाली चीज़ नहीं रहती। उनका एक गीत है, ‘ग़रीब की ज्यौनार’। ब्रज प्रदेश में लड़की के विवाह के अवसर पर ‘राजा जनक बनायी ज्योनार’ गीत गाया जाता है, जिसमें जनक की ‘ज्योनार’ यानी ‘भोज’ की भव्यता का बयान होता है। ब्रज में ज्योनार में आग्रहपूर्वक, प्रायः इनाम-भेंट के पैसे देते हुए आग्रहपूर्वक परोसा-खिलाया जाता है। ऐसी ही एक ज्योनार में बचपन में शरीक होने का अवसर मिला था। यह ज्योनार एक भड़भूजे परिवार की बारात के स्वागत में थी। भोजन करते हुए कड़ाक की आवाज़ के साथ धातु के दांतों के बीच आने का अहसास हुआ, यह एक सिक्का था। पूड़ियों-कचौड़ियों में सिक्के भरे गये थे। जो जानकार थे, वे पहले ही उनके टुकड़े करके सिक्के निकाल लेते थे और अधिक सिक्कों के लिए अधिक खाते जाते थे। ख़ैर, तो हम रंजक के गीत की ज्योनार की चर्चा कर रहे थे। यह ग़रीब की ज्योनार है, जिसमें व्यंजनों की बहुतायत क्या, पर्याप्त मात्रा भी नहीं हो सकी है। इस पर क्षमा-याचना-सी करती हुई लड़की की मां समधी से निवेदन कर रही है कि क्या बतायें हम पर कैसी विपत्ति पड़ी हुई है। विवाह जैसे अवसर के लिए ‘बिपत’ का प्रयोग अत्यंत मार्मिक है और घोर यथार्थ का व्यंजक भी। दोनों फ़सलों की कमाई 'लगुन' और 'दरवाजे़' की रस्मों पर ख़र्च हो गयी है। विदाई के समय भेंट किये जाने वाले खांड-कटोरे के लिए अगली फ़सल का बीज भी बेचा जा चुका है :
अरहर सारी गयी लगुन में, सरसों दरवज्जे पै,
खांड-कटोरा में समधी जी! धरौ बीज कौ नाज,
सचाई खोलूं, हरे-हरे! सचाई खोलूं डर लागै
ऐसी बिपत परी महाराज...18
मगर यह बात पुरुष नहीं, स्त्री ही कह सकती है। बेटी का घर ज़रूर बस रहा है, किंतु उसका अपना घर संकट में है। कहते हुए डर भी है, क्योंकि परिवार का स्वाभिमान और पुरुष की अहम्मन्यता आहत हो सकती है। इसका नतीजा कुछ भी हो सकता है। जो भी हो, उसका ख़ामियाज़ा तो आख़िरकार स्त्री को ही भुगतना है। अब देखिए, राजमजूरिन की होली :
रंग के भाग ठिठोली लिखी है
रूप के भाग में चीर
अपने तो भाग मजूर के भाग हैं
भाल पै स्याम लकीर
सजनवा! भाल पै स्याम लकीर
गारे के पांय, पसीने कौ अंचरा,
सीस पै धूल के बाल,
सजनवा! हमकौ न भावै गुलाल।19
‘बिरहा’ की धुन पर आधारित इस गीत में अभिजात और अभिजात-वर्ग की भौंडी नक़ल करने वाले मध्यवर्ग की त्योहारों-उत्सवों के प्रति सनातन, एकांगी और वर्ग-निरपेक्ष दृष्टि को अत्यंत सांकेतिक रूप से तोड़ा गया है। उसके रंग-रूप वाली सौंदर्याभिरुचि के विरुद्ध श्रमिक सौंदर्यबोध को रखा गया है। निराला की ‘तोड़ती पत्थर’ के समानांतर। यहां न करुणा की आकांक्षा है- ‘देखा मुझे उस दृष्टि से जो मार खा रोयी नहीं - और न ही क्रूर समाज पर प्रहार का स्वप्न - ‘लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा/मैं तोड़ती पत्थर।’ यहां तो मज़दूर के भाग्य में काली लकीर लिखने वाली व्यवस्था का यथार्थ-बोध है और है अभिजातवर्गीय अभिरुचियों के प्रति अस्वीकार का भाव, यद्यपि निर्णायक रूप में नहीं। इसे अनासक्ति नहीं कहा जा सकता, मन तो होली मनाने का है, किंतु उस तरह से नहीं, जैसे संपन्न लोग मनाते हैं। अपनी स्थितियां वे नहीं है, किंतु जो हैं, उनका भरपूर स्वीकार यानी वास्तविकता-बोध और तदनुसार अपना अलग ही भावबोध इस गीत में दिखायी पड़ता है।
निम्न और निम्नमध्यवर्ग में परंपराओं को निभाने रहने की विवशता और ज़िद उनके आर्थिक आधार को तोड़कर रख देती है, सामाजिक मर्यादा और उसके प्रति संवेदनशीलता के नाम पर किये जाने वाले ये काम परिवार को कहां पहुंचा देते हैं, इसकी मार्मिक और कलात्मक अभिव्यक्ति ‘घरनी का गीत’ में इस तरह हुई है :
सजन तैनें इतने भात दये
सपन मेरे पतझर पात भये
फुलवा की पंखुरी-सी मोहिनी जवानी
आंसुओं की गैल गयी खोखले गुमानी
उभरी नसें नहर की नाईं
हाड़ पिरात गये।20
‘सपनों का पतझर के पत्ते हो जाना’ निश्चय ही अत्यंत सुंदर कल्पना है। ऊपर उद्धृत तीनों गीतों में यथार्थबोध स्त्री के माध्यम से आया है। स्त्री-पक्ष को स्त्री के निजी जीवन तक न सीमित रखकर रंजक उसे संपूर्ण सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक स्थितियों में दख़ल देने तक विस्तार देते हैं। कविता में यथार्थ-बोध प्रायः पुरुषों के द्वारा ही अभिव्यक्ति पाता है। रंजक को यह श्रेय देना होगा कि इस विषय में भी उन्होंने स्त्री को पुरुष के समकक्ष खड़ा कर दिया है।
रमेश रंजक की प्रतिबद्धता ऐसे ही लोगों के लिए है, जो तमाम हाड़-तोड़ श्रम के बावजूद इंसानी ज़िंदगी जीने की स्थिति में नहीं हैं :
गिरवी हैं सारी उम्मीदें
दिन का चैन रात की नींदें
कर्ज़ पसीने पर हावी हैं आंखें चढ़ी थकान की
इतनी भर ज़िंदगी बची इंसान की।21
यह बदहाली दैवीय प्रकोप से नहीं, बल्कि व्यवस्था की देन है। वह व्यवस्था, जो लोकतंत्र के नाम पर चल रही है, पर जिसमें ‘तंत्र’ में पैठे लोग हर तरह की हरकतों के बावजूद फूल-फल रहे हैं और ‘लोक’ उनका शिकार बन रहा है। रंजक इस ‘लोक’ को सावधान करते हैं :
बचकर कहां चलेगा पगले चारों ओर मचान है
हर मचान पर एक शिकारी, आंखों में शैतान है।
हवा धूल में बटमारीपन, छाया की तासीर गरम
सरमायेदारों के कपड़े, पहने घूम रहा मौसम
नद्दी-नालों की ज़ंजीरें, हरियल टहनीदार नियम
न्यायाधीश पहाड़ मौन हैं, खा-पीकर रिश्वती रक़म
सत्ता के जंगल की पत्ती-पत्ती बेईमान है।22
इस बेईमान व्यवस्था में आम आदमी की परेशानी इस हद तक पहुंच रही है :
इत वकील उत थानेदारी
लोहू पीवत है
दोनों तरफ़ गांठ के गाहक
बड़ी मुसीबत है
इनके मारे भूख-प्यास पटवारी है गयी है।23
किसान के जीवन में ‘पटवारी’ की भूमिका के बारे में सभी जानते हैं। पटवारी के बस्ते और उसकी नाप-जोख ने न जाने कितने किसानों का जीवन बेहाल कर डाला। यहां ‘भूख-प्यास के पटवारी हो जाने’ की व्यंजना असीम विस्तार पा जाती है। किसानों के बाद अब निम्नमध्यवर्ग और वेतनभोगी कामगारों की स्थिति देखिए। बढ़ती महंगाई, नियत पगार और हर जगह रिश्वत या लूट-खसोट के चलते उनका जीवन दूभर होने लगा है :
अबकी यह बरस
बड़ा तरस-तरस बीता
दीवारें नहीं पुतीं, रंग नहीं आये
एक-एक माह बांध, खींच-खींच लाये
अब की यह बरस24
‘दीवारें नहीं पुतीं’ से दीपावली और ‘रंग नहीं आये’ से होली के उत्सव न मना पाने की व्यंजना ध्यातव्य है। अभावग्रस्तता के बीच गृहस्थ व्यक्ति की स्थिति शोचनीय बन गयी है :
दिन का दुख भूलूं
तो झूलूं, झूले शाम के
टूट गये नंगे पांवों में
कांटे काम के
हवा पसीने से कतराती
हंसी उदासी से
छूट गये हैं जैसे लगते-लगते फांसी से
खाली पेट कर रहे दर्शन
चारों धाम के25
इन हालात ने जीवन के प्रति सारे उमंग-उल्लास को भंग कर दिया है :
सुबह फ्रिज की सब्ज़ियों-सी
सामने आती
रोज़ चिकनी शाम
पालिश-सी उतर जाती
नींद आने लगी क़िस्तों में
टूट कर दिन हो गये बेस्वाद
बहुत में कुछ हो गया अपवाद26
तथा
मेरा बदन हो गया पत्थर का
‘सोनजुही-से’ से हाथ तुम्हारे
लकड़ी के हो गये
हमारे दिन फीके हो गये
नक्शा बदल गया सारे घर का27
लेकिन, ये स्थितियां कवि को अवसाद में नहीं ले जातीं। वह इनसे निकलने की उम्मीद रखता है। उसकी आस्था है कि अंधकार चिरजीवी नहीं है :
निगल रहा है कफ़न रात का संध्या के सुनहरी बदन को
किरनों की चुनरी उढ़ा दे अपने गीतों के बचपन को
गा जब तक ये घन कजरारे, शशि है बादल के पिछवारे
हो न निराश किरन के पथ पर कब तक अंधियारा छायेगा28
क्योंकि कवि का दृढ़ विश्वास है कि यदि आदमी-आदमी के बीच का रिश्ता मज़बूत है, यदि यथार्थ का ज़मीनी आकलन है, यदि समय की त्रासदी का संवेदन है और यदि रागात्मकता शेष है तो कवि की कलम जिजीविषा की पहचान कर लेगी और उसकी कविता ज़िंदगी की जीत के न केवल गीत गायेगी, बल्कि परिदृश्य को परिवर्तित करने की चेतना जागृत कर देगी :
कलम बिकती नहीं है सिर्फ़ उसकी
जुड़ा है जो ज़मीं से, आदमी से
उसी ने चेतना को नोंक दी है
दुखी है जो समय की त्रासदी से
रंगों में राग है तो ज़िंदगी है
कलम में आग है तो ज़िंदगी है।29
दुखों का बोध कराने वाली कविता अब नाकाफ़ी लगती है। दुख जिनके कारण हैं, उनके चेहरे पहचानना भी आवश्यक है। जाति, परंपरावाद और धर्म के रास्ते ये दुख जन-जीवन में आये हैं। बांटने वाली ये शक्तियां ही परिवर्तनकामी जनता को लाचार और बेबस बना रही हैं, मारक स्थितियों की ओर ठेल रही हैं। रंजक इन्हें बेनक़ाब कर जनता को आगाह करते हैं :
मारने को हमें गूंगी मौत
दुश्मनों की फ़ौज है तैयार
हमको मारने को।
एक दुश्मन, जाति का परचम लिये
बांधकर तमग़े
हमारे संगठन पर मारता है चोट
दूसरा आधा धंसा है लीक में
लीक को ही मानता है ओट
तीसरे के हाथ में है धर्म की तलवार
हमको मारने को।30
स्थितियां कैसी भी हों, उन्हें बदला जा सकता है। यह आशा ही मनुष्य को भय से बाहर निकालती है। परिवर्तन तभी संभव है, जब भय से मुक्ति मिलती है। और, भय से मुक्ति तभी संभव है, जब एकाकी न रहकर अपने जैसे दूसरों के साथ संवाद हो, बिखरी हुई शक्ति पुंजीभूत हो :
डर के आगे आग जलाओ
कद्दावर शब्दों को लाओ
फिर देखो
अपनी ज़मीन का
कितना बड़ा जिगर लगता है
तुमको नाहक डर लगता है31
वर्तमान व्यवस्था खुद को ‘लोकतंत्र’ कहती है, पर इस लोकतंत्र का नियंत्रण ‘बड़े लोगों’ के हाथ में है। उनके लिए जनता की अहमियत सिर्फ़ वोट पाने के लिए है, जिससे सत्ता प्राप्त कर वे भय का वातावरण बना सकें और अपने स्वार्थों की पूर्ति कर सकें। ऐसी तानाशाही को जनता संगठित होकर ही ख़त्म कर सकती है :
कहीं नहीं होती सुनवाई
कितना ही चिल्लाओ भाई
फैली चारों ओर तबाही
लोकतंत्र में तानाशाही
बिना संगठन के न गिरेगी, यह काली चट्टान।32
और
एका में भारी ताक़त है एका में बैठे करतार।
एका की आवाज़ उठे तौ थर-थर कांप जाय सरकार।।33
‘संगठन’ या ‘एका’ तभी होगा जब मानवीय अस्मिता का बोध होगा। देश में करोड़ों मज़दूर-किसान सिर्फ़ दो जून की रोटी कमाने में झोंक दिये गये हैं। रंजक व्यवस्था, जिसकी एक प्रतिनिधि सरकार भी है, के इस दुष्चक्र को भेदने और जनता को मानवोचित गरिमा का साक्षात्कार कराने का प्रयास करते हैं :
रोटी इतनी बिखरा दी है इधर-उधर
जिसे जुटाने में ही लग जाये दिन भर
रात थकन को देकर हम संतोष करें
सिर्फ़ पेट भरने की खातिर जियें-मरें
बैल नहीं हैं, हमको सानी नहिं चइये
नहिं चइये सरकार सयानी नहिं चइये।34
मानवीय अस्मिता का बोध मनुष्य की रीढ़ को सीधा कर देता है। वह झुकना बंद करता है और अपनी शक्ति को महसूस करने लगता है :
तन गयी हैं रीढ़ जो मजबूर थीं ग़म से
हाथ बाग़ी हो गये चालाक मरहम से
अब न बहकाओ, छलावा, छलनियों में बह गया है
और आदमक़द हमारा जिस्म लोहा बन गया है।35
वंचित वर्ग में अपनी स्थिति का बोध उनमें नयी चेतना का संचार करता है और वे वर्ग भेद को अस्वीकार कर अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होते हैं। उनके लिए संघर्ष का रास्ता चुनते हैं। प्रयाणगीत की धुन पर रंजक इसे इस तरह व्यक्त करते हैं :
ये आदमी की खाइयां
बढ़ा रही लड़ाइयां
बंटी हुई ज़मीन से
रुकी हुई मशीन से
एक आग आ रही है -मुट्ठियां कसे हुए
जवान गीत गा रही है – मुट्ठियां कसे हुए36
सम्यक् चेतना का अब प्रसार हो रहा है। सीने में अवरुद्ध हवा प्रसार पाकर तूफ़ान में बदल रही है। चेतना का यह प्रसार अवश्य ही सामाजिक संरचना को परिवर्तित कर डालेगा, ऐसी कवि की आस्था है। परिवर्तन यकायक नहीं होता, धीरे-धीरे दीर्घकाल में होता है, किंतु विराट कालगति के छोटे-से अंश में रहनेवाले लोग, ख़ासकर मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी वर्ग के लोग, उसे चीन्ह नहीं पाते और ऐसी आस्था का प्रायः मज़ाक़ ही उड़ाते हैं। मगर, चेता और कवि इससे डोलते नहीं, वे अपनी आस्था के प्रति दृढ़ विश्वास, श्रद्धा और प्रतिबद्धता रखते हैं, उसे निरंतर अभिव्यक्ति देते हैं :
ये तूफ़ां किसी के न रोके रुकेगा
रुकेगा तो मंज़िल का होके रुकेगा
ये तूफ़ां नयी सरज़मीं चाहता है
ज़मीं पर नया आदमी चाहता है
नयी आग इंसा में ढल के रहेगी
ज़माने की हालत बदल के रहेगी37
यद्यपि इस गीत में ‘नमामी शमीशान निर्वाण रूपं, विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं’ की लय को आधार बनाया गया है, पर शब्द-योजना से इसे प्रयाणगीत का रूप दे दिया गया है :
18 मई 1951 को निराला से दारागंज में मुलाक़ात का विवरण देते हुए अज्ञेय ने लिखा है, ‘इसके बाद निराला ने चार-छः वाक्य कहे उनसे मैं आश्चर्यचकित रह गया। उन्हें याद करता हूं तो आज भी मुझे आश्चर्य होता है कि हिंदी काव्य-रचना में जो परिवर्तन हो रहा था, उसकी इतनी खरी पहचान निराला को थी... निराला ने कहा, ‘तुम जो लिखते हो वह मैंने पढ़ा है... तुम क्या करना चाहते हो वह हम समझते हैं... स्वर की बात तो हम भी सोचते थे। लेकिन असल में हमारे सामने संगीत का स्वर रहता था और तुम्हारे सामने बोलचाल की भाषा का स्वर रहता है... ऐसा नहीं है कि हम बात को समझते नहीं हैं। हमने सब पढ़ा है और हम सब समझते हैं। लेकिन हमने शब्द के स्वर को वैसा महत्त्व नहीं दिया, हमारे लिए संगीत का स्वर ही प्रमाण था।’
संगीत से शब्द के स्वर की तरफ़ की यह यात्रा बढ़ती ही गयी और चाहे शब्द के स्वर बहुत कम कवियों ने ही साधे हों, पर धीरे धीरे संगीत के स्वर कविता से छूटते गये। रमेश रंजक ने अपनी कविता में शब्द और संगीत, दोनों के स्वरों को साधा है और इस तरह परंपरा का छोर थामे हुए आधुनिकता को पूरी तरह आत्मसात करने का प्रयास किया है। साठोत्तरी कविता में यह काम करने वाले कुछ ही कवि हैं, जिनमें रमेश रंजक का महत्त्वपूर्ण स्थान है।38
रंजक जी की काव्य-यात्रा लंबी है, उसके बहुत से पक्ष इस लेख में नहीं आ सके हैं। आजकल पाठक इतने लंबे लेख को देखकर ही परेशान हो उठते हैं। इतने ही पृष्ठों में बातें और भी कही जा सकती थीं, किंतु रंजक के काव्य का वैविध्य और सौंदर्य अच्छी तरह सामने आ सके ऐसी इच्छा ने लेख में उद्धरणों की संख्या बढ़ा दी है। आशा है, रंजक की कविता के नियमित पाठक क्षमा करेंगे और नये पाठक उनकी काव्य-प्रतिभा का सीधे आकलन करने में सक्षम होंगे। हिंदी में कीर्तन की परंपरा बहुत गहरी जड़ें जमाये हुए है, इसलिए कुछेक कवियों तक ही चर्चाएं सीमित रहती हैं। हिंदी कविता सागर का बहुलांश सामाजिकों के लिए लुप्तप्राय रह जाता है। श्रेष्ठ कवि भी स्टार प्रचारकों, महंत कीर्तनियों की कृपा-दृष्टि के अभाव में उपेक्षित रह जाते हैं या अपेक्षित महत्त्व प्राप्त नहीं कर पाते। इधर तो साहित्य के अपने अनुशासन को इतना गौण मान लिया गया है कि साहित्य की समीक्षा में उसके कलात्मक सौंदर्य पर अंत में दो-चार सपाट-सी पंक्तियां देकर इतिश्री हो जाती है। रंजक ने एक गीत में कवि की इस व्यथा को अभिव्यक्त किया है :
जाने किन सिरफिरे अभावों में
रद्दी के भाव बिक गये हैं हम
बेमौसम।
....
सोचा था तैर कर समुंदर की लहरों पर
नाम लिख गये हैं हम
कितना भ्रम।39
लहरों पर नाम तो निस्संदेह लिखा है रमेश रंजक ने, किंतु तट पर बैठे आलोचकों को ‘सुनहरे शैवालों’ से फ़ुर्सत हो, तो लहरों के थपेड़े खायें और उन पर लिखे रंजकों के नाम पढ़ें!
मो. 9219701949
संदर्भ :
1. उपाध्याय, महेश सं.; ‘एक महत्त्वपूर्ण कवि सम्मेलन’; परदे के पीछे; उद्भावना, ग़ाज़ियाबाद; प्रथम संस्करण 2019
2. वही, फ्लैप से
3. रंजक, रमेश; गीत सं. 48; हरापन नहीं टूटेगा; अक्षर प्रकाशन, दिल्ली-1974; पृ. 76
4. रंजक, रमेश; ‘घर में सुबह’ शीर्षक गीत; गीत विहग उतरा; आत्माराम एण्ड सन्स, दिल्ली-1969; पृ. 27
5. वही; ‘गीत विहग उतरा’ शीर्षक गीत; पृ. 13
6. वही; ‘कांपते कगार’ शीर्षक गीत; पृ. 20
7. उपाध्याय, डा. महेश-संपादक; ‘नदी की आग’ शीर्षक गीत; परदे के पीछे (रंजक के जन आंदोलनधर्मी गीत);
उद्भावना, ग़ाज़ियाबाद; प्रथम संस्करण 2019
8. रंजक, रमेश; गीत सं. 62; हरापन नहीं टूटेगा; अक्षर प्रकाशन, दिल्ली-1974; पृ. 94
9. वही; गीत सं. 57; पृ. 89
10. वही; गीत सं. 53; पृ. 82
11. रंजक, रमेश; ‘गगन भर प्रण’ शीर्षक गीत; गीत विहग उतरा; आत्माराम एण्ड सन्स, दिल्ली-1969; पृ. 11
12. वही; ‘याद एक पल की’ शीर्षक गीत; पृ. 41
13. रंजक, रमेश; गीत सं. 60; हरापन नहीं टूटेगा; अक्षर प्रकाशन, दिल्ली-1974; पृ. 92
14. उपाध्याय, महेश सं.; ‘आत्मनिवेदन’; परदे के पीछे; उद्भावना, ग़ाज़ियाबाद; प्रथम संस्करण 2019
15. रंजक, रमेश; ‘सरस त्रिवेणी’ शीर्षक गीत; गीत विहग उतरा; आत्माराम एण्ड सन्स, दिल्ली-1969; पृ. 36
16. रंजक, रमेश; गीत सं. 1; हरापन नहीं टूटेगा; अक्षर प्रकाशन, दिल्ली-1974; पृ. 15
17. वही; गीत सं. 21; पृ. 43
18. रंजक, रमेश; ‘ग़रीब की ज्यौनार’ शीर्षक गीत; उपाध्याय, महेश सं.; परदे के पीछे; उद्भावना, ग़ाज़ियाबाद, प्रथम सं. 2019; पृ. 90
19. वही; ‘राजमजूरिन की होली’ शीर्षक गीत; पृ. 88
20. वही; ‘घरनी का गीत’ शीर्षक गीत; पृ. 100
21. वही; ‘अंकुश अभाव के’ शीर्षक गीत; पृ. 30
22. वही; ‘जंगल का गीत’ शीर्षक गीत; पृ. 60
23. वही; ‘कचहरी के मारे का गीत’ शीर्षक गीत; पृ. 92
24. रंजक, रमेश; गीत सं. 16; हरापन नहीं टूटेगा; अक्षर प्रकाशन, दिल्ली-1974; पृ. 33
25. वही; गीत सं. 18; पृ. 39
26. वही; गीत सं. 20; पृ. 42
27. वही; गीत सं. 34; पृ. 57
28. रंजक, रमेश; ‘किरन के पथ पर’ शीर्षक गीत; उपाध्याय, महेश सं.; परदे के पीछे; उद्भावना, ग़ाज़ियाबाद; पृ. 27
29. वही; ‘कमल का गीत’ शीर्षक गीत; पृ. 84
30. वही; ‘दुश्मनों की फ़ौज’ शीर्षक गीत; पृ. 74
31. वही; ‘डर के आगे’ शीर्षक गीत; पृ. 79
32. वही; ‘दमन की चक्की’ शीर्षक गीत; पृ. 45
33. वही; ‘रमेश रंजक की आल्हा’; पृ. 116
34. वही; ‘बैल नहीं हैं’ शीर्षक गीत; पृ. 42
35. वही; ‘जिस्म लोहा’ शीर्षक गीत; पृ. 75
36. वही; ‘आग का गीत’ शीर्षक गीत; पृ. 52
37. वही; ‘...लावा फूटेगा’ शीर्षक गीत; पृ. 55
38. अज्ञेय; ‘बसंत का अग्रदूत’ शीर्षक लेख; सं. विद्याधर शुक्ल; लेखन-5 (निराला स्मृति अंक) जून, 1999; इलाहाबाद; पृ. 275
39. रंजक, रमेश; ‘सोचा था’ शीर्षक गीत; गीत विहग उतरा; आत्माराम एंढ संस, दिल्ली-1969; पृ. 32
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