समय इस तरह का आ गया है
सुरजीत पातर
पद्मश्री सम्मान वापिस करते समय मन में कई तरह की उधेड़बुन होती है। सम्मान प्राप्त करते समय के पूर्व-दृश्य मन में चलते हैं। मन में दुख और रोष होता है। जिसे सम्मान वापिस कर रहे होते हैं उसे हम अपने दुख और रोष का एहसास करवा रहे होते हैं।
रवींद्रनाथ टैगोर याद आ रहे हैं जिन्होंने जलियांवाला बाग़ के हत्याकांड के बाद ब्रिटिश सरकार को 'सर' का ख़िताब वापिस करते समय इस संबंध में तत्कालीन वॉयसराय को चिट्ठी लिखी थी :
समय इस तरह का आ गया है
कि सम्मान के तमग़े हमारे अपमान के साथ मेल
नहीं खा रहे
यह हमारी तौहीन को बल्कि और अधिक उजागर कर रहे हैं।
तो मेरी स्वयं के लिए मेरी यह इच्छा है कि
मैं इन सब ख़ास-उल-ख़ास ख़िताबों से मुक्त होकर
अपने उन देशवासियों के साथ खड़ा हो जाऊं
जो अपने तथाकथित मामूलीपन के कारण
इस तरह के अनादर सह रहे हैं
मानो वो इंसान ही न हों
टैगोर के रोष की इस आवाज़ के साथ सारा राष्ट्र ही नहीं बल्कि सारी दुनिया जुड़ गयी थी। टैगोर, पंजाबियों को टैगोर होने के कारण भी अच्छा लगता है, पर पंजाब के साथ उसके प्रेम, जलियांवाला बाग़ हत्याकांड के बाद अपना ख़िताब वापिस करने, बंदा सिह बहादुर, गुरु गोविंद सिंह और भाई तारु सिंह के बारे में ख़ूबसूरत कविताएं लिखने के कारण, गुरु नानक साहिब की आरती का बंगला में अनुवाद करने के कारण और भी अच्छे लगते हैं। जसवंत दीद की एक दस्तावेज़ी फ़िल्म में टैगोर के लिए कुछ पंक्तियां इस तरह से हैं :
कुल शायरी के जहान का
तू है मान हिंदुस्तान का
तू सपूत धरा बंगाल का
लाख दीप गीतों के बालता
तूने सुने जो नानक के सुख़न
बन थाल जगमगाया था गगन
उसकी दिन-रात की आरती
कुल कायनात की आरती
तुझे मोह लिया पंजाब ने
इसके शबद ने इसके राग ने
पर रुलाइयां मिल गयी थीं राग में
जब जलियांवाले बाग में
तेरा दिल कुछ ऐसा तड़प गया
तूने ख़िताब हाकिम को लौटा दिया
क्या करूं मैं तेरे ख़िताब को
आयी आंच जब मेरे पंजाब को
आज तक धरा पंजाब की
तुझे देती आशीष प्यार की
तू सपूत धरा बंगाल का
मेरे अपने बेटों के साथ का
मेरा राग विराग तू जानता
मुझे मां कह कर तू पहचानता
पद्मश्री सम्मान वापिस करते समय मुझे प्यारे टैगोर याद आये थे। उस याद से मुझे प्रेरणा मिली थी।
सिर से वारता हूं
कॉरर्पोरेट घराने इस समय सब कुछ हड़पने के लिए बेताब हैं। सारा कारोबार, सारी दौलत, सारी शक्तियां, सारे प्राकृतिक संसाधन । यहां तक कि बहुत सारी सरकारों को भी इन्होंने अपना ज़रख़रीद ग़ुलाम बना लिया है। अब ये गांवों को हड़पने के लिए चल पड़े हैं। इस ललचाये दैत्य की लार खेतों में गिर रही है। बड़ी-बड़ी मशीनें मनुष्य को रौंदकर बढ़ने के लिए तैयार हैं। इसीलिए सारा पंजाब किसान आंदोलन के सरोकारों की सार्थकता को नमस्कार कर रहा है।
दूसरी बात यह है कि जिस समझदारी, धीरज और सहनशीलता के साथ यह आंदोलन चलाया जा रहा है, उसने हमारी आत्माओं को तरो-ताज़ा कर दिया है । हमें यह एहसास हुआ कि पंजाब मरा नहीं, ज़िंदा है, इसके मन में पुरखों की याद ज़िंदा है, इसका सिदक ज़िंदा है। हमारे लोगों की एकता शक्ति, खुशमिज़ाजी और चढ़ रही कला को प्रणाम है।
मैं मैं तू तू करते थे
हम आज 'हम' हैं हुए
इस 'हम' को संभाल के रखना
हम मुश्किल से 'हम' हैं हुए
वही 'हम' मुकद्दस होता
जो सच के संग खड़ा होता
दुखों में भी मेले लगते
जब दुख-सुख साझे होते
पंजाबी इस आंदोलन के सुघड़ नेताओं के भी शुक्रगुज़ार हैं। वे महसूस करते हैं कि इन नेताओं की दूरदृष्टि, नम्रता, सहृदयता, तथा लोगों के प्रति अपनत्व भरे व्यवहार के कारण हमने एक जीत तो हासिल कर ही ली है। वह है, दिल्ली के लोगों का प्यार । हमारे नेताओं ने उनसे माफ़ी भी मांगी है कि हम अपने इतने बड़े जमावड़े से आपको तकलीफ़ दे रहे हैं। लोगों ने झाड़ू पकड़ कर सड़कें भी साफ़ कर दी और अब ख़ाली पड़ी ज़मीन संवार कर उसमें सब्ज़ियां भी बो रहे हैं और कह रहे हैं कि हम अगर जीत कर वापस चले गये तो ये सब्ज़ियां यहीं के लोग खायेंगे और हमें याद करेंगे और यदि हमें अधिक देर ठहरना पड़ा तो हम उनके साथ मिलकर खायेंगे। इस सोच से ज़्यादा सुंदर कविता क्या हो सकती है? इस वाक्य में भविष्य के आंदोलनों के लिए भी संकेत हैं। इस तरह के सृजनात्मक रोष की मिसाल शायद ही कहीं मिले।
इस आंदोलन में हमारे बेटे-बेटियां भी पूरी शिद्दत से शामिल हैं। दुखों में भी एक मेला लग गया। मैंने एक वीडियो देखी जिसमें दिल्ली की एक प्यारी सी बेटी एक पंजाबन को कह रही थी 'यदि आप यहां से चले गये तो हम उदास हो जायेंगे।' यह वाक्य सुनकर मेरी आंखें नम हो गयीं।
हम सभी के मन में इस आंदोलन की शांतिपूर्ण, सहनशील शूरवीरता पर बलिहारी जाने की भावना भी शामिल है। इस आंदोलन के सरोकार तो निस्संदेह लोगों के प्यार की हामी भरते ही हैं, अपने सर्जनात्मक अंदाज़ के कारण भी यह आंदोलन दुनिया के लिए मिसाल बन गया है। हम सभी जानते हैं कि इस आंदोलन की जीत के साथ हमारी सारी समस्याएं हल नहीं हो जायेंगी। हमें अपने मूल्यों के अपने व्यवहार और अपने संपूर्ण अस्तित्व के पक्ष से भी बहुत कुछ बदलना होगा। यह आंदोलन हमारे मन में पंजाब की पुर्नसर्जना की उम्मीद, धीरज और पुरुषार्थ जगाता है।
सम्मान वापस करना कुछ ऐसा है :
इन सुंदर बेटों के सर ऊपर से
और इन प्यारी बेटियों के सर ऊपर से
महामेले में आये
सभी लोगों के सिर ऊपर से
सिर्फ़ सिरवारना किया है
इन उमंग वाली बहनों के सिर ऊपर से
और अपने बांके भाइयों के सिर ऊपर से
इन धरती जैसी मांओं के सिर ऊपर से
और पेड़ों के समान बुज़ुर्गों के सिर ऊपर से
उन सम्मानीय नेताओं के सिर ऊपर से
सिर्फ़ सिरवारना किया
जिनके धैर्य, सच, सयानप, हलीमी, हौसले और
दूरदृष्टि ने
सजा दिया है इस मेले को इतनी दूर तक
कि इसका एक सिरा गौरवमय इतिहास से
मिलता
और दूसरा हमारी संतानों के भविष्य की उम्मीद से मिलता
और तीसरा और चौथा
इस मेले को दया व विनय की नजाकत भरी जीवन-पद्धति के आगोश में इस तरह
संभाला है
कि इस मेले को कोई दाग़ ना लगे
इस मेले पर कोई दोष न आये
इस मेले का नाम मैला न हो ।
यह मेला है करोड़ों शब्द जैसे होते किसी एक
नज़्म में शामिल।
इस मेले का हुस्न जमाल देख के
... ... ...
दुआ की है
कि हों तुम्हारी
सभी बलाएं दूर
ग़रीबी और निराशा दूर
अन्याय वाली बांट भी काफ़ूर
तेरी जात-पात टले
तुम्हारा श्रम-कर्म फले
तुम्हारा भेदभाव जले
तुम्हारा तन और मन दुरुस्त
मन नीचा और मति ऊंची...
नानक नाम चढ़दी कला
तेरे भाने सरबत दा भला
फ़तह का मार्ग
हमें फ़तह हासिल करनी है।
हमारी जीत का मार्ग ननकाना साहिब के अत्याचारी महंत नारायणदास से मुक्त करवाने वाली ऊंची मति में से निकलेगा जिसके क़हर से हिंदुस्तान और पूरी दुनिया त्राहि-त्राहि कर उठी थी। पर हमारे सब्र, संतोष और शांतिपूर्ण सहनशीलता ने दुनिया को हैरान कर दिया था। लोग यह तो जानते थे कि यह योद्धाओं की क़ौम है, हथियारों की जंग में इनका कोई सानी नहीं, पर उस दिन उन्होंने यह देखा कि शांति, सहनशीलता, शूरवीरता में शायद ही दुनिया में कोई इनसे मुक़ाबला कर सके ।
20 फरवरी 2021 उस अनूठी फ़तह की प्रथम शताब्दी का पर्व है।
गुरु के बाग़ की फ़तह की प्रथम शताब्दी का पर्व अगस्त 2022 में है
30 अक्टूबर 2022 पंजा साहब में गाड़ी रोकने के बलिदान-दिवस की प्रथम शताब्दी का पर्व भी है।
1 अप्रैल 2020 सर्व-धर्म सम्मान के रक्षक हिंद की चादर गुरु तेग बहादुर जी के पावन प्रकाश पर्व की चौथी शताब्दी का पर्व भी है।
यह कैसा संयोग है कि यह चारों पर्व हमारे बहुत क़रीब हैं।
हम बहुत भाग्यशाली हैं कि इन सब की स्मृति से शूरवीरता, सहनशीलता और पूर्ण कुर्बानी की रोशनी आ रही है।
मशहूर ईसाई मिशनरी सी एफ़ एंड्रयूज़ ने गुरु का बाग़ के मोर्चे का आंखों देखा वर्णन किया था। उसने मैनचेस्टर गार्डियन में 15 से 24 फ़रवरी, 1924 में लिखा:
वे हाथ जोड़कर पाठ करते जा रहे थे। ब्रिटिश तथा हिंदुस्तानी सिपाही उन पर धातु की मूठोंवाली लाठियां चला रहे थे। वे गश खाकर गिर पड़ते, फिर उठ बैठते । उन्हें देखा तो मुझे ईसा मसीह की सलीब याद हो आयी ।
हमें इन पावन पर्वों की शांति, सहनशीलता व शूरवीरता की रोशनी में नया अध्याय रचना है जिससे भविष्य में होने वाले विश्व के आंदोलन रोशनी, प्रेरणा और हौसला लिया करेंगे। यह हमारी उम्मीद भी है और प्रार्थना भी ।
एक बावला काव्यात्मक ख़याल।
कल सुबह मुझे सपने जैसा काव्यात्मक ख़याल आया कि देश के प्रधानमंत्री इस अद्वितीय लोक लहर को संबोधित कर रहे हैं । उन्होंने भी एक अद्वितीय जैसा वाक्य कहा :
'प्यारे देशवासियों, आप जानते ही हो, मैं आज तक कभी कहीं नहीं झुका। पर आज इन धरतीपुत्रों के सामने झुकता हूं। इनके दुख के सामने झुकता हूं। इनके धैर्य के सामने झुकता हूं। तीनों क़ानून हम वापस लेते हैं और इन धरतीपुत्रों की सलाह के साथ नये क़ानून बनाने का अहद करता हूं।
जय जवान, जय किसान..'.
नारों से सारा देश गूंज उठा
प्रधानमंत्री के इन वाक्यों के साथ मेहनतकश किसानों की फ़तह हुई, लोगों की विजय हुई, देश के प्यार की विजय हुई और प्रधानमंत्री की भी विजय हुई।
मैंने यह बात अपने एक दोस्त को सुनायी तो वह कहने लगा, 'कवि के बावले ख़याल और राजनीतिज्ञों के सयानेपन में ख़्वाहिशों और हैसियत जितना, दिन और रात जितना फ़ासला होता है।' इस सपने के बारे में बात करते हुए चार्ली चैपलिन की फ़िल्म, द ग्रेट डिक्टेटर की याद आ रही है।
मो. 98 145 04 272
अनुवाद : बलवंत कौर
मो. 9868892723
(किसान आंदोलन के समर्थन में पद्मश्री वापिस करने के बाद पंजाबी के वरिष्ठ कवि सुरजीत पातर ने पंजाबी ट्रिब्यून में यह लेख लिखा था)
13 दिसंबर, 2020, पंजाबी ट्रिब्यून से साभार
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