वैचारिक चर्चा-2

ब्राह्मणवाद के विरुद्ध संघर्ष के प्रतीक : पेरियार

विष्णु नागर

 

तमिलनाडु के द्रविड़ आंदोलन के जनक ई. वी. रामास्वामी पेरियार की इस वर्ष तीन पुस्तकें हिंदी में पेपरबैक संस्करण में प्रकाशित हुई हैं- सच्ची रामायण, जाति व्यवस्था और पितृसत्ता तथा धर्म और विश्वदृष्टि (राधाकृष्ण पेपरबैक्स) इनमें हिंदीक्षेत्र में विवादास्पद एक पुस्तक रही है, सच्ची रामायण। बाक़ी दो पुस्तकें उनके लेखों, व्याख्यानों, संपादकीयों का संकलन है ,जो पुस्तकाकार स्वरूप में पहली बार सामने आया है। दिलचस्प यह है कि इस कड़ी में संभवतः सबसे बाद में सच्ची रामायण प्रकाशित हुई, मगर सबसे जल्दी एक महीने बाद ही प्रकाशक को इसका दूसरा संस्करण प्रकाशित करना पड़ा। जुलाई में छपा पहला संस्करण और अगस्त में दूसरा। दिलचस्प यह है कि यह पुस्तक. वाल्मीकि के बहाने दक्षिण भारत पर आर्य-ब्राह्मण वर्चस्व को चुनौती देने के लिए लिखी गयी थी। इसके कारण उत्तर प्रदेश में इस पर 1969 में तत्कालीन प्रदेश सरकार ने प्रतिबंध लगाया था और प्रतियां ज़ब्त की थीं। प्रतिबंध को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गयी, तब 1976 में निर्णय लेखक-प्रकाशक के पक्ष में आया था, मगर देश के न्यायालय के आदेश की भी अनदेखी करते हुए अगले 19 साल तक प्रदेश सरकार ने यह प्रतिबंध जारी रखा। 1995 में मायावती की सरकार आने पर यह रोक हटी। अब मूल रूप से 70 पृष्ठों की यह पुस्तक (अन्य आवश्यक सामग्री के साथ 150 पृष्ठों की) पहले से बेहतर और प्रामाणिक अनुवाद में सामने आयी है। उसकी यह लोकप्रियता दर्शाती है कि इस भयानक सांप्रदायिकता के दौर में भी ऐसे तमाम लोग  हैं,जो विवादी स्वरों को सुनना चाहते हैं।  वाल्मीकि रामायण के राम और रामपक्षीय चरित्रों की तीखी आलोचना-भर्त्सना सुनने को तैयार हैं।

जाति व्यवस्था और पितृसत्ता का भी दूसरा संस्करण सात महीने के अंदर ही सामने आ गया। सच्ची रामायण पुस्तक वैसे तो पहले भी बामसेफ के माध्यम से लाखों की संख्या में लोगों तक पहुंच चुकी बतायी जाती  है, ऐसी जानकारी इन तीनों पुस्तकों के संपादक प्रमोद रंजन ने अपने संपादकीय में दी है। यह काम तब बामसेफ के कार्यकर्ताओं ने किया था और पुस्तक विक्रेताओं को इससे दूर रखा था। इस कारण प्रतियां जलाने को आतुर भाजपा के कार्यकर्ताओं को यह किताब बाज़ार में कहीं नहीं मिली। उन्हें इसके कथित आपत्तिजनक अंशों की फ़ोटोकॉपी जलाकर ही संतोष करना पड़ा। बहरहाल यह पुस्तक किसी धार्मिक हिंदू को कभी नहीं पच सकती क्योंकि यह वाल्मीकि रामायण का एक अलग द्रविड़ पाठ प्रस्तुत करती है,जो रावण को नायक और दशरथ, राम, सीता, लक्ष्मण आदि को खलनायकों के रूप में चित्रित करती है। पेरियार तमिल मानस पर छाये रामायण के इन चरित्रों को अपदस्थ करके द्रविड़ चरित्रों को सामने लाना चाहते थे। उनके अनुसार रावण द्रविड़ था, इसलिए उसे आर्य वाल्मीकि ने राम के चरित्र के माध्यम से लांछित किया। पेरियार इस मामले में स्पष्ट थे कि उन्हें तमिल स्वाभिमान जगाना है, इसलिए रामायण को उन्होंने 'आर्य ' और 'द्रविड़' पात्रों में बांटकर देखा। वाल्मीकि रामायण उनके लिए आर्य-ब्राह्मण वर्चस्व का  एक बड़ा प्रतीक थी, जिसका एक निहित उद्देश्य उनके अनुसार तमिल स्त्री-पुरुषों को बंदर और राक्षस आदि रूपों में दिखाकर उनका अपमान करना था। वे भूमिका में लिखते हैं कि इसमें जिस लड़ाई का वर्णन है, उसमें उत्तर का एक भी ब्राह्मण और आर्य(देवता) नहीं मारा गया। जो मारे गये वे राक्षस(तमिल) थे। निश्चित रूप से वे जगह जगह वाल्मीकि रामायण से ही उद्धरण देकर अपनी बात सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। किसी भी महान महाकाव्य या नाटक या उपन्यास में समय और परिस्थिति के अनुसार विभिन्न चरित्र एक दूसरे के बारे में समय-समय पर सकारात्मक या नकारात्मक टिप्पणियां करते हैं। हर चरित्र अपने पक्ष को मज़बूती से रखता है। वे कवि या उपन्यासकार का अपना नहीं, पात्रों का पक्ष होता है। यह एक तरह से हमारे जीवन का ही प्रतिबिंब होता है, जिसमें हमारे अपने जीवन में आने-जानेवालों के बारे में एक स्थिर,जड़ मत नहीं होता, बदलता रहता है। इसके विपरीत पेरियार इस पुस्तक में राम या सीता या दूसरे चरित्रों का आपस में एक दूसरे के बारे में एक विशेष परिस्थिति में कथनों का अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग तरह की बातें सिद्ध करने के लिए उपयोग करते हैं और एक निश्चित-निर्धारित लक्ष्य तक पहुंचते हैं। इस प्रक्रिया में वे कई बार उलझ  जाते हैं। उदाहरण के लिए, रावण के बारे में ऐसी बहुत सी अंतर्विरोधी बातें वे एकसाथ सामने रखते हैं। एक ओर रावण सज्जन-सच्चरित्र  है, जिसने किसी महिला को उसकी अनुमति के बग़ैर छुआ तक नहीं, दूसरी तरफ़ वे यह भी बताते हैं कि वह सीता को उठाकर ले जाने के लिए झोपड़ी तक आया था और उसे गोद में उठाकर ले जा रहा था। क्या बिना छुए किसी स्त्री को इस तरह उठाकर ले जाया जा सकता है, यह कृत्य क्या उसकी इच्छा को प्रकट करता है,  क्या उसकी उसी छवि को प्रक्षेपित करता है, जिसे पेरियार हमें दिखाना चाहते हैं? क्या इसमें सीता की सहमति प्रकट होती है? यह अंतर्विरोध राम के बारे में भी दीखता है। एक तरफ़ राम का सीता के चरित्र पर संदेह करना, राम की कमज़ोरी बताया जाता है, दूसरी ओर वे यह भी सिद्ध करते हैं कि सीता चरित्रहीन थी। फिर रावण जब सीता से कहता है कि 'आओ हम मिलकर आनंद उठायें, तो वे सुबकने क्यों लगती हैं? यह सीता की चरित्रहीनता है या उसकी विवशता, अनिच्छा, भय? यहां लगता है कि अपनी बात को सिद्ध करने की उन्हें जल्दी थी। शायद अधिक धैर्य से, अधिक तथ्यात्मकता का सहारा लेकर वे अपने उद्देश्य तक पहुंच सकते थे।

बहरहाल महाकाव्यों, बड़ी रचनाओं की समय के साथ नयी साहित्यिक और समाजशास्त्रीय व्याख्याएं स्वाभाविक रूप से सामने आती हैं। पेरियार की भी यह एक राजनीतिक-सामाजिक व्याख्या है। उनका अपना एक बड़ा राजनीतिक लक्ष्य था,जो उन्होंने अपने जीवनकाल में एक हद तक हासिल किया। उन्होंने तमिलनाडु की राजनीति को सवर्ण वर्चस्व से मुक्त किया। यह काम पिछड़ों को 27 प्रतिशत आरक्षण देने के बाद उत्तरी भारत में भी बड़ी हद तक हो सका। इस अर्थ में उनकी अपनी व्याख्या सफल रही।  रामायण उनके लिए महाकाव्य नहीं, आर्यों-ब्राह्मणों को उच्चासन पर बैठाये रखने में सक्षम एक ग्रंथ था, जिसने द्रविड़ चरित्रों को लांछित किया। उन्होंने महसूस किया कि 90 प्रतिशत निरक्षर तमिल, दास्य भाव से रामायण से जुड़े हैं। इसका कारण वे रामायण पर आधारित तमिल कम्ब रामायण को मानते थे,जिसने तमिल मानस को बनाने में बड़ी भूमिका अदा की (शायद उसी प्रकार, जिस तरह हिंदीभाषी प्रदेशों में वाल्मीकि की रामायण से हज़ार गुना अधिक तुलसीकृत रामचरितमानस ने की)। इस कारण वे कम्ब की भी तीखी आलोचना करते हैं, मगर उनकी आलोचना का मुख्य निशाना वाल्मीकि रामायण है। एक लंबे, कठिन और सतत संघर्ष के बाद पेरियार इस उद्देश्य में राजनीतिक रूप से अपेक्षाकृत अधिक सफल रहे और तमिल स्वाभिमान पैदा करने में किसी हद तक सक्षम। यह साठ से भी अधिक वर्षों से हिंदी  के वर्चस्व को चुनौती देने के रूप में प्रकट हो रहा है, जो इन राज्यों के सांस्कृतिक वर्चस्व का विरोध है। दक्षिण भारत में हिंदी वर्चस्व के विरोध का सबसे मज़बूत गढ़ तमिलनाडु है, इसका एक बड़ा कारण पेरियार का व्यापक प्रभाव है। तमिलनाडु की द्रविड़ राजनीति में आज चाहे, जितनी विसंगतियां हों, उसने कांग्रेस की सवर्ण राजनीति को राज्य से हमेशा के लिए अपदस्थ कर दिया। इस परिवर्तन की मुख्य प्रेरणा पेरियार और उनकी यह किताब थी। एक और अर्थ में यह रामायण की इस नयी व्याख्या की राजनीतिक-सामाजिक वैधता पर मोहर लगाता है,भले ही उसकी साहित्यिक-अकादमिक वैधता प्रश्नांकित करना उसका लक्ष्य न रहा हो। बाक़ी दो ग्रंथों को भी साथ में पढ़ें तो निश्चित रूप से पेरियार एक विवेकसम्मत समाज की स्थापना चाहनेवाले नेता के रूप में सामने आते हैं। उन्होंने अपने जीवनकाल में अपना दृष्टिकोण हिंदीभाषी समाज के सामने रखने में संकोच नहीं किया था। उन्होंने उत्तरी भारत की अनेक यात्राएं की थीं और अपना दृष्टिकोण रखा था। इस दौरान उन्होंने सच्ची रामायण तथा अपने विभिन्न लेखों के प्रकाशन की अनुमति भी दी थी।

उनकी दूसरी दो किताबों से उनकी बौद्धिक गहराई और विवेचन दृष्टि अधिक सामने आती है। जाति समस्या और पितृसत्ता  बहुत विस्तार से भारत और विशेषकर तमिलनाडु के संदर्भ में जाति की समस्या की विभिन्न परतें उघाड़ती है। पेरियार बताते हैं कि जाति की समस्या ने हमें किस प्रकार अनुसंधान, तर्क और विचार से रोका है। विभिन्न प्रथाओं, परंपराओं, देवताओं, धर्म, जाति  ने हमें किस तरह मानवीय विवेक से वंचित किया है, लोगों को सवाल करने के हक़ से रोका है। इन सब पर यह पुस्तक विस्तार से प्रकाश डालती है। वे कहते हैं कि तर्क और विवेक ही आगे बढ़ने का एकमात्र रास्ता है। जो दिमाग़ सोच नहीं सकता, वह विवेकहीन है,जो सोचने की क्षमता होते हुए भी नहीं सोचता,वह बर्बर है। वे महिलाओं को लेकर परिवर्तनकारी सोच रखते थे। उन्हें अमुक की पत्नी की तरह नहीं, बल्कि एक अलग व्यक्ति के रूप में चिह्नित किया जाये, इस पर बल देते थे। उन्हें पति-पत्नी शब्द पर भी ऐतराज़ था। विवाह को वे दो पक्षों के बीच साहचर्य का अनुबंध मानते थे। जहां लैंगिक समानता तथा स्त्री-पुरुष के बीच व्यवहार में समानता  संभव नहीं, वहां जिसे 'पवित्र वैवाहिक जीवन' से बंधना कहते हैं,उससे स्त्री को बाहर आकर पुरुष की गुलामी को अस्वीकार करते हुए एकल जीवन जीने का निर्णय लेना चाहिए। दरअसल, स्त्रियों को अपने आश्रित रखने, उन्हें अपने नियंत्रण में रखने के लिए ही सतीत्व और प्रेमरूपी गुण की आवश्यकता बतायी गयी है। किस प्रकार दो जातियों के बीच वैवाहिक संबंधों को बनने से रोकने के लिए तमिलनाडु में श्रेष्ठ मानी जाने वाली जाति और इससे नीची मानी जानेवाली जाति के बीच संबंधों से उत्पन्न संतानों को दोयम दर्जा दिया जाता था, वे यह भी सोदाहरण बताते हैं।

जाति की और भी कई पर्तों को वे खोलते हैं, जिनमें ब्राह्मण श्रेष्ठता को सुरक्षित रखकर बेहद चतुराई से अन्य जातियों को उनसे हीनतर बताना भी शामिल है। श्रेष्ठता का यह किटाणु किस प्रकार अन्य जातियों में भी प्रवेश कर गया है, कैसे एक ही जाति में श्रेष्ठ और अश्रेष्ठ का भेद पनप गया है, इसकी भी वे तमिल जाति के संदर्भ में विशेष रूप से व्याख्या करते हैं। वे बताते हैं कि कुछ वंचितों में यह सोच बन गयी है कि अगर वे रोज़ नहायेंगे, सिर पर तिलक लगायेंगे, शराब और मांस को नहीं छुएंगे तो उनकी स्थिति सुधर जायेगी, उन्हें अस्पृश्य नहीं माना जायेगा। यह खुद को धोखा देते हुए यह सोचना है कि इस तरह दूसरों को भी धोखा दिया जा सकता है। वे जातिगत आरक्षण को एक वरदान मानते थे जिससे समान नागरिकों के समाज का निर्माण होता है। वे जाति व्यवस्था का नाश चाहते थे और कहते थे कि ऐसा करने वालों को धर्म के नष्ट होने का भय नहीं सताना चाहिए। जाति,धर्म, वेद, ईश्वर सभी को नष्ट किया जाना चाहिए। ये  एकदूसरे से इस तरह अभिन्न रूप से जुड़े हैं कि इनमें से किसी को भी अलग करना या सबको अलग-अलग नष्ट करना संभव नहीं है। इस मायने में और हर मायने में वे आंबेडकर को अपने सबसे क़रीब पाते हैं।

इस पुस्तक में उनके जीवन का वर्षवार लेखा (जो बाक़ी दो किताबों में भी इसी प्रकार उपलब्ध है) के अलावा ललिता धारा, टी. थमराईकन्न, वी.गीता तथा एस वी राजदुर्रे का एक संयुक्त लेख पेरियार को समझने में अधिक मदद  करता है।

तीसरी पुस्तक, धर्म और विश्वदृष्टि  है। इसमें विषय से इतर भी कुछ और लेख शामिल हैं, मगर जो इस किताब को भिन्न बनाता है, वह ईश्वर, दर्शन और धर्म के बारे में पेरियार का दृष्टिकोण है। एक बात जो मेरे जैसे लोगों की जानकारी में नयी है,वह यह है कि तमिल में ईश्वर के लिए कोई शब्द नहीं है। 'कांत जी' शब्द  है ,मगर इसके बारे में वे बताते हैं कि कुछ विद्वानों की राय में यह शब्द ईश्वर के लिए है, मगर इसे यह अर्थ मिले भी अधिक समय नहीं हुआ है। उनके अनुसार जब कोई तमिल 'कांत जी' शब्द बोलता है तो उसमें भी एक तरह से ईश्वर का नकार ही शामिल होता है।  'कांत जी'  शब्द का अपना कोई स्वायत्त अर्थ नहीं है। यह तमिलों पर थोपा गया शब्द है। उनके अनुसार सच तो यह है कि केवल तमिल ग्रंथों में ही नहीं, बल्कि वेदों में भी ईश्वर की अवधारणा नहीं मिलती, मगर आर्य ही इस देश में ईश्वर की धारणा लेकर आये। आज से दो हज़ार वर्ष पहले भी माना जाता था कि ज्ञानियों और बुद्धिमानों को ईश्वर की ज़रूरत नहीं। ईश्वर की अवधारणा अपने आप में वैज्ञानिक सोच के रास्ते में बड़ी बाधा है। मनुष्यरचित यह ईश्वर हमेशा उच्च वर्ण का ही होता है, ऐसा क्यों? अवतारवाद के बारे में उनका कहना है कि  ईश्वर को अपने संदेश लोगों तक पहुंचाने के लिए अपने वाहकों की क्या ज़रूरत? उसे वाणी के माध्यम से अपना संदेश पहुंचाने की भला क्या आवश्यकता? यह भी विचारणीय है कि लोगों को ईश्वर की आवश्यकता ही क्या है? क्या समाज कल्याण और लोकव्यवहार उसके बग़ैर संभव नहीं?  अब तक लोग बीमारियों और समस्याओं के निवारण को ईश्वर की मर्ज़ी मानते थे, मगर तब भी  युवा अवस्था में अधिकांश लोग मृत्यु को प्राप्त हो जाते थे। जीवन के अनेक क्षेत्रों में हुई प्रगति के कारण ही अब लोगों की आयु बढ़ी है। यह ईश्वर की नहीं, मनुष्य की देन है। आज जिन मनुष्यों के पास बेहतर बौद्धिकता है, तार्किकता है, गहन विचार क्षमता है, जो अनुभवजन्य जीवन जी सकते हैं, ऐसे लोगों को भला ईश्वर की ज़रूरत ही क्या? ईश्वर और धर्म को अतीत में बनाने वाले लोगों का कहना था कि आप ग़रीबों की मदद करें और आपको इसका लाभ स्वर्ग में मिलेगा, परंतु आधुनिक विज्ञान कहता है कि आखिर दुनिया में गरीब लोग हो ही क्यों? ग़रीबी होनी ही नहीं चाहिए। अतीत में ग़रीबों की मौजूदगी की चाहे जो कारण रहे हों, लेकिन मौजूदा समाज में किसी को ग़रीब नहीं होना चाहिए।

वे इस बात के पक्षधर थे कि एक लोकतांत्रिक राज्य का आधार बुद्धिमत्ता और स्वतंत्रता होना चाहिए जबकि धर्म और धर्मशास्त्र के निर्माण का एकमात्र उद्देश्य बौद्धिकता और आज़ादी को नष्ट करना और लोगों को मूर्ख और दास बनाये रखना है। धर्म उस समय चलन में आया, जब आदमी आदिम अवस्था में था- कमोबेश जानवर की तरह। जिस प्रकार लोग भूत-प्रेत और आत्माओं से भयभीत रहते थे, ठीक वही डर धर्म और धार्मिकशास्त्र भी पैदा करते थे। ये धर्म हमारी बौद्धिकता को ही नष्ट नहीं करते बल्कि हमारे चरित्र को भी क्षति पहुंचाते हैं। इनकी वजह से हमारी ईमानदारी, प्रेम, एकता की क्षमता आदि प्रभावित होती है। हमारे विकास पर असर पड़ता है, विज्ञान को  नुक़सान पहुंचता है और अज्ञान को बढ़ावा मिलता है। ज़ाहिर है कि पेरियार एक अलग दृष्टि की मांग करते हैं, तर्क और विवेक को सर्वोच्च स्थान देते हैं। नास्तिकतावाद की मांग करते हैं मगर अब द्रविड़ राजनीति भी इस मामले में दृढ़ नहीं रही। उसमें भी काफ़ी झोल पैदा हो चुके हैं।

सामान्यत: राजनीतिक कार्यकर्ता और नेता दर्शन की बात करने में सक्षम नहीं होते, मगर पेरियार का एक सुदीर्घ व्याख्यान इस बारे में है।

संपादक, प्रमोद रंजन ने तीनों पुस्तकों को तैयार करने-करवाने में काफ़ी परिश्रम किया है और बहुत सी बारीक़ियों में गये हैं और प्रामाणिक अनुवाद उपलब्ध करवाने की कोशिश की है। सच्ची रामायण का अंग्रेज़ी से हिंदी अनुवाद पहले अर्जक संघ से जुड़े लोकप्रिय सामाजिक कार्यकर्ता ललई सिंह ने प्रकाशित करवाया था, जिन्हें कभी उत्तर भारत के पेरियार के नाम से भी जाना जाता था। इसका अंग्रेज़ी अनुवाद किन्हीं रामाधार ने (संभवतः वे रहे हों, जो कभी दिनमान से जुड़े थे) किया था। उस अनुवाद का मिलान करने पर पता चला कि कई  स्थानों पर इसके अनुवादक-प्रकाशक ने अपनी भावनाओं का समावेश भी कर दिया है। पुनः पूरी पुस्तक का नया और सटीक अनुवाद, तमिल भाषा के शब्दों के सही भावार्थ को समझने के लिए तमिलभाषियों से निरंतर संपर्क कर बहुत अच्छा अनुवाद उपलब्ध करवाना एक चुनौती थी, जिसे अनुवादकों में से एक अशोक झा ने पूरी प्रतिबद्धता से पूर्ण किया। कई लोगों के अनुवादों में एकरूपता लाना भी एक जटिल चुनौती थी और कोई अनुवाद हिंदी की स्वाभाविकता को नष्ट न करे, यह भी एक बड़ा काम था। तमाम अनुवादकों और संपादक ने इस काम को बड़े परिश्रम से पूरा किया है। इसके लिए उन्हें साधुवाद। निश्चय ही इन पुस्तकों में व्यक्त विचारों से सहमति-असहमति अलग चीज़ है लेकिन ऐसे विचारों का हिंदी के संसार में आना और आते रहना बहुत ज़रूरी है। लोकप्रिय स्तर पर यह काम कभी मार्क्सवादियों ने काफ़ी लगन से किया था। विवेक के काम को आगे बढ़ाने का यह सिलसिला आगे भी जारी रहना चाहिए, वरना हिंदीभाषी क्षेत्रों में जो व्यापक जड़ता और अंधविश्वास फैले हैं और सांप्रदायिक राजनीति जिस प्रकार अपने उफान पर है, उसके विरुद्ध कोई नया विचार मज़बूती से सामने नहीं आ पायेगा।

मो. 9810892198

 पुस्तक संदर्भ

1. सच्ची रामायण : ई. वी. रामास्वामी पेरियार, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्‍ली, 2020

2. जाति व्यवस्था और पितृसत्ता : ई. वी. रामास्वामी पेरियार, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्‍ली, 2020

3. धर्म और विश्व दृष्टि  : ई. वी. रामास्वामी पेरियार, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्‍ली, 2020

 

 

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