कहानी चर्चा-2

                                                             विद्रूप यथार्थ की तस्वीरों के भिन्न लेंस

( चार कहानी संग्रहों के हवाले से)

बलवंत कौर

मनोज पांडेय और अनिल यादव समकालीन कहानी के दो ऐसे नाम है जिन्होंने न सिर्फ़ रूप और अंतर्वस्तु के स्तर पर कहानी में व्यापक तोड़फोड़ की है, बल्कि कहानी लेखन का अपना एक अलग मुहावरा भी गढ़ा है। 2020 में अनिल यादव की लंबी कहानी, गौसेवक छपी तथा मनोज पांडेय का नया कहानी संग्रह, बदलता हुआ देश प्रकाशित हुआ। अपनी कहन में ये दोनों किताबें बिलकुल भिन्न धरातल पर हैं, लेकिन अपनी अंतर्वस्तु के स्तर पर ये दोनों एक दूसरे की पूरक ही हैं। मनोज पांडेय जिस बदले हुए देश का बिंब लोककथाओं की शैली में इस संग्रह में गढ़ रहे हैं, उस बदले हुए देश की वास्तविक सूरत  गौसेवक में देखी जा सकती है। बदलता हुआ देश मनोज पांडेय का चौथा कहानी संग्रह है। इस संग्रह में बारह कहानियां हैं जो लोककथाओं के ढांचे में, बहुत चुटीली भाषा में समकालीन राजनीति की सत्ता-संरचना को प्रस्तुत करती हैं। इस संग्रह का आकर्षण जितना इसका कथ्य है उससे अधिक इसका रूप विन्यास है। यह रूप विन्यास बहुत नया नहीं है। अलग अलग देश काल में अभिव्यक्ति के एक औजार के रूप में इसका बखूबी इस्तेमाल विश्व के अनेक रचनाकारों ने किया है। कहानी का विन्यास सिर्फ़ बाह्य संरचना मात्र नहीं होता बल्कि जीवन और उसके अंतर्विरोधों को, विडंबनाओं को समझने का एक रचनात्मक माध्यम भी होता है। इसलिए कहानी में इसकी सार्थकता इसमें है कि रूप या विन्यास का प्रयोग कहानीपन को खंडित न करे। इस सदंर्भ में बदलता हुआ देश एक सार्थक प्रयोग है क्योंकि यहां कहानीपन और पठनीयता कहीं भी बाधित नहीं होती।

बदलता हुआ देश, कहानी संग्रह में देश की नयी गढ़ी जा रही अवधारणा और नये राजा की लीलाओं के माध्यम से व्यवस्था पर प्रहार किया गया है। संग्रह की बारह कहानियां व्यवस्था के वे बारह सूत्र हैं जिनके सहारे व्यवस्था, ‘सबका साथ सबका विकास’ जैसे मिथ रचती है। इस संग्रह में मनोज पांडेय ने जिस स्वर्णदेश की कल्पना की है, उस स्वर्णदेश का पूरा तानाबाना धर्म से नियंत्रित है। विधर्मियों को यहां रहने की अनुमति नहीं क्योंकि वे भी अपने पूर्वजों की तरह जरायम पेशा, हिंसक और अपराधी माने जाते हैं। अगर इसके बावजूद  कोई विधर्मी स्वर्णदेश में रह जाये तो उसका शुद्धीकरण किया जाता है या फिर उसकी तरह तरह से हत्या करवा दी जाती है, क्योंकि विधर्मियों की हत्या पर सज़ा का प्रावधान इस स्वर्णदेश में नहीं है। सीमाओं पर शत्रुओं से घिरा होने के बावजूद स्वर्णदेश सीना ताने खड़ा रहता है। तीन धन्ना सेठ पूरे स्वर्णदेश में शिक्षा से लेकर हर तरह की व्यवस्था के नियामक हैं। इस स्वर्णदेश में एक ऐसे राजा की कल्पना है जिसे प्रजा की चिंता में दिन रात नींद नहीं आती, जो कपड़े बदल बदल कर देश की उन्नति और विकास की योजनाएं बनाता है, जिसका मानना है कि गुलामी और जहालत से निकलने के लिए देश को बायें हाथ से काम लेना चाहिए, आधुनिक विकास के लिए विस्थापन होना अनिवार्य है, बेरोज़गारी स्वर्णदेश की कोई समस्या नहीं, बल्कि काहिली के संस्कार हैं। इसलिए अचार बनाना, पकौड़े तलना जैसी कलाओं को पुनर्जीवित करना चाहिए, किसानों को आत्महत्या से बचाने के लिए उनकी ज़मीन धन्नासेठों को दे देनी चाहिए। और सबसे महत्वपूर्ण बात, इस देश में राजा का मानना है कि भविष्य नाम की कोई चीज़ होती ही नहीं, भविष्य मात्र भ्रम है। राजा कहता है- 'भविष्य अतीत में बदलता है, इसलिए अतीत भविष्य में भी बदल सकता है। बल्कि अतीत ही हमारा भविष्य है। जब तक उसका राज रहेगा, हमें इस सिंहासन से कोई हिला नहीं सकता; बल्कि यह वह सूत्र भी है जिससे हम इतिहास के दाग़-धब्बों को हमेशा-हमेशा के लिए साफ़ कर सकेंगे। हमें भविष्य में नहीं, इतिहास में अमर होना है'  दरअसल, स्वर्णदेश का यह रूपक इतिहास और वर्तमान की उस त्रासदी से निकला है जिस त्रासदी को देखना-झेलना आम आदमी की विवशता है, लेकिन सजग रचनाकार की भाषा हर देश काल में इस तरह के स्वर्णदेशों और उनके राजाओं की लीला को अभिव्यक्त कर ही देती है। कोई भी राजा इतिहास की पाठ्य पुस्तकों में भले ही बदलाव कर दे या अपने वर्तमान को इतिहास की पाठ्य-सामग्री में दर्ज करवा ले, लेकिन उसकी गाथाएं/लीलाएं साहित्य में अन्योक्ति/रूपक/व्यंग्य आदि की शक्ल में दर्ज हो ही जाती हैं। संग्रह की कहानी, ‘पीछे चलो, भविष्य कहीं नहीं है’ में राजा के आदेश से विधर्मी भाषा के शब्दों का चलन बंद कर दिया जाता है। लेकिन रचनाकार इन बंधनों को निरस्त करने के लिए कितने सृजनात्मक हो जाते हैं, यह मनोज पांडेय के कहानी संग्रह में देखा जा सकता है। कह सकते हैं, संग्रह के निरंकुश कवियों की तरह मनोज पांडेय ने भी अभिव्यक्ति पर अंकुश के इस युग में यह शैली ईजाद की है, जिस शैली में सत्ता और ताक़त की संरचना की एक एक परत प्याज़ के छिलके की तरह उतरती नज़र आने लगती है। लेकिन कहानी में इस तरह के राजनीतिक पाठ की अपनी सीमाएं भी होती हैं। इस बात का अंदेशा हमेशा मौजूद रहता है कि अत्यधिक समसामयिकता और ज़ाहिर प्रतिबिंब अक्सर उस कहानी को कालसीमा का अतिक्रमण नहीं करने देते। मनोज पांडेय का यह संग्रह इस अंदेशे का कितना अतिक्रमण कर पायेगा यह तो आने वाला वक्त़ ही बतायेगा।

नगरवधुएं अख़बार नहीं पढ़तीं (कहानी संग्रह), यह भी कोई देस है महाराज (यात्रा-वृतांत) तथा सोनम गुप्ता बेवफ़ा नहीं है (लेख संग्रह) जैसी किताबों के लेखक अनिल यादव की अगली किताब, गौसेवक है। गौसेवक एक लंबी कहानी है। मनोज पांडेय के बदले हुए देश की वास्तविक तस्वीर इस लंबी कहानी में देखी जा सकती है। मनोज पांडेय की लोक कथा शैली के विपरीत गौसेवक जटिल यथार्थवादी संरचना की कहानी है जो पहली नज़र में देखने पर आदिवासी धामा चेरो की कहानी लगती है। धामा चेरो, जो स्कूल के दिनों से ही अपने समुदाय के लिए राशन कार्ड बनवाने के लिए प्रयत्नशील है ताकि पुलिस और नक्सलियों के संघर्ष में वह अपनी पहचान सिद्ध कर सके, लेकिन स्कूल के प्रिंसिपल की राजनीति का शिकार होकर वह प्रताड़ना के केंद्र पुलिस थाने तक पंहुच जाता है। बाद में पुलिस और नक्सलियों के संघर्ष की राजनीति से बचने के लिए और अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए वह उस स्थानीय राजनीति का हिस्सा बन जाता है जहां गौ-तस्करी से लेकर ‘मुसलमान मार गिराना’ राष्ट्रवादी होने की पहचान मानी जाती है। लेकिन वास्तविकता में यह सिर्फ़ धामा चेरो की कहानी नहीं बल्कि उस सामाजिक-राजनीतिक प्रक्रिया की कहानी है जिसमें देश की मुख्य धारा से होते हुए यह सांप्रदायिक राजनीति धीरे धीरे इन पिछड़े अंचलों में प्रवेश कर रही है। इस रूप में यह यह कहानी नक्सल प्रभावित आदिवासी इलाक़े में विकास के राजनीतिक समीकरणों से होती हुई, गौसेवा के नाम पर होने वाले अवसरवाद तथा सत्ता के लिए उस अवसरवाद के सांप्रदायिक राजनीति में तब्दील होने की बहुपरतीय कथा है।

गौसेवक एक पत्रकार के नज़रिये से लिखी गयी है जो आदिवासी इलाक़े में बन रहे बांध की वास्तविकता से परिचित होने के लिए आता है। पहले ही दृश्य में वाचक का परिचय अपने को गौसेवक कहने वाले धामा चेरो से होता है। धामा चेरो न सिर्फ़ वाचक को विकास के नाम पर सदियों से बनाये जा रहे बांध की राजनीतिक स्थिति से परिचित करवाता है बल्कि उस क्षेत्र में नक्सलियों और पुलिस के बीच पिसते प्रताड़ित होते गांव वालों से भी साक्षात्कार करवाता है। चूंकि वाचक पत्रकार है इसलिए जो दिखाया/बताया जा रहा है वह सब तो वह देख ही रहा है लेकिन जो नहीं दिखाया बताया जा रहा वह सब भी वाचक के अनुभव का हिस्सा बन जाता है। इसलिए बांध और उससे जुड़ी सारी स्थितियों, तथ्यों और सूचनाओं से भरी जानकारी होने के बाद भी उसे लगता है इन सारी स्थितियों से इतर भी बहुत कुछ है जिसका बयान वह अपनी ‘देह पर देवताओं की सवारी झेलने वाले ओझा और बैगा' की मदद से कर सकता है, धामा चेरो जैसे विकास चाहने वाले से नहीं। कहानी का अंत भी सिद्ध कर देता है कि लालच की राजनीति नफ़रत की राजनीति में कैसे तब्दील हो जाती है। राजनीति में अपनी महत्वकांक्षा के लिए धामा चेरो हर वह योग्यता रखता है जो किसी भी नेता में होनी चाहिए। गौसेवा के नाम पर गौ-तस्करी करना, फ़ौज में भर्ती के नाम पर आदिवासी लोगों से पैसा वसूलना, फ़ैक्टरी में मज़दूरों की हड़ताल खुलवाने के लिए फ़ैक्टरी प्रबंधकों से पैसा ले धरना-प्रदर्शन करवाना आदि आदि। लेकिन कहानी का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा वह है जो वह करना चाहता है-- सत्ताधारी पार्टी को खुश कर विधानसभा का टिकट पाने के लिए मुसलमान को मारना चाहता है, क्योंकि सत्ताधारी पार्टी एक हिंदू राष्ट्रवादी पार्टी है, जिसका मानना है—'जिस पार्टी के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ रहे हो उसे वोटर को लालच देकर जीतने का बहुत पुराना अनुभव है। लालच से लालच की काट नहीं हो सकती। नफ़रत कहीं बहुत अधिक शाक्तिशाली चीज़ है...', यह नफ़रत आज की राजनीति का स्थायी मुहावरा बन गयी है। वर्तमान राजनीति का अंधेरा पक्ष, जिसने राजनीति को ही नहीं देश को भी बदल दिया है। मनोज पांडेय के कहानी संग्रह का बदला हुआ देश यही है, जहां राजा विधर्मियों की हत्या पर सज़ा नहीं, चुनावी टिकट इनाम में देता है। सत्ता की यह संरचना जिस 'हिंदू राष्ट्र' के सपने को पूरा करने की कोशिश कर रही है वह स्वार्थी और लालची व्यक्तियों के द्वारा ही संभव हो सकती है । धामा चेरो जैसे गौसेवक ऐसी ताक़तों के लिए हथियार का काम करते हैं। लेकिन इन ताक़तों के मंसूबे आम आदमी की सजगता और प्रतिरोध के समक्ष कमज़ोर सिद्ध होते हैं। कहानी में बैगा के चरित्र और ‘मुसलमान को मार गिराने' से बचाने की उसकी तत्परता कथा को उस बिंदु पर ले आती है जहां मनुष्यता के समक्ष सांप्रदायिक राजनीति पराजित होती है। बैगा का कथन कि ‘गाय-गौरू तो ठीक था लेकिन अब आदमी का बच्चा हतोगे तो कैसे बरदाश्त होगा। कौन कहेगा ये ठीक काम है। कह दे कोई हमारे रहते ये नहीं होने पायेगा...' वर्तमान राजनीति के अंधेरे में भी यदि हम शिकायत करने के बजाय आम आदमी भी बैगा की तरह ‘हमारे रहते ये नहीं हो पायेगा कहना और करना शुरू कर दें तो कोई देश का इतिहास भूगोल बहुत सहजता से नहीं बदल पायेगा। गौसेवक कहानी अपनी सशक्त अंतर्वस्तु के साथ-साथ अपनी सशक्त कथा-भाषा के लिए भी भविष्य में याद की जायेगी। जैसा कि नामवरसिंह ने कभी नयी कहानी के सदंर्भ मे कहा था कि 'भाषा का सवाल केवल कुछ शब्दों के छोड़ने और लेने तक ही सीमित नहीं है। सवाल नयी वास्तविकता के अनुरूप उतनी ही यथातथ्य कठोर,चुस्त, संवेदनशील, सजीव भाषा के निर्माण का है'। और इस सदंर्भ में बारीक़ ब्यौरों से रची, वर्णन की अद्भुत कारीगरी से युक्त अनिल यादव की कथा-भाषा नये राजनीतिक यथार्थ की जटिलता को बहुत सूक्ष्मता से उद्घाटित करती है।

             समकालीन कहानी लेखन में कई पीढ़ियां एक साथ सक्रिय हैं। इन सक्रिय रचनाकारों में चरण सिंह पथिक तथा हरियश राय महत्वपूर्ण नाम हैं। दो बहनें, चरण सिंह पथिक का चौथा कहानी संग्रह है। इससे पहले पीपल के फूल, बात यह नहीं तथा गौरू का लैपटॉप और गोर्की की भैंस नामक कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी दो कहानियों, ‘दो बहनें’ तथा ‘कसाई’ पर फ़िल्मों का निर्माण भी हो चुका है। चरण सिंह पथिक की कहानियां लोक कथाओं के ढांचे से सुसज्जित सहज ग्रामीण बोध की कहानियां हैं। लेकिन इस ग्रामीण बोध में गांव और वहां के समाज का कोई गौरव-गान नहीं है। बल्कि यहां एक तरफ़ नाते-रिश्तों की राजनीति, आरक्षण के नाम पर निरादर और समुदायों की टकराहट है तो दूसरी तरफ़ सहज ईर्ष्या, प्रेम, वैमनस्य, हिंसा, लालसा आदि से सुसज्जित संसार है। कह सकते हैं कि प्रेमचंद की तरह ही यह इनसाइडर की लिखी हुई कहानियां हैं, किसी आउटसाइडर की नहीं। लेकिन चरणसिंह पथिक का गांव प्रेमचंद वाला गांव नहीं है। यह नया गांव है जिसमें परंपरागत रूप से फिरनेवाली के रूप में रुदालियों की एक दुनिया है, तो दूसरी तरफ़ जाति और लिंग आधारित संरचना के वर्चस्व की दुनिया है और तीसरी तरफ़ नये तरह के जातीय समीकरण, जिसमें आरक्षण के नाम पर जातीय टकराव हैं और अधिकार और सम्मान की लड़ाई के नाम पर हिंसा का शासन है। ‘मूंछें’ कहानी में इसी तरह की आरक्षण की राजनीति और उस राजनीति के नाम पर होने वाली हिंसा को देखा जा सकता है। गूजर एस.टी.वर्ग में आरक्षण की मांग कर रहे थे और मीणा अपने कोटे के आरक्षण को किसी क़ीमत पर बांटने को तैयार नहीं थे। लेकिन इस जातीय टकराहट का ख़ामियाज़ा रामराज जैसे निरीह व्यक्ति को चुकाना पड़ता है। गूजर उसे मीणा समझ और मीणा उसे गूजर समझ हिंसा और लूटपाट करते हैं। दरअसल, इस तरह के जातीय समूहों के लिए आरक्षण समान अधिकारों का संघर्ष नहीं बल्कि फ़ायदे और सुविधाओं के बंटवारे की लड़ाई है । इसीलिए सामाजिक रूप से अपने से कमतर जाति समूहों के लिए अपमान और वितृष्णा का भाव, 'चमारों के पुरखे भी कभी गये हैं फ़ौज में...' जैसी भाषा में देखा जा सकता है। इसी प्रकार ‘मुर्ग़ा’ कहानी में भ्रष्ट अफ़सर तक मास्टर गंगा राम को जाति के आधार पर अपमानित करने से परहेज़ नहीं करता - 'एससी/एसटी वालों ने हर डिपार्टमेंट की बैंड बजा रखी है। रिज़र्वेशन से नौकरी मिल जाती है। काम के नाम पर गुलसप्पा। कुछ कहो तो एससी की धमकी देते हैं'। भ्रष्ट अफ़सर ही नहीं, यदि दलित भी इस भ्रष्ट व्यवस्था का अंग बन शोषण और अन्याय करते हैं तो चरण सिंह पथिक पॉलटिक्ली करेक्ट होने के चक्रव्यूह में फंसे बिना उसकी ('मुर्ग़ा' कहानी में फूलबाबू के रूप में) आलोचना करते भी दिखायी देते हैं। राजनीति और धर्म के शासन से संचालित क्रूर और अमानवीय छल प्रपंच, आस्था के नाम पर स्त्री शरीर को मिल्कियत मानने वाले समाज की अनेक परतें चरण सिंह पथिक की कहानियों में देखी जा सकती हैं। इस सदंर्भ में उनकी कहानी, ‘कसाई’ को विशेष रूप से देखा जा सकता है जहां ताक़त की लालसा और राजनीति की चालें न सिर्फ़ रक्त संबंधों की हत्या का कारण बनती हैं, बल्कि धर्म और आस्था का आडंबर उस ग्रामीण समाज में ‘कसाई’ को एक अमूर्त रूप में बदल दोषियों को आजीवन मुक्त विचरने का मौक़ा भी दे देता है। धर्म और राजनीति का यह संबंध समाज में ताक़त की संरचना सदैव बनाये रखने में सदियों से अहम भूमिका निभाता है। इस तरह की संरचना गांव और शहर दोनों में देखी जा सकती है। चरण सिंह पथिक का तो मानना है कि यह सब पहले गांव से शहर में गया है। अपने एक साक्षात्कार में वे कहते हैं, 'सारी चर्चा, राजनीति, राजनीतिक दांव, प्रचार...ये सब गांवों में पहले होते हैं, केंद्र में बाद में पहुंचते हैं। राजनीति की शुरुआत गांव में ही होती है गांव से दिल्ली राजनीति का एक ही फार्मेट है।'                                                        

             चरण सिंह पथिक की सर्वाधिक चर्चित और प्रसिद्ध कहानियां वे हैं जिन्हें उन्होंने लोककथा शिल्प में लिखा है। लेकिन लोककथा का यह ढांचा इतिहास और वर्तमान की शोषणकारी, अमानवीय सत्ताओं की संरचनाओं को छिपाने या ढांकने का काम नहीं करता बल्कि उन संरचनाओं को अधिक प्रभावी ढंग से उघाड़ने का काम करता है। इसीलिए कहानी, ‘कैसे उड़े चिड़िया’ में चिड़ा और चिड़ी के प्रसंग के माध्यम से स्त्रीजीवन के सदियों के संताप और पितृसत्ता के समक्ष पराजित होने के दर्द को देखा जा सकता है। इसी प्रकार 'पीपल के फूल’ कहानी में विकास की अवधारण और मानव और प्रकृति के संबंधों को नये रूप में देखा जा सकता है। दरअसल, चरण सिंह पथिक का रचना संसार हिंसा और क्रूरताओं के अमानवीय साम्राज्य की विभिन्न परतों से रचा साहित्य है जो पाठक को किसी निष्कर्ष पर नहीं ले जाता, बल्कि अपने आसपास घटित होने वाली रोज़मर्रा की स्थानीय ग्रामीण घटनाओं और स्थितियों को कथा की संरचना में बुन कर पाठकों के सामने रख देता है। इसलिए इन कहानियों में राजनीतिक रूप से सही होने या न होने की कोई जद्दोजहद भी नज़र नहीं आती है।

चरण सिंह पथिक के विपरीत हरियश राय का लेखन शहरी मध्यमवर्गीय जीवन पर केंद्रित है जिसमें 1990 के बाद के सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक बदलावों को कहानी के ढांचे में अभिव्यक्त करने की कोशिश की गयी है। वे मानते हैं कि यही वे ताक़तें हैं जो समाज तथा जीवन को संचालित भी करती हैं और सर्वाधिक प्रभावित भी करती हैं। अपने छठे कहानी संग्रह, किस मुकाम तक की भूमिका में वे लिखते हैं, 'मेरे लिए कहानी घटनाओं या सदंर्भों का सिलसिला नहीं है, बल्कि घटनाओं और सदंर्भों के मूल में जीवन को संचालित करने वाली जो ताक़तें हैं, उन ताक़तों की सोच और व्यवहार से बदलते समय को सामने लाना है अपने सरोकारों के साथ, अपनी सोच के साथ और अपनी विविधता के साथ...।'  बदलाव के इस दौर ने मानवीय संबंधों और सांस्कृतिक मूल्यों को सर्वाधिक बदल दिया है। सांस्कृतिक मूल्यों का बदलाव असमानता के समाज की संरचना करता है। यह असमानता चाहे लिंग आधारित हो या फिर धार्मिक आधार पर हो। किस मुकाम तक संग्रह की कहानियां इसी असमानता को उद्घाटित करती कहानियां हैं। इन कहानियों के पात्र अपने भीतर इन असमानताओं से लड़ते हुए इनसे मुक्त होने की कोशिश करते नज़र आते हैं। चाहे ‘चीलें’ कहानी की प्राची सोनकर हो या ‘उन्हें बाघ खा जाये’ की देवयानी । दोनों अपनी अपनी परिस्थितयों और अनुभवों के अनुरूप अपनी मुक्ति का मार्ग तलाशने की कोशिश करती हैं। एक विवाह न करने का निर्णय करके अपने अस्त्तित्व को पितृसत्तात्मक चीलों से बचाने का निर्णय लेती है और दूसरी पारिवारिक दायित्वों के बोझ (जिसमें पिता की देखभाल भी शामिल है) से मुक्त हो विवाह करने के निर्णय में मुक्ति का अर्थ तलाशती है । दो अलग अलग कहानियां और दो बिलकुल विपरीत स्थितियां लेकिन दोनों जगह अपने डरों, दबाबों, कुंठाओं, उलझनों और समाज द्वारा गढ़ी परिभाषाओं से मुक्त हो निर्णय तक पहुंचने की जद्दोजहद। मुक्ति की परिभाषा और मुक्त होने की प्रक्रिया दोनों कहानियों में अलग अलग है। इन कहानियों के स्त्री चरित्रों की अनिर्णय से निर्णय तक पहुंचने की यात्रा '80 के दशक के स्त्री चरित्रों की याद दिलाती है, लेकिन यह देखना दिलचस्प होगा कि संसाधनों, सुविधाओं और उच्च शिक्षा के अवसर होने के बावजूद मध्यवर्गीय समाज की नैतिकता का ढांचा अभी तक नहीं बदला। इसलिए अपने भीतर संघर्ष करती स्त्री आज भी कहानियों में देखी जा सकती है।

नवें दशक के बाद धर्म, राजनीति और बाज़ार के मेल से एक नये प्रकार के समाज का निर्माण हुआ। समाज और राजनीति में बहुसंख्यकवाद के वर्चस्व का एक नया आख्यान पैदा हुआ जिसने समाज में संकीर्णतावाद और हिंसक प्रवृतियों को बढ़ावा दिया। इस संकीर्ण मनस्थिति को हरियश राय ने ‘इससे बेहतर ही’ तथा ‘आसिया नूरी गुमसुम’ है जैसी कहानियों में उभारा है। ‘इससे बेहतर ही’ कहानी के डॉ. अंबिका प्रसाद इसलिए बैचेन हैं क्योंकि सोसाइटी के नियमों के विरुद्ध जा कर राजनीति और बहुसंख्यकों के हक़ में मंदिर का निर्माण हो रहा है। वहीं दूसरी तरफ़ ‘आसिया नूरी गुमसुम है’ की आसिया जो ताउम्र समाज द्वारा निर्मित मुस्लिम गढ़ंत से बचने की कोशिश करती रही, अंतत: उसी में संकुचित होने के लिए विवश की जाती है। राजनीतिक वर्चस्व और उसकी विचारधारा धीरे धीरे संस्थानों के संवैधानिक और सेक्युलर ढांचे को बदलती जा रही है।  इसे ‘आसिया नूरी गुमसुम है’ कहानी में डॉ. अमृत लाल वाचस्पति के आने के बाद के बदलाव के रूप में देखा जा सकता है। उनके आने के बाद 'संस्थान के कार्य मुहूर्त देखकर किये जाने लगे, संस्थान मे आये दिन हवन होने लगे । शाम को योग की क्लासें होने लगीं'। ये बदलाव आज धीरे धीरे किस दिशा में जा रहे हैं इसे कहने की आवश्यकता नहीं। आसिया नूरी जैसे न जाने कितने लोगों को इस इन संकीर्णताओं का ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ता है।

हरियश राय की कहानियां वैचारिक प्रतिबद्धता की कहानियां हैं। कहानी को जटिल बौद्धिक ढांचे में अनावश्यक रूप से ढालने की कोशिश वे नहीं करते क्योंकि अपने समय की जटिलताओं को केंद्र में लाना ही उनका मुख्य सरोकार है। इसलिए इन कहानियों में शिल्प की अपेक्षा अंतर्वस्तु पर अधिक बल रहता है और इसी को वे रचना के प्रभावशाली होने का कारण भी मानते हैं। संग्रह की भूमिका में वे इस सदंर्भ में लिखते हैं, 'मेरी कोशिश रहती है कि मैं अपनी इन कहानियों में जीवन के गहरे आवेगों और मनोवेगों को पकड़ सकूं और यथास्थिति बनाये रखने वाली शक्तियों और समाज को आगे ले जाने वाली ताक़तों के बीच के अंतर्विरोध को रेखांकित कर सकूं। मेरा मानना है कि कहानियां ऐसी होनी चाहिए जो हमारी अनुभूतियों को अधिक संवेदनशील बनायें, हमारी समझ के दायरे को विस्तृत करें। मैं तर्क और विचार के आधार पर कहानी लिखने के पक्ष में नहीं हूं। तर्क और विचार कहानी में समाहित होकर आये, तभी रचना प्रभावशाली है।'

मो. 9868892723

पुस्तक संदर्भ

1. बदलता हुआ देश  : मनोज कुमार पांडेय, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2020

2. गौसेवक  :अनिल यादव, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली2020

3. दो बहनें : चरण सिंह पथिक, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2020

4. किस मुकाम तक :  हरियश राय, प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली, 2019

 

 

 

 

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