विशेष स्मरण-2

कवि रामेश्वर प्रशांत और उनकी कविताएं

नीरज सिंह

 विगत शताब्दी के छठे दशक में बिहार के जिन कवियों ने साहित्य जगत में अपनी पहचान बनायी थी, उनमें राजेंद्र किशोर, राजेंद्र प्रसाद सिंह,श्रीराम तिवारी, कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह, वेदनंदन, नचिकेता, शांति सुमन, शंभू बादल, कार्तिकनाथ गौरीनाथ ठाकुर, प्रभात सरसिज आदि के साथ एक नाम रामेश्वर प्रशांत का भी था। तत्कालीन मुंगेर (संप्रति बेगूसराय) ज़िले के धरतीपुत्र राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के काव्य में दिखलायी पड़ने वाली आग और राग की अंतर्धाराओं में से आग को पाथेय के रूप में साथ लेकर अपने काव्यपथ का विस्तार करनेवाले प्रखर सामाजिक- राजनीतिक चेतनासंपन्न कवि प्रशांत ने यद्यपि दिनकर के समान विपुल परिमाण में साहित्य सृजन तो नहीं किया, तथापि जितना भी लिखा, सार्थक , सोद्देश्य और महत्त्वपूर्ण लिखा।

प्रशांत जी का जन्म एक सामान्य मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था। उनके जन्म के बाद उनके परिवार की हालत विभिन्न कारणों से दिनोंदिन ख़राब होती चली गयी, जिससे उन्हें अपने जीवन में लगातार परेशानियों का सामना करना पड़ा। वे जीवन के विविध मोर्चों पर एक साथ संघर्षरत रहे।घर-गृहस्थी की चिंताओं से जुड़े रहकर भी वे समाज में व्याप्त वर्गभेद और उसके दुष्परिणामों के कारण चारों तरफ़ फैली विसंगतियों को समूल नष्ट करकेएक शोषणरहित मानवीय समाज की स्थापना के संघर्ष में पूरी तरह शामिल थे। इसीलिए वे अपनी एम.ए. की पढ़ाई भी पूरी नहीं कर सके और सातवें दशक के उत्तरार्ध में अतिवामपंथी क्रांतिकारी धारा से भी सक्रिय रूप से जुड़ गये थे। परिणामस्वरूप जीवन के अन्य क्षेत्रों के साथ ही उनके सृजन-कार्य की गति में भी अपेक्षित त्वरा का अभाव रहा और वे अपने लेखन को पर्याप्त समय नहीं दे सके। बहरहाल, उनके भीतर नैसर्गिक काव्य-प्रतिभा थी जिसके कारण विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी उनकी सृजन प्रक्रिया पूरी तरह अवरुद्ध नहीं हुई। कम ही सही, वे बराबर लिखते रहे और बेगूसराय और आसपास की साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों में भी सदैव हस्तक्षेपकारी भूमिका का निर्वाह करते रहे। जीवन के आख़िरी कुछ वर्षों में वे अत्यंत गंभीर बीमारी से भी पीड़ित हो गये थे जिसने अंततः उनकी जान ही ले ली। उनका एकमात्र कविता-संग्रह सदी का सूर्यास्त उन्हीं दिनों प्रकाशित हुआ।

सदी का सूर्यास्त में प्रशांत जी की कुल 60 कविताएं शामिल हैं। इसके अतिरिक्त इसी संग्रह में उनके 10 गीत, 13 ग़ज़लें और 17 मुक्तक भी शामिल हैं। कविताओं में लगभग नौ पृष्ठों की एक लंबी कविता भी है जिसको पढ़ने से कवि के प्रबंध-लेखन के सामर्थ्य का भलीभांति परिचय मिलता है। कहने का तात्पर्य यह कि प्रशांत जी जितने सिद्धहस्त मुक्तक लेखन में थे, उतने ही सफल प्रबंधकार कवि भी हो सकते थे।  अपनी सुदीर्घ काव्य-यात्रा में प्रशांत जी ने एक एक्टिविस्ट साहित्यकार की भूमिका का सामर्थ्य भर निर्वाह किया है। अपनी युवावस्था के प्रारंभ से ही वे सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन की कामना के वशीभूत होकर वामपंथी राजनीति के संपर्क में आ गये थे। उनका पैतृक गांव सिमरिया घाट राष्ट्रकवि दिनकर का गांव था। बरौनी और बेगूसराय का इलाक़ा बिहार के लेनिनग्राद के नाम से जाना जाता था। यह स्वाभाविक ही था कि वे कविता और वामपंथी राजनीति—दोनों ही से प्रभावित होते। प्रशांत जी न केवल इन दोनों से प्रभावित हुए बल्कि इन्हें उन्होंने अपने जीवन का सर्वोपरि लक्ष्य ही बना लिया। प्रशांत जी जब पटना विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए. कर रहे थे, तभी देश की वामपंथी राजनीति में एक नयी उग्रवादी धारा अस्तित्व में आयी। उसकी तरफ़ आकृष्ट होकर उन्होंने एम.ए. की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। एक लंबी अवधि तक वे उसी धारा के साथ जुड़े रहे। आगे चलकर उस अतिवामपंथी धारा से उनका मोहभंग हो गया। कुछ दिनों तक तटस्थ रहने के बाद अंततोगत्वा वे जनवादी लेखक संघ के साथ जुड़े और फिर अपने जीवन के अंतिम दिनों तक उसी के साथ जुड़े रहे।

प्रशांत जी के काव्य-संसार में अपने जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अहर्निश संघर्ष करते लोग हैं, अंधेरे को मिटाने और एक नया सूरज उगाने के लिए प्रयत्नशील लोग हैं, भारी जनसमर्थन से सत्ता की कुर्सी पर बैठने के बाद जनतांत्रिक मूल्यों की धज्जियां उड़ाते आज के भ्रष्ट राजनेता हैं, बुद्ध, सुकरात, गांधी और मार्क्स के विचारों के मुखौटे लगाये सत्ता की चाकरी करते तथाकथित सिद्धांतवादी दलालों के समूह हैं और उनके सामूहिक उत्पीड़न का सामूहिक-संगठित प्रतिकार करते उत्पीड़ित वर्गों के लोग भी हैं। इन कविताओं में भूगोल की विविधता है तो इतिहास की विविधता भी है। इनमें सावन की घनघोर वर्षा है, ग्रीष्म का ताप है और शरद की हाड़ कंपाती ठंड भी है। वियतनाम भी है, दक्षिण अफ्रीका भी है, बांग्ला देश भी है, लेनिन का रूस भी है और माओ का चीन भी। लेनिन भी हैं, पाब्लो नेरुदा भी हैं, बेंजामिन मोलाइसे भी हैं और जनकवि नागार्जुन, जनवादी शायर शमशाद सहर और उत्तर छायावाद के अत्यंत प्रतिष्ठित कवि आरसी प्रसाद सिंह भी। इनमें अलग-अलग आयु-वर्गों के स्त्री-पुरुष भी हैं और पत्नी, प्रेयसी तथा बच्चे भी। इनमें व्यक्ति हैं, क्षुधापीड़ित परिवार हैं और अपनी समस्याओं से लड़ता-हारता समाज भी है। इनमें उड़ीसा में सांप्रदायिक फ़ासीवादी समूहों द्वारा ज़िंदा जला दिये गये फ़ादर ग्राहम स्टेंस और उनके बच्चे भी हैं और भोपाल गैस कांड पीड़ित लोग भी। और तो और, मानवेतर प्राणी भी हैं इन कविताओं में। इतनी सारी विविधताओं के वावजूद प्रशांत जी की कविताएं उनकी प्रबल और स्पष्ट जनपक्षधरता के कारण अगर 'पाग चढ़े धागे' की मानिंद नज़र आती हैं तो इसे न तो अतिरंजित कहा जा सकता है और न ही अस्वाभाविक। एक प्रतिबद्ध क्रांतिचेता कवि की रचनाओं से निर्मित यह काव्य-संसार उसका स्वनिर्मित और सुनिर्मित काव्य-संसार है।

सदी का सूर्यास्त संग्रह के आरंभ में कवि ने गद्य और कविता—दोनों ही के माध्यम से अपनी रचना-प्रक्रिया को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। 'आत्मकथ्य' के  अंतर्गत उन्होंने लिखा है: 'मेरी समझ यह है कि कोई भी बात या घटना मेरे ज़ेहन में आलोड़ित-विलोड़ित होकर जब दबाव बनाती है तब सहसा कविता जन्म ले लेती है। इसीलिए मैंने अपनी एक कविता में लिखा है -  'पाक चढ़े धागे की तरह/ जब कोई बात पक जाती है/ तब कविता जन्म लेती है ।' प्रशांत जी की कविताओं के संदर्भ में उनकी इस बात का मतलब उनकी विचारसंपन्नता से लिया जाना चाहिए। निर्विवाद रूप से उनकी कविताएं विचारसंपन्न कविताएं हैं। उन्हें पढ़ने के बाद उनकी विचारधारा को लेकर कोई संशय या सवाल नहीं खड़ा किया जा सकता।

प्रशांत जी की कविताओं में आज़ाद भारत में कमज़ोर वर्गों की स्थिति में लगातार ह्रास होते जाने के कारण उत्पन्न गहरा  क्षोभ और आक्रोश आद्यंत दृष्टिगोचर होता है। उनकी एक कविता 'आख़िर कब तक' की इन पंक्तियों को इस संदर्भ में देखा जा सकता है: ‘लोग पच्चास खाइयों को पार करने के बाद / मुझसे पूछते हैं सवाल / और वही सवाल मैं आपसे भी पूछना चाहता हूं/ कि आज़ादी का अर्थ क्या है / भूख? /  बीमारी?/ दवा के बग़ैर घुट-घुटकर मरना / या झेलना अराजकता / आतंक / लूटमार / खुला व्यभिचार?’ ये सवाल कवि की लगभग सभी कविताओं की पृष्ठभूमि में विद्यमान हैं। एक अन्य कविता 'भोपाल गैसकांड' की पंक्तियां हैं: ‘हम सचमुच में बंद हैं / एक बड़े गैस चैम्बर में / जहां घुट-घुटकर हमारे प्राण छूटते रहते हैं / हम अब भी गुलाम हैं देशी-विदेशी महाप्रभुओं के / और हमें आज़ादी के लिए / बड़ी क़ीमत चुकानी है।’ इन सवालों से टकराते हुए कवि जिन निष्कर्षों तक पहुंचता है, उनसे कवि की पक्षधरता पुष्ट भी होती है और स्पष्ट भी। वह प्रायः सभी घटनाओं की पड़ताल वर्गीय दृष्टिकोण से करता है, यहां तक कि वसंतागमन के प्रभाव का भी। उसका मानना है कि जब तक शिशिर की हाड़ कपाने वाली ठंड के अंत का आभास नहीं होने लगता, तब तक काहे का वसंत! संग्रह की 'वसंत पंचमी का दिन' शीर्षक कविता की निम्नलिखित पंक्तियों को इस संदर्भ में देखा जा सकता है- 'ओ वसंत! / अभी बहती है बर्फ़ीली हवा / दिशाओं में छायी है ठिठुरन/ दीन-दुखियों के कांपते हैं हाड़-मांस / आबालवृद्ध दुबक जाते हैं रजाई में / सरेशाम /....अभी तो शिशिर का पाला / फैलाता है अग-जग में कसाला / ओ वसंत !' प्रशांत जी की कविताओं में यह निर्भ्रांत समझ जगह-जगह अभिव्यक्त हुई है कि 15 अगस्त 1947 को भारत को राजनीतिक आज़ादी भले ही मिल गयी, इस देश के दलित- शोषित वर्गों की मुक्ति अभी भी नहीं हुई है और वह काम अपने आप होगा भी नहीं। उसके लिए अनवरत संघर्ष करना होगा। इसके लिए संघर्षरत वर्गों में अपनी जीत का संकल्प और उसके प्रति भरोसा बना रहना चाहिए; परिवर्तनकामी चेतना के साथ प्रतिबद्धता का भाव बना रहना चाहिए। इस वैचारिक प्रतिबद्धता का बयान करने वाली 'मेरी कविता', 'राही', 'मुझे मत करो प्यार', 'निपट अकेला' जैसी  कई कविताएं इस संग्रह में शामिल हैं। 'राही' कविता में कवि का कहना है: ‘ओ राही / कितने हाथ हुए साथ / कितने गये / कितनों के द्वारा तुम छले गये / सोच मत / होना नहीं हतप्रभ-मुखम्लान / सुदीप्त सूर्य-सा बलना-विहंसना / पीना है विष तुम्हें / अमृत-रस देना है / ओ राही !’

प्रशांत जी के कवि के लिए आख़िर आज़ादी का मतलब क्या है? कवि ने इस सवाल का कोई सीधा और स्पष्ट उत्तर तो नहीं दिया है, लेकिन उसने अपनी कई कविताओं में यह बतलाने का प्रयास किया है कि समाज के साधनविहीन, बुनियादी सुविधाओं से वंचित लोगों के लिए जीवन का अर्थ बदलना चाहिए, जीने की सूरत बदलनी चाहिए। 'मुर्झाया चेहरा' कविता में एक ऐसे व्यक्ति की चर्चा की गयी है जिसकी अनब्याही जवान बेटी पता नहीं क्यों एक दिन ज़हर पी कर सोयी ही रह गयी थी, जिसका एकलौता बेटा दवा के अभाव में दम तोड़ चुका था और जिसकी पत्नी बेटे के वियोग और अर्थाभाव में लगभग नग्नावस्था में पति का साथ छोड़ गयी थी। ऐसी दमघोंटू जानलेवा स्थिति में किसी के चेहरे पर खिले गुलाब-सी हंसी कैसे दिखलायी पड़ सकती है! इसी तरह 'सावन की एक सांझ', 'फ़ील गुड', 'तुम्हारे विरुद्ध' , ‘आख़िर कब तक' आदि कविताओं में देश की रोंगटे खड़े कर देने वाली स्थितियों का अत्यंत यथार्थ और आक्रोशपूर्ण चित्रण किया गया है।  आज़ादी के बाद देश के नीति नियंताओं की कारगुज़ारियों से कवि काफ़ी व्यथित दिखलायी पड़ता है: 'समुन्नत होता देश / विनिवेश का प्रवेश / छंटनीग्रस्त मज़दूर / कल-कारख़ाने होते बंद / बेरोज़गारों की बढ़ती क़तार / युवावर्ग होता बेकार / घृणा का होता प्रसार / रिश्ते चलते तार-तार / तंग-तबाह किसान / खाद-बीज-पानी का दाम / छूते आसमान / विदेशी संप्रभुओं का बढ़ता हस्तक्षेप  / गुलामी की ओर अग्रसर होता देश'।

देश की दुर्दशा के लिए ज़िम्मेदार शक्तियों ने जनता का ध्यान वास्तविक समस्याओं से भटकाने के लिए  अंग्रेज़ों के समय का आज़माया हुआ नुस्ख़ा ही अपनाया, यानी धर्म-जाति-भाषा और क्षेत्रवाद के नाम पर  जनता को आपस मे लड़वाने की लगातार कोशिशें की। सातवें दशक की शुरुआत के साथ ही देश में एक तरफ़ मोहभंग की शुरुआत हुई तो दूसरी तरफ़ जनता को बांटने और आपस में लड़ाने की तिकड़मों की। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सांप्रदायिकता की जो आग लगभग ठंडी पड़ गयी थी, वह फिर से सुलग उठी और फिर धीरे-धीरे उसका प्रसार होता चला गया। आज सांप्रदायिकता सबसे बड़ी और गंभीर समस्या बन चुकी है। प्रशांत जी ने इसकी गंभीरता को बहुत शिद्दत से समझा है।  इस विषय पर केंद्रित उनकी तीन कविताएं—‘कुछ भी नहीं बचेगा शेष’, ‘वे लोग’ और ‘ओ मेरे मित्र’—इस संग्रह में शामिल हैं। इन कविताओं में कवि ने धर्म के सच्चे मानवीय स्वरूप की व्याख्या की है और लोगों को परस्पर एकताबद्ध रहते हुए देशविरोधी-जनविरोधी ताक़तों की पहचान करने और उनके विरुद्ध निर्णायक संघर्ष करने की आवश्यकता को रेखांकित किया है। ‘कुछ भी नहीं बचेगा शेष’ कविता की इन पंक्तियों में अंतर्निहितमर्मस्पर्शी संदेश की प्रासंगिकता और महत्त्व को इस संदर्भ में देखा जा सकता है: ‘धर्म की करुणार्द्र आंखों में झांको / उसे पढ़ो / उसे समझो /मंदिर-मस्जिद से अलग है वह / गिरिजाघर- गुरुद्वारे से  भी अलग है  इसीलिए / धर्म को बांटो मत / आदमी को बांटो मत / नहीं तो / कुछ भी नहीं बचेगा शेष  /  सब कुछ भस्म हो जायेगा / घृणा की आग में / अपनी संस्कृति—अपना देश।’ कवि ने अपनी इन्हीं भावनाओं को अन्यत्र एक मुक्तक के रूप में भी अभिव्यक्त किया है: ‘इस देश की पहचान मिटाने चले कुछ लोग / इंसान को हैवान बनाने चले कुछ लोग / मज़हब का ग़लत अर्थ समझाने चले कुछ लोग / फिर खून की नदियों में डुबोने चले कुछ लोग।’ ऐसी मनुष्यविरोधी सोच के परिणाम को भी कवि के एक अन्य मुक्तक में दिखलाया है: ‘भीड़ में ऐसे खड़े हैं लोग / आप अपने से डरे हैं लोग / आग नफ़रत की जलायी जा रही / खौफ़ से सिहरे हुए हैं लोग।’ स्पष्ट है कि कवि इस तरह की कोशिशों में मुब्तिला लोगों को न केवल देशविरोधी  और मानवता का दुश्मन मानता है बल्कि उनके मंसूबों के प्रति अपना विरोध भी दर्ज करता है। रामेश्वर प्रशांत एक सचेत प्रतिबद्ध कवि हैं। वे यह भलीभांति जानते हैं कि जब तक बहुदलीय राजनीतिक प्रणाली वाली इस लोकतांत्रिक व्यवस्था के स्थान पर वर्गसंघर्ष पर आधारित व्यवस्था परिवर्तन नहीं होगा और शासन पर वास्तविक उतपीड़ित वर्गों का अधिकार नहीं होगा, तब तक शोषित-पीड़ित वर्गों की मुक्ति का सपना अधूरा ही रहेगा। फिर भी लोकतांत्रिक व्यवस्था की तमाम सीमाओं के बावजूद अगर सत्ता पर क़ाबिज़ राजनीतिक नेतृत्वकर्त्ता समूह भरसक ईमानदारी से प्रयास करे तो बहुसंख्यक जनसमुदाय की स्थिति में बहुत कुछ सुधार हो सकता है । प्रशान्त जी के कवि का मानना है कि आज़ादी के सात दशकों के बाद भी ऐसा नहीं हुआ। सत्ता पर क़ाबिज़ शक्तियों ने जनहित को दरकिनार करते हुए सत्ता का पूरी तरह दुरुपयोग किया और उसे भोगा। इसीलिए कवि का आक्रोश ऐसी ताक़तों की न केवल स्पष्ट पहचान करता है बल्कि उनके विरुद्ध हर स्तर पर संघर्ष करने की आवश्यकता पर ज़ोर देता है। 'ओ नये वर्ष' शीर्षक कविता में उसने स्पष्ट रूप से इस संदर्भ में अपनी बात कही है: 'मेरे द्वारा चुने हुए लोग / मुझे ठगते रहे / गदहों की तरह रेंकते/ और एक-दूसरे को लतारते रहे / मेरे सामने एक नौटंकी खेली जाती  रही / और मैं तमाशबीन बना / सबकुछ देखता रहा अहर्निश / उल्लुओं के दलों ने थाम ली है रोशनी / इसीलिए फैलता रहा अंधकार पूरे वर्ष'। एक अन्य कविता 'सर्कस' में भी लगभग यही भाव व्यक्त हुआ है। इसी संदर्भ को कवि ‘शुरू हो जायेगी एक और नयी कविता’ में आगे बढ़ाते हुए कहता है: ‘सच, ये कुछ कर नहीं पाये / कुछ कर नहीं पायेंगे / कुछ करना भी नहीं था इन्हें /*** इसीलिए / अब समझने लगा हूं / कि इन नारों और इन झंडों के पीछे / बनैले सूअर छिपे हैं / जो मेरी देह और अंतरियों को / चिथरा-चिथरा करते रहते हैं '।  इसीलिए कवि अपनी इस समझ को अमली जामा पहनाने के लिए जनता और जनतंत्र के इन दुश्मनों के विरुद्ध एक निर्णायक संघर्ष की आवश्यकता महसूस करता है।

कवि रामेश्वर प्रशांत अपने आरंभिक राजनीतिक जीवन में उग्र और अतिवामपंथी विचारधारा के प्रभाव में रह चुके थे। उस राजनीति की अपनी खूबियां-ख़ामियां थीं, अपने अंतर्विरोध थे, जिनके कारण वे उसके साथ बहुत दूर तक नहीं चल सके। दरअसल, वे व्यक्तिगत दुस्साहसिक कार्रवाइयों की जगह भारतीय क्रांति की नेतृत्वकर्त्ता ताक़तों—मज़दूर-किसान वर्गों—की अगुवाई में बहुसंख्यक जनसमुदाय की व्यापक एकता और सामूहिक-संगठित संघर्षों के पक्षधर थे। इसीलिए वे चाहते थे कि समस्त दलित-शोषित और उत्पीड़ित वर्गों के लोग मिलजुलकर व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई लड़ें और निर्णायक जीत हासिल करें। संग्रह की कई कविताओं में उन्होंने अपनी इस भावना को शब्दों में पिरोया है। 'ज़रूरी है' शीर्षक कविता में वह पुरज़ोर लहजे में आह्वान करता है: 'ओ साथियो, आओ / हम इन कुहेलिकाओं से लड़ें / इन्हें ध्वस्त करने के लिए / ढेर सारी लकड़ियां बटोरें / इकट्ठा करें / आओ / हम एक तीली जलायें / आग सुलगायें / क्योंकि / देह की ठिठुरन मिटाने के लिए / ज़रूरी है / ढेर सारी लकड़ियों का सुलगना / ज़रूरी है / बहुत-बहुत ज़रूरी है ।' इसी तरह का आह्वान कवि 'चिड़िया' कविता में भी करता है: ' ओ चिड़िया! तुम आओ / एकजुट हो चहचहाओ / मुक्त आकाश में विचरो-गाओ / हिंसक मनुपुत्रों को / अपनी तीक्ष्ण चोंचों से बेधो / अपनी रक्षा करो / ओ चिड़िया! ओ चिड़िया!! ओ चिड़िया!!!' एक अन्य कविता 'गुमनाम श्रमिका के नाम पाती' की इन पंक्तियों को भी इस संदर्भ में देखा जा सकता है: 'तुम आओ कि हम एक-दूसरे को सहलायें-दुलरायें / तुम और मैं हम बन जायों / बिखरी हुई शक्तियों को जोड़ें / बाधा-बन्धनविहीन जग का सपना रचे सजायें / अपने पांवों की बेड़ियां तोड़ें / अवरोधों की अट्टालिकाएं ढाहें-गिरायें / एक नया सूरज उगाने के लिए '।

इस तरह सदी का सूर्यास्त संग्रह के अंतर्गत रामेश्वर प्रशांत जी के कवि की राजनीतिक चेतना का मुकम्मल विकास-क्रम दिखलायी पड़ता है । प्रसंग ज़रूर अलग-अलग हैं, लेखन-क्रम में स्पष्ट अंतराल भी है, लेकिन कवि की राजनीतिक चेतना में कहीं भी न तो ठहराव है, न ही किसी तरह का भटकाव। उसकी आस्था और प्रतिबद्धता सदैव अपरिवर्तित रही है। उसने लगातार अपने समय और समाज के अंतर्विरोधों को रेखांकित किया है, उन पर सवाल खड़े किये हैं और उनके समाधान भी सुझाये हैं—सामूहिक-संगठित निर्णायक संघर्ष के रूप में। बड़ी बात यह है कि स्पष्ट राजनीतिक प्रतिबद्धता की बार- बार आवृत्ति के बावजूद इन कविताओं में मर्मस्पर्शी संवेदनशीलता का कहीं से भी अभाव नहीं है। इसके विपरीत 'चिड़िया' जैसी कविता में तो कवि की सहानुभूति और संवेदना तब अत्यंत ऊंचाई पर पहुंच जाती है जब वह चिड़िया के संघर्ष को औचित्यपूर्ण  बतलाते हुए कहता है कि तुमने तो किसी मनुपुत्र को अपनी चोंचों से अकारण नहीं विंधा है, किसी को अकारण दुख नहीं पहुंचाया है? कवि सामंती-पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा शोषित, उत्पीड़ित और छले गये लोगों के प्रति आद्यंत सहानुभूति से भरा नज़र आता है। वह निर्दोष क्रौंच पक्षी की हत्या से व्यथित, क्षुब्ध और आक्रोशित आदिकवि वाल्मीकि की तरह  निरीह, अधिकारवंचित और सदियों से सताये गये दलित-उत्पीड़ित लोगों के प्रति सहानुभूति से भरा और उनके मुक्ति-संग्राम में सहभागिता हेतु पूरी तरह प्रतिबद्ध दिखलायी पड़ता है।

कवि रामेश्वर प्रशांत ने जनकवि बाबा नागार्जुन की तरह अपने समय के सुप्रसिद्ध व्यक्तियों पर भी कई कविताएं लिखी हैं। बाबा के यहां ऐसी कविताओं की संख्या बहुत ज़्यादा है।  चूंकि प्रशांत जी ने बाबा की तरह विपुल परिमाण में लेखन नहीं किया है, इसलिए स्वाभाविक रूप से उनके यहां ऐसी रचनाओं की संख्या कम है। सदी का सूर्यास्त में  इस तरह की कुल छः रचनाएं शामिल हैं जो लेनिन, पाब्लो नेरुदा, नागार्जुन, आरसी प्रसाद सिंह, बेंजामिन मोलाइसे और शमशाद सहर को केंद्र में रखकर लिखी गयी हैं। 'महान लेनिन के प्रति' शीर्षक कविता में कवि ने लेनिन को पिता कह कर संबोधित किया है और उनकी ही एक बात का हवाला देते हुए वैसे लोगों पर प्रहार किया है जो बात-बात में लेनिन को उद्धृत करते हैं और उनके विचारों के प्रतिकूल आचरण करते हैं। कवि महान लेनिन को संबोधित करते हुए कहता है कि 'ओ पिता! / अब सजग-सचेत हो गया है / संघर्षशील जन-समुदाय / उफन रहा है जन-सैलाब / गाते हुए तुम्हारा जयगान  /  हर तरह के प्रहार से वह हो गया है सावधान / नहीं होगा वह विभ्रमित-विमुग्ध / विफल होंगे शत्रुओं के समस्त वाग्जाल / नष्ट हो जायेंगे उनके विषबुझे शर-संधान।'  इसी तरह 'पाब्लो नेरूदा' शीर्षक कविता में कवि उन्हें एक अच्छे आदमी और एक अच्छे कवि के रूप में देखता है जो एक अच्छे समाज की कल्पना में जीता था। कवि कहता है कि अपने भलेपन में नेरूदा ने चिली के लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित प्रथम कम्युनिस्ट राष्ट्रपति साल्वाडोर आयेन्दे के सहयोगी के रूप में वर्ग-सहयोग और शांतिपूर्ण  सह-अस्तित्व की नीति पर चलने की भूल की थी लेकिन प्रतिगामी शक्तियों ने उनको धोखा दिया और अपने कुचक्री स्वभाव के अनुरूप विश्वासघात किया। कवि इस कविता के माध्यम से अपने देश के पाब्लो नेरूदाओं को सचेत करने का प्रयास करता है और कहता है कि वे भी 'ग़रीबी हटाओ' जैसे लोकलुभावन नारों से परहेज़ करें, वरना उनका हश्र भी पाब्लो नेरूदा जैसा ही हो सकता है। शेष  चार कविताएं, जिनमें से अख़िरी तीन ग़ज़ल के रूप में हैं, क्रमशः नागार्जुन, आरसी बाबू, बेंजामिन मोलाइसे और शमशाद सहर के प्रति श्रद्धापूर्ण भावाभिव्यक्तियां हैं । कवि नागार्जुन के प्रति उसकी भावना देखिए - 'वह जनकवि था / जन-जन का कवि/ जनता की आकांक्षाओं की तसवीर / अपनी कविताओं में उतारता था / उनकी पीड़ाओं के गीत गाता था / कविताएं उसकी जन-जन की आंखों की पुतलियां थीं।' इसी तरह उसकी दृष्टि में कविवर आरसी प्रसाद सिंह एक स्वाभिमानी संत की तरह हैं,  जिनमें वसंत की-सी ताज़गी है।  शहीद बेंजामिन मोलाइसे और शायर शमशाद सहर को भी इसी तरह बहुत भावुकतापूर्वक याद किया गया है।  इस तरह बाबा और प्रशांत जी की इन व्यक्तिकेंद्रित कविताओं में प्रवृत्ति के लिहाज से काफ़ी समानता है, बावजूद इसके उनके बीच एक महत्त्वपूर्ण अंतर भी है। नागार्जुन जी ने जहां अपने समय के नायकों—रवींद्रनाथ टैगोर, महात्मा गांधी, लेनिन, गीतकार शैलेंद्र जैसे लोगों पर श्रद्धा और सम्मान के भाव व्यक्त करनेवाली कविताएं लिखी हैं, वहीं मोरारजी देसाई, इंदिरा गांधी, बाल ठाकरे जैसे लोगों के जनविरोधी कृत्यों पर कठोर व्यंग्यात्मक प्रहार करनेवाली कविताएं भी लिखी हैं। प्रशांत जी के यहां यह चीज़ नहीं मिलती। उन्होंने अपने समय के नायकों का सकारात्मक मूल्यांकन करते हुए उन्हें सादर सम्मानपूर्वक स्मरण किया है और उन्हें अपनी श्रद्धांजलि निवेदित की है, गोकि प्रशांतजी की कविताओं का मुख्य स्वर समाज के वंचित-उत्पीड़ित वर्गों की मुक्ति की पक्षधरता का है, तथापि उन्होंने कतिपय अन्य विषयों पर भी बहुत मन से लिखा है। 'बच्चे', 'चील', 'गाछ', 'गर्मी की दोपहर', 'वसंत', 'प्यार-1 और 2', 'रेशमी याद', 'खिलने दो', 'यादों का साया', 'भगवान' आदि इसी तरह की कविताएं हैं । इनमें 'यादों का साया' एक प्रेम कविता है तो 'भगवान' व्यंग्य कविता। 'बच्चे' और 'खिलने दो' भी बहुत सुंदर रचनाएं हैं। कवि की यह विशेषता मौसमों और ऋतुओं पर लिखे गये उसके गीतों में भी स्पष्ट दिखलायी पड़ती है।

कवि रामेश्वर प्रशांत अपनी काव्यभाषा के लिहाज से भी एक विशिष्ट कवि हैं। जिस तरह उनकी  कविताओं के विषय उनके ग्राम-प्रांतर से लेकर अंतरराष्ट्रीय परिवेश तक फैले हुए हैं, उसी तरह उनकी काव्यभाषा में भी हिंदी के साथ ही संस्कृत, अंग्रेज़ी, अरबी, फ़ारसी के लोकप्रचलित शब्दों का अत्यंत स्वाभाविक समावेश दिखलायी पड़ता है। यहां तक कि मगही, अंगिका और बज्जिका मिश्रित लट्ठमार  बेगुसरैया  बोली के 'अंतरियां, करुआ, कल्ह, हरियर, सुद्धी गाय' जैसे शब्द भी उनकी भाषा में दिखलायी पड़ते हैं। निश्चित रूप से, रामेश्वर प्रशांत अपने दौर के अत्यंत प्रतिभाशाली और महत्त्वपूर्ण कवि हैं जो अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता और सार्थक रचना-कर्म के कारण हमेशा सादर स्मरण किये जाते रहेंगे ।

मो. : 9431685639

 

 

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