आलोचना संवाद-2

मुखौटों से लड़ती कहानी-आलोचना

अंकित नरवाल

निःसंदेह कहानी-आलोचना की व्यवस्थित सुदीर्घ विरासत में नामवर सिंह की कहानी नयी कहानी पुस्तक का नाम प्रमुखता से आता है। उन्होंने कविता के क्षेत्र से आकर कहानी-पढ़ंत की पहली योजनाबद्ध पद्धति ईज़ाद करते हुए कहानी के मूल स्त्रोतों को पहचाना था। तब से लेकर आज तक कहानी न जाने कितने आंदोलनों का खाद-पानी हासिल कर आगे बढ़ आयी है। उसके लेखन की अनेक शैलियां प्रचलन से बाहर भी हो गयी हैं, किंतु कहानी-आलोचना को विकसित करने का प्रश्न अब भी ज्यों-का-त्यों खड़ा है। हालांकि, इधर के वर्षों में स्वयं कहानीकारों से लेकर आलोचकों तक ने उसके विश्लेषण के अनेक टूल विकसित किये हैं। पिछले दो वर्ष कहानी-आलोचना के लिए कुछ हद तक सुनहरे माने जा सकते हैं। किंतु, इधर प्रकाशित हुई कुछ आलोचना पुस्तकें भी केवल रचनाओं में दर्ज हुए समय की व्याख्या भर करती रह गयी हैं। आलोचनाशास्त्र का मोह गोया दोयम दर्जे की रुचि हो। यहां हम पिछले दो वर्षों (2019-2020) में प्रकाशित हुई पांच पुस्तकों के सहारे कहानी-आलोचना के वर्तमान को समझने का प्रयास करेंगे।

            अरुण होता की 2019 में प्रकाशित पुस्तक भूमंडलीकरण, बाज़ार और समकालीन कहानी कुल 21 लेखों के अंतर्गत हिंदी की साठोत्तरी कहानी की कुछ चुनिंदा रचनाओं के साथ-साथ समकालीन कहानीकारों को जांचने-परखने का काम करती है। इस पुस्तक में जैनेंद्र ('जाह्नवी'), अज्ञेय ('रोज़'), रेणु, भीष्म साहनी, शिवमूर्ति आदि की कहानियों को भी विश्लेषित किया गया है। 2000 के बाद की पीढ़ी का संभवतः कोई ऐसा रचनाकार न होगा, जिसकी एक-आध कहानी किसी-न-किसी लेख में विश्लेषित न हुई हो।

          इसमें कुछ विशेष आलेखों के अंतर्गत सत्यनारायण पटेल, सुधा अरोड़ा, अनुज, भालचंद्र जोशी, उमाशंकर चौधरी, ज्योति चावला, अनंत कुमार, विश्वेश्वर, गीताश्री, प्रज्ञा, किरण सिंह आदि की कहानियों में दर्ज हुआ समय भी आलोचित हुआ है। साथ ही इन कहानीकारों की कहानियों की रचनात्मक उपलब्धि भी उभरी है।

             इस किताब का अधिकतर हिस्सा साठ-सत्तर के दशक की कहानियों पर ख़र्च हुआ है और अंतिम आलेख में किसानों की समस्याओं पर लिखी गयी कहानियों की परंपरा दर्शाने में अधिकतर माधव राव सप्रे, कौशिक, प्रेमचंद आदि की कहानियों पर विचार किया गया है।

             किताब के बीच का आधा हिस्सा ही ‘बाज़ार और समकालीन कहानी’ के अंत:संबंधों को समझने के लिए पढ़ा जाना चाहिए। किताब भूमंडलीकरण और बाज़ार की चपेट में लगातार अमानवीय होती जनता के लिए बेचैन नज़र आती है। यहां दर्ज हुई अधिकतर कहानियां बाज़ारवादी संस्कृति के कारण उपजे विध्वंसक समय की ही शिनाख़्त करती हैं। यों अरुण होता ने अलग से भूमंडलीकरण और बाज़ार की कोई विशेष व्याख्या नहीं की है, बल्कि लेखों के शुरुआती आमुख ही उसके कारण हुए तमाम विघटनों पर नज़र डालते हैं। कहानियों को जांचने का कोई तयशुदा मानदंड भी आलोचक ने नहीं अपनाया है, जिसे स्केल या मीटर की तरह इस्तेमाल करके कहानी की सार्थकता और कमज़ोरी उभारी जा सके। अरुण होता ने भूमंडलीकरण की प्रमुख विशेषता बाज़ारवादी प्रवृत्ति को स्वीकारा है। वे लिखते हैं, ‘बाज़ार वर्तमान समय व समाज का सबसे बड़ा यथार्थ बन गया है। इसी के साथ भूखे, दरिद्र, किसान-मज़दूरों की समस्याएं भी बढ़ी हैं। सरकारी कर्ज़, मुआवज़े तथा ग्रामीण विकास योजनाओं के नाम पर शोषण चक्र मज़बूत हुआ है। भ्रष्टाचार का शंखनाद ज़ोरों पर है। बाज़ार व कॉरपोरेट शक्तियों के क़ब्ज़े में गांव आने लगा है। अमेरिका अपनी शर्तों पर भारत में बाज़ार को प्रमोट कर रहा है।’ बाज़ार का यह गणित समकालीन कहानी के उक्त कथाकारों की कहानियों का विषय बना है। इन कहानियों में बाज़ारीकरण व उदारीकरण की नीतियों का पर्दाफ़ाश हुआ है। यह पुस्तक आलोचक की समाजशास्त्रीय दृष्टि को उजागर करती है।

            राकेश बिहारी ने अपनी जनवरी, 2020 में प्रकाशित पुस्तक भूमंडलोत्तर कहानी के अंतर्गत तेईस कहानियों का चयन करते हुए उनमें दर्ज हुए समकाल को उभारा है। इन तेईस कहानियों में रवि बुले की ‘लापता नत्थू उर्फ़ दुनिया ना माने’, तरुण भटनागर की ‘दादी, मुल्तान और टच एंड गो’, वंदना राग की ‘ख्यालनामा’, मोहम्मद आरिफ़ की ‘चोर सिपाही’, विमलचंद्र पांडेय की ‘उत्तर प्रदेश की खिड़की’, किरण सिंह की ‘संझा’, अनुज की ‘अंगुरी में डंसले बिया नगिनिया’, अपर्णा मनोज की ‘नीला घर’, मनोज कुमार पांडेय की ‘पानी’, आकांक्षा पारे काशिव की ‘शिफ्ट+कंट्रोल+ऑल्ट=डिलीट’, राकेश मिश्र की ‘पिता राष्ट्रपिता’, पुरुषोत्तम अग्रवाल की ‘नाकोहस’, जयश्री रॉय की ‘कायांतर’, पंकज मित्र की ‘कफ़न रीमिक्स’, आशुतोष की ‘अगिन असनान’, राकेश दुबे की ‘कउने खोतवा में लुकइलू’, पंकज सुबीर की ‘चौपड़े की चुड़ैलें’, योगिता यादव की ‘ग़लत पते की चिट्ठियां’, प्रज्ञा की ‘मन्नत टेलर्स’, सिनीवाली की ‘अधजली’, कैलाश वानखेड़े की ‘जस्ट डांस’, प्रत्यक्षा की ‘बारिश का देवता’ और रश्मि शर्मा की ‘बंद कोठरी का दरवाज़ा’ नामक कहानियां शामिल हैं। इन कहानियों में से यदि एक-आध को छोड़ दें, तो लगभग यही कहानियां अरुण होता के यहां भी संदर्भित हैं। हालांकि उनके यहां कहानियों की अधिकता इतनी ज़्यादा है कि उसके विस्तृत मूल्यांकन का अवसर न्यून पड़ गया है। राकेश ने इस सीमा का ध्यान रखते हुए केवल तेईस कहानियों को चुना है, जो सटीक जान पड़ता है। वे ‘भूमंडलोत्तर’ शब्द को इस तरह व्याख्यायित करते हैं – ‘भूमंडलीकरण की शुरुआत के बाद का समय, जिसे मैंने भूमंडलोत्तर समय कहा है, को पिछले समय से अलग करने में तकनीकी और सूचना क्रांति की बड़ी भूमिका है।’ अर्थात् राकेश के लिए वह समय भूमंडलोत्तर समय है, जिसमें सूचना क्रांति हुई। इस समय की दूसरी विशेषताएं गिनाते हुए वे बताते हैं, ‘गति, संकुचन और फ्यूज़न इस समय के ऐसे अनिवार्य लक्षण हैं, जो लगभग मूल्य की तरह स्वीकार कर लिये गये हैं। ज्ञान का सूचना में, रचनात्मकता का उत्पादन में, उपलब्धि का जीत में, प्रगति का गति में, वस्तु का उत्पादन में, व्यक्ति का उपभोक्ता में और संबंधों का संभावित ग्राहक में रिड्यूस हो जाना भी इस समय की बड़ी विशेषता है।’ इन कहानियों की विवेचना के दौरान ज़्यादातर भूमंडलोत्तर समय संबंधी उनकी उक्त मान्यताएं ही खुलकर सामने आयी हैं।

राकेश ने कहानी आलोचना के लिए डायरी, पत्र आदि जैसी कुछ नयी पद्धतियों का भी प्रयोग किया है। उनके यहां कुछ कहानियों ('संझा', 'चौपड़े की चुड़ैलें', 'मन्नत टेलर्स' आदि) की विशेषताएं कम, कमियां ज़्यादा मुखरित हुई हैं। यहीं यह प्रश्न उठता है कि एक रचनाकार जिन कहानियों को अपने समय की श्रेष्ठ कहानियां सिद्ध करने के लिए चुन रहा है, वह स्वयं ही उनमें दोषारोपण क्यों कर रहा है? पुस्तक के सामान्य पाठकों को भी यह भ्रम उलझा सकता है। क्या यह कहानियों की पूर्व में हो चुकी अत्यधिक प्रशंसा की वजह से हुआ है या फिर इसके कुछ दूसरे कारण हैं? इसका स्पष्टीकरण भी न आमुख में मिलता है, न संदर्भित लेखों में ही।

दूसरी ओर, अरुण होता के लिए जो कहानी महत्त्वपूर्ण और विशिष्ट है, वही राकेश के लिए एक असफल कहानी बन जाती है। एक ऐसा ही संदर्भ अनुज की कहानी ‘अंगुरी में डंसले बिया नगिनिया’ के संबंध में देखा जा सकता है। जहां अरुण होता मानते हैं, ‘आवश्यक फैलाव अनुज के कथालेखन का स्वभाव नहीं है। वर्णनात्मकता के नाम पर सबकुछ बता देने की जद्दोजहद यह कहीनाकार नहीं करता। यह कहानीकार विषय या अंतर्वस्तु के आधार पर अपनी शैली को ईज़ाद करता है।’ इसके विपरीत राकेश की मानें तो, ‘जातिवाद की वर्चस्ववादी राजनीति के ध्वजवाहकों का महिमामंडन करने वाली कुत्सित मंशाओं को सींचते हुए प्रगतिशील कहलाने की लेखकीय यशाकांक्षा इस कहानी की असफलता का सबसे बड़ा उदाहरण है। बरहम बाबा की लाश के सम्मुख अस्पताल-कर्मियों का प्रतिरोध हो या बसनी का उस लाश पर थूकना, बसनी की मजबूरी को छद्म प्रतिरोध के रूप में दर्शाने की कोशिश हो या फिर शीर्षक में प्रयुक्त गीत को दलित बस्ती में बजाने की नासमझ चालाकी, इन्हें विष से भरे घट के मुंह पर दूध का लेप लगाने की नाकाम कोशिशों की तरह ही देखा जाना चाहिए, जो अपने अंतर्विरोधी गुण-धर्म के कारण हर क़दम पर सहज ही कहानी में उजागर होते चलते हैं।’

यह अंतर्विरोध केवल इस कहानी को लेकर नहीं है, बल्कि दूसरे कहानीकारों को लेकर भी ऐसा ही कुछ देखा जा सकता है। हालांकि प्रत्येक आलोचक को अपने विवेक के अनुसार कहानी-मूल्यांकन का अधिकार होता है, किंतु पाठकों के लिए यह समस्या बन जाती है कि वे किस बिनाह पर कहानी को परखें। यदि एक स्तर पर मूल्यांकन के लिए उन्हें स्वयं ही कहानी-पाठ में उतरना है, तो फिर इन आलोच्य पुस्तकों की ओर वे क्यों आयें?

दूसरा, कहानी-आलोचना के लिए व्यावहारिक मूल्यांकन पद्धति का प्रयोग ही राकेश ने किया है। किसी सिद्धांत-निर्माण या फिर उसे प्रयुक्त करने में न उन्होंने रुचि ही ली है और न ही शायद उनका यह अभीष्ट रहा है। फिर क्या कहानी आलोचना ‘जितने मुंह उतनी बात’ ही बनकर नहीं रह जायेगी? राकेश कहीं-कहीं कहानी की परिभाषाएं तो अवश्य गूंथते चलते हैं। जैसे एक जगह वे लिखते हैं, ‘कहानी न पूरी हक़ीक़त होती है न पूरा फ़साना। यथार्थ और कल्पना का तर्कसम्मत सहमेल ही कहानी में सामाजिक, राजनीतिक और भावनात्मक यथार्थ की पुनर्रचना की ठोस ज़मीन तैयार करता है। हक़ीक़त और फ़साने के मिश्रण का सही अनुपात और उन दोनों का अंत:संबंध मिल कर कहानी की सफलता तय करते हैं।’

हां, राकेश ने कहानियों का मूल्यांकन करते हुए अवश्य ही एक तटस्थ आलोचक का परिचय दिया है। कहानी में ‘कल्पना’ और ‘यथार्थ’ के बीच की फांकें उन्होंने न केवल पहचानी हैं, बल्कि उनकी तीखी आलोचना भी की है, जो इधर की समीक्षाओं से नदारद हैं। पुस्तक की यही विशेषता हमें इसे पढ़ने के लिए प्रेरित करती हैं।

इसी साल प्रकाशित हुई रोहिणी अग्रवाल की पुस्तक कथालोचना के प्रतिमान कई अर्थों में एक भिन्न आस्वाद की आलोचनात्मक यात्रा है। चार हिस्सों, क्रमशः आमुख, आधार, परंपरा और परिशिष्ट में बंटी यह किताब नब्बे के बाद की पीढ़ी के कथाकारों- राजेंद्र दानी, योगेंद्र आहूजा, मनोज रूपड़ा, किरण सिंह, मनोज कुमार पांडेय, प्रवीण कुमार, अल्पना मिश्र, नीलाक्षी सिंह आदि की कहानियों का मूल्यांकन करती है। इसका एक बड़ा हिस्सा चंद्रधर शर्मा गुलेरी, जैनेंद्र, कमलेश्वर, मुक्तिबोध आदि की कहानियों की परंपराओं पर भी विचार करता है। इस किताब के केंद्र में मुक्तिबोध के ‘सभ्यता-समीक्षा’ सिद्धांत की अनुगूंज है। आमुख में मुक्तिबोध की कहानियों का आलोचनात्मक पाठ शामिल होना भी शायद इसी अनुगूंज की उपस्थिति के लिए हुआ है। यों इस किताब के शीर्षक से सामान्यतः यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि इसमें किन्हीं प्रतिमानों को सैद्धांतिक रूप से स्थापित किया गया होगा। किंतु, रोहिणी के लिए ‘प्रतिमान’ यहां दरअसल ‘दृष्टि’ के पर्याय के रूप में आया है। उन्होंने कहानियों के पात्रों से संवाद करते हुए जिस अंतरंग बातचीत का इस किताब में प्रयोग किया है, वही उनके प्रतिमान हैं। यों आमुख में शामिल अनेक सूक्तियां प्रतिमानों के पर्याय की तरह देखी जा सकती हैं। कुछ उदाहरण देखिए :

1. मेरे तईं वही कहानी श्रेष्ठ है जो मेरे भीतर तीन अलग स्तरों पर जीते पाठक-आलोचक-रचयिता को एक साथ गूंथ कर कहानी की एक स्वतः संपूर्ण इकाई भी बना देती है और साथ ही उस कहानी के समानांतर धड़कते जीवन की पुनर्पड़ताल की संवेदना भी देती है।

2. कहानी की सार्थकता संवाद का मज़बूत पुल बनाने में है।

3. अच्छी कहानी लोभ और लिप्साओं के पागलख़ाने में क़ैद ‘आत्मबोध’ को मुक्त करने की जद्दोजहद है।

4. अच्छी कहानी आलोचना के एक पाठ द्वारा सुनिश्चित कर दिये गये रूप के साथ कभी स्थिर नहीं रहती। उसकी सार्थकता अपने को सफलतापूर्वक पढ़वा ले जाने में नहीं, पाठक के भीतर रचनाकार की ताब भर कर जीवन की शिनाख़्त और सृजन करने की प्रेरणा बनने में है।

ऐसी ही अनेक स्थापनाएं लेखों के बीच से आकर कहानियों के संबंध में कुछ निश्चित पैमाने तय करने की कोशिश करती हैं।

रोहिणी ने अपने लेखों के सहारे उन कहानियों को तलाशा है, जो वर्तमान समाज की न केवल उद्घोषणाएं करती हैं, बल्कि ठहरकर उनसे पार पाने का संबल भी बनती हैं। सर्वथा यह किताब कहानियों से संवाद करते हुए ही विकसित हुई है। कहानियों के जितने अधिक पाठक होंगे, उतने ही अधिक संवाद होंगे; फिर ये संवाद जिस दृष्टि से कहानी को परख-पढ़ रहे होंगे, वही प्रतिमान स्वीकर कर लिये जायेंगे। यह किताब इसी तर्क की पैरवी करती है। सुनने में यह तर्क भले ही बड़ा लोकतांत्रिक व कृति-हितैषी दिखता हो, किंतु इससे यह क़तई तय नहीं होता कि कहानी में वे कौन-से तत्त्व हैं जो सर्वत्र उसकी लोकप्रियता या प्रसिद्धि का कारण बनते हैं या बन सकते हैं। आलोचना एक टेक्स्ट के साथ केवल एक अंतरंग बातचीत भर नहीं है; न ही वह टेक्स्ट के साथ अपनी चुगली गांठने की छूट या शब्दबाज़ी। वह बहुत सीधे और साफ़ अर्थों में ‘रियलिस्टिक यथार्थ’ और ‘फ़िक्शनल यथार्थ’ के बीच की फांकों पर हाथ रख देने की निर्मम कार्यवाही है। यह कार्यवाही कृति में दर्ज हुए सामाजिक संरचना के ताने-बाने में आने वाली अड़चनों को उघाड़कर रख देती है। यह किताब संवाद की दृष्टि से पढ़ी जानी चाहिए, प्रतिमानों के पिपासु यहां से ज्यों-के-त्यों लौटेंगे।

संजीव कुमार की 2019 में प्रकाशित पुस्तक हिंदी कहानी की इक्कीसवीं सदी : पाठ के पास / पाठ से परे कहानी पढ़ंत की कुछ पारिभाषिक नियमावलियां बनाने के साथ-साथ इधर की महत्त्वपूर्ण कहानियों पर भी गंभीर विचार करती है। यह किताब मूलतः किसी भी कहानी को पढ़ते हुए इस विषय पर ख़ासा ज़ोर देती है कि क्या उसे अपने मूल रूप में कहानी ही होना था या फिर वह कोई निबंध, व्याख्यान और अनुचिंतनात्मक डायरी अंश भी हो सकती थी? आमुख को छोड़कर कुल तेईस आलेखों में बंटी इस पुस्तक में से आठ आलेख (‘गांव जो उजड़ गया शहर जो बसा नहीं’, ‘चुप्पियों के साथ एक संवाद’, ‘जो सुलझ जाती है गुत्थी’, ‘कैसे का भी अपना क्या है’, ‘वे भूली दास्तां’, ‘कहन की वापसी-1,2,3’) शुद्ध रूप से कहानी-आलोचना की अपनी पारिभाषिक शब्दावली ईजाद करने की ओर उठाया गया सधा क़दम है। हालांकि, बाक़ी बचे पंद्रह आलेख भी केवल व्यावहारिक आलोचना के नमूने नहीं हैं, बल्कि वहां भी कहानी कैसे बनती है और क्यों वे इस दौर की प्रमुख कहानियों में शुमार हो सकती हैं, जैसे प्रश्न बराबर विश्लेषित हुए हैं। यहां विश्लेषित हुई कहानियों में अनिल यादव की ‘दंगा भेजियो मौला’, उदय प्रकाश की ‘मोहनदास’, मनोज कुमार पांडेय की ‘पानी’, किरण सिंह की ‘द्रौपदी पीक’, चंदन पांडेय की ‘भूलना’, राकेश तिवारी की ‘कठपुतली थक गयी’, अवधेश प्रीत की ‘चांद के पार एक चाभी’, टेकचंद की ‘घड़ीसाज़’, पंकज मित्र की ‘सेंदरा’, नीलाक्षी की ‘रंगमहल में नाची राधा’, मनीषा कुलश्रेष्ठ की ‘कठपुतलियां’, शिवमूर्ति की ‘कुच्ची का कानून’, योगेंद्र आहूजा की ‘मर्सिया’, प्रह्लाद चंद्र दास की ‘धोखा’ और देवेंद्र की ‘नालंदा पर गिद्ध’ नामक कहानियां शामिल हैं। कहानी आलोचना के लिए उन्होंने दृश्यात्मक, परिदृश्यात्मक, अंकन, कहन, परिणित-पक्ष, प्रक्रिया पक्ष और प्रस्तुतीकरण जैसे शब्दों को पारिभाषिक शब्दावली में ढालकर कहानी पढ़ने के कुछ सूत्र तैयार किये हैं। वे परिणित-पक्ष, प्रक्रिया पक्ष और प्रस्तुतीकरण को समझाने के लिए इन्हें क1, क2 एवं ख में बांटकर एक गणितज्ञ की तरह कहानी पर अपनी टिप्पणी करते हुए लिखते हैं, ‘इन तीनों के बग़ैर कोई कहानी बन नहीं सकती। तो फिर संरचना के स्तर पर फ़र्क़ किस चीज़ से पड़ता है? फ़र्क़ इससे पड़ता है कि सापेक्षिक महत्त्व की दृष्टि से कहानी में इन तीनों की स्थिति क्या है, यानी कहानी की जान इनमें से किसमें या किस-किसमें बसती है।’ इसके लिए उन्होंने सात तरह की कहानियों की सूची भी तैयार की है।

संजीव के लिए कहानी की दुनिया हमारे लिए जटिल आयामों को खोलने का काम करती है। वे मानते हैं, ‘कहानी की बनायी समानांतर दुनिया से अपनी दुनिया में लौटते हैं तो हमारे पास इस दुनिया के लिए एक अलग निगाह होती है, इसके कई अनदेखे या उपेक्षित या धुंधले या ढंके तुपे पहलू हमारे लिए अधिक स्पष्ट हो उठते हैं।’ यही बहुधा कोई भी सफल कहानी हमारे लिए कर सकती है। वह हमें हमारे आसपास पसरे समाज को देखने की हमारी चेतना में इज़ाफ़ा करती है।

संजीव की इस पुस्तक में नामवर सिंह की कहानी आलोचना रह-रहकर लौटती है। वे नामवर की पुस्तक कहानी नयी कहानी से कहानी आलोचना के सूत्र ढूंढ़ लाते हैं और फिर उन्हें अपनी व्याख्या से नूतन करते हैं। संजीव कहानी के लिए ‘अंकन’ को ज़रूरी मानते हुए लिखते हैं, ‘पुरानी कथाओं से आधुनिक कहानी-उपन्यास जिस यथार्थवाद की ज़मीन पर अलग होते हैं, उसकी शुरुआती मांग ही रही है, सत्याभास एवं संभाव्यता। कहानी जीवन जैसी प्रतीत हो और इस भ्रम में डाले कि आप सत्यकथा पढ़ रहे हैं, इसके लिए ज़रूरी है कि अंकन का सहारा लिया जाये।’

संजीव अपनी व्यावहारिक आलोचना के दौरान भी निर्णयवादी आलोचक होने से बचे हैं। उन्होंने कहानियों का चयन करते हुए इस बात का पूरा ध्यान रखा है कि उनमें कहानी अपने विविध पक्षों के साथ खुलकर सामने आये।

हालांकि, अपनी तामाम खूबियों के बावजूद इस पुस्तक के शीर्षक को लेकर भ्रम पैदा होता है। क्या किसी भी सदी के केवल दो शुरुआती दशक ही उसके समग्र मूल्यांकन का रास्ता खोल सकते हैं? संभवतः नहीं। एक भिन्न अर्थ में यह किताब इक्कीसवीं सदी के प्रस्थान का रास्ता तो बन सकती है, किंतु उसके संपूर्ण वजूद का मूल्यांकन नहीं। अभी कहानी अगले आठ दशकों में जाने कौन-कौन से मोड़ लेगी? यही इस किताब की दुखती रग है। उम्मीद है, अपने अगले संस्करणों में लेखक इस ओर ध्यान देंगे।

वैभव सिंह की हाल ही में प्रकाशित पुस्तक कहानी : विचारधारा और यथार्थ पिछले तीस वर्षों के दौरान लिखी गयी कहानियों पर विशेषतः चर्चा करती है। साथ-साथ कहानी की सुदीर्घ परंपरा से हासिल हुई उपलब्धियों को भी टटोलती है। उनके यहां कहानियों में यथार्थ के प्रति लगातार बढ़ती रुचि विशेषतः दर्ज हुई है। कुल तीन हिस्सों, क्रमशः ‘कहानी और समकालीनता’, ‘कहानी की परंपरा’, ‘कहानी : विचार और अवधारणा’ में बंटी यह पुस्तक विमर्श के नाम पर नब्बे के बाद चलायी गयी श्रेणीबद्ध आलोचना का विपक्ष रचती है। इस पुस्तक में उदय प्रकाश, शिवमूर्ति, अखिलेश, योगेंद्र आहूजा, मनोज रूपड़ा, संजय कुंदन, अल्पना मिश्र, वंदना राग, गीतांजलि श्री, सारा राय, महेश कटारे, शेखर जोशी, शैलेय आदि-आदि रचनाकारों की कहानियां विवेचित होती देखी जा सकती हैं। इन रचनाकारों की कहानियों पर कोई समीक्षात्मक टिप्पणियां यहां नहीं है, बल्कि पिछले दशकों में समाज जिस विशेष परिपाटी में बदलता गया है, उसकी व्याख्या के लिए इनकी कहानियां विश्लेषित हुई हैं।

यहां वैभव के लिए आलोचना का प्रेमचंदीय मुहावरा ही सर्वोत्तम है, जो अपने पाठकों को सुलाता नहीं है, बल्कि उनकी चेतना को मशाल की तरह जला देता है ताकि उन्हें इसकी रोशनी में अपने शोषण का संपूर्ण गणित साफ़-साफ़ चमकता नज़र आये। इधर के सालों में जब से बाज़ार ने दुनिया के सपाट होने का भ्रम फैलाया है, तब से साहित्य भी प्रोडक्ट में तब्दील हो गया है। रचनाकारों के लिए ‘जनकेंद्रित प्रतिबद्धता’ किसी आदिम मनोवृत्ति का पर्याय बनती जा रही है। उन्हें ‘कलाओं की अनूठी भव्यता के बाज़ारवादी आयोजनों’ में सज-धजकर बैठी मूर्ति में अपना आदर्श दिखायी देता है। ऐसे में सस्ती लोकप्रियता से भरा उत्तेजित मनोवृत्ति आधारित साहित्य ही उनके लिए गरिमायुक्त आदर्श बन जाता है। इससे एक ओर जहां साहित्य की अपनी इमेज कम होती है, वहीं पाठकों के लिए भी वह मात्र एक प्रोडक्ट बनता चला जाता है। वाल्टर बेंजामिन के शब्दों में कहें तो ऐसा साहित्य ‘मैकेनिकल रीप्रोडक्शन’ भर होता है, जिसका मनुष्य की गरिमा और स्वतंत्रता को उत्तेजित करने वाली सात्विक मनोवृत्तियों से कोई संबंध नहीं होता। ऐसा साहित्य लिखने वाले लेखक जल्दी ही कालग्रस्त हो जाते हैं। वैभव लिखते हैं, ‘सफल कथाकार वह नहीं है जो गरिमाच्युत, पीले, बीमार मानवीय चेहरे दिखाये बल्कि वह है जो गरिमा व स्वतंत्रता खो देने की बाहरी-भीतरी स्थितियों को कहानी में उभार दे।’ हालांकि, आलोचकों और रचनाकारों के सामने सदा ही यह चुनौती रही है कि कला की सफलता के पैमानों को कैसे तय करें? यह कैसे तय करें कि संसार की सफल कथाएं कौन-सी रही हैं? कौन नहीं? वैभव मानते हैं, ‘संसार की सफलतम कथाएं वे रही हैं जिन्होंने कोरे नीरस उपदेश के गड्ढों में गिरे बग़ैर जीवन की सारी हरियाली तथा उसके सूखेपन को कथापात्रों के माध्यम से प्रकट किया है।’

  यों तो प्रत्येक रचना किसी-न-किसी मूल्य के प्रति प्रतिबद्ध होती ही है, किंतु कई बार वह किसी तयशुदा ऐजेंडे को चरितार्थ करने में इतना ज़ोर लगा देती है कि कथा-विन्यास तक विखंडित हो जाता है। सहज दिखायी देने वाला यथार्थ भी हवाई लगने लगता है। फिर क्या यथार्थ को अभिव्यक्त करना इतना आसान और सहज है कि कोई भी उसे अभिव्यक्त करके संसार के सफलतम लेखकों में शुमार हो सके? संभवतः नहीं। अक्सर सीधी लकीर खींचना ज़्यादा मुश्किल होता है, भले ही वह कितना भी सहज क्यों न लगता हो।

यहां यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि क्या यथार्थ की अभिव्यक्ति एक सच्चे रचनाकार के लिए आवश्यक है? निःसंदेह, अगर एक रचनाकार सचमुच ईमानदार है तो यथार्थ को अभिव्यक्त करने का जोख़िम उठाना उसकी नियति होती है। जोख़िम से बचाव और रचनाशीलता का निर्वाह एक साथ संभव नहीं होता है। हालांकि अब जोख़िम से बचने वाला लेखन चलन में है, पर वह कितना उपयोगी है, इसका फ़ैसला इतिहास आसानी से कर देगा।

दूसरी ओर, ‘विचारधारा’ बनाम ‘विचाराधारा-मुक्ति’ के तमाम सवाल भी आलोचना की पसोपेश में रहे हैं। आलोचना के सामने हमेशा ही एक संकट यह भी रहा है कि वह यह तय करे कि एक आदर्श रचना में रचनाकार की कौन-सी मूल्य-दृष्टि होनी चाहिए? यह तय करना एक हल्के सूत्रीकरण जैसा होगा, किंतु फिर भी उसमें मनुष्य की सामाजिक-सांस्कृतिक चितवृत्तियों की पहचान करने योग्य विवेक संपन्नता अवश्य होनी चाहिए। राजशेखर बहुत पहले ‘कारयित्री’ व ‘भावयित्री’ प्रतिभाओं का विश्लेषण करते हुए सभी का ध्यान लगभग इसी ओर दिलवा रहे थे। दूसरा, किसी रचना में वैश्विक एवं परिवेशगत राजनीतिक परिदृश्य पर पैनी दृष्टि भी इसी तरह की योग्यताओं में गिनी जा सकती है। तीसरा, जीवन मूल्यों में आस्था से जुड़ाव भी रचना और रचनाकार की प्रतिबद्धता में होना चाहिए। हालांकि, वैभव की मानें तो, ‘विचारधारा से प्रत्यक्ष रूप से संचालित लेखन की उम्र तथा प्रभाव अक्सर कम होता है क्योंकि वहां रचनात्मकता से समझौता किये जाने का ख़तरा होता है। लेकिन विचारधारा की अस्वीकृति या अरुचिकर अतिरेकों के बावजूद विचारधारा फिर भी साहित्य-कला का पीछा नहीं छोड़ती, न ही साहित्य-कला विचारधारा से पूर्ण निरपेक्ष हो जाने की अवस्था को प्राप्त कर पाती है। वह इसलिए कि चूंकि पूरा समाज ही किसी-न-किसी रूप में वैल्यू सिस्टम पर टिका होता है, इसलिए कहानी या तो उसी मूल्य व्यवस्था का विस्तार करती है, या उसकी आलोचना प्रस्तुत करती है। वाल्टर बेंजामिन के ही शब्दों का सहारा लेकर कहें तो कहा जा सकता है कि 'कलाएं केवल आलोचनाओं को पैदा नहीं करती हैं, बल्कि स्वयं आलोचनात्मक कर्म की तरह होती हैं। कहानीकारों का यथार्थ अंततः इसी मूल्य-प्रणाली का अंग होता है।...यह भी समझना ज़रूरी है कि केवल विचारधारा के बल पर अच्छी कहानी नहीं लिखी जा सकती।’ बहुत पहले रामविलास शर्मा ने भी कहा था कि साहित्य केवल विचार नहीं है, बल्कि वह भावबोध भी है और इंद्रियबोध भी। विचार पुराने भी पड़ जाते हैं और युग के अनुसार सीमित भी हो जाया करते हैं, लेकिन इंद्रियबोध सबसे टिकाऊ होता है।

यदि ध्यान से देखें तो साहित्य में विचारधारा का सारा झगड़ा दृष्टिकोण से जुड़ा हुआ मालूम पड़ता है। कभी-कभी लेखक का दृष्टिकोण विचारधारा की प्रतिबद्धता से जुड़कर भावशून्य हो जाया करता है। किंतु यह कहकर हम विचारविहीन साहित्य के प्रति सहमत नहीं हो सकते। साहित्य का विचारधारा से अनायास ही संबंध बन जाता है। हालांकि, बहुतायत में विचारधारा की अतिशयता भी कथा के प्रवाह में बाधक बनती है। इससे फ़िक्शन के वैचारिक लेख में बदलने का ख़तरा तो अवश्य रहता है, किंतु फिर भी विचार से साहित्य की मुक्ति का मार्ग सदैव ही उसे शब्द-चमत्कार की ओर ले जाता है। साहित्य की बड़ी शक्ति, जो मनुष्य की चेतना को विकसित करने और उसे अधिक संवेदनशील बनाने की है, वह विचार-मुक्ति में नहीं है, बल्कि कला के विकास की समस्त प्रक्रिया विचार के अंतर्गुंफन पर ही निर्भर करती है। जिस रचना में यह अंतर्गुंफन नहीं होगा, वह निःसंदेह स्कूल के होमवर्क जैसा ही होगा। वैभव कहानियों पर विचार करते हुए इसे ही समझाते हैं। उनकी मानें तो कहानियां स्कूल का होमवर्क नहीं हैं। ‘अच्छी कहानियां आज भी वही हैं जिन्हें पढ़ना स्कूल का होमवर्क करने या ज़िम्मेदारी की तरह न लगे बल्कि जिनमें भरपूर क़िस्सागोई हो। कहानी पढ़ना स्वयं में काम न हो बल्कि मनुष्य जिन ढेरों कामों में व्यस्त रहता है, कहानी पढ़ने के बाद उन्हें पूरा करने में आसानी हो। उनमें गप, विट, मौज-मस्ती और रूमानियत के गुण मौजूद हों। जो हमारे जीवन में बचे-खुचे आराम के पलों को भी बोझिल न बना दें। जो हमें समाज के बारे में इस मुश्किल ढंग से सचेत न करें कि हम यह मान लें कि समाज के बारे में सचेत होने की प्रक्रिया बड़ी जटिल होती है। उन्हें पढ़कर ऐसा नहीं लगना चाहिए कि हमारा समाज अबूझ पहेली है और हमारी कहानियां उसे सुलझाने के ऐतिहासिक मिशन पर निकली हैं और हमारा काम उस मिशन में योगदान देना है। कहानी किसी रहस्यमय घुड़सवार जैसी न लगे जो किसी पहाड़ पर सरपट भागा चला जा रहा है। एक सफल कहानी वह है जो हमारे भीतर चरित्र का बोध पैदा करती है।’ दरअसल, साहित्य अपने से आंख मिलाने की ईमानदार कोशिश है। यहां वैभव की अच्छी कहानी-संबंधी धारणा से इतर भी सोचा जा सकता है और बहुत संभव है कि समकालीन कहानीकार उनके इस मुहावरे से परहेज़ करें। 

दूसरी ओर, आलोचना के सामने अपनी साहित्यिक विधाओं के विकासक्रम की सटीक अभिव्यक्ति को पहचानने का भी संकट रहा है। कविता को लंबे समय तक काव्यशास्त्रीय टूलों से विवेचित किया जाता रहा है और अवकाश पा लिया गया है। किंतु इधर कथा के प्रकट हो जाने पर उसके मूल्यांकन के प्रतिमान अभी तक स्थिर नहीं हुए हैं। यह सवाल लगातार बना ही रहता है कि कहानी क्या होती है? क्या वे आधुनिकता में प्रकट हुई कोई नायाब और नयी चीज़ है या मिथकों की शक्ल में बहुत पहले से ही हम उन्हें सुनते-पढ़ते आये हैं? क्या वह कुछ निश्चित पात्रों-परिस्थतियों व घटनाक्रम का विकासक्रम मात्र है या फिर किसी विशेष अंतर्दृष्टि से युक्त एक पूरा रचना-विन्यास उसमें निहित होता है? वह ख़ास रूप से चयनित घटनाओं व परिस्थितियों की संभावनाओं का सटीक जोड़ तो नहीं है? वैभव लिखते हैं, ‘कहानियां कभी चाकू या पिस्तौल नहीं होती हैं जो किसी निशाने की तरफ़ उठी हुई होती हैं, बल्कि वे मैग्नीफ़ाइंग ग्लास हो सकती हैं जो बहुत-सी संवादी-वादी-विवादी प्रवृत्तियों से बने समाज के अंतरंग व बहिरंग को प्रकट करती हैं।’

फिर सवाल यह है कि इस तरह कि कहानियों में यथार्थवाद के क्या अर्थ हो सकते हैं? वैभव मानते हैं, ‘कहानियों में यथार्थवाद का मतलब यथार्थ को उलट-पलटकर देखने, उसके धागों को उधेड़ने-सिलने, पुर्जों को खोलने-कसने की स्वतंत्रता है। हिंदी कहानी की विकास यात्रा भारतीय साहित्य में यथार्थवाद के विकास के साथ आरंभ हुई है।’ अब सवाल उठता है, कहानी में प्रत्यक्ष जगत् की यथार्थवादी अभिव्यक्ति की प्रक्रिया क्या हो सकती है? वैभव लिखते हैं, ‘प्रत्यक्ष जगत् से प्रभावित न होने, उसे अंतिम न मानने और उसकी जकड़न से मुक्त रहने से कहानी में भी यथार्थ की प्राप्ति की बेहतर संभावनाएं निहित होती हैं। इस प्रकार सत्य को अर्जित करने की इन्हीं दोनों प्रक्रियाओं पर कहानी निर्भर होती है जिसमें एक ओर वैज्ञानिक दृष्टि का प्रयोग होता है तो दूसरी ओर लेखक का विशिष्ट अंतःकरण होता है जो हर अनुभव सत्य को अपने तरीक़े से ग्रहण कर उसे कहानी में व्यक्त करता है। कहानी केवल निजी भावबोध व सामाजिकता के बीच संतुलन नहीं है, बल्कि कहानी वैज्ञानिक-वस्तुवादी दृष्टि तथा विशिष्ट अंतःकरण के बीच का संतुलन भी है।’

वैभव साहित्य पर आधुनिकता के प्रभावों का आकलन करते हुए इनके संबंधों की भी शिनाख़्त करते हैं। उनके यहां यह सवाल बार-बार आता है कि ‘साहित्य और आधुनिकता’ कैसे एक दूसरे से जुड़े हैं? यह सर्वविदित है कि आधुनिकता ने व्यक्तिवाद, शिक्षा, स्त्री-स्वतंत्रता और शहरी समाज के उदय को आधुनिकता के बड़े लक्षणों के तौर पर पहचाना था । इसके कारण ही दुनिया में तमाम विमर्श उपजे थे और साहित्य के किसी केंद्रीय पाठ के बजाय उसके अनेक बहुस्तरीय पाठ किये जाने लगे। साहित्य को अभिव्यक्ति देने वाले महाख्यान भी बदले। एक समय मार्क्सवाद जिस तरह महाख्यान का रूप धारण किये था, वह भी दूसरे अनुशासनों से चुनौती पाने लगा। यही वह समय था जब दुनिया ने केंद्र के रिड्यूस होने का जश्न मनाया, किंतु पूंजी फिर केंद्रीय भूमिका में चली आयी। आज विमर्शवाद के चलताऊ शब्द समकालीनता पर थोपे जा रहे हैं। वैभव मानते हैं, ‘आज कहानी को युवा या समकालीन कहानी के नाम से पुकारा जाता है। विमर्शवाद भी चलताऊ शब्द है जबकि विमर्श में केवल दलित-स्त्री साहित्य ही आता है। ज़्यादा अच्छा तो होगा कि अन्य विधाओं को ध्यान में रखते हुए इस साहित्य-युग को 'विविधतावाद' के नाम से पुकारा जाये क्योंकि आज का युग भले ही बाज़ार के कारण अपनी सांस्कृतिक बहुलता को खो रहा हो और व्यवस्थाएं इंसान के संकट को कम न कर पा रही हों पर वही युग कई क्षेत्रों व संस्कृतियों से उपजी प्रतिभाओं को सामने ला रहा है। भारतीय लोकतंत्र सत्ता के शीर्ष पर बैठे चंद नामों से भले ही अब भी पहचाना जाता है, लेकिन राजनीतिक एकाधिकारवाद के ख़तरों के बावजूद फ़िलहाल ज़मीनी स्तर पर जारी भागीदारीमूलक प्रक्रियाओं से भी पहचाना जाने लगा है। सत्ता और विमर्श में प्रतिभागी होने और बहुलतामूलक परिदृश्य रचने की यह आकांक्षा कथाओं तथा अन्य साहित्य-विधाओं में विषयगत तथा विचारगत बहुलता के रूप में प्रकट हो रही है। कोई अगर वैचारिक ढंग से संकीर्ण या बौद्धिक अनुदारता का शिकार नहीं है तो वह उल्लासपूर्वक हाथ फैलाकर इन प्रवृत्तियों का स्वागत करेगा।’

वैभव की मानें तो, समस्त सामाजिक बाधाओं के बावजूद हमें भूलना नहीं चाहिए कि लोक व्यवहार और मर्यादा को श्रेष्ठ जीवन आदर्श मानने की बात तो हर समाज कहता है, पर एक कहानीकार इस आदर्श का अतिक्रमण करके ही श्रेष्ठतम रच पाता है। उसकी सफलता लक्ष्मण रेखाओं को लांघने और दीवारों में सेंध लगाकर उनके पार जाने में ही निहित होती है। इस पुस्तक में वैभव का यही समाजशास्त्रीय पैमाना उनके कहानी-मूल्यांकन का आधार रहा है।

उक्त पुस्तकों के अध्ययनोपरांत यह कहा जा सकता है कि अब कहानी-आलोचना के लिए सबसे निर्णायक समय आन खड़ा हुआ है। उसे व्यावहारिक व सैद्धांतिक, दोनों ही मोर्चे पर हिम्मत व जवाबदेही के साथ लड़ना है। यह समय केवल किसी कहानी के पक्ष में खड़ा होने का नहीं, बल्कि उसके भीतर छिपे मुखौटों से लड़ने का भी है। ये किताबें उसका रास्ता प्रशस्त करती अवश्य महसूस होती हैं।

मो. 9466948355

 पुस्तक संदर्भ

1. भूमंडलीकरण, बाज़ार और समकालीन कहानी : अरुण होता, नेशनल पब्लिशर्स, जयपुर, 2019

2. भूमंडलोत्तर कहानी : राकेश बिहारी, आधार प्रकाशन, पचकुला, 2020

3. कथालोचना के प्रतिमान : रोहिणी अग्रवाल, आधार प्रकाशन, पचकुला, 2020

4. हिंदी कहानी की इक्कीसवीं सदी : पाठ के पास/पाठ से परे : संजीव कुमार, राजकमल प्रकाशन, दिल्‍ली, 2019

5. कहानी : विचारधारा और यथार्थ : वैभव सिंह, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्‍ली, 2020

 

 

No comments:

Post a Comment