स्मृतिशेष : विष्णु चंद्र शर्मा -2

विष्णु मेरा दोस्‍त

कांतिमोहन

प्रिय विष्णु,

आख़िर तुम नहीं ही माने। मैंने सोचा था कि 80 पार करने के बाद आदमी बदल जाता है, इसीलिए तुमसे कहा था कि इस बार जब तुम किसी यात्रा पर निकलो तो मैं ज़रूर तुम्हारे साथ चलूंगा। उसी हिसाब से मैं तैयारी भी कर रहा था क्योंकि मैं जानता था कि तुम्हें यात्रा पर अकेला ही निकलना पसंद है और तुम अपने झोले में अपनी डायरी डालकर कब निकल भागोगे, इस मामले में तुम पर भरोसा नहीं किया जा सकता था; इसलिए मैं छोटे नोटिस पर चलने की तैयारी कर रहा था कि अचानक पता चला, विष्णु तो निकल भी गया।

इस बार तुम्हारा जाना निराला ही रहा। हमेशा तुम यात्रा के अगले पड़ाव पर पहुंचकर मुझे एक पोस्टकार्ड पर अपना अस्थायी पता भेजते थे और हिदायत देते थे कि तुम्हें वापसी का किराया कहां भेजूं? इस बार ऐसा कुछ नहीं हुआ। तुम्हारा अस्थायी पता मेरे पास  नहीं। मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि तुमसे संपर्क कहां और कैसे साधूं? इसलिए अंधेरे में तीर मार रहा हूं जो तुक्का या बेतुका भी साबित हो सकता है।

तुम्हें याद करना, तुम्हें भूल जाना, एक उलझनभरे और मरे हुए ज़माने को पुनर्जीवित या प्रत्युत्पन्न करने जैसा कठिन काम है और मेरी कारयित्री प्रतिभा के परे है। मैंने कभी सोचा भी न था कि कभी इसकी ज़रूरत पेश आयेगी। 1957 में जब तुमसे मुलाक़ात हुई थी, हम दोनों कितने जवान थे। स्वप्नों में खोये-खोये राजकुमार! ज़रा सी उत्तेजना, या कभी-कभी उसके बग़ैर भी भड़क जानेवाले ज्वलनशील शोले, अपने सहकर्मियों में सबसे छोटे और कम अनुभवी, लेकिन अभिमान-सुमेरु और असहिष्णु । तुम जहां हो, वहां पहुंचने के बाद तुम्हारी मुलाक़ात अपने कई सहकर्मियों से हुई होगी, ख़ासकर, शंकर लाल मस्करा से जिसे तुम हमेशा मस्खरा कहते थे और जो कहता था कि ‘असहिष्णु’ और ‘विष्णु’ की तुक तो भगवान ने वहीं से मिलाकर भेजी है, किसी और को मिलाने की ज़रूरत ही क्या है? मैं तो न कहीं आता-जाता हूं और न किसी की खोज ख़बर ही रखता हूं।

वह एक अजीब सा प्रोजेक्ट था। कई साल पहले डाक्टर हरदेव बाहरी और उनकी टीम ने संक्षिप्त ओक्स्फ़र्ड डिक्शनरी का अंग्रेज़ी से हिंदी में रूपांतरण किया था, लेकिन शिक्षा मंत्रालय ने उसे संतोषजनक नहीं पाया। लिहाज़ा उसे संशोधित और संपादित करने के लिए डाक्टर यदुवंशी की अध्यक्षता में एक कार्यदल गठित किया गया जिसका ज़िम्मा रामचंद्र टंडन को सौंपा गया जो आल इंडिया रेडियो पर चीफ़ प्रोड्यूसर की हैसियत से काम कर रहे थे। यह एक साल का प्रोजेक्ट था और इसकी ज़िम्मेदारी हिंदी साहित्य सम्मेलन को दी गयी जिसने कनॉट प्लेस में स्थित अपने दिल्ली कार्यालय में इसे अंजाम दिया। अनुवाद कार्य में जिन लोगों को शामिल किया गया उनमें डाक्टर भोलानाथ तिवारी, देशराज गोयल, नेमिचंद्र जैन, शंकर लाल मस्करा, महेंद्र भारद्वाज, महेंद्र चौबे, विष्णु चंद्र शर्मा और कांतिमोहन शर्मा के नाम तो मुझे याद हैं, शायद एकाध नाम ऐसा भी हो जो विस्मृति के गर्भ में समा गया हो। मुझे इतना ही याद है कि इस संशोधित रूप को भी संतोषजनक नहीं पाया गया था।

देखते-देखते हमारा परिचय ऐसी घनिष्ठ मैत्री में बदल गया कि उसके चर्चे होने लगे। हम दोनों एक-दूसरे से परिचित होने लगे। मैं तो एक साधारण सा नौजवान था जो अपने अधिकारों के लिए बड़ी से बड़ी ताक़त से लड़ लेता था। तुमने बताया था कि अधिकार चेतना और संघर्षशीलता की रक्षा हर क़ीमत पर करनी चाहिए। यह भी मैंने तुमसे ही सीखा कि आदमी को अपनी ज़रूरतें इतनी सीमित रखनी चाहिए कि उन्हें पूरा करने के लिए उसे किसी के सामने हाथ न फैलाना पड़े। हाथ फैलाने से हाथ तो कुछ आता नहीं, उलटे इंसान अपनी ही नज़रों में गिर जाता है। उम्र के एतबार से तो तुम मुझसे सिर्फ़ दो साल बड़े थे, लेकिन अनुभव में बहुत बड़े थे और इस नाते मैं तुम्हारा सम्मान इसी तरह करता था जैसे तुम मेरे शिक्षक हो! तुम चाहते तो हमारा रिश्ता कृष्णार्जुन का हो सकता था, लेकिन प्रपत्ति मार्ग से तुम्हें शुरू से ही घृणा थी और दोस्ती के रिश्ते को तुम सबसे बड़ा और मज़बूत मानते थे। इसलिए तुमने बराबरी पर आधारित उसी रिश्ते को क़ायम रखा और उम्र के आख़िरी पड़ाव तक हम दोनों एक-दूसरे को 'तू' कहकर ही संबोधित करते रहे। जहां तक मुझे याद आता है, तुम मेरे जीवन के अंतिम मित्र थे। उसके बाद परिचितों और साथियों की लंबी क़तार है, लेकिन मेरे प्रेमाश्रुओं पर सिर्फ़ तुम्हारी ही याद का एकाधिकार है।

तुम्हारे हवाले से मुझे स्वतंत्रता-संग्राम के उस महान सेनानी का परिचय पाने का अवसर मिला जिनका नाम कृष्णचंद्र शर्मा था और जो तुम्हारे पिता थे। नागरी प्रचारिणी सभा की संस्थापना में प्रमुख भूमिका निभानेवाले राम नारायण मिश्र तुम्हारे नाना थे, लेकिन उनके एकतरफ़ा हिंदू प्रेम और संकीर्ण विचारधारा के कारण तुम उनके प्रति पूज्य भाव नहीं रखते थे। यह मेरे लिए चौंकानेवाली अप्रिय सचाई थी क्योंकि मैं अपने निरक्षर नाना को बेहद प्यार करता था। लेकिन, तुमने मेरी शंका का यह कहकर समाधान कर दिया कि एक अवस्था के बाद आप व्यक्ति नहीं रह जाते, इतिहास का हिस्सा बन जाते हैं। इतिहास के वस्तुपरक और सच्चे मूल्यांकन में व्यक्तिगत रिश्तों का कोई महत्व नहीं और अगर हम अपने किसी संबंधी की सीमाओं को रेखांकित करते हैं तो इसका यह अर्थ नहीं कि हम उसका आदर नहीं करते। अब वह हमारा प्रिय संबंधी इतिहास का एक अंग है और इस नाते से हम उसकी वस्तुपरक समीक्षा के लिए प्रतिबद्ध हैं। 

तुम्हें याद होगा, मैं बनारस में तुम्हारे छात्र जीवन के बारे में खोद-खोदकर प्रश्न पूछता था जो कभी-कभी अजीब भी लगता था। एक बार तुम मुझ पर बिगड़ पड़े थे, लेकिन जब मैंने तुम्हें बताया कि मेरी दिलचस्पी की वजह सिर्फ़ यह है कि तुम्हारे अधिकांश पात्रों को मैं उनकी अनुपस्थिति में जानता हूं और नज़दीक से जानने की इच्छा रखता हूं तो तुम न सिर्फ़ शांत हो गये, बल्कि रुचिपूर्वक मुझे उनकी जानकारी देने लगे। तुमसे मुझे पंडित जगन्नाथ शर्मा, पंडित विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, हजारी प्रसाद द्विवेदी, पदमलाल पुननालाल बख्शी, करुणापति त्रिपाठी, शांतिप्रिय द्विवेदी, शंभू नाथ सिंह, चंद्रबली सिंह और नामवर सिंह आदि के बारे में जो अमूल्य जानकारी हासिल हुई, वह क्या किसी पुस्तक या विश्वकोश से मुमकिन थी? मैं तुम्हें अपना सबसे बड़ा साहित्य-शिक्षक मानता हूं और मानता रहूंगा।

तुम्हारी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि सर्जनात्मक प्रतिभा से संपन्न तुम्हारे मित्र तुम्हारे स्नेह के सहज अधिकारी हो जाते थे और तुम अपना क़ीमती समय उनकी प्रतिभा को निखारने में ख़र्च  करने से कभी गुरेज़ नहीं करते थे। मैंने जब से होश संभाला है, अपने आपको कविता करते ही पाया है। लेकिन मैं कवि-कर्म एक गुनाह या अपराध की तरह कने का आदी रहा हूं और आज भी मेरे विशाल मित्र-वर्ग में गिने-चुने मित्र ही दावा कर सकते हैं कि उन्होंने मुझे अपनी रचना का पाठ करते हुए रंगे हाथ पकड़ा है। लेकिन तुमने भांप लिया और मुझसे वादा ले लिया कि अगली कविता मैं तुम्हें ज़रूर भेजूंगा। उन्हीं दिनों मैं बंबई गया और मैंने पहली बार समुद्र-दर्शन और फिर समुद्र मंथन किया। लेकिन उससे रत्न निकालना मेरी क्षमता से बाहर  की बात थी, फिर भी मैंने अपना वादा निभाया और वे कविताएं जैसी भी थीं, तुम्हारी ख़िदमत में रवाना कीं। मैं यह देखकर दंग रह गया कि लौटती डाक से तुम्हारा जो पत्र मुझे मिला उसमें तुमने उन कविताओं को सच्ची कविता बना दिया था। मेरे तो होश ही उड़ गये। मैंने ख़्वाब में भी न सोचा था कि मैं इतनी अछी कविता लिख सकता हूं। नहीं, मैं इन्हें अपने नाम से नहीं छपवा सकता। विष्णु की कविताएं अपने नाम से छपवाना बेईमानी है। मैंने जतन से उन्हें संजो लिया और अगरचे मेरे पास अपनी सैकड़ों कविताओं में से दर्जनों भी नहीं बचीं लेकिन तुम्हारी संपादित, संशोधित और पुन:सृजित वे कविताएं अक्षुण्ण हैं। तुम्हारे पास फुर्सत हो और मुझमें तुम्हारी दिलचस्पी बची हो तो मैं तुम्हारे पास भेज सकता हूं।

तुमने अपने परिवार और निकट संबंधियों से मुझे परिचित कराया। इस तरह कि मैं उनसे मिलने के लिए अधीर हो उठा। कई साल बाद जब मुझे उनसे मिलने का मौक़ा मिला तो लगा ही नहीं कि यह मेरी पहली मुलाक़ात है। तब वे लोग कालभैरव स्थित तुम्हारे ख़ानदानी घर में रहते थे। मुझे याद है की मेरे वहां होते हुए तुम्हारे मित्र, ठाकुरप्रसाद सिंह, भाभो से मिलने आये थे। वे उम्र में तुमसे बड़े थे और तुम्हारे बड़े भाई, मोती चंद्र के मित्र थे। जिस स्नेह और अपनेपन से वे भाभो से मिले वह चित्र मेरे स्मृतिपटल पर सदैव के लिए अंकित हो गया है। वह मुझे याद दिलाता है कि मेरे भी कई मित्र मेरी मां से इसी तरह मिलते थे जैसे वे मुझसे भी पहले उनकी मां हों। घर का बड़ा बेटा होने के नाते मुझे भाभी का सुख नहीं मिला था, लेकिन तुम्हारी जीवनसंगिनी मुझे भाभी के रूप में मिल गयीं, उन्होंने वह कमी पूरी कर दी। वे मुझे साथ लेकर बनारस के साड़ी मार्केट गयीं और मेरी पत्नी मधु के लिए साड़ियां पसंद कीं। मधु ने वे इतने जतन और प्यार से पहनीं कि उनमें से दो अभी तक बची हुई हैं। वे जब भी उन्हें पहनती हैं, हम दोनों देर तक स्नेहमयी भाभी को याद करते रहते हैं।

फिर मैं तुम्हारी बारात में गया, पटना सिटी। वहां पुष्पा भाभी से मुलाक़ात हुई, जिन्होंने तुम्हारी ऊबड़-खाबड़ ज़िंदगी को व्यवस्थित बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। पहली बार मैं घुमंतू विष्णु को एक सदगृहस्थ बनते देख रहा था। नहीं, तुम्हारे बच्चे नहीं हुए, हालांकि तुम दोनों ही बच्चों को बेहद प्यार करते थे। लेकिन तुम्हें इसका कोई अफ़सोस या पछतावा नहीं था और तुम दोनों दोस्तों के बच्चों पर अपना प्यार यथावत लुटाते रहे। फिर दिल्ली की सुरसा ने अपना मुंह फैलाना शुरू किया और हम दोनों दिल्ली के दो छोरों पर निर्वासित कर दिये गये। आख़िरकार कालापानी की मेरी सज़ा पूरी हुई और मैं यहां से निकल भागा। पुष्पा भाभी के जाने की ख़बर मुझे देहरादून में मिली और मैं यह सोचकर परेशान हो उठा कि अब विष्णु का क्या होगा? लेकिन पुष्पा भाभी और रमाकांत के सम्मिलित प्रयत्नों ने तुम्हें सादतपुर से इस तरह  कसकर बांध दिया था कि तुम अपनी तमाम घुमक्कड़ी और सधुक्कड़ी के बाद भी यहां से हिले नहीं। तुम्हारे लिए सादतपुर दिल्ली का एक पिछड़ा हुआ मोहल्ला नहीं, बनारस के काल भैरव की तरह एक भरापूरा परिवार था और तुम उसमें मस्त थे। बाबा और रमाकांत के जाने के बाद इस परिवार को एक पुरखे की ज़रूरत भी थी जो तुमने खूबसूरती से पूरी का दी।

मेरे लिए इसका फ़ैसला करना मुश्किल है कि कुल मिलाकर ज़िंदगी को तुमने दिया ज़्यादा या तुम्हें मिला ज़्यादा; हालांकि तुम्हारे प्रसंग में इससे बेहूदा सवाल हो नहीं सकता। प्रिय विष्णु मैं तुमसे मित्रवत ईर्ष्या करता हूं। नयी पीढ़ी को पुत्रवत प्यार देने और उससे पितृवत आदर पाने की अद्भुत मिसाल है तुम्हारा जीवन।

मो. 8826162547

 

  

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