उपन्यास चर्चा-2

 अतीत के कालखंडों में वर्तमान की दस्तक

अरविंद कुमार

 पिछले तीन वर्षों में हिंदी में तीन महत्त्वपूर्ण उपन्यास आये और यह संयोग है कि तीनों ही उपन्यासकार पटना के हैं और तीनों हिंदी के चर्चित कथाकार हैं। पहला उपन्यास अशोक राजपथ है, जो 2018 में आया और जिसके लेखक हैं अवधेश प्रीत। दूसरा उपन्यास अग्निलीक है, जो 2019 में आया है और जिसके रचयिता हैं हृषीकेश सुलभ तथा तीसरा उपन्यास संतोष दीक्षित का घर बदर है, जो इसी वर्ष 2020 में प्रकाशित हुआ है। इन तीनों उपन्यासों की कथा-भूमि अलग-अलग है। अशोक राजपथ छात्र राजनीति पर केंद्रित उपन्यास है, तो अग्निलीक ग्रामीण जीवन और राजनीति पर केंद्रित है जबकि घर बदर एक निम्नमध्यमवर्गीय परिवार के टूटते-बिखरते सपनों की कथा है। अशोक राजपथ में कथा की केंद्रीयता पटना के अशोक राजपथ पर घटित होती है तो अग्निलीक की कथा सीवान के दो गांवों, देवली और मनरौली, के इर्द-गिर्द घूमती है, जबकि घर बदर की कथा का केंद्र पटना का एक मुहल्ला आज़ादनगर है। इस उपन्यास का कथानक घूमफिर कर बार बार आज़ादनगर में लौटता है और फिर वहीं ख़त्म भी होता है। अशोक राजपथ की कथा भी घूमफिर कर वहीं लौटती है और उसी राजपथ पर ख़त्म भी होती है। पर अग्निलीक की कथा सीवान के देवली और मनरौली होते हुए अमरपुर जाती है और फिर पटना के कुछ इलाक़ों में घूमती है। हालांकि इस उपन्यास का अंत भी देवली में ही होता है। सीवान का देवली सत्ता के एक वैसे नये केंद्र के रूप में उभरता है जहां राजनीति का एक नया समीकरण बनता दिखायी देता है। देवली के जीवन में यह समीकरण स्वीकार्य नहीं है, पर राजनीति में सब चलता है। वहां सत्ता के शीर्ष के लिए जातियों की घृणा नहीं है, धर्मगत विद्वेष भी नहीं है।

अग्निलीक में कथा की चार पीढ़ियां हैं। इन चारों पीढ़ियों में जीवन और प्रेम का स्वीकार नहीं है। पहली पीढ़ी जसोदा देवी की है जिनका विवाह उनकी इच्छा के विपरीत अकलू यादव से कर दिया जाता है। जसोदा देवी अपने ही गांव के एक युवक लीला साह से प्रेम करती हैं और उसे अपने जीवन में ग्रहण करना चाहती हैं, पर यह जसोदा देवी के पिता रामआसरे यादव को मंज़ूर नहीं है। और देखते-देखते एक दिन लीला साह घाघरा तट की रेत में ग़ायब हो जाते हैं। जसोदा देवी के सपनों को पंख नहीं मिलते, उन्हें घाघरा के जल में बहा दिया जाता है।...अकलू यादव डकैत हैं पर जसोदा देवी के सामने विकल्प कहां है! जसोदा देवी को सब पता है, इसलिए अकलू यादव के साथ भी वे अपने को ख़ुश रखने का प्रयास करती हैं। उन्हें यह भी पता है कि अकलू यादव के संबंध गांव के सामंत रामबरन सिंह की विधवा बहन रामझरी से हैं, पर जसोदा देवी के गर्भ में लीलाघर यादव हैं और उसे अपना सबकुछ मानने को वे विवश हैं। जिस लीला साह को देखे बिना जसोदा के लिए भोर नहीं होती और न सांझ आती, वे अब सिर्फ़ उनकी स्मृतियों में थे। उन्हें याद है कि वैसे बलखाती छाड़न धाराओं के बीच फैली रेत पर अपने पांव धंसा-धंसाकर पगचिह्न बनाते लीला साह और उनके पीछे-पीछे उनके पगचिह्नों पर अपने डेग धरती जसोदा। घाघरा के तट पर शाहजहां की बनवायी मस्जिद के खंडहरों के बीच पसरी लताओं से पके लाल कुंदरू के फल तोड़कर लीला पर फेंकती जसोदा तो कभी अपने लीला के लिए करजीरी के लाल-काले दाने चुनकर माला गूंथती जसोदा।...यह थी अमरपुर के जसोदा के ख़्वाबों की पहली हत्या। ख़्वाबों की दूसरी हत्या तब हुई जब दूसरी पीढ़ी के लीलाधर यादव की पुत्री कुंती ने गांव के ही एक स्कूल मास्टर मुचकुंद शर्मा से प्रेम किया। कुंती के भाई रमन सिंह यादव की शान के विरुद्ध था यह कि उनकी बहन से कोई प्रेम करने की जुर्रत करे। और एक दिन मास्टर मुचकुंद शर्मा अपने स्कूल में ही रहस्यमय परिस्थितियों में मरे पाये गये। और सुनहरे ख़्वाबों की यह दुनिया तीसरी बार तब रौंदी गयी जब उसी परिवार की लड़की रेवती ने रजक जाति के एक लड़के से प्रेम किया। मनोहर उसका सहपाठी था और रेवती का सपना उसे सामाजिक समृद्धि और प्रतिष्ठा तक पहुंचाना था। पर वह रक्त विकारी था, इसलिए इस बार भी एक भाई ने ही रेवती के प्रेम का गला घोंट दिया। सुजीत सिंह यादव ने पटना के दलदली गली के भक्तिन लॉज में दिन दहाड़े मनोहर की गोली मारकर हत्या कर दी। अशोक राजपथ के चौरसिया पान भंडार में डेक पर एक गाना बार-बार गूंजता है- ‘गोली मार भेजे में, भेजा शोर करता है’ यानी असहमति की कोई जगह कहीं भी नहीं है। चाहे वह घर का गलियारा हो या राजनीति का।

1857 की क्रांति में घाघरा का जो तट अंग्रेज़ों के विरुद्ध बग़ावत का केंद्र बना हुआ था, वही सौ साल बाद डाकुओं के बड़े गिरोह का आश्रय स्थल हो गया था। वहां हत्याएं और ख़ून-ख़राबा आम बात थी। अमरपुर के महाजन रामजस साह के पुत्र लीला साह भी तो यहीं से हमेशा के लिए ग़ायब हो गये थे। इसी के तट पर कई बड़ी डकैतियों की रूपरेखा तैयार हुई थी, जिसमें से एक में असफल होने पर लीलाधर यादव के पिता अकलू यादव अपनी माशूक़ा रामझरी के हाथों मार डाले गये थे। तब लीलाधर बहुत छोटे थे। इसलिए जब वे बड़े हुए तो जल्दी परिपक्व हो गये। उनके पिता ने उनके परिवार पर जो दाग़ छोड़े थे वे उससे मुक्त होने की कोशिश में लगे रहे। उनका मुखिया बनना और मुखिया बने रहना इसी कोशिश का एक प्रतिफल था। ज़ाहिर है कि पूर्व के वे दाग़ धुलते चले गये और पूरे देवली में उनका दबदबा क़ायम हो गया। बाद में देवली की सीट के महिला आरक्षित हो जाने पर इसी दबदबे को बरक़रार रखने के लिए अपनी पौत्री रेवती के पास वे गये, हालांकि इसमें एक भाव यह भी छुपा हुआ था कि मुखिया बनने के बाद रेवती का ध्यान स्वतः ही मनोहर की ओर से हट जायेगा और उनपर अपनी मां को दिये गये वचन को पूरा करने का भार नहीं रहेगा। साथ ही रेवती और मनोहर के रिश्ते से जो निंदा उनके परिवार की होगी उससे भी वे अपने परिवार को निकाल ले जायेंगे।

पर यह हो नहीं पाता। मुखिया लीलाधर यादव का आंगन घृणा, अपमान, अविश्वास और अस्वीकार का लावा उगलते ज्वालामुखी में बदल जाता है। वहां बौराये हत्यारों का एक ऐसा झुंड प्रकट होता है जिनके लिए रिश्तों की कोई अहमियत नहीं होती, न प्रेम जैसे शब्दों का कोई मतलब होता है। वैसे इस कथानक में कई हत्याएं हैं। उपन्यास शुरू ही होता है शमशेर सांई की हत्या से और इसका अंत भी इसी तरफ़ मुड़ता है जब कथानक के ख़त्म होने के ठीक पहले मनोहर रजक की हत्या हो जाती है। अशोक राजपथ में कमलेश की हत्या भी दिन दहाड़े ही होती है। समाज में जो अति पिछड़े हैं, दलित हैं, उनकी भागीदारी समाज और राजनीति में कम से कम हो, वे किसी भी तरह बराबरी के साथ खड़े नहीं हो पायें और यदि वे ऐसा करने का प्रयास करते हैं तो अंजाम सामने है।

ऐसे संस्कारों के बीच मुखिया लीलाधर यादव यदि रेशमा कलवारिन को सरपंच के पद के लिए खड़ा करवाते हैं तो इसलिए कि रेशमा हमेशा रेवती की ढाल बनी रहेगी। वे जानते हैं कि रेशमा ने अब तक अपनी देह को हथियार बनाकर अपना फ़ायदा निकाला है, वे यह भी जानते हैं कि रेशमा के कई-कई मर्दों से नाजायज़ संबंध रहे हैं, फिर भी उनके लिए राजनीति में शुचिता और पवित्रता का कोई अर्थ नहीं। लीलाधर रेशमा से कहते हैं, ‘तुमको चुनाव लड़ना है इस बार। सरपंच का चुनाव।’। महाजाल फेंककर जैसे कोई सधा हुआ मछुआरा धीरज के साथ इंतज़ार करता है, वैसे ही लीलाधर यादव निहारते हैं रेशमा को। रेशमा इसे सहज ही स्वीकार लेती है, ‘हम तैयार हैं। लड़ेंगे सरपंच का चुनाव। आपका आशीर्वाद मिल रहा है, यही बड़की बात है मेरे लिए।’ रेशमा के चेहरे पर तिर्यक मुस्कान उभरी और लुप्त हो गयी। एक ऐसा ही महाजाल लीलाधर ने अपनी पोती रेवती के लिए भी फेंका था। अपने दामाद मनन चौधरी के साथ रेवती के छात्रावास जाकर उन्होंने मनन चौधरी की मदद से उसे समझाया था, ‘हम चाहते हैं कि तुम चुनाव लड़ो। चुनाव के बाद ...जीतने के बाद भी तुम्हारी पढ़ाई चलती रहेगी। आई.ए.एस. बनकर किसी नेता के पीछे डोलने से बेहतर है राजनीति। यह शुरुआत होगी तुम्हारी। देवली में तुम्हारा तीन सौ पैंसठ दिन रहना ज़रूरी नहीं। तुम्हारे बाबा देखेंगे तुम्हारा सारा काम। तुम पढ़ी-लिखी हो। तुम्हारा परिवार राजनीतिक परिवार है। मुखिया की कुर्सी जल्द ही बहुत छोटी हो जायेगी तुम्हारे लिए। एक लीक पकड़कर चलने से कुछ नहीं होता। कई बार बेहतरी के लिए रास्ता बदलना पड़ता है।...हम तुम्हारे पास बहुत भरोसे से आये थे।' घिर गयी थी रेवती। ‘बाबा!’, बरसात में गिरती भीत की तरह रेवती की आवाज़ भहरा कर गिरी। वह उठी और अपने बाबा से लिपट गयी। वह बिलख-बिलखकर रोये जा रही थी। लीलाधर भी रो रहे थे। पास खड़े मनन चौधरी किसी मंजे हुए खिलाड़ी की तरह बाबा-पोती की यह रुदन-लीला निहार रहे थे। उन्होंने कहा था, ‘ बबुनी, अपने हिसाब से जीने के लिए यह ज़रूरी है कि ताक़त अपने हाथ में हो।...ताक़त और सत्ता तुम्हारे दुआर पर खड़ी है। ठुकराओ मत इसे।’ यह कहते हुए लोकतंत्र के धर्मयुद्ध में रेवती को झोंककर चले गये उसके अपने पुरखे, हितैषी, परिजन। रेवती की आंखों के सामने आजी जसोदा देवी के चेहरे की रेखाएं झिलमिल कर उठीं। पहाड़, जंगल, वनचर और सभ्यता की नयी संतानें- सबके सब शामिल हैं इस महोल्लास में। वह ढोल बने गर्भ में ही अंगुलियों की थाप से मार दी जायेगी एक दिन! उसके कंठ से औचक एक आर्द्र पुकार फूटी, ‘आजी!’

और सचमुच रेवती का भरोसा टूट गया एक दिन जब उसका सबसे प्रिय सखा, दोस्त, प्रेमी उससे छीन लिया गया। किसने की यह साज़िश? क्या उन्होंने जिन्होंने कुंती बुआ से उनका जीवन छीन लिया था या फिर उन्होंने जिन्होंने उसकी आजी के प्रेम को अर्गला लगा दी थी। उपन्यासकार यहां भावनाओं के ज्वार में बह जाता है और लिखता है, '...अचानक बत्तीस तारों के झुंड वाले सत्ताइसवें नक्षत्र का ज्योतिपुंज आकाश से गिरा और मुखिया लीलाधर यादव के आंगन में बिखर गया। एक आकुल अंधेरा पसर गया था चारों ओर। इस अंधियारे में अपने थरथराते पांवों पर स्मृतियों के चिथड़े ओढ़ी खड़ी थी रेवती। एक विलाप-स्वर फूट रहा था भीतर जो अग्निलीक की तरह धरती से आसमान की ओर उठता जा रहा था।'

अब तक जसोदा देवी की निर्भय गोद में उनकी हथेलियों की छुअन से रेवती को सुकून मिलता रहा था। पर अब यह सुकून कौन देगा? जसोदा देवी कहती, '...जब घाघरा जैसी बिना कूल-किनारों वाली नदी नहीं मरी, उसका जल नहीं सूखा तो भला रेवती का कौन कसूर? क्या दुनिया का कोई सुख सोख पायेगा रेवती की आंखों का लोर? इसीलिए उन्होंने लीलाधर से कहा था, ‘हमको नहीं पता कहिया तक जिनगी है हमारी? आज हैं, कल न रहें। बस एक बचन दो कि इसके साथ घर परिवार में कोनो आदमी अनियाय ना करेगा। इसकी पढ़ाई हर हाल में बंद ना होगी। जितना चाहे पढ़ना, उतना पढ़ाओगे।...इसका विवाह बिना इसकी मरजी के मत करना।’ पर जसोदा देवी के जाते ही सबकुछ बदल गया। न ही उसकी पढ़ाई ही चल पायी और न ही प्रेम। वह तो पूरी तरह ठगी गयी।

जसोदा देवी को यह डर सता रहा था। मर्दों की जननी होकर भी उन्हें मर्दों की बातों पर विश्वास नहीं था। इन मर्दों की दुनिया वे पहले भी देख चुकी थीं। उन्हें आज भी लाल ईंटों से बनी मस्जिद के किनारे बहती घाघरा याद आ रही थी, उसकी छाड़न धाराओं का कज्जल जल याद आ रहा था। और याद आ रहे थे बरसात के दिनों में मस्जिद की मीनारों तक जा पहुंची आवारा लताओं में लटके कुंदरू के पके टेस लाल फल, जिन्हें उसके लिए तोड़ने को उद्दत लीला साह। उसकी हर चाहत को अपने पंखों की उड़ान सौंपते लीला साह। जसोदा देवी इसी से डरती रही थीं। क्या पता कोई आवारा नज़र उनके पंख ही कुतर दे। और हुआ भी यही था। ठीक फगुआ के दिन छाड़न की एक पतली धारा के बीच खड़े लीला किनारे खड़ी जसोदा पर जल उलीच रहे थे। जसोदा भींग रही थी। जसोदा के पीठ के पीछे रामआसरे यादव आ खड़े हुए थे। वे घर से स्नान के लिए निकले थे। लीला ने ही उन्हें सबसे पहले देखा था। छाड़न की रेत में लीला के पांव धंसने लगे थे। पांव खींचने के लिए जितना बूता लगाते लीला, छाड़न की तलहटी और ज़ोर से जकड़ती जाती। लीला से जसोदा का यह अंतिम दरस-परस था। इसलिए उनके स्वर में रेवती के लिए याचना थी। और एक मां होने के नाते लीलाधर के लिए निर्देश भी था। क्योंकि उन्हीं के परिवार के एक लड़के ने रेवती को बाल पकड़कर घसीटा था और उसे कुट्टी-कुट्टी काटकर घाघरा में बहा देने की बात कही थी। इसलिए जसोदा देवी का डर लाज़मी था, क्योंकि अपने बड़े होने का अहंकार और दुनिया को अपने ढंग से चलाने का दर्प मनुष्य को काफ़ी नीचे गिरा देता है। यह अपने परिवार में वे देख चुकी थीं।

पर अग्निलीक में सामाजिक परिवर्तन की कोई पृष्ठभूमि नहीं है और सत्ता का केंद्र सिर्फ़ एक परिवार है। जबकि अशोक राजपथ में सारी लड़ाई सामाजिक परिवर्तन की है। कैसे राजनीतिक दल अपने-अपने फ़ायदे के लिए वैचारिक सिद्धांतों की बलि दे देते हैं, उपन्यास में इस पर ख़ासा ज़ोर दिया गया है। निष्कर्ष यही है कि राजनीति में दिल की कोई ज़रूरत नहीं है। इसीलिए उपन्यास के लगभग अंत में जीवकांत अंशुमन से कहता है, ‘अंशुमन, हम तो एतना दिन में एक्के बात सीखे हैं बाबू, कि पोलटिक्स में दिल का कोनो काम न है। तुम भी इसको दिल से मत लो।’ अंशुमन भी मुस्कुराकर ठंडी आह भरते हुए कहता है, ‘दिल न लेफ़्ट में है न राइट में, बस ढूंढ़ते रह जाओगे!’ यानी इस मसले पर सारी पार्टियां एक हैं। और वे भी इसी सिद्धांत को मानते हैं जो राजनीतिक दलों से जुड़े नहीं हैं। अग्निलीक में इसी दिल को उजाड़ने में लीलाधर यादव का पूरा परिवार शामिल है और जसोदा देवी इसी दिल की बात जीवन-भर करती रही हैं। और यही कारण है कि जीवकांत का मोहभंग राजनीति से हो रहा है। उसे अब नैतिकता, आदर्श, सत्य, न्याय, मूल्य जैसे शब्द सिर्फ़ सैद्धांतिक लगने लगे हैं। हर आदमी एक ‘कम्फ़र्ट ज़ोन’ की तलाश में है। एक सुरक्षित कोना, जहां उसके लिए सब कुछ हो।

पर अग्निलीक में धर्मगत या जातिगत घृणा भी नहीं है। वहां हिंदुओं और मुसलमानों के परिवारों में भले ही सामाजिक रिश्ते नहीं हों, पर एक-दूसरे के सुख-दुख में दोनों काम आते हैं। इस उपन्यास में इसकी एक पूरी कथा मौजूद है। आज का सीवान या पुराना सारण कभी नीलहे अंग्रेज़ों की ज़मींदारी का इलाक़ा हुआ करता था। उपन्यासकार इसीलिए तब की बनी एक लिलही कोठी की चर्चा करता है जो अब खंडहर हो गयी है। सौ-सवा सौ सालों तक नीलहे अंग्रेज़ विपदाओं के असंख्य नीले दाग़ इस देवली गांव की देह, आत्मा और धरती पर लगाते रहे थे। शायद यही वह कारण था कि देवली का चरित्र मूलतः विद्रोही रहा था।

घर बदर, इससे बिल्कुल अलग है। इसमें सामाजिक, राजनीतिक परिवर्तन और उसके संघर्षों की कोई पृष्ठभूमि नहीं है। यह एक परिवार के टूटते दरकते रिश्तों की कहानी है। पटना के आज़ाद नगर मुहल्ले का एक परिवार जिसके पास दूसरे परिवारों की तरह सपनों का एक संसार है। इस परिवार में तीन पीढ़ियों के बाद घर होने का एक सपना साकार होने जा रहा है। पर जैसे कभी-कभी सपने पूरे नहीं हो पाते, वैसे ही इस परिवार का यह सपना भी साकार नहीं हो पाता है। घर बनता तो है पर आधा-अधूरा रह जाता है और फिर बिक जाता है। दुर्गाशंकर दूबे के पुत्र और रामअवतार दूबे के पौत्र कुंदन दूबे जिसे लेखक सुविधा के लिए कुंदू कहकर पुकारता है, का कोई अच्छी-सी नौकरी पा लेने का सपना तो पूरा हो जाता है पर पीढ़ियों से अपना घर होने का सपना नहीं हो पाता। रेलवे के गार्ड की नौकरी करने वाले के लिए घर बनाना आसान काम नहीं होता, पर मां विष्णुप्रिया देवी की प्रेरणा तथा पत्नी शर्मिला शुक्ला के हठ और लगन से यह कार्य शुरू तो हो जाता है तथा काफ़ी समय तक चलता भी है पर कुंदू के तीसरे सहके बेटे कौशल के आक्रामक व्यवहार तथा कुंदन दूबे की बीमारी के चलते बीच में ही रुक जाता है। कुंदन दूबे के पिता के पसंदीदा गायक थे कुंदनलाल सहगल जिनसे प्रभावित होकर उन्होंने अपने इकलौते बेटे का नाम कुंदन रखा था। कुंदन जीवन भर कुंदन बने रहे, उन्होंने पुत्र, पति, भाई और पिता होने का धर्म बख़ूबी निभाया। उपन्यासकार लिखता है, ‘कुंदू इस परिवार के इकलौते चिराग़ थे। आकाश में चंद्रमा समान परिवार में उनकी उपस्थिति थी और एक छोटे से रेवड़ के चरवाहे समान थी उनकी ज़िम्मेवारी। घर में सभी उन्हें भैया कहकर ही बुलाते।’ अपनी चारों बहनों- रागिनी, रमोली, रजनी और रानी के वे बहुत प्रिय थे। रागिनी तो उन्हें बहुत चाहती थीं, प्रेम से जिन्हें वे दिद्दा कहते थे। इन्हीं दिद्दा ने उन्हें जवानी के दिनों में एक जवान और रूपवती विधवा सेठानी से बचाया था। कुंदू एक सेठानी के यहां नौकरी करते हुए यह भूल गये थे कि जब तक विवाह न हो अखंड ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। दिद्दा ने उन्हें समझाया था कि जीवन में परस्त्रीगमन का पूर्ण निषेध माना गया है और एक पुरुष का वीर्य उसकी पत्नी की अमानत होता है।

कुंदन दूबे ने बड़ी ही ईमानदारी से अपनी नौकरी की और एक संतुष्टि का भाव लिये रिटायर हुए। हालांकि यह उनके लिए आसान नहीं था, एक तो रेलवे के गार्ड की नौकरी और वह भी मालगाड़ी के गार्ड की। पर जितना सुखकर जीवन का पूर्वार्द्ध रहा, उतना ही कष्टप्रद जीवन का उत्तरार्द्ध हो गया। उनके दो बेटे - कमल और किशोर तो उनका पूरा ख़याल रखते रहे, पर तीसरे बेटे कौशल की बदतमीज़ियों ने उन्हें पूरी तरह बीमार कर दिया। घर के पास के मंदिर में रहनेवाले पंडित नीलकंठ और उनकी पुत्री ने भी कौशल को पिता के विरुद्ध भड़काया। हमेशा ख़ुश रहनेवाले और दूसरों के काम आनेवाले कुंदन दूबे धीरे-धीरे कुंद होते गये और एक दिन उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। किशोर की दिन-रात की सेवा तथा कमल का मानसिक सहयोग उन्हें बचा नहीं सका। यह उस दूबे परिवार के सपनों का अंत था जिसने कई पीढ़ियों तक किराये के मकान में रहने के बाद एक अपने घर का सपना देखा था। ज़ाहिर है कि कुंदन दूबे की मृत्यु के बाद वह घर बिका और उसकी राशि टुकड़े-टुकड़े में बंट गयी! दूबे परिवार के साथ-साथ शारदा देवी के सपनों का भी अंत हो गया। दूबे परिवार की जो कुलदेवी अब तब दूबे परिवार के सुख-दुख में खड़ी मिलती थीं, वे भी बाज़ार के हवाले हो गयीं। रिश्ते, संस्कार और परंपरा का एकमात्र प्रतीक अब किसी के लिए भी काम का नहीं रहा। बड़ा बेटा कुलदेवी की मूर्त्ति को अपने साथ ले तो गया, पर उसे महत्त्वहीन जानकर ‘एंटीक शॉप’ में बेच आया। कथावाचक के द्वारा मूर्ति के बारे में पूछने पर वह कहता भी है, ‘आप भी न अंकल एकदम से पापा की तरह प्रश्न कर रहे हैं। वह मूर्ति तो मैं इसलिए ले आया था ताकि एक अभिशाप, एक बंधन से मुक्त हो सके परिवार। पापा जीवनपर्यंत इस बंधन से लिपटे और इसी में लिथड़े रहे। इसी के चलते वे ‘ग्रो’ नहीं कर सके। जीवन भर एक खूंटे के इर्दगिर्द ही नाचते रहे वे। इससे इतर जिंदगी की विराटता, इसकी विविधता के बारे में कुछ न सोच सके। आपको सच बतला देता हूं कि मैंने उसे एक एंटीक शॉप में बेच दिया। पैसा अच्छा मिल गया हमें। उस पैसे से दोस्तों के संग पार्टी की। बहुत मज़ा आया।’

कुंदन दूबे और उनके पुरखों ने कुलदेवी की मूर्ति के बहाने जो संस्कार अर्जित किये थे या उन्हें बचाया था, वे बाद की पीढ़ी में बिखर गये। रिश्ते, संबंध, जुड़ाव का जो एक संस्कार था, वह देखते-देखते धराशायी हो गया। शारदा देवी शर्मिला शुक्ला होकर अपने पैतृक गांव लौट गयीं और अपने बचपन के गांव में छोटे बच्चों का एक स्कूल खोल लिया। यह सपना तो कुंदन दूबे का भी था जब उन्होंने कहा था, ‘सोच रहा हूं कि एक छोटा सा स्कूल खोल लूं! झोपड़पट्टी और गली में डांव-डांव फिरते बच्चों को इकट्ठाकर पढ़ाऊं। उनके लिए कॉपी-किताब की व्यवस्था करूं।’ कमल इसकी भी जानकारी कथावाचक को देता है, ‘मां मस्त हैं। उनके स्कूल में भले ही अभी चार कमरे हों लेकिन बच्चे सौ से ऊपर ही हैं। अब वे केवल तीन बेटों की नहीं, सैकड़ों बच्चों की मां हैं।’ दुख की बात बस यही थी कि शर्मिला शुक्ला ने स्कूल की व्यस्तता के बहाने अपने पति रेलवे के रिटायर्ड गार्ड कुंदन दूबे को पूरी तरह भुला दिया था। पहले भी ज़्यादातर समय बच्चों की पढ़ाई के बहाने अकेले ही रहना पसंद करती थीं और कुंदन दूबे को सिर्फ़ जैविक सुख के लिए इस्तेमाल करती थीं। इसीलिए उन्होंने घर में बची उनकी एकमात्र तस्वीर को भी अपने साथ रखने से इंकार कर दिया था। यह कुंदू की जवानी के दिनों की श्वेत-श्याम तस्वीर थी जिसे कथावाचक अपने घर ले आया था। इस तस्वीर को अपने साथ कोई नहीं ले जाने को तैयार था जिसमें कुंदू अपलक सामने ताकते हुए मुस्करा रहे थे। कुंदन दूबे की यह सहज मुस्कराहट शायद किसी को पसंद नहीं थी क्योंकि सभी को उन्हें परेशान देखने की आदत हो गयी थी। उनका पगला बेटा कौशल कह भी रहा था, ‘डर लग रहा है इस तस्वीर की ओर देखकर!’ पर कथावाचक के लिए यह तस्वीर स्मृतियों का एक पुंज थी। एक गुज़रा हुआ कालखंड, जो मनुष्य के संघर्ष और उसकी जिजीविषा का एक स्वर था। कुंदू त्योहार की छुट्टियों में डबल ड्यूटी करते क्योंकि उसके एवज़ में उन्हें दुगना वेतन मिलता। अम्मा फ़ोनकर बिगड़तीं तो कुंदू हंसते हुए जवाब देते, ‘रेलवे की नौकरी है अम्मा, पर्व-त्योहार के दिन गाड़ी का चलना थोड़े न बंद हो जाता है। और वे यह सब इसलिए करते ताकि घर की खुशियां बनी रहें। पर दूबे जी की बाड़ी यानी कुंदन दूबे का वह आधा-अधूरा आशियाना, जिसके ऊपर 'विष्णुप्रिया' भवन अंकित था, अब दूसरे का हो चुका था। हालांकि मुहल्ले के लोग उसे अभी भी 'दूबे जी की बाड़ी' कहते थे।

इन तीनों उपन्यासों में नयी पीढ़ी के तीन अलग-अलग पात्र मौजूद हैं। अशोक राजपथ में जीवकांत, अग्निलीक में रेवती तथा घर बदर में कमल। यहां जीवकांत के आदर्श अलग हैं, रेवती के अलग और कमल के भी अलग। जीवकांत यही सोचता है कि वह ऐसी लड़ाई में क्यों शामिल हो जिसमें उसके विश्वास की हार निश्चित है। वह रीता अधिकारी की इन बातों से चकित है कि ‘आदर्श-वादर्श कुछ नहीं होता। एक इल्यूज़न। नैतिक अवधारणा है बस।’ इसीलिए उसके मन में इन चीज़ों से पलायन का विचार जन्म लेता है। रेवती भी अपना जीवन अपने आदर्शों के हिसाब से ही जीना चाहती है, पर अपने बाबा के प्रति उपजी भावनाओं के वश में आकर अपना फ़ैसला बदल लेती है और पंचायत की राजनीति में रम जाती है। हालांकि मनोहर के प्रति उसकी अपनी भावनाएं नहीं बदलतीं और उस रिश्ते को एक नाम देने के सवाल पर भी वह पीछे नहीं हटती, भले ही इसका मूल्य उसे चुकाना पड़ता है। घर बदर का कमल एक निम्नमध्यवर्गीय परिवार का लड़का है जो बहुत नीचे से उस स्तर तक पहुंचा है, इसलिए अपने पिता या परिवार के प्रति कभी वह अनादर का भाव लेकर खड़ा नहीं होता। कमल भी रेवती की तरह उस चौथी पीढ़ी का है जिसके सामने बदलती दुनिया के नये-नये सपने हैं। और भावनाओं में फंसकर वह उन सपनों की बलि नहीं चाहता। इसलिए उसका यह सोचना सही है कि ज़्यादा जड़ हो गयी चीज़ें मनुष्य के उत्कर्ष में हमेशा बाधक सिद्ध होती हैं। उसके पिता कुंदन दूबे पूजा-पाठ में डूबे रहकर भी संबंधों का कोई संसार नहीं गढ़ पाते। उसे बराबर लगता कि अगर ऐसा हुआ होता तो उनकी दुनिया ही अलग होती।

संतोष दीक्षित, हृषीकेश सुलभ और अवधेश प्रीत के ये उपन्यास लगभग एक ही समय में लिखे गये हैं, पर इनमें आये अलग-अलग कालखंडों के बहाने हमें अतीत की जड़ों की ओर झांकने का मौक़ा मिल जाता है। इन उपन्यासों में ऐसी पीढ़ियां मौजूद हैं जो हमें तत्कालीन समय की याद दिलाती हैं और एक बेहतर कल निर्मित करने की दिशा में मदद पहुंचाती हैं। जार्ज मूर कहते हैं कि 'उपन्यास जिस युग में हम जी रहे हैं, उसके सामाजिक परिवेश का बिल्कुल पूर्ण और सही-सही पुनर्निर्माण है।' इस लिहाज़ से इन उपन्यासों के जो निर्माणात्मक तत्त्व हैं, वे एक पाठक को बार-बार अपनी ओर लौटने को विवश करते हैं।

                       मो.  9934665938

 पुस्‍तक संदर्भ

अशोक राजपथ :  अवधेश प्रीत, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्‍ली, 2018

अग्निलीक : हृषीकेश सुलभ,  राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्‍ली, 2019 

घर बदर : संतोष दीक्षित, सेतु प्रकाशन, नोएडा, 2020

 

 

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