उपन्यास चर्चा-2

पारसा बीबी से मुलाक़ात

(ज़किया मशहदी के लघु उपन्यास पारसा बीबी का बघार के संदर्भ में)

अर्जुमंद आरा

ज़किया मशहदी उर्दू की कहानीकार, उपन्यासकार और अनुवादक हैं। वे लखनऊ में पैदा हुईं और पटना में रहती हैं। उन्होंने 1978 में लिखना शुरू किया और अब तक उनके छ: कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। आंखन देखी, नक़्शे-नातमाम, पराये चेहरे, सदा-ए बाज़गश्त, तारीक राहों के मुसाफ़िर और ये जहाने-रंगो-बू उनके कहानी संग्रह हैं। 'क़िस्सा जानकी रमन पांडे' और 'मां' उनकी बहुचर्चित कहानियां हैं।

 ज़किया मशहदी का लघु उपन्यास पारसा बीबी का बघार 2018 में दिल्ली में एजुकेशनल पब्लिशिंग हाउस से प्रकाशित हुआ। यहां मैं इसी लघु उपन्यास का परिचय कराना चाहती हूं। खुद ज़किया मशहदी का कहना है कि इस उपन्यास के ज़रिये वे उस औरत की तलाश में निकली हैं जिसको वे 'पारसा बीबी' का नाम देती हैं, जिसको वे कई पीढ़ियों से देख रही हैं, और हर नयी पीढ़ी में उसका रूप बदलता गया, फिर भी वह अपने मूल के साथ मौजूद है. उपन्यास के प्राक्कथन में वे लिखती हैं :

पारसा बीबी की कहानी सचमुच मेरी अपनी दादी ने सुनायी थी, और मेरी वालिदा (मां) ने आधे घूंघट के नीचे मुस्कुरा कर कहा था, ख़ुदा का शुक्र है हमारे घर में घी की कमी नहीं है. और बस. लेकिन उस वक़्त बहुत से घरों में घी की कमी थी और पारसा बीबियों की बहुतायत... मेरी नस्ल चॉकलेट की जगह घर के बने शकरपारे और गाजर का हलवा खाती और गुड़ियों से खेला करती थी. अब मैं बच्चों को मोबाइल और लैपटॉप पर गेम्स खेलते और कुछ सूरतों में अश्लील फ़िल्में देखते हुए देख रही हूं। इस भीड़ में, टेक्नोलॉजी की इस तरक्क़ी में पारसा बीबी कहां है? उसमें कितनी तब्दीलियां आयीं? मैंने बड़ी लगन और ध्यान के साथ उसे ढूंढ़ा और जिस रूप में पाया, उसे यहां उतारने की कोशिश की है।

यह दुनिया यों ही चलती है विशेषत: औरतों की दुनिया—अपनी सुस्त-रफ़्तार बेदारी और रेडीकल फ़ेमिनिस्ट आंदोलनों के बावजूद पारसा बीबी का संघर्ष आमतौर से रसोईघर और घर संभालने तक ही सीमित रहता है। वे औरतें जो आंदोलन करती हैं और सड़कों, चौकों और फ़ुटपाथों पर प्रदर्शन करती हैं, शाम को घर लौट कर अपने-अपने प्यारे पति और जिगर के टुकड़ों के लिए पारसा बीबी बन जाती हैं। घर जा कर वे 'अरहर की सुनहरी सुनहरी दाल' बघारती हैं जिसकी सोंधी ख़ुशबू से आसपास के घर सुगंधित हो जाते हैं। कहीं उनकी ख़ूबियों और सुघड़पन का गुणगान किया जाता है, कहीं देवी बना कर पूजी जाती हैं। या फिर इसका उलट भी होता है। अगर बघार जल जाये तो? इस फूहड़पन पर वे गालियां भी खाती हैं, लात घूंसे भी।

घर के ‘सुरक्षित’ पवित्र वातावरण और घर के बाहर असुरक्षित समाज में कभी देवी और कभी डायन के फ्रेमों में जड़ी हुई ये औरतें आख़िर ऐसा क्या करें कि इन दो परस्परविरोधी पहचानों के फ्रेमों से निकल कर जीती-जागती हस्ती बन जायें? ऐसा क्या करें कि पुरुषप्रधान नैतिकता के पैमाने और अपेक्षाओं को बदल डालें ताकि केवल इंसान बनी रह सकें? अपनी सारी शक्ति और कमज़ोरी के साथ समाज में वे भी इसी तरह स्वीकार की जायें जैसे पुरुषों को स्वीकारा जाता है? इससे जन्मी घुटन में, जो केवल उन्हीं के लिए विशिष्ट है, वे कौन सा तरीक़ा अपनायें कि उनकी ज़िंदगी में भी थोड़े सुकून और थोड़ी फुरसत की कुछ ऐसी घड़ियां मयस्सर आ जायें जिनमें वे भी अपनी पसंद के काम कर सकें? चाहे सैर-सपाटा हो, चाहे कागज़-क़लम, या किताब, या ब्रश से चित्र उकेरें—कुछ भी—जो भी जी में आये। आज़ादी की भावना के साथ। सुकून और एकाग्रता के कुछ पल।

नारी-जागरूकता के विभिन्न आयामों में विद्रोही औरतों का संघर्ष शायद अपने हिस्से की इन्हीं कुछ घड़ियों के लिए रहा होगा ताकि वे अपने लिए समाज में कोई स्थान, कुछ प्रतिष्ठा कमा सकें।

हमारे देश में 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' को एक लोक्रप्रिय नारा बनाया गया है, जिसका प्रचार-प्रसार सरकार बड़े पैमाने पर औरतों के सशक्तिकरण के लिए कर रही है। लेकिन ज़ाहिर है इस नारे की शब्दावली में ही यह इशारा निहित है कि हमारे समाज में औरतों की समस्या ‘बराबरी’ के दर्जे से कहीं ज़्यादा ‘अस्तित्व’ की है। अभी कुछ साल पहले (5 सितंबर 2017) निडर सहाफ़ी गौरी लंकेश को गोली मार दी गयी। सिर्फ़ इसलिए कि उसके पास अपनी एक आवाज़ थी, वह एक आज़ाद और बेबाक राय की मालिक थी, उसे समाज पर आलोचनात्मक नज़र डालना आता था और वह अपनी राय को व्यक्त करना जानती थी। उन्ही दिनों सोशल मीडि‍या पर किसी ने उक्त नारे पर तंज़ कसा था—

बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ. पढ़ लिख कर ज़्यादा बोले तो गोली से उड़ाओ।

तो यह है हमारा समाज जिसने बहुत ‘तरक़्क़ी’ कर ली है, और औरतों को अपनी पसंद की ज़िंदगी चुनने की बहुत सी ‘आज़ादियां’ दे दी हैं। उनकी ये आज़ादियां बंधी हुई हैं।

टकराव और वर्गसंघर्ष की इस दुनिया का एक अजब पहलू यह है कि जागरूकता और जद्दोजहद जितनी बढ़ती है, समाजी दबावों का जाल उतना ही पेचीदा होता जाता है, कसता जाता है। ख़ासतौर से जागरूक और बेदार-ज़हन महिलाएं ख़ुद को ऐसे दलदल के बीच फंसा पाती हैं जिसमें से निकलने की हर कोशिश उन्हें और अधिक गहराई में धंसा देती है। उनके लिए दलदल का यह जाल किसने रचा? क्यों रचा? उनकी गुलामी से कौन से हित पल रहे हैं? इन सवालों के जवाब शोषण की जिस व्यस्था तक ले जाते हैं उसकी नज़र में औरतों की जागरुकता इसी तरह का एक बड़ा ख़तरा है जैसा कि ग़रीबों, दलितों, आदिवासियों, बल्कि अन्याय झेल रहे हर वर्ग के महकूमों की जागरूकता ख़तरा बन जाती है। ऐसे में संघर्ष—अस्तित्व की जंग—तो जारी रहेगा ही।

ये और ऐसे ही सवाल शायद उन सबको सताते हैं जो आंखें खोल कर दुनिया की लीला देखते हैं। ज़किया मशहदी का उपन्यास, पारसा बीबी का बघार मैंने इसी संशय के साथ पढ़ना शुरू किया कि देखूं औरत के अस्तित्व और आज़ादी के बुनियादी सवालों को वे किस नज़र से देखती हैं, विशेषत: इसलिए भी कि उत्तरी भारत की हम सब औरतों की तरह ज़किया मशहदी ने भी समाज की कड़ी कमान के तीर जैसी परंपराओं और पाबंदियों में रह कर अपने लिए अपने हिस्से का एक गोशा तराशा है। अपना गोशा तामीर करने में अक्सर क्या क़ीमतें अदा करनी पड़ती हैं, अपनी शनाख़्त बनाने में कितना ख़ून पसीना एक करना पड़ता है, उसकी भी एक अलग कहानी होती है जो ज़्यादातर अनकही रह जाती है। लेकिन यही क्या कम है कि औरतें अपने-अपने गोशे तराश रही हैं—अपने हिस्से का एक आसमान जिसमें वे आज़ादी से उड़ान भरती हैं।

समाज के जलते हुए सवालों को ज़हन में रखे बिना साहित्य को पढ़ना मेरे नज़दीक वक़्त-गुज़ारी की प्रक्रिया से ज़्यादा कुछ नहीं। और वक़्त-गुज़ारी ही करनी हो तो आंखों का तेल टपकाने के बजाय बाक़ी दुनिया की तरह तफ़रीह के ज़्यादा आसान और सस्ते रास्ते क्यों न अपनाये जायें? पढ़ना एक संजीदा काम है, ज़हन के ज़िंदा होने का सबूत है। यह हमारे सामाजिक जीवनयापन से सीधा सरोकार रखता है। हमें ज़्यादा संवेदनशील, ज़्यादा दानिशमंद बनाता है। इसीलिए अच्छे साहित्य की जुस्तजू अपने आप में एक जिहाद बन जाती है। कोई अच्छी किताब मिल जाये तो वह ऐसी ही है जैसे रेगिस्तान में भटकते प्यासे मुसाफ़िर को पानी का चश्मा नज़र आ जाये। ज़किया मशहदी जैसे अदीबों की तहरीरें हमारे लिए ऐसा ही आब-ए-हयात बन जाती हैं। इसमें शक नहीं कि ज़किया मशहदी उर्दू फ़िक्शन की बहुत मोतबर आवाज़ हैं। उनकी कोई कहानी जब भी पढ़ी तो उसने बेचैन भी किया, मसरूर भी—क्योंकि वे महज़ कहानी नहीं लिखतीं, बल्कि हमारे समाज के किसी न किसी पहलू पर एक बेदार ज़हन और संवेदनशील अदीब का रद्द-ए-अमल पेश करती हैं। वे सोचना सिखाती हैं, और इतनी हिम्मत और हौसला रखती हैं कि मां जैसी पेचीदा और परंपरा को तोड़ती कहानियां लिख सकें। उनकी तहरीर की खूबियां एक ज़िंदा फ़िक्शन में ज़िंदा समाज की प्रतीक बन जाती हैं।

पारसा बीबी का बघार उत्तर भारत के मध्यम वर्ग के मुस्लिम घराने के बदलते हुए मूल्यों और संघर्ष की कहानी है। मूल्यों में तब्दीली की रफ़्तार और प्रक्रिया को दिखाने के लिए ज़किया मशहदी ने चार पीढ़ियों की औरतों को तर्जुमान बनाया है—मुख्य पात्र (क़मर), उस की दादी और अम्मा, और बाद में ख़ुद उस की बेटियां रिज़वाना और इमराना। दादी तो हिंदोस्तान में औरतों के हज़ारों साल के अतीत की नुमाइंदा हैं जिनके नज़दीक औरत का बुनियादी काम अपनी ससुराल में बे-ज़बान ग़ुलाम बन कर रहना है, और क़मर की अम्मा अपनी सास की कल्पना के मुताबिक़ जीने की कोशिश में उम्र गुज़ारती हैं। अलबत्ता बाक़ी औरतें अपने अपने समय में जीती हैं और उनके रवैये बदलते हुए ज़माने के साथ आने वाली तब्दीलियों का प्रतिबिंब हैं। शिक्षा, कैरियर, मुलाज़मत, शादी, पर्दा, फ़ैशन, घर से निकलने की आज़ादी वग़ैरह ऐसे बुनियादी मामले हैं जिनसे हर घर ख़ानदान का वास्ता पड़ता है। क़मर और उसकी बेटियों की कहानी में ज़किया मशहदी इन्हीं मामलों के हवाले से यह दिखाती हैं कि ये बदलाव किस तरह के हैं, उनके कौन से पहलू और परिणाम हैं।

स्पष्ट है कि उपन्यास की विषय-वस्तु नयी नहीं है, यह तो उनका कहानी सुनाने का अंदाज़ है जो हमें बांध कर रखता है और दो पीढ़ियों पहले के मध्यमवर्गीय मुस्लिम परिवार के रहन-सहन और जीवन मूल्यों से परिचित कराता है। मिसाल के तौर पर, जब नन्ही क़मर की मामी पहली बार उसकी दो चोटियां बनाती हैं, तो दादी भला बुरा कहती हैं। अम्मा वैसे तो सास के सामने बिलकुल मिट्टी की मूरत हैं लेकिन अपने मायके वालों को बुरा-भला सुनना उन्हें दुखी कर जाता है. वे क़मर को समझती हैं:

हमारे वक़्त में लड़कियों को मांग नहीं निकालने देते थे। बग़ैर मांग निकाले एक चोटी बंधा करती थी... तो बेटा तुम्हें तो मांग निकालने की इजाज़त है। क्यों दो चोटियों की ज़िद करके दादी की डांट सुनती हो और मुमानी को बुरा कहलवाती हो।

इस हिस्से को पढ़ा तो जैसे ज़हन के किसी गोशे में झमाका सा हुआ। यह तो दादी का ज़माना नहीं, ख़ुद हमारे बचपन की कहानी है, जब हमारी चोटी बांधते हुए अम्मी ने यह बात बतायी थी कि उनके ज़माने में शरीफ़ लड़कियां मांग नहीं निकाला करतीं थीं। साथ ही यह भी याद आया कि लड़कियों के लिए बाल कटवाना कितनी बड़ी बुराई थी। मैं शायद सातवें दर्जे में पढ़ती थी जब हमारी संस्कृत की टीचर ने कटे हुए बालों वाली एक लड़की को बाल खींच-खींच कर पीटा था और पीटते हुए कहा था कि इस फ़ैशन को आग लगे, तुम लोग पढ़ने नहीं, फ़ैशन दिखाने आती हो... फिर हुक्म दिया था कि कल से रिबन डालकर दो चोटी बांध कर आना। वह हमारी क्लास की एकमात्र लड़की थी जिसके बाल कटे थे। बाक़ी सब अनुशासित पारसा बीबी थीं और लाल रिबन डाल कर दो चोटी बनाकर स्कूल जाती थीं।

पढ़ते-पढ़ते यह भी याद आया कि औरतों की आज़ादी और बदलते हुए मूल्यों और रवैयों पर इंतिज़ार हुसैन की एक कहानी पढ़ी थी—'महल वाले'। इस कहानी में पारंपरिक मुस्लिम परिवार में एक बाप ने आधुनिकता दिखाते हुए उस्तानी बुला कर बेटी को घर में ही पढ़ाया था तो ख़ानदान भर में इसे एक बग़ावत का क़दम समझा गया था। लेकिन जब बेटी ने नयी काट के गले का जंपर सी कर पहना तो उसकी मां की नींदें उड़ गयीं और उसने झटपट बेटी के हाथ पीले करा दिये। यही बेटी जब मां बनी तो अपनी मां की तरह तंग-नज़र नहीं थी। उनके मियां पढ़े-लिखे आधुनिक विचारों के आदमी थे। उन्होंने अपनी बेटी को साहित्यिक पत्रिका, इस्मत तक मंगाने की इजाज़त दी थी, और जब बेटी के नाम का रिसाला डाक से आया तो मोहल्ले-भर में इस बेग़ैरती के चर्चे हुए कि महल वालों की बेटी का नाम एक रिसाले पर लिख कर आया है जो अजनबी अपरिचित लोगों के हाथों से होता हुआ पहुंचा है। यानी यह परदे के ख़िलाफ़ बात थी, लड़की का नाम भी पते पर लिखा जाये। आधुनिक ख़यालात के माता-पिता ने इस जहालत को नज़रअंदाज़ कर दिया था, लेकिन जब मां को एक दिन बेटी के तकिये के नीचे छिपा हुआ इस्मत चुग़ताई की कहानियों का संकलन मिला तो उसकी भी नींदें उड़ गयीं और उसने अपने शौहर से कहा कि कोई अच्छा सा रिश्ता देखकर अब लड़की के हाथ फ़ौरन पीले कर देने चाहिए। ज़ाहिर है कि यह कहानी 'मुस्लिम अभिजात वर्ग की इसी कशमकश की कहानी थी कि बदलते हुए मूल्यों को किस हद तक क़बूल किया जाये। अपने वक़्त के रोशनख़याल  लोग भी, आने वाले समय के बदलते हुए मूल्यों को स्वीकार नहीं कर पाते और अपने बच्चों की नज़र में संकीर्ण विचारों वाले साबित हो जाते हैं। यह ऐसी हक़ीक़त है जो हर ज़माने पर खरी उतरती है। ज़किया मशहदी के उपन्यास में भी यही कशमकश जा-ब-जा नज़र आती है। क़मर, जो तालीमयाफ़्ता है, स्कूल में पढ़ाती है, और जिसने एक आधुनिक दृष्टिकोण अपनाते हुए अपनी बेटियों को आधुनिक शिक्षा और विचारों के साथ जीना सिखाया है, कई बार यह महसूस करती है कि वह ख़ुद अपनी मां की तरह तंग-नज़र होती जा रही है।

यह कहानी बज़ाहिर क़मर और उसकी बेटियों की ज़िंदगी, उनकी समस्याओं और संघर्षों की कहानी है। लेकिन यह एकहरी या सपाट बिल्कुल नहीं है, बल्कि इन पात्रों के वसीले से दरअसल मध्यम वर्ग के बदलते हुए मूल्यों और ज़िदंगी की अक्कासी की गयी हैं। इसके अतिरिक्त गंगा-जमुनी तहज़ीब में विभिन्न समुदायों के आपसी रिश्तों को भी ज़किया मशहदी ने माहिराना संतुलन के साथ कहानी में पिरोया है। क़मर की सहेली मीरा को बेटियां पैदा करने के सबब अपनी ससुराल में जिन तकलीफ़ों से गुज़रना पड़ा और उसकी ज़िंदगी का बहुत दुखद अंत हुआ, वह हिंदुस्तानी औरतों की अधिक बड़ी समस्याओं को ज़्यादा गहराई से रेखांकित करता है।

कई पीढ़ियों के विचारों और मूल्यों में परस्परविरोध और टकराव की इस कहानी में विभिन्न रंगों और लकीरों को ज़किया मशहदी ने कामयाबी से उकेरा है। यह एक यादगार और दिलचस्प रचना है जिसमें गुज़रे ज़माने का नोस्टाल्जिया भी है और बदलते हुए दौर में औरत के अस्तित्व और उम्मीद का ऐसा पैग़ाम भी जो हमारी उंगली पकड़ कर हमें आहिस्तगी से मुस्तक़बिल की कश्ती में सवार करा देता है और यों एक नये सफ़र का आग़ाज़ होता है।

मो. 9899920284

पुस्तक संदर्भ

पारसा बीबी का बघार : ज़किया मशहदी, एजुकेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, 2018

 

 

 

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