काव्य चर्चा-2

 एक अच्छे कवि की सामर्थ्य

मुकेश कुमार

 1. मनुष्यता के ऋतुरैण में कविता का ग्रीष्म

एक अच्छे कवि की सामर्थ्य केवल इतनी नहीं होती कि वह जो दिख रहा है उसे संवेदनशीलता के साथ सशक्त भाषा के ज़रिये प्रभावशाली ढंग से व्यक्त कर सकता है और उसके उस अर्थ को रचता एवं परिभाषित करता है जो सामान्य की नज़र में नहीं आता। उसकी सामर्थ्य की परीक्षा एक से अधिक मोर्चों पर होती है। उसे विचारों, संवेदनाओं और संप्रेषण, हर प्रतिमान पर खरा उतरना होता है। इसीलिए अच्छी कविता भी बहुस्तरीय होती है, वह चालू मुहावरों को तोड़कर कहन का नया अंदाज़ रचती है। वह अपनी भाषा या गढ़न से केवल चमत्कृत नहीं करती, कोई कौतूहल या खुशनुमा एहसास ही पैदा नहीं करती बल्कि पाठक के अंदर एक बेचैनी को भी जन्म देती है। वह देश और काल दोनों का अतिक्रमण करती है, उनके आरपार देखती है और वर्तमान को अतीत एवं भविष्य से जोड़ती भी चलती है।

शिरीष कुमार मौर्य इसीलिए एक सशक्त कवि हैं क्योंकि वे बखूबी ये काम करते रहे हैं। उनके पहले के कविता संग्रहों को हिंदी जगत में जैसी स्वीकृति मिली, वह इसका प्रमाण है। उनका नया कविता संग्रह, ऋतुरैण इस विश्वास को और भी पुख़्ता करता है कि एक कवि के रूप में उनकी यात्रा नये मार्गों का अन्वेषण करते हुए निरंतर आगे बढ़ रही है। ऋतुरैण में उन्होंने ऋतुओं के आवागमन को एक नयी दृष्टि के साथ देखा और प्रस्तुत किया है। यह नयी दृष्टि गहरी मानवीय संवेदनाओं और सामाजिक सरोकारों से निर्मित है। यह दृष्टि उनमें पहले नहीं थी ऐसा नहीं है। इस दृष्टि के दर्शन वे अपनी पूर्व की कविताओं में भी कराते रहे हैं लेकिन जब हम उसे हिंदी साहित्य में ऋतु वर्णन की परंपरा के संदर्भ में देखते हैं तो फिर से हमें एक नयेपन का अनुभव होता है :

कवि अपनी मिट्टी से पूछो

चैत में गेहूं कटेगा कि नहीं?

जेठ में तुम्हारे भीतर का गुलमोहर

खिलेगा कि नहीं?

उदाहरण के लिए, हिंदी साहित्य वसंत ऋतु के गुणगान से भरा पड़ा है। वसंत को ऋतुराज कहा गया है और उसकी शान में बहुत कुछ लिखा गया है। मगर ऋतुरैण का रचयिता वसंत से खिन्न नज़र आता है :

तुम्हारा वसंत यह

भारत का लोकतंत्र है

मैं उस राह पर

ज़हरखुरानी के बाद भी बचा हुआ

कोई मुसाफ़िर।

और

मुंह में दबी हुई थैली विकट ज़हर की

दिल में कमीनगी है पर थोबड़े वसंत के

वह तो वसंत को एक छलावे की तरह देखता है और उसे सीधे लांघकर ग्रीष्म में चला जाना चाहता है। शिशिर उसके लिए गहरे संघर्ष का प्रतीक है, क्योंकि ऋतुओं को वह पहाड़ों के संदर्भ में देखता है और पहाड़ों पर जाड़ों का जीवन भारी जद्दोजहद से भरा होता है। शिशिर के बाद इसीलिए वह ग्रीष्म में उल्लसित होता है, उसके स्वागत के लिए तत्पर नज़र आता है :

शिशिर मेरा माध्यम है

जलती लकड़ियों की लपट शिशिर में

मेरा वसंत है

ग्रीष्म में राह पर थोड़ी छांव

घर लौटने पर ठंडा पानी और प्रिय चेहरे परिजनों के

मेरे जीवन में रोज़ उतरने वाले वसंत हैं

ऋतुरैण रुढ़ि के मुताबिक़ चैत्र में मायके की याद और भाई की प्रतीक्षा में गाया जाने वाला गीत है, लेकिन इसका एक अर्थ ऋतुओं का बदलना भी है। अगर हम इन्हें बिंब की तरह लें तो कविता संग्रह में हमें इन सबके विभिन्न रूप देखने को मिलते हैं :

शिशिर की रात

वसंत की स्मृति में कोई रोता है

उसे वसंत की उम्मीद और स्वप्न में

होना चाहिए

पर वह रोता है

बस यही तो मेरे मुल्क में ऋतुरैण होता है।  

यहीं हमें कवि की विचार-दृष्टि को समझने का मौक़ा भी मिलता है। वह ऋतुओं को विलासितापूर्ण जीवन जीने वाले एक छोटे से वर्ग के मन बहलाव के रूप में नहीं देखता, जो कि रीतिकाल के कवियों में प्रचुरता से पाया जाता है, इसके विपरीत वह मेहनतकश वर्ग और ऋतुओं के संबंधों के द्वंद्व को उभारते हुए एक सघन तनाव रचता है। कहा जा सकता है कि शिरीष अपने कविता-कर्म में कल्पनाशील होते हुए भी काल्पनिकता से अधिक यथार्थ पर अवलंबित कविताएं रचते हैं :

वह जो गंध उठती है

विकट जैविक

गलते-सड़ते हुए पत्तों से ढकी धरती पर

प्यारी है कि नहीं?

 

विचार से भरा जीवन

अब भी एक जैविक गंध

है कि नहीं?

एक दूसरी परंपरा जिसमें ऋतुएं अकसर क़हर बनकर मानव जीवन पर टूट पड़ती हैं उनकी भी है। लेकिन शिरीष की कविताओं में ऋतुओं का आवागमन प्राकृतिक आपदा के रूप में नहीं होता, वह मानवीय त्रासदी के रूप में प्रकट होता है। इसीलिए वे ऋतुओं की बात करते हुए राजनीति पर आक्षेप करने से नहीं हिचकिचाते :

दंगा करने वालों के वसंत हैं

इस देश में

जबकि मनुष्यता के वसंत होने थे।

और

कपटराज-नीति और विकट समाज के

इस समय में

आपको याद किया जा सकता है

थक कर घर जाने के लिए

या किसी और समय में जाकर

मर जाने के लिए।

यहां शिरीष प्रतिरोध की सैद्धांतिकी गढ़ते हुए दिखते हैं। यह कहना शायद ज़्यादा सही हो कि उनकी कविता में विचार तो है मगर इससे ज़्यादा कहीं उनके विचारों के अंदर कविता अवस्थित है। यह प्रच्छन तौर पर नहीं है और न नारेबाज़ी के रूप में ही। यह एक चेतनासंपन्न कवि का जागरूक हस्तक्षेप है। और हां, वे ऐसा करते हुए कविता के रस को न केवल बचाये रखते हैं, बल्कि एक नये तरह का आस्वाद गढ़ते भी हैं ।

 2. तुम्‍हें प्‍यार करते हुए : मुंह में गुड़ की तरह घुलता प्रेम-रस

हम बहुत विकट समय में पहुंच गये हैं। यह समय जो नफ़रतों और हिंसा से भरा हुआ है और जिसमें प्रेम एक वर्जित तथा बेहद ख़तरनाक़ शब्द जान पड़ता है। हर तरफ प्रेम के दुश्मन दिखलायी पड़ते हैं। माथे पर तिलक लगाये, गले में भगवा गमछा डाले घृणा से सराबोर ये लोग प्रेम को किसी तरह से बर्दाश्त करने, बख्शने के लिए तैयार नहीं हैं। दूसरे धर्मों, जातियों के युवक-युवतियों से प्रेम करने पर तो उन्हें आपत्ति है ही, सहधर्मियों-सजातियों से प्रेम संबंध बनाने पर भी वे लाठी-भाले लेकर उन पर टूट पड़ते हैं। तमाम तरह की कुंठाओं से ग्रस्त ये आपराधिक गिरोह राजनीतिक दलों के लिए एक ऐसा मानस तैयार करने के अभियान का हिस्सा हैं, जिससे वे सत्ता की फ़सल काट सकें। ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक समाज को तुष्ट करने वाले इस हिंसक गंठजोड़ ने प्रेम को एक ऐसे शब्द से जोड़ दिया है जो वैसे तो दूसरे पवित्र अर्थ रखता है मगर इस्लामोफ़ोबिया से ग्रस्त समाज उसे धार्मिक संकट के तौर पर देखता है। 'लव जिहाद' नामक यह शब्द-युग्म प्रेमविरोधी भावनाओं की चरम अभिव्यक्ति बन गया है।

ज़ाहिर है कि जब प्रेम करना तो दूर, प्रेम की बात करना भी कठिन हो रहा हो तो प्रेम की कविताएं लिखना और भी मुश्किल काम है। बाहर चल रही प्रेम-विरोधी इस उथल-पुथल से अप्रभावित रहते हुए प्रेम के बारे में सोचना और उन्हें शब्दों में ढालना एक दुष्कर चुनौती से कम नहीं है। ऐसे समय में अनुभूतियां सुन्न पड़ जाती हैं और शब्द गूंगे हो जाते हैं। लेकिन शायद कई बार कुछ लोगों के साथ इसका उल्टा भी घटित होता है, प्रेम की उदात्त भावनाएं और भी ज़ोर मारने लगती हैं, जैसा कि सुपरिचित कवि पवन करण के साथ हुआ है। उनका ताज़ा कविता संग्रह तुम्हें प्यार करते हुए में इसे देखा और महसूस किया जा सकता है।

यह कविता संग्रह कई मायनों में विशिष्ट है। अव्वल तो यह हिंदी में प्रचिलित प्रेम कविताओं की विषयवस्तु और छंद से हटकर है। पवन की प्रेम कविताओं में स्त्री न तो कमतर है और न ही केवल भोग की वस्तु। वह बराबर की साझीदार है और किसी भी तरह से प्रेम और प्रेमी पर उसका अधिकार कम नहीं दिखता। इसके विपरीत वह अधिक अभिमानिनी है और प्रेम में ज़्यादा सक्रिय और डूबी हुई भी। यह शायद इसलिए भी संभव हुआ है कि कवि के अंदर एक स्त्री है और कवि परकाया प्रवेश के ज़रिये उसे उसके उसी रूप में प्रस्तुत करने से हिचकिचाता नहीं है। अपने पहले के कविता संग्रहों में भी वह इस कला का परिचय दे चुका है। वह प्रेमिका के अंदर प्रवेश करते हुए कल्पना करता है और प्रेम संवाद का दूसरा पक्ष रचता है।

मैं जानती हूं कि तुमने मेरे साथ

इसके पहले कितना जानलेवा इंतज़ार

किया मेरा, पर यह और भी अच्छा होता

कि मेरे और उसके सखियापे से

चिढ़ने की जगह

इसे भी मेरे बराबर प्रेम करते

ये प्रेम कविताएं उस परंपरा को एक दूसरे स्तर पर भी ख़ारिज करती हैं। तुम्हें प्यार करते हुए, संकलन की कविताओं में प्यार वायवीय या काल्पनिक ही नहीं है, वह वास्तविक है और उसमें मांसलता भी उतनी ही है जितनी स्वस्थ प्रेम में होती है और जितनी होनी चाहिए। 'सांसों की लड़खड़ाहट' ऐसी ही कविता है :

एक दूसरे के मुंह में

जब हम गुड़ की तरह घुल रहे होते

हमारी सांसें भी घुल रही होतीं एक दूसरे में

 

प्यार के हाथ जब हमें परात में

आटे सा माड़ रहे होते

पानी में थप थप करतीं

हमारी सांसें भी साथ साथ मड़ जातीं

 

कविताएं ऐसे बहुत से दृश्य रचती हैं जिनमें प्रेमी-प्रेमिका के बीच की प्रेम क्रीड़ाओं को चित्रित किया गया है। आप चाहें तो इन्हें प्रेम-लीलाएं कह सकते हैं। इनमें आपसी बातचीत की अंतरंगता अद्भुत है और वह एक नये तरह का छंद रचती चलती है। छेड़छाड़, ठिठोलियां, मान-मनौव्वल और ढेर सारी स्मृतियों का आपसी संवाद, चाहे वह वस्तुओं के साथ हो या व्यक्तियों के साथ, प्रेम के अव्यक्त रूपों को उद्घाटित करता हुआ जान पड़ता है।

इन कविताओं में एक मादक गंध महसूस की जा सकती है। प्रेम की मादकता इनमें इस क़दर पगी हुई है कि पाठक उसके असर से बचा नहीं रह सकता। लेकिन ये कहीं से अश्लील नहीं होतीं, वे मांसल प्रेम के वर्णन में एक सीमा पर जाकर रुक जाती हैं, वह भी यह बताये बिना कि यही सीमा है। हालाँकि अश्लीलता तो देखने-पढ़ने वाले के दिमाग़ में होती है, मगर अश्लीलता की संकीर्ण परिभाषा में बंधे पाठक भी बग़ैर परेशान हुए इन कविताओं का आनंद ले सकते हैं और प्रेम की मादकता को महसूस कर सकते हैं। उनकी कविता, 'काली मिर्च' को ले लीजिए :

इनसे काला जादू हो सकता है

मैंने यह तो नहीं सुना

मगर तुमने एक बार

मेरी पीठ के तिलों को

अपनी जीभ से सहलाते हुए उन्हें

काली मिर्च जैसा ज़रूर बताया था

तुम्हें याद है कि नहीं

मेरे कहे के जवाब में वह बोली

मेरे स्वाद में डूबे हुए तुमने

प्यार करते हुए मुझसे

क्या-क्या नहीं कहा

पर तुम्हारी यह काली मिर्च

ठहरकर रह गयी मेरी याद में।

इस कविता संग्रह की सबसे अच्छी बात यह है कि इसमें छोटे-छोटे जीवनानुभवों में छिपे प्रेम को सहज-सरल ढंग से शब्दों में बांधा गया है। प्रेम इसमें एक निर्मल नदी की तरह स्वाभाविक ढंग से बहता हुआ लगता है। कवि को मालूम है कि छोटी-छोटी बातों में कितना प्रेम छिपा होता है और जिसकी अकसर लोग, यहां तक कि प्रेमीजन भी महत्वहीन मानकर उपेक्षा कर देते हैं।

वास्तव में यह कविता संग्रह क़िस्से-कहानियों और फ़िल्मों में गढ़े गये प्रेम के आख्यान के बरक्स नया नरैटिव गढ़ता है। इसमें प्रेम के ऐसे कई नये बिंब हैं, नये चित्र हैं, नये रंग हैं जो बिल्कुल अनदेखे, अनचीन्हे थे, लेकिन जिनकी पहचान करना बहुत ज़रूरी था।

  3. पानीदार स्त्रियों की छवियों का विराट कोलाज

अनामिका का कविता संग्रह, पानी को सब याद था गांव-देहात से लेकर शहरों तक की औरतों का अद्भुत कविता-कोलाज है। यह एक ऐसा अलबम है जिसमें अनगिनत छवियां संजोयी गयी हैं। ये छवियां अतीत के संदूक से ही नहीं निकली हैं, वे वर्तमान की चक्की से भी पैदा हुई हैं और भविष्य की आकांक्षाओं से झांककर देखती हुई भी। कवयित्री जैसे अपना कैमरा लेकर हर अंधेरे-उजले कोने में जाती हैं और वहां मौजूद स्त्रियों की तस्वीरें खींचती चली जाती हैं। स्त्रियां, अलग-अलग चेहरों, क़द-काठी, सोच-समझ वाली, ठिठकी हुईं, जूझती हुईं, हारती और जीतती हुईं। कभी ऐसा लगता है कि अनामिका सभी स्त्रियों को क़रीब से जानती हैं, सबके साथ रहती हैं और कभी वे उन्हें अजनबियों की तरह भी देखती हैं, पहचान करने की कोशिश करती हैं। उनकी कवयित्री के पास एक अलग और ग़ज़ब दृष्टि है और वे उससे लगातार चमत्कृत करती हैं।

अनामिका का नया संग्रह निश्चय ही इस मायने में नया कहा जा सकता है, हालांकि इसमें निरंतरता भी है। उनकी पहले की कविताओं से इस तरह से भिन्न नहीं हैं ये कविताएं कि उन्हें आप किसी नयी कोटि में रख दें, रखने के बारे में सोचना भी ठीक नहीं होगा। लेकिन उनकी अंतर्दृष्टि उनका पुनराविष्कार करती देखी जा सकती है :

तुम्हारी गढ़ी मूर्तियां भी कभी

माटी-माटी जो हुईं -

तो भी कुछ है जो ठहर जायेगा-

जैसे आकाश ठहर जाता है,

दो शब्दों की फांक में जैसे

अर्थ का अनंत पसर जाता है।

सबसे अच्छी बात यह है कि अनामिका के पास स्त्रियों को देखने की बिल्कुल ख़ालिस अपनी नज़र है। उसमें किसी दूसरे की हल्की सी भी छाप देखने को नहीं मिलती। वे स्त्री के पक्ष में खड़ी रहती हैं, मगर स्त्री विमर्श को अपनी तरह से परिभाषित करते हुए। सबसे बड़ी बात है स्त्रियों से उनका भावनात्मक लगाव। उसी के बल पर वे एक नया भावलोक रचती हैं। चूंकि उनकी चिंता, उनका सरोकार किताबी या दिखावटी नहीं है इसलिए स्त्रियां उनकी कविताओं में जीवंत होती हैं। यही नहीं, उनकी कविताओं के किरदार पुरानी और नयी पीढ़ी दोनों से आते हैं और अकसर वे एक दूसरे से संवाद करते हुए दिखते हैं।

दरअसल, अनामिका स्त्री-मन के उन कोनों में प्रवेश करने में सफल रहती हैं जहां नारेबाज़ी वाला नारीवाद नहीं जा पाता। वे स्त्रियों के मन को पढ़ने की कला में माहिर हैं, वे जानती हैं कि इस समाज में निर्मित स्त्री के दर्द और सपने कहां छिपे हुए हैं और उन्हें कैसे बाहर निकाला जा सकता है। यह आसान बात नहीं है। इसके लिए किसी भी कवि को कविताओं से भी आगे जाना पड़ता है, उसे बहुत सारी बाधाओं को लांघना पड़ता है, स्त्रियों से विश्वास का रिश्ता बनाना होता है। यह महसूस करके लिख देने से ज़्यादा की मांग करता है : 

शूर्पणखा,

तुमसे कहूं तो क्या

तुम तो बच्ची ही थीं

मेरी बच्ची की उमर की

दुनिया बेटी, देखो,

अब तक नहीं बदली

अब भी विकट ही है

हर यात्रा की कामना की

नन्हा-सा डैना उठा,

एक नन्हा रोआं कांपा

कि छूटने लगते हैं तीर

चारों दिशाओं से

 वे अपने चिर-परिचित छंद और शिल्प के साथ शब्दों को पिरोती हैं, उन्हें नये मायने देती हैं। इस क्रम में वे अपने विशाल शब्द-भंडार की तरफ़ भी बरबस हमारा ध्यान खींचती हैं। अनामिका के पास अपनी विशिष्ट भाषा है, जिसमें गांव-गंवई के शब्द वैसे ही चले आते हैं जैसे शहरों में आकर बसे लाखों मज़दूर, वे घुले-मिले हैं, एक दूसरे से बतियाते हुए से लगते हैं। वे गर्व से तने हुए भी हैं और विनम्रता से झुके हुए भी। वे अपनी पीड़ा भी व्यक्त करते हैं और साहस भी।

उनकी भाषा की ख़ास बात है यही है कि वह ग्रामीण जीवन से समृद्ध हुई है। मुहावरे और लोकोक्तियां आदि उसमें भरी पड़ी हैं, जो जहां एक ओर कविताओं को एक नयी छटा प्रदान करती हैं वहीं पाठकों से एक नये स्तर पर तादात्म्य भी स्थापित करती हैं :

याद करें बूढ़ी कहावतें-

इतना भई धीरे क्या बोलना,

आप बोलें और कमरबंद सुने

बोलें, मुंह खोलें ज़रा डटकर,

इतनी बड़ी तो नहीं है न दुनिया की कोई भी जेल

कि आदमी की आबादी समा जाये

और जो समा भी गयी तो

वहीं जेल के भीतर झन-झन-झन

बोलेंगी हथकड़ियां

ऐसे जैसे बोलती हैं कमरधनियां

मिल-जुलकर मूसल चलाते हुए।

इस संग्रह में दो और चीज़ें ध्यान खींचती हैं। एक तो विस्थापन बस्तियों में रहने वाली स्त्रियों पर कई उपखंडों में लिखी उनकी कविताएं और दूसरी, निर्भया को लिखी कविताओं की शृंखला। विस्थापन बस्ती की औरतों के विभिन्न चित्र उनके संघर्ष, आत्मविश्वास और पीड़ा सबको बयान करते हैं। मुसीबतों के बीच कैसे रास्ता चुनना है इसका विवेक भी इनमें व्यक्त होता है। मसलन,

प्रौढ़ाओं के प्रफुल्ल, श्वेत-श्याम केशों के

ठीक बीचोंबीच जहां पड़ता है सेनुर

ऐसा ही तो बीच का रास्ता,

होता है अतिथों के बीच कहीं

जहां न दिन होता है, न ही रात!

न घरमुहां राग, न कट्टर वैराग!

एक-दूसरे के जुएं चुनतीं,

बीनती जीवन के सारे खटराग-

जानती हैं औरतें बीच का रास्ता

साम-दाम दंड-भेद से गुज़रता!

निर्भया पर लिखी कविताएं तो बहुत मार्मिक हैं। वे निर्भया को अपने आसपास के पंचतत्वों में हर जगह देखती हैं। वे उसे खुद में, अपनी बेटी में और हर औरत में देखती हैं। खेतों में, माटी में, पौधों में हवाओं में, हर जगह निर्भया के होने को महसूस कराती हुईं, उसके स्त्रीत्व को, उसके प्रेम और उसकी जीवटता को एक नये अंदाज़ में बयान करती हैं :

जब भी चलती थी कातिक में हवा

कनकनाती हुई

पूछती थी निर्भया

संग-संग मेरी लगी

एक ढेर कपड़े पछीटती

ऐ अम्मा, क्यों है नदी इतनी ठंडी-

क्या बर्फ़ से इसने प्यार किया था कभी?

 

कुल मिलाकर अनामिका का यह संग्रह पानी की तरह बहती कविताओं से बना है, इसमें पानीदार स्त्री छवियां हैं जो पानी की महत्ता को रेखांकित करती हैं।

 4. बर्बरता का प्रतिरोध रचती कविताएं

यह जो काया की माया है, प्रियदर्शन का दूसरा कविता संग्रह है। अपने पहले संग्रह, नष्ट कुछ भी नहीं होता से उन्होंने जो उम्मीदें जगायी थीं, वे ताज़ा संग्रह में फलीभूत होती दिखायी देती हैं। चीज़ों पर उनकी पकड़ और सूक्ष्म हुई है, उनकी चिंताओं का कैनवास और विस्तृत हुआ है और विचारों के वितान में वृद्धि हुई है।

प्रियदर्शन की कविताओं में एक पत्रकार की उपस्थिति आप हर जगह देख सकते हैं। लेकिन यह ख़बरों को सतही तौर पर देखते हुए बयान करने वाले पत्रकार की उपस्थिति नहीं है। प्रियदर्शन एक कवि-पत्रकार हैं जो अपने पत्रकारीय अनुभवों को कविताओं में इस्तेमाल करते हैं। ज़ाहिर है कि वे घटनाओं की गहराई में उतरते हैं, उसके विभिन्न पक्षों को उलटते-पुलटते हैं और फिर उसे एक विशेष कोण से प्रस्तुत करते हैं। संग्रह की कविताएं निरंतर बदल रहे अपने परिवेश को ही दर्ज नहीं करतीं, बल्कि अंतर्मन में चल रहे द्वंद्व को भी बखूबी व्यक्त करती हैं। आत्म-संशय और स्वयं से प्रश्न करते रहना एक अच्छे कवि की विशेषता होती है। संग्रह की कई कविताओं में हम यह विशेषता पाते हैं :

एक पाखंडी-क्रूर समय में

प्रेम से ही आयेगा,

वह विवेक, वह संवेदन, वह साहस,

जो संस्कृति के नाम पर प्रतिष्ठित की जा रही बर्बरता का प्रतिरोध रचेगा।

प्रियदर्शन शब्दों से खेलते हुए नहीं दिखते और न ही भावावेग में बहते हैं। बहुत ही सहज ढंग से अपनी बात कहते हैं। वे एक जागरूक कवि हैं इसलिए समाज में घट रही तमाम वृत्तियों को दर्ज करते हैं, उनके अर्थ तलाशते हैं। पत्रकार-कवियों पर स्वाभाविक तौर पर तात्कालिता हावी हो जाती है। इसीलिए समकाल उनकी कविताओं में भरा पड़ा है। लेकिन यह उनकी कमज़ोरी नहीं, शक्ति है। वे अपने समय को बहुत क़रीब से देखते और शिद्दत से महसूस कर पाते हैं और तात्कालिता को भी काल के विराट फलक पर अवस्थित कर पाते हैं। इसीलिए प्रियदर्शन सांप्रदायिक राजनीति, धर्मों के गोरखधंधों और तमाम तरह के छल-प्रपंचों को बेहिचक अपनी कविताओं का विषय ही नहीं बनाते बल्कि बेबाक़ी से उनमें अपने विचार भी ज़ाहिर करते हैं। उनमें वैचारिक स्पष्टता और दृढ़ता दोनों देखी जा सकती हैं :

वे कभी अयोध्या से और कभी गुजरात से पहुंचना चाहते हैं दिल्ली

इतिहास और इंसानियत की उड़ाते हैं खिल्ली

और डरते हैं, रास्ता न काट जाये इंसाफ़ की कोई बिल्ली

देवताओ! अगर तुम अपने भक्तों को सिखा सके थोड़ी सी मनुष्यता,

थोड़ा सा अपने ऊपर संशय करना,

तब वाक़ई अधर्म हारेगा, तुम्हारे प्रस्तावित धर्म की होगी जय। 

 

संग्रह में कविताओं के विविध रंग देखने को मिलते हैं। कई संस्मरणात्मक कविताएं बहुत बांधने वाली हैं। वीरेन डंगवाल की मृत्यु पर लिखी गयी कविता एक ऐसी ही कविता है :

तुम्हारी कविताएं बची हुई हैं जिनमें इस अहंकार को ठोकर मारने का साहस है

और पाने-खोने के खेल से परे

जीवन की वह सहज महिमा जिसे चूहे कुतर नहीं पायेंगे।

इसी से बनता है भरोसा कि उजले दिन आयेंगे

मगर वह उजला दिन नहीं था कवि हमारे, रचयिता हमारे,

हर दुष्चक्र के पार जा चुके स्रष्टा हमारे।

इसी तरह प्रकृति से जुड़ी उनकी कविताएं हैं, जिनमें वे कहीं उस पर रीझते हैं, चमत्कृत होते हैं और कहीं फिर फ़ौरन उसके साथ अपने संबंधों को परिभाषित करते हुए खीझते भी हैं :

एक क्लिक के साथ झरना कैमरे में क़ैद हो गया

एक फ़्लैश के साथ नदी जड़ हो गयी

12 मेगापिक्सल वाले कैमरे में समा गयी

पहाड़ को पूरा पैक करना संभव नहीं था इसलिए उसके टुकड़े-टुकड़े किये गये

इस संग्रह में उनकी कई लंबी शृंखलाबद्ध कविताएं हैं, उन्हीं की संख्या अधिक है। कहा जा सकता है कि इस संग्रह की एक पहचान ये कविताएं भी हैं। 'ये भी प्रेम कविताएं', 'कुछ और मनोभाव', 'दुख', 'जानवरों से हमें माफ़ी मांगनी चाहिए', 'यह जो काया की माया है', 'सोचने के कई तरीक़े होते हैं', 'एक हिंदू की कविताएं', 'जब आततायी मारे जाते हैं', 'रोहित वेमुला के लिए' आदि का उल्लेख किया जा सकता है। 'लव जिहाद' भी एक ऐसी कविता है।

लड़कियां तरह-तरह से बचाये रखती हैं अपना प्रेम।

चिड़ियों के पंखों में बांध कर उसे उड़ा देती हैं

नदियों में किसी दीये के साथ सिरा देती हैं

किताबों में किसी और की लिखी हुई पंक्तियों के नीचे

एक लक़ीर खींचकर आश्वस्त हो जाती हैं।

प्रियदर्शन की शैली घुमावदार या जटिल नहीं है, वे बिंबों और रूपकों के चक्कर में भी बहुत नहीं पड़ते, जो कुछ लोगों को उनकी कविताओं की कमज़ोरी भी लग सकती है, मगर सीधे संप्रेषण के लिहाज़ से इसे एक बड़ी विशेषता के तौर पर देखी जानी चाहिए। उनकी कविताएं सरल हैं, बोधगम्य हैं।

मो. 9811818858

पुस्तक संदर्भ

1. ऋतुरैण : शिरीष कुमार मौर्य, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2020

2. तुम्हें प्यार करते हुए : पवन करण, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2020

3. पानी को सब याद था : अनामिका, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2019

4. यह जो काया की माया है : प्रियदर्शन, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2020

 

 

 

 

 

 

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