कहानी चर्चा-2

सभ्यता-समीक्षा की तीन कथा-छवियां

राकेश बिहारी

सभ्यता एक गतिशील अवधारणा है। इतिहास गवाह है कि मानव सभ्यता की विकास यात्रा के तीन शुरुआती क़दम आग, पहिया और भाषा के आविष्कारों में गतिशीलता का जो भावबोध मौजूद था, उसकी गति हर अगले अनुसंधान और अन्वेषण के साथ तेज़ होती गयी है। यहां यह भी स्पष्ट किया जाना ज़रूरी है कि सभ्यता और गति के अंत:संबंधों की परिणति हर बार प्रगति के रूप में ही प्रकट हो, यह ज़रूरी नहीं है। यानी गति और प्रगति दो अलग अवधारणाएं हैं। लेकिन इक्कीसवीं सदी के बीस वर्षों में सभ्यता के रथ का पहिया इतनी तेज़ गति से घूमा है कि गति और प्रगति के बीच के सारे अंतराल लगभग ख़त्म से हो गये हैं। चूंकि कहानी का इतिहास भी सभ्यता के इतिहास जितना ही पुराना है, सभ्यता और गति के अंत:संबंधों की आंच और उसके प्रभावों को कहानियों की संवेदना और संरचना दोनों में ही सहज महसूस किया जा सकता है। यही कारण है कि सभ्यता, गति और प्रगति की पारस्परिकता को समझने के लिए कहानियां एक ज़रूरी ज़मीन मुहैया कराती हैं। चूंकि कहानियां ख़्वाब और हक़ीक़त की साझा ज़मीन पर दर्ज  तर्ज़े बयानी का परिणाम हैं, इनके भीतर इतिहास की अनुगूंजों और भविष्य की आहटों को एक साथ सुना जा सकता है। पिछले दो वर्षों में प्रकाशित तीन कहानी-संग्रहों (दुश्मन मेमना, स्माइल प्लीज और प्रार्थना-समय) की कुछ महत्त्वपूर्ण और उल्लेखनीय कहानियों के हवाले से सभ्यता, कहानी और कहानी की तर्ज़ेबयानी में आये बदलावों और उनके अंत:संबंधों को समझने की कोशिश करना ही इस आलेख का उद्देश्य है।

आधार प्रकाशन द्वारा 2020 में प्रकाशित ओमा शर्मा के कहानी संग्रह, दुश्मन मेमना के केंद्र में सूचना क्रांति के बीच विकसित हो रहे परिवारों के बीच उग आये पीढ़ी अंतराल की स्थितियों से उत्पन्न विडंबनाएं हैं। इससे पहले कि इस कहानी के निहितार्थों और कहन की विशेषताओं पर बात हो, कहानी का एक हिस्सा देखा जाना चाहिए :

उसकी यही नॉनसेन्स जिज्ञासाएं हर रात को सुलाये जाने से पूर्व अनिवार्य रूप से सुनायी जाने वाली कहानियों का पीछा करतीं। मुझे बस चरित्र पकड़ा दिये जाते- फ़ॉक्स और मंकी, लैपर्ड, लायन और गोट, पैरट, कैट, एलिफ़ेंट और भालू। भालू को छोड़कर सारे जानवरों को अंग्रेज़ी में ही पुकारे जाने की अपेक्षा और आदत। कहानी को कुछ मानदंडों पर खरा उतरना पड़ता। मसलन उसके चरित्र कल्पना के स्तर पर कुछ भी उछल-कूद करें, मगर वायवीय नहीं होने चाहिए, कथा जितनी मर्ज़ी मोड़-घुमाव खाये, मगर एकसूत्रता होनी चाहिए, कहानी का गंतव्य चाहे न हो, मगर मंतव्य होना चाहिए, वह रोचक होनी चाहिए और आख़िरी बात यह कि वह लंबी तो होनी ही चाहिए।

 उपर्युक्त पंक्तियां कहानी शुरू होने के तुरंत बाद की ही हैं। लगभग अट्ठाईस पृष्ठ लंबी इस कहानी के पहले दो पृष्ठों में अपनी इकलौती किशोर बेटी के खाने-पीने और सोने-जागने की दिनचर्या की बात करने के क्रम में उसकी जिज्ञासु प्रवृत्ति की चर्चा करते हुए कहानी का नैरेटर ‘मैं’ यहां कहानी सुनाने संबंधी उसकी फ़रमाइशों के बारे में बता रहा है। पर इसे इतने में ही सीमित कर देना उचित नहीं होगा। दरअसल, इन पंक्तियों में ओमा शर्मा कहानी के उस व्याकरण की तरफ़ भी इशारा कर जाते हैं, जिसके सूत्रों की अलगनी पर उनकी कहानियों का चंदोवा फैलता है। संदर्भित कहानी सहित संग्रह की सभी कहानियों (यथा- ‘शरणागत’, ‘एक समय की बात’, ‘कोहरे के बीच’, ‘दूसरा विश्वयुद्ध’ आदि) में कहानी संबंधी उनकी इन मान्यताओं के लक्षण साफ़ तौर पर दिखायी पड़ते हैं। मसलन आकार में ये सभी कहानियां लंबी हैं, इन कहानियों के कथानक अलग-अलग मोड़ों से गुज़रने के बावजूद आपस में कहीं न कहीं एक ख़ास सूत्र (सामान्यतया यह सूत्र समय का होता है) में आबद्ध होते हैं और ये कहानियां तमाम उड़ानों के बाद भी यथार्थ की जड़ों से ख़ुद को विलग नहीं होने देतीं। प्रख्यात कवि-गीतकार गोपाल सिंह नेपाली के शब्दों में कहें तो ‘उड़ने को उड़ जाये नभ में पड़ छोड़े नहीं ज़मीन कलम’।

तेज़ रफ़्तार से चलती और उससे भी तेज़ रफ़्तार से बदलती तकनीकों ने आभासी तौर पर चाहे हमें जितना जोड़ दिया हो, हम भीतर से उतने ही एक-दूसरे से अलग और दूर हुए हैं। धरती के भूगोल पर व्याप्त दूरियां जिस गति से कम होती जा रही हैं, हमारे मन के बीच उसी गति से दूरियों का रेगिस्तान फैलता जा रहा है। ज़िंदगी की दुश्वारियों को आसान करने वाले साजो-सामान की पहुंच से हमारी ज़िंदगी जहां हर रोज़ गुलज़ार हो रही है, वहीं उसके साइड इफ़ेक्ट्स जीवन के सौंदर्य को क्षतिग्रस्त भी कर रहे हैं। एक तरफ़ परीक्षा परिणामों में प्राप्तांक के प्रतिशत के ग्राफ़ों की प्रतिस्पर्धा लगातार बढ़ती जा रही है, वहीं हर वर्ष परीक्षा परिणाम आने के आसपास देश के हर कोने से असफल छात्र-छात्राओं के आत्महंता हो गुज़रने की ख़बरें भी आम होती जा रही हैं। क्या इन विकट परिस्थितियों का ठीकरा तकनीक और पीढ़ी अंतराल के सिर पर फोड़कर संतुष्ट हुआ जा सकता है? आसान-सा दिखता यह प्रश्न इतना आसान नहीं है। इस या इस जैसे अन्य प्रश्नों के सही उत्तर तक पहुंचने के लिए आत्मनिरीक्षण और साहस की ज़रूरत है। किसी मुलायम छौने के अचानक ही बिल्ली में बदल जाने की यह कहानी उसी साहसी आत्मनिरीक्षण के कारण विशिष्ट बन पड़ी है। इस कहानी की रचना प्रक्रिया पर बात करते हुए ओमा शर्मा ने इसे अभी तक की अपनी ‘सबसे आत्मकथात्मक कहानी’ की संज्ञा दी है। यह भी कम दिलचस्प नहीं कि इस कहानी से गुज़रते हुए हर पल मेरे भीतर इसके अपनी कहानी होने का अहसास बना रहा। आठवीं कक्षा में पढ़नेवाली इकलौती पुत्री जो अपेक्षाकृत गणित में कम अंक लाती है (मेरी ही तरह) और जिसे खाने में मैगी बहुत पसंद है, का पिता होना शायद इसका बड़ा कारण हो। कहानी के शुरुआती कुछ पन्ने मैंने अपनी बेटी को भी पढ़कर सुनाये। उसकी मासूम प्रतिक्रिया भी कम दिलचस्प नहीं कि ‘मेरी कहानी कैसे लीक हो गयी?’ कहानी में ज्यों-ज्यों धंसता गया, इस कहानी के साथ जैसे ख़ुद को और ज़्यादा जुड़ा महसूस करता रहा, अपने भविष्य की वैसी कल्पना किसी भी मां-बाप को सिहरा सकती है। इसलिए भीतर लगातार एक प्रार्थना भी चलती रही कि ऐसा किसी के साथ न हो। हर लेखक अपने जीवन और आसपास से ही कहानी के लिए कच्चे माल जुटाता है। पर किसी कहानी के बहुत ज़्यादा आत्मकथात्मक हो जाने को मैं कहानी की एक कमी की तरह देखता हूं। पर कोई कहानी जब उसके पाठकों को भी उतनी ही आत्मकथात्मक लगने लगे तो यह कहानी की बहुत बड़ी ताक़त हो जाती है। निजी अनुभव को सार्वजनिक अनुभव में बदल डालने की यह ताक़त ‘दुश्मन मेमना’ की सबसे बड़ी सफलता है।

'दुश्मन मेमना' कहानी में मुख्यतया चार किरदार हैं – नैरेटर, उसकी पत्नी मीरा, उन दोनों की बेटी समीरा और मनोचिकित्सक डॉक्टर अशोक बैंकर। एक बहुत ही परिचित और लगभग आम से हो चुके पारिवारिक दृश्यों से बनी-बुनी इस कहानी के केंद्र में समीरा की मानसिक उथल-पुथल और उसके प्रति एक पिता की भावनात्मक चिंताएं ही प्रमुख हैं। संदर्भित घटनाओं के हवाले से कहानी अपने उद्देश्यों को पाठकों तक पहुंचाने में तो सफल हो जाती है, पर पूरी कहानी में समीरा के भीतर की उथल-पुथल का कोई बारीक़ चित्र नहीं दिखायी पड़ता। कहानी पूरी तरह नैरेटर की दृष्टि से दिखायी और उसकी ही भाषा में सुनायी पड़ती है। ऊपर कहानी के जिस साहसी आत्मनिरीक्षण वाले पक्ष की तरफ़ मैंने इशारा किया है, वह कहानी के क्लाइमेक्स में नज़र आता है। डॉक्टर के शब्द, 'और हां, आइंदा यह मत समझिए कि वह छोटी बच्ची है... मोबाइलों की कान-उमेठी करने में वह हम-आपसे कहीं आगे वाली जेनरेशन की है... आपके उस चैप्टर ने उसे गहरे झिंझोड़ा है...'। यहां ‘मत समझिए कि वह छोटी बच्ची है’ और ‘उस चैप्टर’ के पार्श्व में ही कहानी की कहानी की छुपी है, जिसकी अंतर्कथा का स्पष्ट उल्लेख कहानी में कहीं नहीं है। पर कहानी का यह सांकेतिक अंत प्रकटतः दिखानेवाली कथा में बहुत कुछ जोड़ने की सामर्थ्य रखता है, यही ‘अप्रकट’ इस कहानी को ‘कहानी’ बनाता है।                                                         

घटना और संवाद ओमा शर्मा की कहानियों में प्रमुखता से उपस्थित होते हैं। सुधांशु गुप्त की कहानियां इन अर्थों में ओमा शर्मा की कहानियों का विलोम हैं कि ये लगभग घटनारहित और संवादहीन होती हैं। दोनों की कहानियों में एक बड़ा संरचनात्मक अंतर यह भी है कि ओमा शर्मा की कहानियां प्रायः जितनी लंबी होती हैं, सुधांशु गुप्त आकार में उतनी ही छोटी कहानियां लिखते हैं। इस बात का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा 2020 में प्रकाशित एक सौ अठारह पृष्ठों के इनके कहानी-संग्रह, स्माइल प्लीज़ में कुल अठारह कहानियां संकलित हैं। मनुष्य के अवचेतन में स्थित ग्रंथियों और अवगुंठनों को खोलने-सुलझाने का जतन करती ये कहानियां अपने पाठकों से एक ख़ास तरह की तैयारी और बौद्धिक चैतन्यता की मांग करती हैं। लगभग एकालाप की शैली में बाह्य और आंतरिक परिवेश के द्वंद्व से निकली सुधांशु गुप्त की कहानियां संप्रेषण से ज़्यादा अभिव्यक्ति में विश्वास रखती हैं, जिसे डिकोड करने के लिए पाठकों को आस्वादक से ज़्यादा अन्वेषक होने की ज़रूरत है। इस तरह की कहानियों में प्रायः अमूर्तन का ख़तरा होता है, पर यथार्थ की बारीक़ लेखकीय समझ सुधांशु गुप्त की कहानियों को संश्लिष्ट तो बनाती है, पर उन्हें वायवीय या अमूर्त कथा-परिसर में जाने से रोक लती है।

स्माइल प्लीज की कहानियों में तस्वीर, तस्वीर का फ्रेम  या आईना बार-बार आता है। इन कहानियों के संदर्भ में ऐसा कहते हुए कुछ उदाहरण सहज ही मस्तिष्क-पटल पर कौंध रहे हैं :

'आज ही उसने बेटे से डीपी बदलना सीखा है। डीपी यानी डिस्प्ले पिक' – (‘मिसफ़िट’ कहानी का शुरुआती वाक्य)

'स्माइल प्लीज़ और क्लिक के बीच न जाने कितनी सदियां बीत जाती हैं।' (‘स्माइल प्लीज़’ कहानी का शुरुआती वाक्य)

'वह ठीक पंद्रह मिनट बाद तैयार होकर शीशे के सामने खड़ा था।' (‘मार्च में मई जैसी बात’ कहानी से)

'तब उनके घर में ड्रेसिंग टेबल नहीं था। उसे हाथ में छोटा सा शीशा लेकर बाल बनाने होते थे।' (‘मार्च में मई जैसी बात’ कहानी से)     

यों तो मनुष्य हमेशा से अपने सौंदर्य और शृंगार के प्रति सजग रहा है। पर वाह्य सौंदर्य के मुक़ाबले आंतरिक सौंदर्य की ताक़त को रेखांकित किये जाने के भी अनगिनत उदाहरण इतिहास में भरे पड़े हैं। पिछले कुछ वर्षों में सोशल और इलेक्ट्रोनिक मीडिया की तेज़ी से बढ़ती मौजूदगी ने लोगों को कुछ ज़्यादा ही सौंदर्यसजग बनाया है। तस्वीर-सजगता जो कभी अभिनेताओं तक सीमित होती थी, ने अपने परिसर का ताबड़तोड़ विस्तार करते हुए नेताओं और आमजन तक को अपनी 'गिरफ़्त में ले लिया है। सूचनाक्रांति की संतान स्मार्ट फ़ोन ने जहां आमजन को ‘सेल्फ़ीसमर्थ’ बनाया है वहीं मीडियाबली राजनेता अब ‘परिधानमंत्री’ बनने में ही अपना मोक्ष तलाश रहे हैं। फ़ेसबुक की आत्ममुग्धता से लेकर जियो के विज्ञापन तक में तस्वीरें जिस मुखरता से बोलने लगी हैं उसने ‘तस्वीरकुंठितों’ की एक नयी श्रेणी भी तैयार कर दी है। सुधांशु गुप्त इन कहानियों में जिस तरह बार-बार तस्वीर, फ्रेम और आईने की बात करते हैं, उसके अंतर्पाठों में ‘तस्वीरसजग’ और ‘तस्वीरकुंठित’ दोनों ही श्रेणियों के नवनागरिकों की अंतर्ध्वनियां साफ़-साफ़ सुनी जा सकती हैं।

संक्षिप्तता और मितकथन सुधांशु गुप्त की कथा-प्रविधि के ख़ास लक्षण हैं। ये पेशे से पत्रकार रहे हैं। नियत शब्द सीमा में अपनी बात कह जाने के अभ्यास से ही शायद यह हुनर इन्होंने हासिल किया हो। पर कई बार यही इनकी कहानियों की सीमा बन जाती है। पर जिन कहानियों में ये धैर्य के साथ कुछ चीज़ों को खुलने-खिलने देते हैं वहां इनकी कहानियां अपने श्रेष्ठ रूप में सामने आती हैं। ‘मनी प्लांट’ और ‘मिसफ़िट’ जैसी कहानियां इसके मज़बूत उदाहरण हैं, जो इन अठारह कहानियों के बीच अपेक्षाकृत लंबी और बेहतर हैं। मनी प्लांट के धनदायी होने के मिथ की विडंबना को उजागर करती कहानी ‘मनी प्लांट’ और लीक से हटकर बनी बनायी व्यवस्था के विरुद्ध चलने का जतन करनेवालों का हश्रोद्घाटन करती कहानी ‘मिसफ़िट’ संग्रह की बेहतरीन कहानियां हैं। यदि ‘मिसफ़िट’ कहानी ने जेंडर के सामान्य सामाजिक परसेप्शन के स्टीरियो टाइप को भी तोड़ा होता तो यह और बेहतर हो सकती थी।

लगभग बीस वर्ष पहले हिंदी कहानी के क्षेत्र में कथाकारों की एक नयी पीढ़ी आयी थी, जिसे मैं ‘भूमंडलोत्तर’ कथा पीढ़ी कहता हूं। कुछ शुरुआती बुलबुले और झाग के बैठने के बाद कथाकारों की वह पीढ़ी अपना स्वरूप ग्रहण कर चुकी है। पिछले पांच-सात वर्षों में कुछ और नये कथाकारों ने उस पीढ़ी की नवीनतम परत के रूप में अपनी जगह दर्ज करायी है। युवा कथाकार प्रदीप जिलवाने ‘भूमंडलोत्तर’ कथा पीढ़ी की इसी ताज़ा परत के प्रतिनिधि कथाकार हैं। सेतु प्रकाशन द्वारा 2019 में प्रकाशित, प्रार्थना-समय उनका पहला कहानी-संग्रह है। इसके पहले भारतीय ज्ञानपीठ से इनका एक कविता-संग्रह और एक उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा आयोजित नवलेखन प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत और अनुशंसित होकर चर्चा में आये प्रदीप के कहानी-संग्रह में कुल दस कहानियां संकलित हैं। प्रदीप के पास एक साफ़-सुथरी भाषा और बोधगम्य कथाशैली है। समकालीन यथार्थ के अलग-अलग मुद्दों को केंद्र में रख कर लिखी गयी इनकी कहानियों की पठनीयता सबसे पहले पाठकों का ध्यान खींचती है।  संग्रह की शीर्षक कहानी, ’प्रार्थना-समय’, जो अलग-अलग उपशीर्षकों में बंटी है, की शुरुआत एक प्रेम कहानी की तरह होती है,

उन दिनों हम तीनों एक कमरे में साथ-साथ रहते थे। मैं, मनीष और असद। हमारे कमरे की खिड़की एक गली में खुलती थी। गली की दूसरी ओर, हमारी खिड़की के ठीक सामने, एक रंगीन खिड़की खुलती थी। उस खिड़की से हम तीनों को प्यार हो गया था। हो सकता है आप कभी उधर से गुज़रे हों और आपने भी वह खुरचे हुए से फीके नीले रंग वाली खिड़की देखी हो जिसे मैं यहां रंगीन खिड़की कह रहा हूं तो आप इसे कल्प कथा न समझें।'

कहानी में आगे पता चलता है कि नैरेटर ने अख़बार में किसी असद की गिरफ़्तारी की ख़बर पढ़ी है और वहीं से स्मृतियों की यह खिड़की 

कहानी में आगे पता चलता है कि नैरेटर ने अख़बार में किसी असद की गिरफ़्तारी की ख़बर पढ़ी है और वहीं से स्मृतियों की यह खिड़की खुली है, जिससे झांकते हुए यह कहानी अपना स्वरूप प्राप्त करती है। कहानी का बड़ा हिस्सा प्रेम या प्रेम जैसा होने की उन तरुण स्मृतियों से ही तैयार हुआ है। अपने किशोर प्रेम की साझा स्मृतियों का पुनरावलोकन करता हुआ नैरेटर कहानी के अंत में इस प्रार्थना से भर उठता है कि गिरफ़्तार हुआ व्यति उसका दोस्त न हो- 'मैंने मन ही मन एक प्रार्थना बुदबुदायी कि कि काश असद बेग़ मिर्ज़ा नाम का वह शख़्स जो पकड़ा गया है वह कोई और असद बेग़ मिर्ज़ा हो, हमारा असद न हो। हमारा रूम पार्टनर असद न हो, वरना वह सिर्फ़ एक मुसलमान की गिरफ़्तारी की ख़बर भर नहीं होगी बल्कि एक आदमज़ात की हत्या की सूचना भी होगी। आमीन!'

अल्पसंख्यकों की गिरफ़्तारी और मॉब लिंचिंग की घटनाएं इधर बहुत तेज़ी से बढ़ी हैं। इन विषयों को केंद्र में रखकर कई ख़ूबसूरत कहानियां इधर लिखी गयी हैं। इस कहानी की दिक्क़त यह है कि रूमानी भाषा रचने के मोह और यथार्थवाद के फ़ार्मूले के असंतुलित मिश्रण ने इस कहानी के फ़ोकस को हिला दिया है। नतीजतन यह कहानी न तो एक अच्छी प्रेम कहानी हो सकी है, न ही इसमें समकालीन सांप्रदायिक यथार्थों की अंतःपरतें ही खुल पायी हैं। कई जगह भाषा और दृश्य का दुहराव भी खटकता है।

संग्रह की एक अन्य कहानी ‘चिड़िया रानी की गल्प कथा का सत्य’ अपने शीर्षक के कारण अलग से पाठकों का ध्यान खींचती है। एक नन्ही-सी लड़की और चिड़िया की दोस्ती की प्रतीक रचना के बहाने यह कहानी प्रसव पूर्व लिंग परीक्षण और मादा भ्रूण हत्या के विरुद्ध प्रश्न खड़े करती है। गोकि यह विषय कहानी के लिए बहुत पुराना है, लेकिन जादू और फ़ैंटेसी के शिल्प में कहे जाने का अंदाज़ इसे रोचक बनाता है और इस कारण कहानी में पाठक की उत्सुकता बनी रहती है। यही इस कहानी की विशेषता है। स्वप्न और जादू के सहमेल से यह कहानी जिस यथार्थ की पुनर्रचना करती है, उसका प्रभाव कहानी में आद्योपांत बना रहता है। कहानी का अंतिम हिस्सा ‘असत्य में सत्य लिखना एक जोख़िम है...’, जहां पहुंचकर कहानी में एक नयी चिड़िया का प्रवेश होता है, लड़की के चिड़िया और चिड़िया के आकाश हो जाने की इस ख़ूबसूरत कहानी को एक कलात्मक ऊंचाई तक पहुंचाता है।  

प्रदीप जिलवाने की कथा भाषा और तर्ज़ेबयानी पर भालचंद्र जोशी और उदय प्रकाश की स्पष्ट छाया दिखायी पड़ती है। संग्रह की पांच कहानियां उपशीर्षकों में बांट कर लिखी गयी हैं। पिछली सदी के अंत और उसके बाद के कुछ वर्षों में इस शिल्प का प्रयोग कई लेखकों ने किया है। भाषा या शिल्प के साथ किये गये प्रयोग यदि कहानी में किसी तरह का मूल्य संवर्द्धन करते हों तो इनका स्वागत किया जाना चाहिए, लेकिन महज़ फ़ैशन की तरह किये गये प्रयोगों का कोई औचित्य नहीं होता है। प्रदीप जिलवाने की कहानियों के उपशीर्षक कहानी की अर्थछवियों में कुछ नया नहीं जोड़ पाते। प्रदीप जिलवाने का यह पहला ही संग्रह है, उनकी कथा-यात्रा दीर्घ और दीर्घजीवी हो इसके लिए उन्हें भाषा का निजी मुहावरा और कहन की अपनी शैली विकसित करनी होगी।

इस टिप्पणी की शुरुआत में मैंने सभ्यता, गति और कहानी के जिन अंत:संबंधों की बात की थी,  इन तीन कथा-संग्रहों से गुज़रते हुए उनकी कई परतें खुलती हैं। इन कहानियों को पढ़ना मानव सभ्यता की विकास-यात्रा के अद्यतन पड़ावों से रूबरू होना भी है।

                                                                                                                               मो. 9425823033

पुस्तक संदर्भ 

दुश्मन मेमना : ओमा शर्मा, आधार प्रकाशन, पचकूला, 2020

स्माइल प्लीज़ : सुधांशु गुप्त, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली, 2020

प्रार्थना-समय : प्रदीप जिलवाने,  सेतु प्रकाशन, नोएडा, 2019

 

 

 

 

 

 

 

 

No comments:

Post a Comment