स्मृति शेष : जो साथ रहेंगे हरदम -2

 सागर सरहदी का जाना

शम्सुल इस्लाम

 सागर सरहदी का जाना एक सपने का भी धूमिल हो जाना है!

कामरेड सागर सरहदी का मार्च 21, 2021 को मुंबई में 87वें  साल में देहांत हो गया। मई 11, 1933 के दिन सूबा सरहद के ज़िले एबटाबाद के गांव बफ़फ़ा [अब पाकिस्तान में] में जन्मे सागर सरहदी के वालिद साहब शराब के ठेकेदार थे।  मुल्क के बंटवारे के शिकार होकर परिवार के साथ शरणार्थी बनकर बरास्ता श्रीनगर दिल्ली पहुंचे।  मोरी गेट, दिल्ली में बस गये। डीएवी स्कूल से हाई सेकेंडरी की। रोज़गार की तलाश में बंबई का रुख़ किया, क्लर्की की, कपड़े  की दुकान की, बड़े भाई ने उन्हें पाला। 

वे जन्मे तो गंगा सागर तलवार नाम से थे पर अपना प्रगतिशील राजनीतिक और साहित्यिक जीवन सागर सरहदी के नामकरण से शुरू किया। उन्होंने एक बार बताया कि मैं ने अपने नाम से 'गंगा' हटाकर 'सागर' जोड़ लिया और अपने वतन सूबा सरहद की पहचान ज़िंदा रखने के लिए 'सरहदी' भी जोड़ लिया।' 

वे जीवन भर एक प्रतिबद्ध कम्युनिस्ट रहे । बंबई में बलराज साहनी और ए के हंगल, जो ख़ुद भी देश के बंटवारे का शिकार थे, जैसी हस्तियों का साथ मिला और जनपक्षीय नाट्यकर्म से पूरे तौर पर जुड़ गये। पहले अपना नाट्य संगठन द कर्टेन’[पर्दा] बनाया और बाद में इप्टाके साथ जुड़ गये। बंटवारे की त्रासदी को झेलने के बावजूद प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े रहे। हिंदी, उर्दू, पंजाबी नाटक के लिए ख़ूब काम किया और चर्चित हुए। वे उर्दू के लेखक थे और सारा लेखन उर्दू लिपि में ही करते थे। नाटक से फ़िल्मी दुनिया तक पहुंचे और बाज़ारजैसी फ़िल्म बनाकर अपना अलग स्थान बनाया। वे फ़िल्म जगत की एक ऐसी हस्ती थे जो निर्माता, निर्देशक एवं लेखक तीनों के रूप में ख़ासे चर्चित रहे ।

अनुभव, चांदनी, दिवाना, कभी-कभी, नूरी, दूसरा आदमी, और सिलसिला जैसी फ़िल्में उनकी क़लम का ही कमाल थीं। फ़िल्म जगत में सफलता के बावजूद नाटक के प्रति उनका जुड़ाव कभी कम नहीं हुआ। उनहोंने तन्हाई, भूखे भजन न होए गोपाला भगतसिंह की वापसी और दूसरा आदमी जैसे नाटकों को न केवल रचा बल्कि उनकी सैकड़ों सफल प्रस्तुतियां भी कीं। मरते दम तक उनका यह सपना था कि जनपक्षीय नाटक के ज़रिये देश पर जो फ़ासीवादी शिकंजा कसता जा रहा है उस के ख़िलाफ़ देश के आम लोगों और ख़ासकर नौजवानों को सचेत किया जाये ।

उन्होंने बहुत शोहरत और दौलत कमायी लेकिन अपने जनपक्षीय विचारों, आदर्शों और ईमानदारी की वजह से हिंदी फ़िल्मी दुनिया में फलफूल रही आदमख़ोर पूंजी लगाने वाली जमात के हाथों लूट लिये गये। उनके दस्तख़त वाले झूठे दस्तावेज़ बनाकर कई फ़िल्मों पर उनका क़ब्ज़ा हो गया जो डिब्बों में बंद पड़ी हैं। अपने अंतिम दिनों में मुंबई के सायन नगर के कोलीवाड़ा के उसी घर में लौटना पड़ा जहां से उन्होंने अपना बंबई का सफ़र शुरू किया था। वे किताबों के दीवाने थे, जब भी दिल्ली आना होता उससे पहले किताबों की फ़हरिस्त आ जाती जिन्हें उनके लिए मुझे जमा करना होता था। उनके जुदा होने के बाद उनकी बेमिसाल निजी लाइब्रेरी का क्या हाल होगा कोई नहीं जानता। जब तक उनमें चलने-फिरने की ताक़त रही, वे सरकारी, धार्मिक, जातिवादी और पुरुषवादी ज़ुल्मों के ख़िलाफ़ हर आयोजन में हिस्सेदारी करना कभी नहीं भूलते थे। 

उनके साथ निम्न्नलिखित बातचीत दिल्ली में मई 1993 में हुई थी। मेरे सवालों के जो जवाब, हिंदी फ़िल्मों, फ़िल्मी दुनिया, उर्दू-हिंदी साहित्य, नाटक के बारे में उन्होंने दिये थे, वे आज भी प्रासंगिक हैं, बल्कि ज़्यादा शिद्दत से हमारा ध्यान आकर्षित कर रहे हैं। वे उस पीढ़ी से आते थे जिस ने धर्म के नाम पर देश के बंटवारे के नतीजे में भयानक ज़ुल्म, हिंसा, और तबाही झेलने के बावजूद इंसानियत, समाजवाद और शोषण से मुक्त सेकुलर समाज बनाने का सपना नहीं ओझल होने दिया और जीवनभर इन सपनों को साकार करने के लिए लामबंद रहे। इसमें कोई शुबह नहीं कि अगर सागर सरहदी की सेहत इजाज़त देती तो वे दिल्ली की सरहदों पर धरना दे रहे बहादुर किसानों के बीच रह रहे होते। 

सवाल: बाज़ार, लोरी, अगला मौसम जैसी फ़िल्में बनाने के बावजूद बहुत ज़माने से आपने कोई नयी फ़िल्म नहीं बनायी। ऐसा क्यों?

जवाब: यह सच है कि मैंने कई वर्षों से कोई फ़िल्म नहीं बनायी है। इसके बहुत से कारण हैं। एक सृजनकार की तमाम ख़्वाहिशों के बावजूद फ़िल्म बनाने की प्रक्रिया बहुत जटिल और ढेढ़ी खीर की तरह हो गयी है। पैसा लगाने वाले लोग जल्दी से बहुत पैसा बनाना चाहते हैं। इसलिए किसी भी प्रयोग में पैसा लगाने से कतराते हैं। एक वजह कलाकारों का बहुत ज़्यादा महंगा होना भी है। सबसे महत्वपूर्ण कारण मेरी अंतिम फ़िल्म, लोरी  का नाकाम हो जाना था। विजय तलवार के निर्देशन में बनी इस फ़िल्म को जब पेश किया गया तो एक दिवसीय क्रिकेट मैच उन दिनों छाये हुए थे। दर्शक हॉल में जा ही नहीं रहे थे। इस फ़िल्म की नाकामी ने मेरा घर-बार बिकवा दिया। नयी फ़िल्म बनाने का विचार कई बार दिल दिमाग़ में जोश मारता है लेकिन परिस्थतियां उसकी इजाज़त नहीं देतीं।

सवाल: आप अपनी फ़िल्मों में किस फ़िल्म को सबसे बढ़िया मानते हैं?

जवाब: हर लिहाज़ से बाज़ार मेरी सबसे बेहतरीन फ़िल्म है। मैं अपनी बाक़ी सब फ़िल्मों को दिखावटी मानता हूं। बाज़ार फ़िल्म एक सच्ची घटना पर आधारित है, मैं एक शादी में हैदराबाद गया था जहां एक भारतीय मूल के एक अमीर विदेशी से भेंट हुई जिस ने शादी के लिए एक 15 साल की बच्ची से दलालों के मार्फ़त शादी की थी।  इसने मुझे हिलाकर रख दिया। इस ‍फ़िल्म के सब किरदार मुसलमान थे लेकिन कोई भी स्टीरिओ-टाइप नहीं। बाजार बनाने के लिए 22 बार हैदराबाद गया, आम सेकिंड क्लास में।  वहां 65 रुपये महीने का कमरा किराये पर लिया हुआ था। 

इस फ़िल्म को प्रतिबद्धता के साथ हम सबने बनाया था, सब कलाकार और तकनीशियन बहुत कम मेहनताने और सुविधाओं पर इस फ़िल्म को करने पर सहमत हो गये थे, क्योंकि उन्हें इस बात का एहसास था कि मैं इस फ़िल्म को इंसानी एहसासात को उजागर करने के लिए एक जज़्बे के तहत बना रहा हूं। उस दौर का अब लौट पाना बहुत मुश्किल है।

सवाल: आख़िर ऐसा क्या हुआ है कि बंबई की फ़िल्मी दुनिया में ख़्वाजा अहमद अब्बास, गुरुदत्त, बलराज साहनी, पृथ्वीराज कपूर जैसे प्रतिबद्ध और कम बजट की फ़िल्म बनाने वालों की पीढ़ी लुप्त हो गयी है?

जवाब: उसकी वजहें बहुत साफ़ हैं। वे लोग सामाजिक और राष्ट्रीय चितांओं के चलते फ़िल्मों का सृजन करते थे। उनकी फ़िल्मों का सृजन उनके जीवन दर्शन का ही एक हिस्सा था। हर कोई उनकी ललक और प्रतिबद्धता को महसूस करके उनके साथ सहयोग करता था। हर फ़िल्म एक सामूहिक कर्म में बदल जाता था। आजकल लोग फ़िल्म नहीं बनाते हैं बल्कि वो तो एक तरह का उद्योग लगा रहे हैं। फ़िल्म निर्माताओं का एक मात्र उद्देश्य पैसा कमाना है तो अभिनेता और तकनीशियन भी कोई क़ुर्बानी क्यों करें। लोकप्रिय सिनेमा के क्षय का एक कारण फ़िल्मी दुनिया पर तस्करों और अपराधियों के पैसे का बढ़ता नियंत्रण भी है। इस तरह के पैसे के दख़ल ने भारतीय फ़िल्म के साथ दो खिलवाड़ किये हैं। एक तो यह कि इन्होंने फ़िल्मी जगत में इतना धन बहाया है कि कलाकारों की क़ीमतें आसमान छूने लगीं हैं, दूसरे यह कि अब लोकप्रिय सिनेमा सिर्फ़ हिंसा और सैक्स पर ही निर्भर है। स्मगलर, फ़ाइनेंसर अपनी जीवन शैली की फ़िल्में पर्दे पर चाहते हैं। ज़ाहिर है जिनका खायेंगे, उनका राग अलापना भी पड़ेगा।

सवाल: फ़िल्मी दुनिया में एक लेखक के तौर पर आपने बहुत काम किया है, आपने कई यादगार फ़िल्में लिखीं। क्या आप फ़िल्मी जगत में लेखक की हैसियत से संतुष्ट हैं?

जवाब: फ़िल्म के लिए बुनियादी चीज़ पटकथा है, कहानी कोई भी लिख सकता है । और हां, फ़िल्म की पटकथा कोई बाइबिल नहीं होती कि जिसमें कोई तब्दीली नहीं हो सकती। इसे आख़िरी रूप देने में निर्माता, निर्देशक और लेखक में तालमेल होना ज़रूरी होता है। हिंदी फ़िल्मों के लिए लिख रहा कोई भी लेखक मौलिक होने की ज़ुर्रत नहीं कर सकता। अगर लेखक मज़बूत होता है तो अपनी बात मनवा लेता है और अगर लेखक कमज़ोर होता है तो उस के बारे में एक लतीफ़ा मशहूर है : 

एक बार शूटिंग के दौरान एक अभिनेत्री ने लेखक से कहा कि फ़लां डायलाग बदल दीजिए। लेखक तैयार नहीं हुआ, जब अभिनेत्री ने ज़िद्द की तो लेखक ने रुहांसा होकर कहा, 'यही तो एक उनका डायलाग है जो पटकथा में बचा है, बाक़ी तो सब का सब निर्माता और निर्देशक बदल चुके हैं। इस बात को समझना ज़रूरी है कि फ़िल्मों में पैसे लगाने वाले लोग आमतौर पर सिंधी और मारवाड़ी सरमायादार हैं और डिस्ट्रीब्यूटर सब पैसे वाले लोग हैं । डिस्ट्रीब्यूटर बोलता है, लड़कियां नंगी दिखाओ, मुजरे डालो, बैडरूम सीन डालो। अब तरक़्क़ी यह हुई है कि, जैसा कि  मैंने पहले भी कहा है, कि तस्करों और अपराधियों के पैसे की भी रेलपेल हो गयी है। वे अपने किरदारों की शान में बनायी गयी फ़िल्मों में पैसा लगाने के लिए उतावले रहते हैं ।

लेकिन हिंदी फ़िल्मों में अपवाद भी रहे हैं। सआदत हसन मंटो ने भारतीय फ़िल्मों के लिए यादगार पटकथाएं लिखीं। राजेंद्र सिंह बेदी ने विमल दा और ऋषिकेश के लिए ज़बरदस्त पटकथाएं लिखीं। इस सच को भी नहीं झुठलाया जा सकता कि सलीम-जावेद ने हिंदी फ़िल्म के पटकथा लेखन को एक महत्वपूर्ण दर्जा दिलवाया। इन दोनों ने लेखक को फ़िल्मी सितारों के रूप में उभरने का मौक़ा दिया, कसकर पैसे वसूले। आज हिंदी फ़िल्म में पटकथा लेखक जो खा कमा रहे हैं उसकी वजह भी सलीम-जावेद ही हैं।  

सवाल: फ़िल्म के पटकथा लेखन के क्षेत्र में आप अपनी भूमिका को लेकर संतुष्ट हैं?

जवाब: नहीं, पटकथा लेखन बहुत चीज़ों से तय होता है। मैंने यह ईमानदार प्रयास ज़रूर किया है कि अपनी पसंद की फ़िल्में लूं, मेरे थैले में हर तरह का माल नहीं है। मैं किसी भी ऐसी फ़िल्म के लिए काम नहीं करता जो औरत के खिलाफ़ हो। मेहनतकशों के ख़िलाफ़ हो, या जातिवादी और सांप्रदायिक घृणा का शिकार हो। मैं अपने लेखन में मद्रासी फ़ार्मूले और अश्लील लटकों का इस्तेमाल नहीं करता। यह सचेतन प्रयास होता है कि मैं अपनी फ़िल्मों में इंसानी मान्यताओं को उभारूं। आप देखेंगे कि मेरी फ़िल्मों में महिला पात्र बहुत सशक्त होते हैं।

सवाल: फ़िल्म और रंगकर्म में आपको ज़्यादा क्या पसंद है?

जवाब: मैं दरअसल थियेटर का ही आदमी हूं, हमेशा नाटक ही करना चाहता था। मैंने अपना ग्रुप, द कर्टेन और बलराज साहनी ने अपना ड्रामा संगठन जुहू थियेटर बंद करके बंबई में इप्टाशुरू किया था। हम लोग बस्तियों में जाते, छोटे-मोटे हॉलों में जाकर नाटक करते। जब पैसे की बहुत तंगी होने लगी तो मैंने थियेटर को नहीं त्यागने का फ़ैसला किया और ख़र्चा निकालने के लिए टैक्सी ड्राइवर बनना तय किया। उसके लिए लाइसेंस भी बनवाया। दोस्तों के मजबूर करने पर मैंने बासु भट्टाचार्य की पहली फ़िल्म, अनुभव के डायलाग लिखना मंज़ूर किया। फ़िल्मी दुनिया में मैं इसलिए आया कि मैं सार्थक रंगमंच करना चाहता था। अपने उसी लगाव के चलते मैंने यह भी फ़ैसला कर लिया था कि मैं शादी नहीं करूंगा।

सवाल: प्रगतिशील नाट्यकर्मियों के सामने आज क्या चुनौतियां हैं?

जवाब: मुझे लगता है कि प्रगतिशील नाट्य आंदोलन की समस्याएं संगठन संबंधी उतनी नहीं है जितनी कि बौद्धिक और वैचारिक हैं। हम में से ज़्यादातर लोग भूतकाल में ही जी रहे हैं। हम सच्चाई की आंखों में आंखें डालने से कतराते हैं। पढ़ना-लिखना तो हम लोगों ने बंद ही कर दिया है। ज़्यादातर नाट्यकर्मियों की समस्या यह है कि वे यूरोपीय नमूनों की नक़ल करते हैं। इब्सन से शुरू करते हैं और अलगाववाद से होते हुए एब्सर्ड थियेटर तक पहुंचते हैं और अंत सनसनी फैलाने वाले नाटकों पर होता है। हमें इन सबसे बचना है। हमारे देश के नाट्य कर्मियों को इस देश की सच्चाई के सबक़ खड़े करने होंगे। हमें अपने देश की परिस्थतियों के संदर्भ में ही एक वैकल्पिक थियेटर विकसित करना होगा। मैं अपना बाक़ी समय इसी काम में लगाना चाहता हूं।

सवाल: मुल्क में और ख़ासतौर पर बंबई में जो मज़हबी दंगों का दौर चल रहा है इस पर आप की क्या राय  है?

जवाब: इसे मैंने बहुत क़रीब से देखा है। बंबई शहर का जलना अब आम बात हो गयी है। इसके लिए में कांग्रेस को सब से ज़्यादा ज़िम्मेदार मानता हूं। इसने हमारे मुल्क को ऐसे तबाह किया है जिसका ब्यान नहीं किया जा सकता। यह दंगे कराती है फिर बंद कराती है। शिव सेना पैदावार किसकी है? कांग्रेस के चीफ़ मिनिस्टर वी पी नाइक ने पैदा करायी ताकि मज़दूर तहरीक पर कम्युनिस्टों का असर ख़त्म कराया जा सके।

मो. 9968007740    

 

 

No comments:

Post a Comment