स्मृतिशेष : मंगलेश डबराल-2

मंगलेश डबराल की याद में

विष्णु नागर

मर चुका आदमी इतना अच्छा लगता है

जितना वह जीते जी कभी नहीं लगा था। 

...

 मर चुके आदमी में पता नहीं कहां से

इतनी अच्छाइयां पैदा हो जाती हैं!

ऐसी बदतमीज़ी मैंने कभी नहीं की, मगर मंगलेश डबराल पर लिखते हुए अपनी ही एक कविता की आरंभ की दो और अंत की दो पंक्तियां उद्धृत करके अपनी बात शुरू कर रहा हूं। ये पंक्तियां मंगलेश के न रहने के बाद उन पर भी लागू होती हैं। यकायक शायद अब यह सबको समझ में आ रहा है कि कोविड ने हमारे बीच से एक अत्यंत महत्वपूर्ण कवि छीन लिया है। इन दिनों भी इस कथन पर विवाद सा हो गया है कि वे रघुवीर सहाय के बाद सबसे बड़े कवि हैं या कोई और हैं। वैसे कौन किससे बड़ा या छोटा कवि है,कौन किसके बाद या पहले है, ऐसी बातें किसी मूल्य-निर्णय में मदद नहीं करतीं। इंची टेप लेकर किसी कवि या किसी की कविता का मूल्यांकन संभव  नहीं है। इसे समय पर छोड़ देना चाहिए। मंगलेश के जीते जी उनकी मान्यता एक महत्वपूर्ण कवि के रूप में हिंदी कविता के बाहर भी लगातार बढ़ रही थी। भारतीय भाषाओं के कवियों के बीच और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी। और ऐसा होना अकारण तो नहीं हो सकता। अपनी भाषा में भी जोड़तोड़ के बल पर ही महत्वपूर्ण स्थान हासिल करना कठिन है। आसान अगर है भी तो कवि के न रहने के बाद धीरे-धीरे उसकी असली जगह तय होने लगती है। पिछले पचास वर्षों में और हाल ही तक ऐसे कई उदाहरण सामने आये हैं।

मंगलेश अब हमारे बीच इस अर्थ में नहीं हैं कि हम उन्हें कुछ नया रचते-बनाते हुए नहीं पा सकते। बहुत से कवि तो मरने से बहुत पहले मर चुके होते हैं। जब उनकी मृत्यु की ख़बर आती है, तब हम चौंकते हैं। ऐसा शायद इसलिए है कि जीवित रहते ही वे अपने को भुलाये जाने की पर्याप्त योग्यता अर्जित कर चुके होते हैं। इसके विपरीत मंगलेश या उनकी तरह के दूसरे कुछ कवियों की मौत हमें सदमा देती है क्योंकि कुछ नया करने की संभावना उनमें बनी रहती है। मंगलेश रचने के अलावा कुछ नये साहित्यिक विवादों और बहसों के भी जनक थे। कई बार इस कारण बहुत से लोग उन पर टूट भी पड़ते थे। कभी वे अपनी कविता के अतिरिक्त बचाव में भी आ जाते थे, जबकि जो जगह वे हासिल कर चुके थे, उसके बाद इसकी ज़रूरत नहीं थीं। एक बार एक आलोचक ने उनकी कविता भाषा पर उंगली उठायी तो वे तुरंत बचाव में आ गये। बहरहाल इनसे बचने की सलाहों का उन पर असर नहीं हुआ। शायद उन्हें इसमें भी मज़ा आता हो।

मुक्तिबोध की मृत्यु के समय तो मैं एक किशोर था, जानता भी नहीं था कि ऐसा कोई कवि भी था, जो अब नहीं है और उसका होना बहुत मायने रखता था। इसलिए जिस सदमे को उनकी कविता को निकट से जाननेवालों ने तब महसूस किया था, उसे बहुत बाद में, उन्हें पढ़ने के बाद मैं महसूस कर पाया। 1990 के अंत में जब रघुवीर सहाय नहीं रहे तो उनके अभाव को मंगलेश सहित हम सबने बहुत देर तक महसूस किया था और उस रिक्तता को मंगलेश ने भी महसूस किया हमेशा। मंगलेश का अभाव भी कुछ ऐसा है। वे थे तो उस आदमी को चैन नहीं था। तमाम बेचैनियां उनकी कविताओं और उसके बाहर दर्ज होती रहती थीं। अब वे शायद चैन में हों, मगर हम उनके समवयस्क और बाद के कवि उनके न रहने से बेचैन हैं।

मंगलेश और हम एक-दूसरे के कितने क़रीब थे, कितने नहीं, मैं ठीक-ठीक कह नहीं सकता। उनसे मेरी दूरी भी थी, निकटता भी। उनकी अंतरंग मंडली के कुछ दूसरों की तरह मैं उसका सदस्य नहीं था, हालांकि उनकी बहुत सी अंतरंग गोष्ठियों का एक गवाह मैं भी रहा हूं। मैं उन्हें 1971-72 से थोड़ा थोड़ा जानता रहा हूं। हम दोनों के तब संघर्ष के दिन थे। मंगलेश मुझसे कुछ पहले दिल्ली आ चुके थे। साहित्य का संसार कुछ-कुछ उन्हें जानता था,जबकि मैं हर तरह से अनजाना था। विचारधारागत तैयारी तब तक मंगलेश की काफ़ी हो चुकी थी। मैं शून्य या शून्य से थोड़ा ऊपर था। मोहनसिंह प्लेस के कॉफ़ी हाउस में उनके मित्रों की बहसें सुना करता था और सीखने-समझने की कोशिश करता था। 

ख़ैर वह दौर गुज़रा। बाद में एक स्तर पर हमारी मित्रता भी हुई। और बाद में हम कविता के कई मंचों पर साथ रहे। कविता के बाहर की दुनिया में भी संग रहा। रसरंजन की कई शामें भी साथ बीतीं। जनसत्ता के दफ़्तर में भी कई दोस्तों के साथ दोपहरें बीतीं। बहादुर शाह ज़फ़र मार्ग पर उनका छोटा सा कैबिन मित्रों का सबसे अड्डा और कई नवागत लेखकों-पत्रकारों का स्वागत कक्ष था। इतनी भीड़ होती थी अक्सर वहीं कि अगर वे कभी अकेले काम करते हुए मिल जायें तो कुछ आश्चर्य होता था। मगर यह भाव बहुत देर तक टिक नहीं पाता था। कभी मंगलेश ने किसी से नहीं कहा कि यारो, अब मुझे काम करने दो। ज़्यादा काम होता तो वे सबकुछ सुनते भी और काम भी मुस्तैदी से निबटाते जाते। तब जनसत्ता के चार रविवारी पृष्ठों की जो धमक थी,वह फिर कभी किसी की नहीं रही। बहुत सी बातें उनसे अलग से भी होती रहीं। सहमतियां-असहमतियां रहीं। आज भी वे होते तो यह सब चलता ही रहता। असहमतियां हुईं तो एकदूसरे से कुछ समय उदासीन रहे, मगर संबंधों का धागा कभी टूटा नहीं। जब मैं रघुवीर सहाय की जीवनी पर काम कर रहा था, तो मुझे लगता था कि इस काम को करने के सच्चे अधिकारी वे हैं। फिर भी यह अच्छा हुआ, यह काम मैंने किया। शायद उनसे अपनी दूसरी व्यस्तताओं के कारण यह काम पूरा नहीं हो पाता, जैसा शमशेर बहादुर सिंह की जीवनी लिखने की परियोजना के साथ हुआ। यह काम पूरा न हो पाने का एक कारण कोरोना के बाद अस्तव्यस्त हुआ सबका जीवन भी था। शमशेर जी वाला काम शायद आरंभिक नोट्स लेने से आगे नहीं बढ़ पाया। बहुत तरह की उलझनों के बीच ऐसा काम-जो रचनात्मक भी हो और निरंतर शोध भी मांगता हो,उनकी तमाम योग्यताओं के बावजूद कठिन तो था मगर मेरे काम में उन्होंने किसी और से ज़्यादा तत्परता से सहयोग दिया। इसका कारण रघुवीर सहाय से उनका लगाव था और मुझसे मित्रवत संबंध भी इसका कारण निश्चय ही थे।

बहरहाल वे अब नहीं है और उनका न होना इतना अप्रत्याशित है । फिर भी इस प्रकार वे हमारे बीच भी हैं : 

              अपने ही भीतर मरते जा रहे हैं

जीवित लोग

मैं उम्मीद से देखता हूं मृतकों की ओर

वे ही हैं जो दिखते हैं जीवित।

यह मंगलेश डबराल के अभी 2020 में प्रकाशित, स्मृति एक दूसरा समय है कविता संग्रह की तीन छोटी कविताओं में से एक है। छोटी और अर्थपूर्ण। मंगलेश को क्या पता रहा होगा कि वे भी जल्दी ही उनमें से एक हो जानेवाले हैं, जो उन मृतकों में एक होंगे,जो दीखते रहेंगे, हमें जीवित। हम जो जीवित अपने भीतर मरते जा रहे हैं, उम्मीद से उनकी ओर देखा करेंगे। वैसे उनमें जीवन जीने की अदम्य इच्छा थी। जीवन से वे कभी हारे नहीं। उन्हें निजी अस्पताल से अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान(एम्स) में भर्ती किया जाये, यह उन्हीं का आग्रह था।

हारना तो जैसे आरंभ से उस शख़्स को आता ही नहीं था। हां, लड़ना-भिड़ना ख़ूब आता था। अपनी बात के लिए, ,कविता के लिए जगह बनाना आता था। अपनी कविताओं से ज़्यादा दूसरों की कविताओं के लिए यह काम उन्होंने अपने सुदीर्घ पत्रकारिता के दौरान किया और जहां भी रहे, वहीं रहकर किया।

जनसत्ता जिन वर्षों में सचमुच एक अख़बार  हुआ करता था, तब उसने हिंदी और भारतीय भाषाओं की कविता और कवियों के लिए उसमें बहुत जगह बनायी बल्कि कविता के लिए ही क्यों, साहित्य और संस्कृति के लिए भी। जब दूसरे हिंदी अख़बार साहित्य और.संस्कृति से विमुख होने के लिए तत्पर हो चुके थे, तब जनसत्ता ने मंगलेश डबराल के रहते लगभग दो दशकों तक यह काम जम कर किया। शायद किसी दूसरे अख़बार ने कभी किसी साहित्य संपादक को इतने समय तक इस तरह का काम करने का मौक़ा भी नहीं दिया। अपने इस काम में किसी तरह का समझौता मंगलेश ने स्वीकार नहीं किया। उस समय की कोई बड़ी सांस्कृतिक-साहित्यिक हस्ती ऐसी नहीं थी, जिसकी जनसत्ता के साप्ताहिक संस्करण में चर्चा न हुई हो, जिसके महत्व को अच्छे ढंग से, विस्तार से रेखांकित न किया हो, हिंदी के पाठक को उससे अपरिचित रखा हो। यही बात युवा प्रतिभाओं के बारे में भी सच थी। यह काम मंगलेश ने अन्यत्र भी किया था, मगर जनसत्ता ने उसे दीर्घकालिक स्मृति का हिस्सा बना दिया। रघुवीर सहाय कभी जो काम, दिनमान के संपादक के नाते कर रहे थे, उसे साहित्य संपादक की अपनी सीमाओं में मंगलेश ने किया। जब रघुवीर जी दिनमान से बाहर कर दिये गये तो उनके लेखन का उपयोग अपने यहां मंगलेश ने उनसे स्तंभ लिखवाकर किया। अक्सर कवि की कविताओं की आभा में उसके इस तरह के योगदान को विस्मृत कर दिया जाता है। 

जीवन के बहत्तर वर्ष पूरे कर चुका और पचास से भी अधिक वर्षों से लिख रहा यह कवि अभी भी बहुत कुछ कर रहा था और बहुत कुछ करने की इच्छा से प्रेरित था। मंगलेश जब अपने गांव, काफलपानी में रहते थे अभावों के बीच,जहां व्यावसायिक पत्र-पत्रिकाएं भी मुश्किल से पहुंचती थीं, तब 1967-68 में ही छोटी पत्रिकाओं में उनकी कविताएं छपने लगी थीं। 1970 में जब अशोक वाजपेयी की आलोचना की पहली और उल्लेखनीय किताब, फिलहाल आयी थी, उसमें भी मंगलेश की एक आरंभिक कविता का ज़िक्र है, हालांकि वह उल्लेख कविता, कविता से विचारों की विदाई के संदर्भ में है।

मंगलेश के जानने वालों को लगता था कि वे कोरोना से भी नहीं हारेंगे। अभी एक दिसंबर को ही निजी अस्पताल के बिस्तर पर लेटे हुए अर्द्धचेतनावस्था में उन्होंने फ़ेसबुक पर कुछ लिखने-कहने की कोशिश की थी। पता नहीं यह कुछ कहने का प्रयत्न जैसा था या कुछ कह न पाने में असमर्थता का संकेत। इसके बाद, आल इंडिया मेडिकल इंस्टीट्यूट में भर्ती होने के बाद मृत्यु से चारेक दिन पहले तक मित्र रवींद्र त्रिपाठी से संक्षिप्त बात की थी। इससे लगता था कि 'एम्स' के कुशल डाक्टर और वे स्वयं आत्मबल से कोरोना संकट से बाहर निकल आयेंगे, बस समय लगेगा।  मंगलेश की हालत से इतने लोग चिंतित थे और इतनों की शुभेच्छाएं उनके साथ थीं और हर तरह से सहयोग करने की इच्छाएं भी कि जिसकी कल्पना इस समय करना कठिन है।

वे हमारे समय के सबसे चर्चित और सबसे सक्रिय-सफल कवियों-लेखकों में थे। उनकी चौतरफ़ा तैयारी और सक्रियता नौजवान कवियों-लेखकों के लिए भी प्रेरक शायद रही हो। फ़ेसबुक पर उनकी सक्रियता भी ग़ज़ब थी। शायद ही कोई दिन जाता हो,जब किसी न किसी रूप में वे अपनी उपस्थिति दर्ज न कराते रहे हों। कई बार वे एक योद्धा की तरह कूद पड़ते थे, चाहे हमला उनके किसी कथन या कविता पर हो या कोई और व्यापक मुद्दा हो। मंगलेश की निगाहें साहित्य ही नहीं, हमारे समय के राजनीतिक विद्रूप पर भी ख़ूब थीं। वे इस समय जितना बेचैन, व्यथित और बदलाव की इच्छा से प्रेरित कवि थे, ऐसे हिंदी कवि इस समय कम मिलेंगे। इस हत्यारे समय की जैसी पहचान मंगलेश के अंतिम कविता संग्रह, स्मृति एक दूसरा समय है में है, वैसी कम मिलेगी। हिटलर, तानाशाह, हत्यारों का घोषणापत्र, हत्यारा चाकू आदि आदि उनकी अनेक कविताएं हैं। बाक़ी कविताओं में भी यह उपस्थिति नज़र आयेगी।

मंगलेश उन हारे-थके हुए कवियों में नहीं थे, जिनका वक्त़ ने साथ छोड़ दिया, मगर जो वक्त़ का हाथ ज़बर्दस्ती पकड़े हुए घिसट रहे हैं। वे अपार ऊर्जा से भरे हुए थे। अभी अक्टूबर के अंत में मुझे साथ लेकर मंगलेश ने बहुत बड़ी लेखक-कलाकार बिरादरी को बिहार चुनाव में धर्मनिरपेक्ष शक्तियों के पक्ष में खड़ा किया था। यह कवि इस समय हिंदी कवियों में अपनी प्रसिद्धि के शिखर पर था। हमारी पीढ़ी के वे ऐसे अकेले कवि थे, जिनकी अंतरराष्ट्रीय  पहचान भी इस बीच बनी थी। उनके कवि-मित्रों की बिरादरी भाषाओं और देशों के पार थी। जीवन में उनके कइयों से कई मतभेद रहे, मगर कवि-लेखक के रूप में उनकी प्रतिभा से शायद ही कभी कोई इनकार कर पाया हो, जबकि किसी को भी सिरे से नकार देने का रिवाज हमारी भाषा में बहुत है।

शमशेर बहादुर सिंह के अलावा उनके एक और आदर्श कवि रघुवीर सहाय थे, जिनसे उनकी व्यक्तिगत निकटता बहुत रही। 9 दिसंबर को रघुवीर जी का जन्मदिन था लेकिन अब यह दिन मंगलेश के हमसे बिछुड़ने के दिन की तरह शायद अधिक याद किया जाये। इसी दिन हिंदी के एक और फक्कड़ और बड़े कवि त्रिलोचन शास्त्री भी नहीं रहे थे और अब मंगलेश भी नहीं हैं।

1981 में प्रकाशित  पहले कविता संग्रह, पहाड़ पर लालटेन  से पहले ही हिंदी कविता की दुनिया में मंगलेश को बहुत सम्मान के साथ देखा जाता था। उनके दूसरे कविता संग्रह का नाम था, घर का रास्ता। वह रास्ता अपनी कविताओं में तो वे बार-बार तलाशते रहे मगर वास्तविक जीवन में उसे पाना इतना आसान कहां था! जब कोई अपना गांव घर छोड़कर दिल्ली-बंबई जैसे महानगर में आने को मजबूर हो जाता है तो फिर घर का रास्ता पता होने पर भी घर लौटना कहां आसान रह जाता है! मंगलेश की एक कविता का अंश है :

मैंने शहर को देखा और मैं मुस्कुराया

यहीं कोई कैसे रह सकता है

यह जानने मैं गया

और वापस न आया।

वे शुरू से विश्वासों से वामपंथी रहे और इसमें कभी विचलन नहीं आया। 2015 में जब साहित्य अकादमी ने अकादमी पुरस्कार प्राप्त लेखक एम.एम. कलबुर्गी की हत्या पर मौजूदा सत्ता के भय से अकादमी ने शोकसभा तक करने से इनकार कर दिया था, तो भारतीय भाषाओं के जिन क़रीब पचास लेखकों ने अपना विरोध व्यक्त करने के लिए अकादमी पुरस्कार लौटाया था, उनमें मंगलेश डबराल अग्रणी थे, जिसे हुक्मरानों ने और उस समय के अकादमी अध्यक्ष ने इसे कुछ लेखकों का षड्यंत्र तक बताया था और इन लेखकों को 'अवार्ड वापसी गैंग' कहा था। यह पुरस्कार मंगलेश को आज से 19 वर्ष पहले मिला था। उम्र के अस्सीवें वर्ष के बाद मिलनेवाले कुछ पुरस्कारों को छोड़ दें तो मंगलेश को सभी  महत्वपूर्ण पुरस्कार मिले, मगर पुरस्कारों से अधिक महत्वपूर्ण होता है कविता की दुनिया में कवि का अकुंठ सम्मान।

  इतने सम्मानों से नवाज़ा गया यह कवि सत्ता के विरोध के हर मंच पर उपस्थित रहता था, भले कवि के रूप में किसी समारोह में बुलाये जाने और उसके निमंत्रण को स्वीकार करने के बाद भी वे किसी कारण जाना टाल जायें, जो वे कई बार करते थे। वे उन कवियों-व्यक्तित्वों में रहेंगे, जिन्हें मृत्यु के बाद श्रद्धांजलि देकर फिर हमेशा के लिए भुला नहीं दिया जा सकता।

मो. 9810892198

 


स्मृतिशेष : मंगलेश डबराल की एक गद्य कविता 

                 आंतरिक जीवन

             मंगलेश डबराल

 

मनुष्य एक साथ दो ज़िंदगियों में निवास करता है। एक बाहरी और एक भीतरी। एक ही समय में दो जगह होने से उसके मनुष्य होने की समग्रता का ख़ाक़ा निर्मित होता है। मेरा बाहरी जीवन मेरे चारों और फैला हुआ है। जहां भी जाता हूं वह दिखता ही रहता है। बाहरी जीवन में बहुत सी किताबें हैं, अलमारियों में करीने से रखी हुईं शीशे के पल्लों के पीछे बंद। दुनिया में धूल और कई तरह की दूसरी गंदगियां बहुत हैं, इसलिए मैं उन्हें साफ़ करता, उलटता-पलटता, फ़ालतू लगने वाली किताबें छांट कर अलग कर देता और फिर वापस अलमारी में सजा देता जैसे एक माली पौधों की बेतरतीब शाखों-पत्तों को काट-छांट कर अलग कर देता है। इस तरह बाहरी जीवन एक बाग़ीचे की मानिंद खिला हुआ दिखता। मेरे कई फ़ोटो भी इसी पृष्ठभूमि के साथ खींचे गये। अलमारी के एक कोने में कुछ ऐसे ख़ाने भी हैं, जहां कुछ कम रोशनी रहती, जिनमें शीशे नहीं लगे थे और ऐसे तमाम तरह के काग़ज़ जमा होते रहते जिन्हें बाद में या फ़ुर्सत के वक़्त ज़्यादा गंभीरता से देखने के मकसद से ठूंस दिया जाता। शायद उनमें ऐसे क्षणों के दस्तावेज़ थे जिन्हें मैं उड़ने या नष्ट होने से बचाना चाहता था। समय-समय पर जब उनकी तरफ़ निगाह जाती तो लगता कि वे बहुत ज़रूरी हैं, लेकिन यह समझ में नहीं आता था कि इनमें क्या है और फिर आश्चर्य होता कि यह सब अंबार कब जमा होता रहा और क्यों इसकी छंटाई नहीं की गयी और इसे करीने से रखने में अब कितना ज़्यादा समय और श्रम लगने वाला है। उन ख़ानों में रखी हुई फ़ाइलें फूल रही थीं, काग़ज़ बाहर को निकल रहे थे और वहां अब कुछ और ठूंसना मुमकिन नहीं था। अंतत: मैंने उनकी सफ़ाई करने का बीड़ा उठाया, लेकिन जैसे ही उन्हें छुआ, आपस में सटाकर रखी गयीं फ़ाइलें गिर पड़ीं, बहुत सारे भुरभुराते काग़ज़ छितरा कर फट गये और धूल का एक बड़ा-सा बादल मेरे मुंह, नाक, आंखों और कानों में घुस गया। मैंने देखा, अरे यही है मेरा आंतरिक जीवन जो बाहरी जीवन के बिलकुल बग़ल में रखा हुआ था, जो अब धराशायी है, जिसके काग़ज़ भुरभुरा गये हैं, अक्षरों की स्याही उड़ गयी है, वाक्य इस क़दर धुंधले पड़ चुके हैं कि पढ़ने में नहीं आते और सब कुछ एक अबूझ लिपि में बदल चुका है।

  

No comments:

Post a Comment