वैचारिक विमर्श -2

 

मुक्ति का संश्लिष्ट विमर्श : दलित-वाम साझेदारी

बजरंग बिहारी तिवारी

 

क्रांतिकारी आह्वान ‘दुनिया के मज़दूरों एक हो’ जब भारत पहुंचा तो इसका महत्त्व पहले उन लोगों ने समझा जो मज़दूरों के शोषण पर फल-फूल रहे थे। महत्त्व उन्होंने भी समझा जो इस शोषण का अंत करना चाहते थे। मज़दूरों की पहली राजनीतिक पार्टी ‘स्वतंत्र मज़दूर दल’ (इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी) डॉ. आंबेडकर ने 1936 में बनायी। डॉ. आंबेडकर आम श्रमिकों के मुद्दों को लेकर चुनाव मैदान में आये और उनके दल को अच्छी सफलता भी मिली। यह सिलसिला आगे बढ़ता तो परिदृश्य कुछ और ही होता। इसे रोकने के लिए सारी ताक़तें एक हो गयीं। थोड़े ही अंतराल बाद मार्च 1942 में क्रिप्स मिशन भारत आया। स्टेफ़ोर्ड क्रिप्स के नेतृत्व वाला यह कैबिनेट मिशन मात्र धार्मिक या जातीय प्रतिनिधियों को ही मान्यता दे रहा था। यह उन्हीं से बात करने को अधिकृत था। ‘मज़दूर’ तो एक आर्थिक-राजनीतिक श्रेणी है, लिहाजा स्वतंत्र मज़दूर दल के प्रतिनिधि के रूप में डॉ. आंबेडकर इस मिशन से नहीं मिल सकते थे। नतीजतन उन्हें शिड्यूल कास्ट फ़ेडरेशन बनाना पड़ा। वे ‘अछूतों’ के प्रतिनिधि के रूप में ही औपनिवेशिक सत्ता को स्वीकार्य हुए। इस तथ्य की तरफ़ डॉ. आंबेडकर ने एकाधिक बार इशारा किया था कि भारत में सभी मज़दूर एक जैसे नहीं हैं। उनमें कई तरह के भेद-प्रभेद हैं। जाति के आधार पर भेदभाव प्रमुख है। इसके बावजूद उन्होंने मज़दूरों को एक श्रेणी में रखा और किसिम-किसिम की सामाजिक पृष्ठभूमि वाले मज़दूरों के हितों के साझेपन को समझा। क्या मज़दूर-मज़दूर में फ़र्क़ की बात दुनिया के मज़दूरों को एक होने का नारा देने वाले नहीं जानते थे? उन्हें यह भी मालूम था कि दुनिया के पूंजीपति भी एक जैसे नहीं हैं, लेकिन वे अपने साझे हितों को समझते हैं और अपने बीच मज़बूत एकता बनाये रखते हैं। इस एका से उनका वर्चस्व क़ायम रहता है। इस वर्चस्व को तोड़ना है तो मज़दूरों को अपनी एकता की शक्ति को, उसके नतीजों को पहचानना होगा। वर्चस्ववादियों के लिए यह जीवन-मरण का प्रश्न बन गया। उन्होंने श्रमिकों के हितों के साझेपन को धुंधला करने की भरसक कोशिश की। उनके बीच के अंतर को रंगरोगन लगाकर, ख़ूब चटक बनाकर पेश किया। बनती हुई एकता को तोड़ने में जातितंत्र ने भरसक योगदान दिया। डॉ. आंबेडकर ने मज़दूरों से और श्रम से जुड़े मुद्दों पर राजनीति करने वाले वामपंथ से सदैव संवाद बनाये रखा। उनके बाद दरार चौड़ी होती चली गयी। जाति की राजनीति और वर्गाधारित आंदोलन करने वालों में यद्यपि मैत्रीपूर्ण संवाद बनाये रखने में कॉ. आर.बी. मोरे, अन्ना भाऊ साठे, अमर शेख़ जैसे कई विचारकों/आंदोलनकर्मियों ने सराहनीय प्रयास किया लेकिन दोनों के मध्य बढ़ती कटुता ख़त्म नहीं की जा सकी। स्वतंत्र भारत की सरकारें, दक्षिणपंथी ताक़तें, देशी पूंजीपति और कैपिटलिस्ट सत्तातंत्र ने एकता की इस संभावना को तोड़ने में अनवरत काम किया। दोनों की बेध्यानी और आत्ममुग्धता ने एकता के विरोधियों की मंशा को सफल होने दिया। रिपब्लिकन पार्टी के नेतृत्व ने वामपंथ को निशाने पर रखा और 1984 में बनी बसपा ने उसे पहले नंबर का शत्रु माना। बीच में उभरे दलित पैंथर आंदोलन ने बेशक दोनों के बीच पुल बनाने की चेष्टा की लेकिन जल्दी ही वहां भी वामविरोधी गुट प्रबल हुआ और पारस्परिकता के पक्षधर हाशिये पर ठेल दिये गये। आज हालत देखिए। दलित राजनीति करने वाले आरपीआइ, लोजपा और बसपा कहां हैं! उधर दलितों पर होने वाली हिंसा का ग्राफ़ कितना ऊपर गया है! मेहनतकश तबक़ों, ख़ासकर दलित समुदाय की आर्थिक बदहाली किस सूचकांक पर टिमटिमा रही है! इस दुर्दिन से कैसे छुटकारा मिलेगा? जो अस्मितावादी कल तक राष्ट्रीय परिसंपत्तियों को निजी हाथों में दिये जाने की पैरोकारी कर रहे थे वे क्या आज (जबकि अधिकांश सार्वजनिक उपक्रम या तो बिक चुके हैं या बेचे जाने की कगार पर हैं) अपनी राय बदलने को तैयार हैं?

वाम और दलित साहित्यकारों, संस्कृतिकर्मियों का एक दूरंदेशी समूह हमेशा साझे मोर्चे के पक्ष में रहा। सत्ता, समाज और शासन पर दक्षिणपंथ की पकड़ मज़बूत होते जाने के साथ इस साझे मोर्चे का महत्त्व समझ में आता गया। नरेंद्र अच्युत दाभोलकर (1945-2013) और गोविंद पानसरे (1933-2015) की हत्या ने जिस ज़रूरत का अहसास घना किया उसे डॉ. एम.एम. कलबुर्गी (1938-2015) की हत्या ने अपरिहार्य बना दिया। डॉ. कलबुर्गी की हत्या का विरोध-प्रदर्शन संयुक्त रूप से हुआ। एक साझा मोर्चा बना जिसमें वाम और दलित लेखक संगठन थे। रोहित वेमुला (1989-2016) की सांस्थानिक हत्या (आत्महत्या) ने पूरे देश में विक्षोभ पैदा किया। छात्रों ने साझेपन की ज़बर्दस्त पैरोकारी की। विश्वविद्यालय परिसरों से न्याय की, प्रेम की और आततायी सत्ता के विरुद्ध एकजुट होने की बुलंद आवाज़ उठी। इसके बाद प्रगतिशील पत्रकार व लेखिका गौरी लंकेश (1962-2017) की हत्या के ख़िलाफ़ प्रगतिवादियों और आंबेडकरवादियों का साझा मंच किंचित अधिक मज़बूती से आगे बढ़ा। कांचा इलैया के ऊपर हुए हमले का विरोध भी संयुक्त रूप से हुआ। इस दौरान साझेपन की ज़रूरत को समझने और उसके वैचारिक आधार को मज़बूती देने के लिए जनवादी लेखक संघ ने तीन-तीन दिवसीय तीन कार्यशालाएं आयोजित कीं : बांदा कार्यशाला (2015), इलाहाबाद कार्यशाला (2016) तथा जयपुर कार्यशाला (2018)। इनमें क्रमशः 'आंबेडकरवाद और मार्क्सवाद की पारस्परिकता', 'जाति, वर्ग और जेंडर का अंतस्संबंध' व 'रचना-प्रक्रिया तथा विचारधारा' पर विमर्श हुआ। संगठनों के साझे मोर्चे जिसमें जसम, दलेस, जलेस और प्रलेस शामिल थे, के संयुक्त कार्यक्रम होने आरंभ हुए। ये कार्यक्रम प्रतिरोध सभाओं, परिसंवादों व विचार-गोष्ठियों के रूप में दिखायी पड़े। ‘देशप्रेम के मायने’ नामक गोष्ठी-सीरीज़ बड़ी सफल रही। ‘प्रगतिशील आंदोलन की विरासत’, ‘दलित आंदोलन : साहित्य और कलाएं’ तथा ‘हम देखेंगे’ जैसे चर्चित कार्यक्रम संयुक्त बैनर के तले हुए। इप्टा, प्रतिरोध का सिनेमा तथा अन्य समान सोच वाले संगठन समय-समय पर संयुक्त मोर्चे में शामिल होते रहे। ‘प्रगतिशील आंदोलन की विरासत’ कार्यक्रम से 'न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव' और उसके बाद हाथरस बलात्कार-हत्याकांड पर हुए प्रतिरोध कार्यक्रम से 'अखिल भारतीय दलित लेखिका मंच' संयुक्त मोर्चे में मज़बूती से शामिल हुए। नवंबर-दिसंबर 2020 से संयुक्त मोर्चा किसान आंदोलन से जुड़कर कार्यक्रम कर रहा है।

     अपने लेखों और व्याख्यानों में डॉ. तुलसीराम इस बात पर ध्यान दिलाते रहे कि जाति के आधार पर राजनीति करने वाले तथा क्षेत्राधारित राजनीतिक दल संविधानविरोधी सांप्रदायिक बाढ़ को रोक नहीं सकेंगे और अंततः हिंदुत्व के सहयोगी बनेंगे। समय ने उनकी बात को सच साबित किया। अपनी नयी किताब, आरएसएस और बहुजन चिंतन (फ़ॉरवर्ड प्रेस, नयी दिल्ली, 2019) में कंवल भारती ने संघ के दलित प्रेम और आंबेडकर अनुराग का दस्तावेज़ी खुलासा करते हुए यह भी लिखा है कि संघ की असल दुश्मनी किससे है : 'आरएसएस मूलतः कम्युनिस्टविरोधी है। उसकी मुख्य शत्रुता अगर किसी से है तो वह कम्युनिज़्म से ही है।' (पृ.198) दक्षिणपंथ की ओर झुकी हुई जाति आधारित राजनीति को नकारते हुए उक्त किताब के अंतिम अनुच्छेद में वे लिखते हैं : 'बौद्ध धर्म में उनके (बाबा साहब डॉ. आंबेडकर के) धर्मांतरण के बाद भी स्थितियां बदली नहीं हैं। वे आज जीवित होते तो इस बात को ज़रूर अनुभव करते कि बौद्ध भारत में भी जाति, ग़रीबी और शोषण के सवाल बने हुए हैं और समाजवादी शक्तियां भी इन सवालों की उपेक्षा करके जातिवाद और धर्म की ही पूंजीवादी राजनीति कर रही हैं। इसलिए, भारत को आरएसएस और धर्म की जोंकों से निजात दिलाने का कम्युनिज़्म के सिवाय कोई रास्ता नहीं है।' (पृ.199)

     कवियों में जय प्रकाश लीलवान ने साझेपन का महत्त्व सबसे पहले और सबसे ज़्यादा समझा। नये क्षितिजों की ओर (भारतीय दलित अध्ययन संस्थान, नयी दिल्ली, 2009) संग्रह में उन्होंने संविधान और लोकतंत्र पर मंडरा रहे ख़तरे को पहचाना। इशारों-इशारों में उन्होंने कहा कि ‘क़त्ल होते रहे कामरेडों’ को देखकर ‘एक नये इंक़लाब की शक्ल/ तुम्हें ही/ तराशनी होगी’ (पृ. 71)। इसे और भी स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा, ‘समय/ अब कभी भी/ ले सकता है/ हमारे/ संगठित युद्ध के/ लाल सलाम।।’ (पृ. 97)। उसी वर्ष प्रकाशित अपने अगले संग्रह, समय की आदमख़ोर धुन (भारतीय दलित अध्ययन संस्थान, नयी दिल्ली, 2009) में लीलवान ने शत्रु की ताक़त और तैयारी का मापन करते हुए संयुक्त मोर्चा बनाने के लिए खुला आह्वान किया, ‘आओ कॉमरेड/ कि हम आज/ शत्रु के/ उत्तेजित संवादों का सधा हुआ प्रत्युत्तर देने को/ अपनी ऐतिहासिक/ अटूट एकता के/ संगठन में ढल जायें।।’ कवि को उन दुश्वारियों का ज्ञान है जो इस एकता को न महसूस होने देंगी और न संभव होने देंगी। निजीकरण से मालामाल होने जा रही शक्तियां अपने निवेश का एक हिस्सा इस एकता को तोड़ने में लगाना तय कर चुकी थीं। वे कम्युनिस्टों को ‘हरी घास में हरा सांप’ साबित करवाने में जुटी हुई थीं। जो कम्युनिज़्म का जितना विरोधी वह कॉरर्पोरेट का उतना ही निकट सहयोगी और फ़र्ज़ी 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' का उतना अंतरंग मददगार। तर्क दिया गया कि जब राष्ट्रीय परिसंपत्तियों का निजीकरण हो जायेगा तब पारंपरिक जाति वर्चस्व भी टूट जायेगा और दलित खुली हवा में सांस लेने लगेंगे। रचनाकार शरण कुमार लिंबाले से लेकर विमर्शकार चंद्रभान प्रसाद तक सब इस तर्क के मुरीद हो गये और इसका प्रचार करने में जुट गये। यह वही समय था जब लोकतंत्र के चौथे खंभे पर कॉरर्पोरेट ने कब्ज़ा किया और उसे ‘न्यू नॉर्मल’ निर्मित करने की ज़िम्मेदारी सौंप दी। इस तरह कॉरर्पोरेट चाकर बनी सरकार की अगवानी का पुख़्ता इंतज़ाम किया गया। जनता के एक हिस्से को राष्ट्रवादी धुन में सराबोर किया जाने लगा और एक हिस्से को जातितंत्र तोड़ने के कॉरर्पोरेट के फ़ॉर्मूले में यक़ीन दिलाया जाने लगा। इस शोर में सावधान करने वाली विवेकशील जनपक्षधर आवाज़ें दब गयीं या दबा दी गयीं। अब ऊंची आवाज़ में बोलने का वक्त़ था। जय प्रकाश लीलवान ने ऐसे समय अत्यंत महत्त्वपूर्ण सुदीर्घ कविता लिखी, ‘समय की आदमखोर धुन’। यह कविता संकट को समग्रता में पहचानती हुई मौक़ापरस्त, समझौतापरस्त ‘अपने’ राजनेताओं से मिली नाउम्मीदियों का उल्लेख करती है :

समय अब

हमारे साथ नहीं चलता – कॉमरेड

शायद इसलिए

कि हमारे हो सकने वाले

रहनुमा भी

आजकल अमीरों के आयोजनों में

बची रह गयी

जूठन खाने के लिए

सरेआम आने-जाने लग गये हैं

और इसीलिए

पतन के इस पुष्प का नज़ारा

हमारे इस

सबसे प्यारे देश की

आंखों की बीमारी बढ़ा रहा है। (पृ.67-8)

दावेदार रहनुमाओं से मिल रहा धोखा यह संकेत दे रहा था कि वर्चस्ववादियों, वेदवादियों और भेदवादियों की तैयारी कैसी है और उनका शिकंजा कितना तगड़ा है। जबकि ‘अपने’ नेताओं के प्रति अस्मितावादी कविजन सिरे से अनालोचनात्मक बने हुए थे, लीलवान जैसे कवि उनकी शिफ़्टिंग देख रहे थे, आलोचना कर रहे थे और व्यापक जनता व उनके हितचिंतकों को आगाह कर रहे थे :

कॉमरेड, हमारे देश के लोग

आज के ग्लोब में

एशिया की पूंछ से बांधकर

हिंदू-महासागर में

लटका दिये गये हैं

और जिनके होने की ख़बर

केवल उनके

रोने से ही पता चलती है

ऐसे में

इन डूबते मस्तूलों को

तुम्हारे सिवाय

और कौन संभालने आयेगा – कॉमरेड।। (पृ. 69)

यह कहते हुए तकलीफ़ हो रही है कि समय रहते न लीलवान की कविताओं पर ढंग की चर्चा हुई और न उनके भरोसे की ठीक से जांच-परख की गयी। उनका विश्लेषण अनदेखा रह गया। उनकी अपील अनसुनी चली गयी : 'आओ कॉमरेड/ कि हम आज/ शत्रु के/ उत्तेजित संवादों का/ सधा हुआ प्रत्युत्तर देने को/ अपनी ऐतिहासिक/ अटूट एकता के/ संगठन में ढल जायें।।' (पृ. 63)

     पूंजीवाद और ब्राह्मणवाद के गठजोड़ को समय से देख सकने वाले दूसरे कवि हैं आर.डी. आनंद। आर.डी. आनंद की वैचारिकी और रचनाधर्मिता पर भी प्रायः चुप्पी साधी गयी है। अस्मितावादी टिप्पणीकार ऐसे कवियों को ‘अपना’ नहीं मानते और प्रगतिवादी समीक्षक मात्र जाति-विमर्श करने वाले रचनाकारों को प्राथमिकता में ऊपर रखते हैं। परिणाम यह निकलता है कि मुक्ति का संश्लिष्ट विमर्श रचने वाले रचनाकार चर्चा के केंद्र में नहीं आ पाते। आर.डी. आनंद के कविता संग्रह, फूल ज़रूर खिलेंगे (विचारभूमि प्रकाशन, बेनीगंज, फ़ैज़ाबाद, 2015) में उनकी प्रारंभिक दौर 1985-87 के मध्य लिखी गयी कविताएं शामिल हैं। संग्रह की पहली कविता (जो आनंद की पहली कविता भी है) ‘मुक्ति मार्ग’ का आरंभ इन पंक्तियों से होता है :

यही एक रास्ता होगा

जो यथार्थों को आगे बढ़ायेगा

और आगे बढ़ा तो

इसी रास्ते पर

जो है तुम्हारा अपना

साम्यवाद

मार्क्स का रास्ता

जो सपनों को संजोयेगा

दुपहरी में

फूल खिलेंगे

अगर तुम चेतना से

अपना रास्ता संभालोगे

यही एक अच्छा क़दम होगा (पृ.35)

आनंद  ने यह कविता 20-21 वर्ष की उम्र में लिखी थी। दलित पृष्ठभूमि से एक उदीयमान कवि की दिशा इस तरह तय हो रही है। ‘फूल ज़रूर खिलेंगे’ संग्रह की कविताएं कवि के व्यापक सरोकारों की साक्षी हैं। संग्रह की सुविस्तृत भूमिका में कवि ने आत्मवृत्त के रूप में अपने निर्माण का ब्योरा दिया है। संग्रह की कविताओं में मज़दूरों, बटाईदारों, हलवाहों, किसानों, स्त्रियों और दलितों की ज़िदगी की विविध छवियां दिखायी देती हैं। कविताओं की बुनावट में हड़बड़ी या कच्चापन है जो बाद के संग्रहों में क्रमशः कम होता गया है। आनंद का ताज़ा संग्रह, सुनो भूदेव (परिकल्पना, लक्ष्मीनगर, दिल्ली, 2019) दलित कविता के समादृत कवि मलखान सिंह (सितंबर 1948 - अगस्त 2019) के बहुचर्चित संग्रह, सुनो ब्राह्मण (1996) से आगे ले जाता है। संग्रह की भूमिका में दलितवाद और मार्क्सवाद दोनों की कड़ाई से परीक्षा की गयी है और उनके सरोकारों के साझेपन को रेखांकित किया गया है। विषमता में जीने का आदी समाज साम्यवाद को लेकर भांति-भांति की आशंकाएं पाले, उससे डरे, यह स्वाभाविक है। जो अस्वाभाविक है उसकी तरफ़ ध्यान दिलाते हुए आनंद ने भूमिका में लिखा है,  'साम्यवाद एक भूत है जो भारतीय जातिवादियों की नींद उड़ा दे रहा है। मज़ेदार यह है कि ब्राह्मणवादी तो साम्यवाद का कड़ा विरोध करता है, साथ ही साथ ब्राह्मणवाद का विरोध करने वाले दलितवादी भी साम्यवाद और मार्क्सवाद का जमकर विरोध करते हैं। दोनों एक स्तर पर मित्र हो गये हैं। मुझे यह मित्रता समझ में नहीं आती है...' (पृ. 26)  विश्वपूंजीवाद अथवा कॉरर्पोरेट जगत से समर्थित हिंदुत्व की ताक़त और पिछली एक शताब्दी में निर्मित उनके व्यापक व मज़बूत नेटवर्क का ज्ञान कवि को है। वह इसीलिए प्रतिरोध की ऊर्जा को पूरी मितव्ययिता से बरतने की सलाह देता है। उसकी यह सलाह भी ग़ौरतलब है :

दोस्ती करना सीखो

क्रांतिकारी विमर्श करो

जो अपने जाति-धर्म के विरुद्ध खड़ा होगा

वही सच्चा क्रांतिकारी है

वही तुम्हारा दोस्त है

अपनी जाति को मज़बूत कर

सिर्फ़ ब्राह्मणवाद को मज़बूत करोगे (पृ. 31)

हिंसक दमन को अपने भीतर समोये नवउदारवाद ने प्रत्येक देश के दक्षिणपंथ से हाथ मिलाया है। भारत में तो उसे बड़ा मज़बूत ढांचा हासिल हुआ। यहां के जनसंचार को क़ाबू करने में भी उसे बहुत कठिनाई न हुई। असहमत आवाज़ों को नेस्तनाबूद करने का सिलसिला तेज़ हुआ। विवेकशीलता और विज्ञान पर आस्था की आरी चलने लगी :

विज्ञान संदेह, तर्क और जिज्ञासा

की बदौलत

पैदा होता है

मगर...

भारत में आस्था के व्यापारियों ने

...दाभोलकर

पानसारे

और कलबुर्गी की हत्या करवा दी

विज्ञान के पैदा होने की

सारी संभावनाएं ही

ख़त्म की जा रही हैं (पृ.48)

समकाल का बड़ा गहरा दबाव ‘सुनो भूदेव’ पर है। उनके पिछले संग्रहों में विविध विषयों पर कविताएं थीं, प्रेम और सौंदर्यानुभूति की अभिव्यक्तियां थीं, जल-थल-प्रकृति-मौसम-पुष्प-पक्षी-सांझ-समीर को देखती रससिक्त निगाहें थीं वे सब जैसे नये संग्रह में रीत गयी हैं, अप्रासंगिक होकर कहीं पीछे छूट गयी हैं। आततायी शासन कविकर्म पर इस तरह भी असर डालता है! मात्र चेताने वाली, आक्रोश से भरी, स्थिति का चिंतातुर विश्लेषण करती, बचाव और प्रत्याक्रमण की तरकीबें तलाशती कविताएं कालांतर में एकरस समझी जाने का जोखिम भी उठाती हैं। काव्यशास्त्रीय शब्दावली के सहारे समझना चाहें तो इस संग्रह के मुख्य स्वर को सुहृदसम्मित उपदेश की कविताएं कह सकते हैं। सलाह दोनों को दी गयी है- वे जो जाति की राजनीति करते हैं, और जो वर्ग की लड़ाई लड़ते हैं। अगर वर्ग की लड़ाई लड़ने वाले जाति के प्रश्न पर ‘मकैनिकल एप्रोच’ से काम करेंगे तो ‘क्रांतिकारी शक्तियां/ दूर होती चली जायेंगी/ और क्रांति के विरुद्ध खड़ी मिलेंगी’ (पृ. 53) इसलिए ज़रूरत है जाति के सवाल को संवेदनशीलता से समझने की, ‘डी-कास्ट’ होने की, आंबेडकर की (जातिप्रथा उन्मूलन, राज्य और अल्पसंख्यक) और दलित साहित्य की ‘प्रतिनिधि पुस्तकें’ पढ़ने की।

     सुनो ब्राह्मण से सुनो भूदेव का अंतर समझना दलित विमर्श की विकासयात्रा से रूबरू होना है। इनके कई अंतरों में एक अंतर यह है कि आनंद ने ‘कल्चरल कैपिटल’ से आगे जाकर संसाधनों पर कब्ज़े को सवर्णों के चिरकालिक वर्चस्व का प्रमुख कारण माना है। सुनो ब्राह्मण में विचारप्रधान कविताएं हैं जबकि सुनो भूदेव में विश्लेषणप्रधान। यहां विचार विश्लेषण के पीछे-पीछे चलता है। पहले संग्रह में व्यक्ति-वाचक संज्ञाओं वाली कविताएं नहीं हैं जबकि दूसरे में व्यक्ति और स्थान दोनों नाम के साथ आये हैं और उनकी पहचान की जा सकती है। सुनो भूदेव में आख्यानमूलक कविताएं हैं, सुनो ब्राह्मण में अर्जित निष्कर्षों वाली कविताएं। आख्यानमूलक कविताओं में ‘नीम गवाह’, ‘दादी की आत्मकथा’, ‘गुरूजी पैर नहीं छूते’, ‘कथावाचक’, ‘पड़ताइन बुआ’, और ‘पंडित पुरवा’ उल्लेखनीय हैं। ईश्वर को संबोधित या संदर्भित कविताएं दोनों संग्रहों में प्रमुखता से हैं। आत्मालोचन दोनों कवि करते हैं लेकिन आर.डी. आनंद का आत्मालोचन अस्मितावाद को नहीं बख़्शता। मलखान सिंह के दूसरे और अंतिम संग्रह ज्वालामुखी के मुहाने (शब्दारंभ प्रकाशन, दिल्ली, 2016) तक परिस्थितियां बहुत बदल गयी हैं लेकिन कवि की ओजस्वी वाणी पूर्ववत् है। आनंद अपने कवि को निरंतर अपडेट करते चलते हैं इसीलिए उनके यहां संकट की पहचान सटीक और गहरी होती गयी है। वे जेंडर का मुद्दा भी संजीदगी से उठाते हैं और जाति, वर्ग व जेंडर की राजनीति करने वाली पृथक-पृथक आंदोलनधाराओं को साझे मंच पर आने की शिद्दतभरी सलाह देते हैं। उनकी इच्छा है कि साझेपन की किसी भी ईमानदार पहल या प्रस्ताव को दलित समुदाय यथोचित समर्थन दे :

यह समय प्रतिरोध का है

और तुम बहुत अकेले हो

क्योंकि तुमने उनको भी शत्रु समझ रखा है

जो तुम्हारे बहुत क़रीब हैं

तुम उन्हें आस्तीन का सांप कहते हो

तुम उन्हें पुरातन नस्लवादियों से भी ख़तरनाक कहते हो

और तुम्हारे अंदर के अठावले और पासवान

मुंह चिढ़ा रहे हैं

...

यह बताओ

प्रतिक्रियावादियों से लड़ने के लिए

तुम्हारे पास कौन है?

मो. 9818575440

  

 

 

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