किसान आंदोलन : ऐतिहासिक परिदृश्य-2

औपनिवेशिक भारत में  किसान आंदोलन: एक अवलोकन

                                                                राजेश कुमार                                                                                                                  

ब्रिटिश शासन की स्थापना ने भारतीय कृषक समाज के स्वरूप में आधारभूत परिवर्तन किये। औपनिवेशिक आर्थिक नीतियों के प्रसार का ग्रामीण समाज, विशेषकर कृषकों पर दूरगामी प्रभाव हुआ। ब्रिटिश शासन द्वारा लागू किये गये भू-राजस्व बंदोबस्त यथा- स्थायी बंदोबस्त, रैयतवाड़ी बंदोबस्त तथा महालवारी बंदोबस्त के अंतर्गत भूमि में निजी स्वामित्व का सृजन किया गया जिससे भारतीय किसानों की स्थिति और रुतबे (status) पर प्रतिकूल असर पड़ा। कृषि के वाणिज्यीकरण से हालात और भी  ख़राब हो गये ।  साहूकार अब कृषि उत्पादन-प्रक्रिया का अभिन्न संस्थान बन गये थे । भारतीय ग्रामीण समाज में आये इन परिवर्तनों के कारण किसानों का जीना मुश्किल हो गया था। परिणामस्वरूप औपनिवेशिक नीतियों के ख़िलाफ़ भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग तरह से असंतोष की आवाज़ें उठने लगीं।

1764 में ब्रिटिश हुकूमत द्वारा दीवानी के अधिग्रहण (acquisition) के पश्चात बंगाल प्रांत की राजस्व व्यवस्था ब्रिटिश एजेंसियों के हाथ में आ गयी। वायसराय वारेन हेस्टिंग्स द्वारा शुरू की गयी फ़ार्मिंग व्यवस्था के तहत किसानों पर मालगुज़ारी का बोझ बढ़ गया और ग़ैर-क़ानूनी करों (illegal taxes) की भी वसूली होने लगी। किसानों के लिए जीवन निर्वाह की समस्या उत्पन्न हो गयी थी । परिणामतः उन्होंने  प्रतिरोध करना आरंभ कर दिया। 1783 में बंगाल के रंगपुर और दीनाजपुर ज़िलों के किसानों ने स्थानीय मालगुज़ार देवी सिंह तथा गंगागोविंद सिंह के विरुद्ध विद्रोह कर दिया जिसे ब्रिटिश सेना द्वारा कुचल दिया गया।¹ 1830-31 के दौरान दक्षिण भारत में मालगुज़ारी की दर में हो रही लगातार वृद्धि एवं अवैध करों के विरुद्ध किसानों ने विद्रोह कर दिया, किंतु ब्रिटिश सेना द्वारा इसे भी दबा दिया गया।²

अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध एवं उन्नीसवीं सदी के आरंभ में औपनिवेशिक आर्थिक नीतियों के दमनकारी स्वरूप के विरुद्ध कृषकों में असंतोष काफ़ी बढ़ गया, जिसके परिणामस्वरूप 1763-1800 के दौरान बंगाल और बिहार में 'संन्यासी और फ़कीर विद्रोह हुए । बंगाल में 1831 में तितु मीर के नेतृत्व में 'तरीक़ा-ए-मुहम्मदिया' आंदोलन, हाजी शरीअतुल्लाह के नेतृत्व में बंगाल में 1830 के दशक में हुआ 'फरिज़ी' आंदोलन, मालबार में 1840-50 के दशक का  'मापिला' आंदोलन वस्तुतः कृषकों में बढ़ते असंतोष का परिणाम  था।

जनजातीय क्षेत्रों में ब्रिटिश राज की घुसपैठ ने जनजातियों की राजनीतिक स्वायत्तता की अवधारणा को नष्ट कर दिया। अंग्रेज़ों द्वारा स्थानीय संसाधनों पर नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश की जाने लगी । भारत के विभिन्न क्षेत्रों के जनजातीय समुदायों ने अंग्रेज़ों के इन प्रयासों के विरुद्ध प्रतिरोध करना शुरू कर दिया। जनजातियों द्वारा किये गये विद्रोहों में ख़ानदेश और मराठा क्षेत्र का  'भील विद्रोह' (1819-31), बिहार एवं उड़ीसा  का  'कोल विद्रोह' (1831-32),  संथालियों का 'हूल विद्रोह' (1855-56) आदि प्रमुख हैं। इन विद्रोहों ने 1857-58 के महान विद्रोह की पृष्‍ठभूमि रखी, जिसने भारतीय उपमहाद्वीप के एक बड़े हिस्से को प्रभावित किया। हालांकि 1857 के विद्रोह में अंतर्निहित कारक अत्यंत जटिल थे लेकिन व्यापक कृषक असंतोष ने उत्तरी, मध्य और पूर्वी भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में इसे एक लोकप्रिय जन विद्रोह बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी । 1857 के विद्रोह को किसानों के उपनिवेशविरोधी प्रतिरोध के लंबे संघर्ष  का महत्वपूर्ण पड़ाव  माना जाना चाहिए।

1857 के पश्चात हुए सर्वाधिक प्रभावशाली आंदोलनों में बंगाल का 'नील विद्रोह' प्रमुख था। यूरोपीय बाग़ान मालिकों द्वारा  किसानों को बाज़ार से कम क़ीमत पर नील उत्पादन करने के लिए विवश करने की कोशिश की गयी । 1859-60 के दौरान किसानों ने  नील की खेती का ज़बरदस्त विरोध किया और संगठित होकर सामूहिक तौर पर नील की खेती बंद कर दी।³ प्रतिक्रियास्वरूप यूरोपीय बाग़ान मालिकों ने भूमि अधिकारों का मनमाना इस्तेमाल करके किसानों पर इस बात का दबाव बनाया कि वे 'नील आंदोलन' ख़त्म करें अन्यथा उन्हें ज़मीन से बेदख़ल कर दिया जायेगा। किसानों ने लगानबंदी अभियान (no rent campaign) चलाया तथा भूमि बेदख़ली का ज़बरदस्त विरोध किया। 1860 में प्रकाशित दीनबंधु मित्र के बंगाली नाटक, नील दर्पण  में किसानों की पीड़ा और दयनीय अवस्था को दर्शाया गया है । 1860 में गठित नील आयोग द्वारा बंगाल के किसानों को थोड़ी राहत मिली, पर यूरोपीय बाग़ान मालिकों ने बंगाल की बजाय अब नये क्षेत्र, उत्तर प्रदेश और  बिहार को नील की खेती के लिए अपना लिया । बंगाल की भांति ही इन क्षेत्रों में भी यूरोपीय बाग़ान मालिकों ने शोषण एवं दमन की प्रक्रिया जारी रखी। परिणामस्वरूप उत्तर प्रदेश एवं बिहार के किसानों में भारी असंतोष विकसित हुआ। इसी क्रम में बिहार के चंपारण ज़िले में गांधी जी का आगमन हुआ जो ऐतिहासिक सिद्ध हुआ।

दक्षिण और दक्षिण-पश्चिम भारत में लागू रैयतवारी बंदोबस्त के कारण साहूकारों की आर्थिक सहायता (ऋण) के बिना,  कृषकों के लिए लगान की अदायगी करना कठिन हो गया था। समय पर लगान की अदायगी न होने की स्थिति में लगान पुनर्निर्धारण (periodical revision of rent) तथा नये  भू-स्वामित्व अधिकार जैसे प्रावधानों ने किसानों को अपनी ज़मीन गिरवी रखने या बेचने को विवश कर दिया। परिणामस्वरूप किसान और साहूकार (जो अधिकांशतः बाहरी होते थे) के आपसी संबंध तनावपूर्ण हो गये। महाराष्ट्र में कृषक असंतोष का मुख्य कारण सरकार द्वारा बढ़ायी गयी मालगुज़ारी दरों में संशोधन की मांग को अस्वीकार किया जाना था। वस्तुस्थिति यह थी कि अमेरिकी गृह युद्ध की समाप्ति के बाद  दक्कन में कपास की खेती में आयी तेज़ी का दौर ख़त्म हो गया। 1875 में महाराष्ट्र के पूना और अहमदनगर ज़िलों में विद्रोह (बंद) और दंगे भड़क गये। आंदोलन के दौरान किसानों ने साहूकारों का सामाजिक बहिष्कार किया और इस दौरान 'अनाज दंगे' भी हुए। ग़ौरतलब है कि साहूकारों के ख़िलाफ़ हिंसा की कोई घटना नहीं हुई, केवल उनके ऋण पत्रों को नष्ट किया गया।4 ब्रिटिश सरकार द्वारा  1879 में पारित दक्कन खेतिहर राहत क़ानून (Deccan Agriculturalists Relief Act) से  किसानों को कुछ राहत मिली और इस क्षेत्र में शांति बहाल हुई।

 

बहरहाल, ब्रिटिश शासन और उनके एजेंटों के ख़िलाफ़ विद्रोह की परंपरा जनजातीय किसानों के बीच क़ायम रही। इस परंपरा का एक प्रमुख उदाहरण मुंडा उल्गुलान था जिसका नेतृत्व बिरसा मुंडा(1899-1900) ने किया। औपनिवेशिक सत्ता के विरुद्ध विद्रोह की शुरुआत 1899 के क्रिसमस के दौरान हुई और इसके अंतर्गत गिरजाघरों, मंदिरों, पुलिसकर्मियों और ब्रिटिश शासन के अन्य प्रतीकों को निशाना बनाया गया। ब्रिटिश शासन ने इस आंदोलन को भी कुचल दिया। इस आंदोलन का उद्देश्य न केवल दिकुओं (बाहरी तत्वों) को भगाना था बल्कि अपने दुश्मनों को नष्ट करना और ब्रिटिश राज को समाप्त करना तथा इसके स्थान पर बिरसा राज और बिरसाई धर्म की स्थापना करना था। 5

भारत में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध हुए इन विद्रोहों में किसानों की समस्याओं एवं पीड़ाओं की अभिव्यक्ति हुई थी। आदिवासियों को यह अहसास हो गया था कि भू-राजस्व नीतियों और कृषि के वाणिज्यीकरण के कारण उनके जीवन निर्वाह स्तर तथा पारंपरिक कृषक संबंधों में बाधा आ  रही है। रणजीत गुहा के अनुसार, ज़मींदार, साहूकार और राज्य... ने किसानों पर प्रभुत्व का एक समग्र तंत्र विकसित कर लिया था । 6

प्रतिरोध की इस प्रक्रिया में किसान अपनी समस्याओं के स्त्रोत - ज़मींदार, साहूकार और  ब्रिटिश राज के प्रति जागरूक हो गये थे। ब्रिटिश राज द्वारा स्थानीय एजेंटों का बचाव किया जाता था।7 साहूकार के आदमियों के ख़िलाफ़ हिंसा की घटनाएं न के बराबर होती थीं, केवल उनके ऋण पत्र (बॉन्ड) ज़ब्त कर लिये जाते थे। इन आंदोलनों में लक्ष्य अर्थात उत्पीड़न एवं नियंत्रण की एजेंसियों तथा सत्ता-संबंधों के नये  संस्थागत ढांचे  जिनके बीच किसान स्वयं को उलझा हुआ पाते थे, को लेकर  स्पष्टता दिखायी देती है।8 इन कृषक विद्रोहों  का नेतृत्व किसानों या आदिवासियों के भीतर से ही आया और उनकी लामबंदी सामुदायिक आधारों पर हुई।9 यही नहीं, वर्ग-चेतना और वर्ग-विचारधारा के अभाव में धर्म ने विचारधारा प्रदान की। धार्मिक नेताओं और पवित्र गुरुओं ने किसानों की चिंताओं और समस्याओं को धार्मिक भाषा  में अभिव्यक्त किया और इस प्रकार उनके आंदोलन को मान्यता मिली।

फिर भी ये आंदोलन स्थानीयता एवं अलगाव के शिकार रहे। ब्रिटिश राज के आधिपत्य, शोषणकारी आर्थिक नीतियों, कृषक समाज में घुसपैठ इत्यादि के विरुद्ध सशक्त प्रतिरोध के बावजूद ये आंदोलन ब्रिटिश शासन को गंभीर चुनौती देने में सफल नहीं हुए। हालांकि इन आंदोलनों ने शोषण के कारणों/एजेंसियों/संस्थाओं को लेकर जागरूकता ज़रूर दिखायी लेकिन यह पर्याप्त नहीं था। बुद्धिजीवियों एवं राष्ट्रवादी नेताओं की इन आंदोलनों में भागीदारी के साथ कृषक आंदोलनों को एक स्पष्ट दिशा प्राप्त हुई और ये स्थानीय और छिटपुट प्रकृति के कृषक व आदिवासी आंदोलन भारत में अंग्रेज़ी औपनिवेशिक शासन के ख़िलाफ़ व्यापक संघर्ष से जुड़ गये। बीसवीं शताब्दी में विशेष रूप से गांधी के आगमन  के साथ किसान आंदोलनों ने कृषक सामाजिक संरचनाओं की जटिलताओं एवं संबंधों की स्पष्ट समझ विकसित की और ये भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का अभिन्न हिस्सा बन गये।

चंपारण (बिहार) एवं खेड़ा (गुजरात) में चल रहे किसान आंदोलनों के साथ गांधी के जुड़ाव ने भारतीय राजनीति की मुख्यधारा में गांधी  को स्थापित कर दिया। 1860 के दशक से ही चंपारण में यूरोपीय बाग़ान मालिकों द्वारा तिनकठिया प्रणाली के तहत नील उत्पादन करने के लिए विवश करने के विरुद्ध किसान आंदोलन कर रहे थे। ब्रिटिश सरकार के दमनकारी रवैये के बावजूद किसानों का यह प्रतिरोध बीसवीं सदी के आरंभ में बढ़ता गया। एक स्थानीय कृषक नेता राजकुमार शुक्ल के अनुरोध पर गांधी  चंपारण पहुंचे और वहां उन्होंने  किसानों की शिकायतों की जांच की। नील की खेती के विरुद्ध चल रहे आंदोलन को गांधी ने एक नयी ऊर्जा प्रदान की। इस आंदोलन के दबाव के चलते लेफ़्टिनेंट गर्वनर ने एक जांच समिति का गठन किया तथा गांधी को भी इसका सदस्य बनाया । अंततः चंपारण कृषि अधिनियम 1918 (Champaran Agrarian Act 1918) पारित हुआ। इसके द्वारा तिनकठिया प्रणाली को निरस्त कर दिया गया और नील की खेती के अनुबंध से मुक्त करने के बदले लिये जा रहे लगान की दर को भी कम कर दिया गया।10

ग़ौरतलब यह है कि चंपारण आंदोलन यूरोपीय बाग़ान मालिकों तक ही सीमित रहा और स्थानीय शोषणकारी एजेंसियां इसकी परिधि से बाहर रहीं। साथ ही ग़रीब किसानों एवं भूमिहीन कृषक मज़दूरों की समस्याओं के प्रति यह आंदोलन उदासीन रहा।10  परिणामतः नये  कृषि अधिनियम के प्रति किसानों का असंतोष बरक़रार रहा और किसानों ने लगान की अदायगी के साथ-साथ ज़िलों में चल रहे सर्वे एवं सेट्लमेंट्स के कार्य में अधिकारियों को सहयोग देने से इनकार कर दिया।11  इस संदर्भ में यह भी ध्यान रखने योग्य है कि दरभंगा राज की लगान मांगों एवं उनके अमलों द्वारा किये जा रहे किसानों के उत्पीड़न के विरुद्ध किसानों में असंतोष था जिसके परिणामस्वरूप स्वामी विद्यानंद के नेतृत्व में एक शक्तिशाली किसान आंदोलन हुआ ।12  

गुजरात के खेड़ा ज़िले में वर्षा में हुई देरी के कारण हुए फ़सलों के नुक़सान,  मुद्रास्फीति की उच्च दर, प्लेग महामारी आदि ने किसानों के लिए असामान्य स्थितियां उत्पन्न कर दी थीं। इस व्यापक असंतोष के कारण स्थानीय किसान नेताओं- मोहनलाल पांड्या और शंकरलाल पारिख के नेतृत्व में लगानबंदी आंदोलन शुरू हुआ। स्थानीय नेताओं ने गांधी से संपर्क किया और गांधी ने मार्च 1918 में सत्याग्रह आरंभ करने की योजना बनायी । दबाव को देखते हुए अप्रैल 1918 तक बंबई सरकार ने किसानों की मांगों को अंशतः मान लिया।13  

हालांकि, आरंभिक गांधीवादी आंदोलन स्थानीय स्वरूप के थे और सफलताएं भी आंशिक ही थीं लेकिन अपनी समस्याओं के कारणों तथा स्त्रोतों के प्रति किसानों की जागरूकता को एक नयी दिशा देने में ये प्रभावशाली रहे। आत्मविश्वास में वृद्धि के साथ किसान शोषणकारी एजेंसियों का प्रतिरोध करने लगे, भले ही ये एजेंसियां स्थानीय ज़मींदार ही क्यों न हों। किसान आंदोलनों के इस नये  स्वरूप ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के संदर्भ में एक जटिल स्थिति उत्पन्न कर दी।

सामाजिक समरसता तथा आपसी सहमति व समझौते की गांधीवादी अवधारणा कृषक समस्याओं के समाधान के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत थीं।14 कांग्रेस एक बहुहित वाली साम्राज्यवादविरोधी मोर्चा थी जिसकी एकता बनाये रखने के लिए वर्ग सद्भाव का होना आवश्यक था। ज़मींदारों एवं किसानों के हित परस्परविरोधी थे तथा यह देखते हुए भी कि शोषकों के वर्ग में स्थानीय ज़मींदार भी शामिल थे, कांग्रेस ने कभी वर्ग-आधारित मांगों से संबंधित किसानों के संघर्षों का विरोध नहीं किया था। ऐसी परिस्थिति में कांग्रेस की यह समझ थी कि आंतरिक शोषकों के ख़िलाफ़ शारीरिक हिंसा अथवा  उनके वर्ग-परिसमापन जैसी मांग किये बग़ैर वर्गसंघर्ष को समायोजित और ग़ैरविरोधी तरीक़े से निर्देशित किया जाना चाहिए।16 कांग्रेस के इस दृष्टिकोण ने राष्ट्रीय आंदोलन और विशेष रूप से किसान आंदोलनों की दिशा को प्रभावित किया।

बिहार में, नवंबर 1933 में स्वामी सहजानंद सरस्वती (सहजानंद) के नेतृत्व में 'बिहार प्रांतीय किसान सभा' (BPKS) का गठन किया गया। संन्यासी से जाति-सुधारक (भूमिहार ब्राह्मण महासभा) बने सहजानंद बिहार और भारत के प्रभावशाली किसान नेताओं में गिने जाते थे। सहजानंद के नेतृत्व में 'बिहार प्रांतीय किसान सभा' ने बिहार काश्‍तकारी संशोधन बिल (Bihar Tenancy Amendment Bill) 1929 के विरुद्ध एक शक्तिशाली किसान आंदोलन खड़ा किया था। 'बिहार प्रांतीय किसान सभा' ने व्यापक प्रचार तथा बैठकों  के माध्यम से बिहार के किसानों को संगठित किया। शीर्षस्‍थ राष्ट्रीय नेताओं ने भी इन सम्मेलनों में भाग लिया तथा किसानों को संबोधित किया। ब्रिटिश सरकार को मजबूरन इस किसानहित विरोधी बिल को वापस लेना पड़ा। इस संदर्भ में यह ध्यान देने योग्य है कि 1929 के अंतिम महीनों में सरदार पटेल ने बिहार का दौरा किया  तथा किसान सम्मेलनों को संबोधित करते हुए न सिर्फ़ किसानों की समस्याओं पर प्रकाश डाला, बल्कि ज़मींदारों के अस्तित्व और उनकी भूमिका को चुनौती भी दी।17  

सविनय अवज्ञा आंदोलन में किसानों की भागीदारी बड़े पैमाने पर रही। हालांकि बिहार में इस आंदोलन का प्रभाव उतना गहरा नहीं था जितना कि उत्तर प्रदेश में। नेहरू के प्रभाव में उत्तर प्रदेश कांग्रेस ने किसानों से आह्वान किया कि वे भूराजस्व और लगान की अदायगी न करें। उत्तर प्रदेश कांग्रेस के इस उग्र कार्यक्रम ने सरकार को लगान की दर घटाकर 1901 के  स्तर पर  लाने को विवश कर दिया।18  ग़ौरतलब है कि बिहार और उत्तर प्रदेश की कृषक सामाजिक संरचना और वर्ग संबंधों में काफ़ी समानता थी, लेकिन बिहार कांग्रेस नेतृत्व के उच्च वर्ग तथा ज़मींदार चरित्र ने ऐसे किसी भी प्रगतिशील कार्यक्रम को स्वीकृति नहीं दी जो ज़मींदारों के हितों के परस्पर विरोधी थे।19  

बिहार कांग्रेस नेतृत्व की इन कमज़ोरियों की समझ ने किसान आंदोलन के प्रति सहजानंद के दृष्टिकोण को पूरी तरह बदल दिया। सहजानंद अब किसानों के संघर्ष को वर्ग सहयोगी की  बजाय वर्गसंघर्ष के रूप में  आगे बढ़ाने के बारे में सोचने लगे। 1934 में सहजानंद ने स्वयं स्वीकार किया कि मैं ज़मींदारी तंत्र की संवेदनहीन कार्यप्रणाली का पर्याप्त अनुभव ले चुका हूं।...गुलामी और उत्पीड़न से त्रस्त जनता की मुक्ति के एकमात्र उपाय के रूप में वर्गसंघर्ष पर मैंने गंभीरता से सोचना शुरू किया।20  इस अहसास ने सहजानंद को समाजवादियों के सिद्धांतों एवं कार्यक्रमों के प्रति आकर्षित किया।

समाजवादी नेताओं के प्रभाव से किसान आंदोलन को एक नया आयाम मिला। नवंबर 1935 में बिहार प्रांतीय किसान सभा ने ज़मीदारी उन्मूलन से संबंधित प्रस्ताव पारित कर दिया। परिणामतः 1936-1939 के दौरान बिहार में किसान आंदोलन के सर्वाधिक सक्रिय तथा उग्र चरण का आरंभ हुआ। बिहार के विभिन्न ज़िलों में सहजानंद तथा अन्य किसान नेताओं के नेतृत्व में जोतेदारों ने अपनी खोयी हुई ज़मीन की वापसी के लिए बकाश्‍त सत्याग्रह का आरंभ हुआ। कार्यानंद शर्मा के नेतृत्व में बड़हिया टाल(मुंगेर जिला), यदुनंदन शर्मा के नेतृत्व में रेवरा, मझियावा(गया), राहुल सांकृत्यायन के नेतृत्व में अमवारी, छितौली (सारण)में बकाश्‍त सत्याग्रह हुए।21  

भारत के अन्य क्षेत्रों में भी किसान आंदोलन ज़ोर पकड़ रहा था। मध्य आंध्र के ज़िलों में एन.जी. रंगा के नेतृत्व में एल्लोर के ज़मींदारी  रैयत सम्मेलन में ज़मींदारी उन्मूलन की मांग की गयी। एन.जी. रंगा तथा ई .एम.एस. नंबूदिरीपाद ने 1935 में मद्रास प्रेसीडेंसी में किसान आंदोलनों के प्रसार के लिए 'दक्षिण भारतीय किसान-खेत मज़दूर संघ' का गठन किया। उड़ीसा में 'उत्कल किसान संघ' ने तटवर्ती कटक, पुरी और बालासोर ज़िलों में उग्र आंदोलन आरंभ किये तथा 1935 में ज़मींदारी उन्मूलन से संबंधित प्रस्ताव पारित किया। इन उग्र आंदोलनों के प्रभावस्वरूप 1936 में अखिल भारतीय किसान सभा का गठन किया गया तथा सहजानंद इसके पहले अध्यक्ष बने। अखिल भारतीय किसान सभा के किसान घोषणा-पत्र (अगस्त 1936) में ज़मींदारी उन्मूलन, कृषि आय पर आरोही कर, सभी असामियों के लिए दख़लदारी के अधिकार तथा ब्याज दरों और ऋणों में कमी की मांग रखी गयी।22

1940 के दशक में कम्युनिस्ट विचारधारा के प्रभाव में किसान आंदोलनों में एक नये आयाम का विकास हुआ। बंगाल-अकाल ने किसानों को कष्‍टप्रद स्थिति में पहुंचा दिया तथा ब्रिटिश सरकार की ख़रीद नीति ने उनकी समस्याओं को और अधिक बढ़ा दिया। ब्रिटिश सरकार तथा स्थानीय समितियों के राहत प्रयासों ने ग्रामीण जनता और किसानों के साथ भेदभाव किया। कम्युनिस्टों ने इस स्थिति का विरोध किया तथा ग्रामीण क्षेत्रों में राहत उपलब्ध कराने के लिए प्रभावी कार्यक्रमों का संचालन किया। इन राहत प्रयासों ने कम्युनिस्टों को ग़रीब किसानों और बटाईदारों (बरगादारों) में लोकप्रिय बनाया और साथ ही कम्युनिस्ट, बंगाल प्रांतीय किसान सभा में भी प्रभावशाली हुए।23  कम्युनिस्टों के प्रभाव में, बंगाल प्रांतीय किसान सभा ने तिभागा पर फ्लाउड  आयोग  की सिफ़ारिशों को लागू करने के लिए सितंबर 1946 में तिभागा आंदोलन आरंभ किया। जोतेदारों से किराये  पर ली गयी ज़मीन पर काम करने वाले बटाईदार (बरगादारों) के लिए आधी या उससे भी कम फ़सल के बदले दो तिहाई फ़सल की मांग तिभागा आंदोलन की प्रमुख मांगें थीं।24  बंगाल के हर ज़िले में किसान आंदोलन सक्रिय था, जहां किसानों ने तिभागा इलाक़ा घोषित किया और वैकल्पिक प्रशासन और मध्यस्थता के लिए अदालतों का गठन किया। 1947 के बरगादार बिल (जिसे कभी लागू ही नहीं किया गया) तथा ब्रिटिश सरकार के  दमनकारी क़दम  ने तिभागा आंदोलन को कमज़ोर कर दिया।25  द्वितीय युद्ध के पश्चात भारत में बड़े पैमाने पर ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध जनआंदोलन हुए। इस क्रम में त्रावणकोर (पुन्नप्रा-वायलर) तथा हैदराबाद रजवाड़े का तेलंगाना आंदोलन उल्लेखनीय है।

हैदराबाद के तेलंगाना क्षेत्र में 1946 के मध्य से कम्युनिस्ट नेतृत्व में एक शक्तिशाली एवं संगठित आंदोलन आरंभ हुआ। इस क्षेत्र के कृषक सामाजिक संबंधों को निरूपित करने में जागीरदारों, पट्टेदारों(भूस्वामियों), देशमुखों तथा देशपांडेयों(लगान संग्रहकर्ता) तथा साहूकारों की वर्चस्वता के साथ भूमि पर कब्ज़े  की घटनाओं एवं खेत मज़दूरों की संख्या में बढ़ोतरी आदि ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी । मूल्यों में गिरावट जारी रहने के कारण छोटे भूस्वामी पट्टेदार और धनी किसान प्रभावित हुए, जबकि ग़रीब किसान बेगार(वेट्टी) तथा अनाज-अभाव से त्रस्त थे। परिणामस्वरूप, जुलाई 1946 में नालगोंडा ज़िले में तेलंगाना आंदोलन प्रारंभ हुआ। मज़दूरी में वृद्धि, वेट्टी की समाप्ति, ग़ैरक़ानूनी वसूली एवं बेदख़ली पर रोक, अनाज लेवी को समाप्त करना इत्यादि इस आंदोलन की मुख्य मांगें थीं।26

जुलाई 1947 में हैदराबाद के निज़ाम ने घोषणा की कि ब्रिटिशों के जाने के बाद भी हैदराबाद अपनी स्वतंत्रता क़ायम रखेगा। इस घोषणा के विरुद्ध स्थानीय कांग्रेस ने सत्याग्रह करने का निर्णय लिया तथा आंतरिक मतभेदों के बावजूद कम्युनिस्ट इस सत्याग्रह में शामिल हुए। हालांकि यह संयुक्त मोर्चा अल्पकालीन रहा। इस बीच अल्पसंख्यक मुस्लिम कुलीनों के संगठन मजलिस इत्तेहादुल-मुसलमीन ने रज़ाकारों का  एक हथियारबंद दस्ता बना लिया तथा जिसने निज़ाम के समर्थन से आतंक-राज क़ायम कर लिया।27

  किसानों ने रज़ाकारों के दमन का विरोध करने के लिए दलम (छापामार दस्ता) का गठन किया। उनके कार्यक्रम में बड़े ज़मींदारों की परती और अधिशेष भूमि पर कब्ज़ा और उनका पुनर्वितरण तथा मुक्त समझे जा रहे क्षेत्रों में ग्राम गणराज्य या सोवियतों का गठन, इत्यादि शामिल था। अंततः 13 सितंबर 1948 को भारतीय सेना ने हैदराबाद में प्रवेश कर निज़ाम की योजना को विफल कर दिया तथा रज़ाकारों को समर्पण करने को विवश कर दिया। आंतरिक मतभेदों के बावजूद कम्युनिस्टों के द्वारा आंदोलन जारी रखने के निर्णय के साथ ही तेलंगाना आंदोलन ने अपने दूसरे चरण में प्रवेश किया। इस बीच भारतीय सेना ने कम्युनिस्ट छापामारों के विरुद्ध पुलिस कार्रवाई  शुरू कर दी और अंततः अक्टूबर 1951 में इस आंदोलन को वापस ले लिया गया।28

किसान आंदोलनों के पुनरावलोकन से यह स्पष्ट होता है कि स्थापित सत्ता के ख़िलाफ़ असंतोष शुरुआती और ख़ासकर उन्नीसवीं शताब्दी तक के किसान आंदोलनों की सामान्य विशेषता थी। यद्यपि सीमित अर्थों में ही सही, किसानों के शोषण के कारणों और ऐसा करने वाली संस्थाओं की पहचान करने वाली चेतना को चिन्हित किया जा सकता है। इन आंदोलनों को निकट से देखने पर पता चलता है कि जाति और धर्म ने इनको संगठित एवं लामबंद करने में प्रभावी भूमिका निभायी, लेकिन किसान आंदोलनों की मांगों एवं कार्यक्रमों पर इनका बहुत कम प्रभाव पड़ा। किसान आंदोलनों के केंद्र में मुख्यतः किसानों की व्यथा ही रही। बीसवीं शताब्दी में जो किसान आंदोलन उभरे उनमें एक नयी विशेषता को रेखांकित किया जा सकता है और वह है, ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध चलने वाले राष्ट्रीय आंदोलन से प्रभावित होने और प्रभावित करने की प्रवृत्ति। क्षेत्रीय किसान नेताओं के उदय और नये विचारों के प्रभाव के परिणामस्वरूप कई बार किसानों से जुड़े मुद्दों और मांगों को लेकर वर्ग-आधारित समानांतर आंदोलन विकसित हुए। हालांकि ब्रिटिश शासन के विरुद्ध चल रहे शक्तिशाली और एकीकृत राष्ट्रीय आंदोलन के व्यापक हित में इन विसंगतियों को जल्द सुलझा लिया गया।

मो. 9871668338

संदर्भ:

1. शेखर बंद्योपाध्याय , फ्रॉम प्लासी टू पार्टीशन, ओरिएंट ब्लैकस्वान, न्यू दिल्ली, पृष्‍ठ 160-161

2. बंद्योपाध्याय , फ्रॉम प्लासी टू पार्टीशन, पृष्‍ठ 161

3. वही, पृष्‍ठ 192-194

4. वही, पृष्‍ठ 195-198

5. वही, पृष्‍ठ 200

6. रणजीत गुहा, एलमेन्ट्री आस्पेक्ट ऑफ पीज़ेन्ट इर्न्‍सजेंसीज़ इन कालोनियल इंडिया, ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, दिल्ली, 1994, पृष्‍ठ -8

7. बंद्योपाध्याय , फ्रॉम प्लासी टू पार्टीशन, पृष्‍ठ 167

8. वही, पृष्‍ठ 197-98

9. वही, पृष्‍ठ 167

10. स्टीफन हेन्निंघम, पीजेन्ट मूवमेन्ट्स इन कॉलोनियल इंडिया, नॉर्थ बिहार: 1917-1942, ऑस्ट्रेलियन यूनिवर्सिटी, 1982, पृष्‍ठ 47-49

11. अरविंद एन. दास, एग्रेरियन अनरेस्ट एंड सोसियो-इकॉनोमिक चेंज इन बिहार, 1900-1980, मनोहर, न्यू दिल्ली, 1983 पृष्‍ठ 59

12. स्टीफ़न हेन्निंघम, पेजेंट्स मूवमेंट इन कोलोनियल इंडिया, पृष्‍ठ 50

13. स्टीफ़न हेन्निंघम एग्रेरियन रिलेशन इन नॉर्थ बिहार: पीजेन्ट प्रोटेस्ट एंड दी दरभंगा राज, 1919-1920’,

                                 इंडियन इकोनोमिक एंड सोशल हिस्ट्री रिव्यू, वाल्यूम XVI नंबर 1, जनवरी-मार्च, 1979, पृष्‍ठ 58

14. बंद्योपाध्याय , फ्रॉम प्लासी टू पार्टीशन, पृष्‍ठ 294

15. राजेन्द्र प्रसाद, ऑटोबायोग्राफ़ी, पिंगविन, नयी दिल्ली 2010, पृष्‍ठ 444

16. बिपन चंद्रा, ‘दी लांग टर्म डायनामिक्स ऑफ़ दि इंडियन नेशनल कांग्रेस, जेनरल, प्रेसीडेंसियल एड्रेस, प्रोसिडिंग्स ऑफ़ इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस, 46वां सत्र, 1985, पृष्‍ठ 62

17. स्वामी सहजानंद सरस्वती, मेरा जीवन संघर्ष, पीपुल्स पब्लिशिंग हाऊस लिमिटेड, न्यू दिल्ली, 1985, पृष्‍ठ 207-208

18. अरविंद एन. दास, एग्रेरियन अनरेस्ट एंड सोसियो-इकॉनोमिक चेंज इन बिहार, 1900-1980, मनोहर, न्यू दिल्ली, 1983, पृष्‍ठ 118-119

19. वाल्टर हाऊसर, दि बिहार प्रोविंसियल किसान सभा, 1929-1942: ए स्टडी ऑफ़ एन इंडियन पिजेन्ट मूवमेन्ट, अनपब्लिशड थीसिस’, यूनिवर्सिटी ऑफ़ शिकागो, 1961, पृष्‍ठ 48-55

20. स्वामी सहजानंद सरस्वती, दि ओरिजिन एंड ग्रोथ ऑफ़ दि किसान मूवमेन्ट्स, सीताराम आश्रम, पटना ,माइक्रोफ़िल्म, नेहरू मेमोरियल एंड लाइब्रेरी, नयी दिल्ली, पृष्‍ठ, 10-11

21. सहजानंद, मेरा जीवन संघर्ष, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, नयी दिल्ली, 1985

22. बंद्योपाध्याय , फ्रॉम प्लासी टू पार्टीशन, पृष्‍ठ 407

23. वही, पृष्‍ठ 431-432

24. सुमित सरकार, मॉर्डन इंडिया: 1885-1947, मैक्मिलन, न्यू दिल्ली, 1983, पृष्‍ठ -439

25. वही, पृष्‍ठ 433

26. वही , पृष्‍ठ 436

27. वही,  पृष्‍ठ 436-437

28. वही, पृष्‍ठ 437

 

 

 

 

 

  

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