काव्य चर्चा-2

                                                काव्य-आस्वाद : कुछ स्वगत-कुछ प्रकट

(तीन कविता संग्रहों से गुज़रते हुए)

अनूप सेठी

पत्र लिखने का अलग ही आनंद है। जब पत्र लिखने का कोई सबब हो तो आनंद और बढ़ जाता है। यहां दिये गये तीन पत्र मैंने तीन कवियों को उनका कविता संग्रह पढ़ने के बाद लिखे हैं। अलग अलग किताबें, अलग अलग वक़्त पर जब पढ़ीं और लगा कि अपनी बात कवि तक पहुंचानी चाहिए तो पत्र लिख दिया। इन तीन कवियों में एक समानता है कि ये लगभग एक ही इलाक़े यानी हिमाचल प्रदेश और जम्मू के हैं। संयोग से मैं भी उसी इलाक़े का हूं। कवियों को थोड़ा-बहुत जानता भी हूं। शायद इस वजह से कविता का आस्वाद लेने में मेरा एक समान धरातल बन जाता है। अपनी बात कहने में थोड़ी आत्मीयता की चाशनी भी घुल जाती है। यह मिला-जुला भाव-विचार का ताना-बाना कवि और उसकी कविता को किंचित अलग कोण से जानने में सहायक होता है। कविता को इस तरह पढ़ना-परखना शायद आपको भी रुचिकर लगे।   

पहला पत्र

 आदरणीय चंद्ररेखा जी,

अपना हिंदी और पहाड़ी काव्य संग्रह आपने मुझे भेजा। इसके लिए आभार व्यक्त करना औपचारिकता मात्र है। मेरे भीतर एक आह्लाद भाव और समृद्धि और ख़ुशनसीबी का भाव इस बात को लेकर हमेशा रहता है कि मेरे गुरुजनों की साक्षात कृपा अब तक मेरे ऊपर बनी हुई है। पिछले तीन दशकों से अपनी ज़मीन से दूर रह रहा हूं फिर भी गुरुजनों से संपर्क बना हुआ है और उनके स्नेह की प्रत्‍यक्ष-परोक्ष वृष्टि प्राय: होती रहती है। आपके प्रति भी मेरा वैसा ही आदर भाव है। मेरे मन में वह अमिट छवि है, जब मैं और धर्मपाल धर्मशाला कॉलेज से ढलियारा कॉलेज में काव्य प्रतियोगिता में भाग लेने गये थे। वहीं आपके प्रथम दर्शन हुए थे। बाद में धीरे-धीरे आपकी साहित्यिक गतिविधियों की जानकारी मिली। जब हम हिमाचल मित्र पत्रिका प्रकाशित करने लगे तो आपका रचनात्मक सहयोग भी हमें मिला। शायद तभी जाना कि आप तो हमारी पड़ोसी भी हैं। इस वर्ष आपके दोनों संग्रह मिले तो आपके काव्य जगत से सातत्‍य लिये हुए साक्षात्कार हुआ।

कला साहित्य के साथ हमारा संबंध बहुत निजी यानी 'वन-टू-वन' होता है। अंतरंग सा। कला का हम आस्वाद लेते हैं, पर उस आस्वाद को शब्द देना, प्रकट करना, ख़ासकर मेरे लिए कठिन होता है। और आप के संग्रह के संदर्भ में तो और भी कठिन है, क्योंकि आप गुरु-व्यास-पीठ पर भी विराजमान हैं। बहरहाल, जो कुछ टीप रहा हूं, उसे स्वगत कथन ही मानिए।

जब मैंने, ज़रूरत भर सुविधा संग्रह पढ़ने के लिए हाथ में लिया तो पूर्वधारणा की तरह मन में यह बात थी कि चंद्ररेखा जी गीतकार और ग़ज़लकार भी हैं। गीत विधा में लिरिसिज़्म की मात्रा ज़्यादा रहती है, भावुकता का वेग प्रायः भाववाद की तरफ़ झुक जाता है। इसके बरअक्स समकालीन कविता तमाम नये औजारों की वजह से प्राय: खड़ी-खड़ी सी होती है। तो इन कविताओं में अगर गीति की छाया होगी तो इनका रूप-स्वरूप कैसा होगा! कविताएं पढ़ने पर यह धारणा निर्मूल निकली, जिससे एक बार और यह सिद्ध हुआ कि रचना को स्वायत्त-स्वतंत्र कृति के रूप में ही देखना चाहिए। पूर्वधारणाओं का बोझा लेकर नहीं चलना चाहिए।

संग्रह पढ़ना शुरू किया तो कविताएं बड़ी सपाट लगीं। नहीं, सपाट सही सही शब्द नहीं है, निर्वेग सी लगीं। उनकी लय पकड़ में नहीं आ रही थी। उनमें चमत्कार नहीं था। बयान में या कहनी में चमक नहीं थी। चुपचाप कविता गुज़र जाती। लेकिन धीरे-धीरे कविता साकार होने लगी। उसकी सादगी प्रकट हुई। कविता की मंद्रता उसे एक ठहराव दे रही थी। कहे जा रहे के भीतर एक तिक्‍तता महसूस होने लगी। जिस जीवन का वर्णन कविता में किया गया है, उसकी विडंबनाएं, उसकी मजबूरियां-लाचारियां दिखने लगीं। लेकिन उसमें एक तपिश है, सीधे-सीधे विद्रोह नहीं है। परिस्थिति का सहज स्वीकार भी नहीं है। यह अस्वीकार या कहें प्रश्नाकुलता और स्पष्ट होने लगती है। पहले आभास होता है फिर स्पष्ट सा ही हो जाता है कि यह स्त्री स्वर है। बराबरी का व्यवहार नहीं मिलता है, यह बात चुभती रहती है। इसमें व्यवस्थागत विसंगतियों, असमानताओं, परंपराओं के निर्वहन के दबाव भी हैं। पर मुख्‍य स्वर एक स्‍त्री का है। बड़बोला, सपाट, मुखर नहीं, धीमा और दृढ़। मैडम, आपकी कविता की यह ताक़त है जो धीरे धीरे मेरे सामने प्रकट हुई।  

प्रश्नाकुलता, असहजता और प्रच्‍छन्‍न विरोध के बीच एक अलग ही तरह का सुर मुझे आपकी कविता में दिखा। कई कविताओं में हथियार, लहू, चोट आदि के बिंब आते हैं या उनका संदर्भ आता है। कुछ उदाहरण हैं – ‘नायाब अस्त्र’,लहूलुहान’, ‘ज़ख़्मों का मवाद’ (पृष्‍ठ 17); ‘मां की लाश’, ‘लाश की बू’ (पृष्‍ठ 20); ‘गिद्ध’, ‘मांस गंध’ (पृष्‍ठ 22); ‘बंदिनी हवा’ (पृष्‍ठ 23);सड़ांध मुर्दा शरीरों की’ (पृष्‍ठ 27);  दहाड़ती आवाज़’, ‘मां की पीठ पर पड़ती सटाक की आवाज़’ (पृष्‍ठ 31); ‘तन मन तनी प्रत्यंचा समान’ (पृष्‍ठ 36); ‘मुझ पर उड़ेला होता लावे सा दहकता सूर्य’ (पृष्‍ठ 38); एक कविता का शीर्षक ही है, ‘लहूलुहान’, ‘एक साथ ही लहूलुहान होते हैं दोनों के पैर’ (पृष्‍ठ 39);  दैत्य के ब्रह्मरंध्र में’,ख़ून लगे जानवर की तरह’, ‘भयानक विस्फोटों की धड़कन की आवाज़ों ने’ (पृष्‍ठ 41); ‘अस्त्र नये-नये / अस्त्र जुदा दराती/कुल्हाड़ी/आरी से’ (पृष्‍ठ 42); ‘औंधे मुंह पड़े आदमी को’, ‘उसके लहू में सने /  स्वयं को चित्‍त पाया’ (पृष्‍ठ 43); ‘शाख़ से बंधा आदमी / आंच पर उल्टा टंगा था’ (पृष्‍ठ 44); ‘पिता की लाश’ / ‘आदमी की लाश को / कवच की तरह ओढ़े लोग सुरक्षित बैठे थे / माल-असबाब की गठरियों सहित’ (पृष्‍ठ 45);  पीठ पर ख़ून टपकते जीवन को’ / ‘जली हुई झोपड़ी की राख के साथ’ / ‘तुम्हारी कलगी तुम्हारे मस्तक पर ठुकी कील है’ (पृष्‍ठ 51); ‘शब्द-शब्द ... अस्त्र सा’ (पृष्‍ठ 90) ‘लहरों का तांडव’ (पृष्‍ठ 97); ‘लहू सनी हथेलियां’ (पृष्‍ठ 99);  ताबूत में / फ़र्श पर लहूलुहान / और कभी कभी चिमनी के धुएं संग / चिथड़ा-चिथड़ा बिखरती है औरत’ (पृष्‍ठ 108); ‘तलवार की धार तराशते’ (पृष्‍ठ 109...। 

ये तमाम शब्द किसी न किसी तरह की हिंसा से जुड़े हैं। कहीं-कहीं टकराहट या तल्ख़ी से जुड़े होंगे, पर ज़्यादातर ख़ून ख़राबे से ही जुड़े हैं। बाहर से कविता की भाषा बड़ी सहज और शांत है, निर्वेदपूर्ण है, लेकिन अधिकांश कविताओं में यह प्रत्यक्ष-परोक्ष हिंसा के प्रकटीकरण फैले हुए हैं। क्या इसे विडंबना कहा जा सकता है? विडंबना कहने से कुछ हाथ नहीं लगेगा। एक तरह से इस भाषा को छू कर भी उसकी परतों को खोलने से बचना हो जायेगा।

मैडम, आप तथाकथित शांत प्रदेश से हैं। सुरम्य और शांत पहाड़ी इलाक़े की रहने वाली, जहां जीवन अपेक्षाकृत सीधा और सरल है। लेकिन वह बाहरी खोल मात्र है। व्यवस्था की गुंझलकें वहां भी वैसी ही हैं जैसी तमाम हड़कंप मचाते मैदानी इलाक़ों में। आपकी कविताओं में बेमालूम ढंग से जीवन को खोला गया है, प्रश्न उठाये गये हैं; और ये प्रश्न ज़्यादातर स्त्री की तरफ़ से उठाये गये प्रश्न बनते जाते हैं। एक छटपटाहट या पीड़ा, आहत-भाव को समेटते समेटते अनजाने में अस्त्र-शस्त्रों, ख़ून ख़राबे, लहूलुहान होने-करने की बिंबावलियां कविताओं में अच्‍छी-ख़ासी जगह बना लेती हैं।

क्या ऐसा कहा जा सकता है कि चेतन स्तर पर चंद्ररेखा जी सहज-शांत, निर्लंकार-निर्ब्‍याज भाव से अपनी बात रखती हैं, लेकिन ग़ैरबराबरी, अव्यवस्था, मूल्यहीनता, दोहरेपन का शिकार होने की फंसी हुई स्‍थिति में अपने भावावेश, संवेग, क्रोध को प्रकट करने के लिए उनका अवचेतन अनायास हिंसाभासी भाषा का सहारा लेता जाता है। यह और ज़्यादा गहराई से विचार करने का विषय है कि कैसे लिरिकल स्वभाव का कवि अनजाने ही ऐसी अभिव्यक्ति करता है। यह हमारे समय और समाज का एक ख़ास तरह का आईना है। इसमें हमें अपना ही प्रतिबिंब दिखता है। रचनाकार ही रचना नहीं रच रहा होता है, उसका अंतर्जगत, उसका बाहरी परिवेश भी रचना में दख़ल दे रहा होता है। 

क्षमा करेंगी, पता नहीं क्या-क्या लिख गया हूं। इसे लिखने में अन्यान्य कारणों से कई दिन लगे हैं, पर इसमें कुछ सार भी है या नहीं, पता नहीं। उम्‍मीद है आप मेरी बातों को ख़ुद से नहीं, अपनी कविता से जोड़ कर ही देखेंगी। अन्‍यथा नहीं लेंगीं। कुछ सार नज़र न आये तो इस पत्र को यह सनद मात्र मान लीजिए कि मैंने आपकी काव्‍य-पुस्‍तक ध्‍यान से पढ़ी है।

साभार

 दूसरा पत्र

 प्रिय नवनीत भाई,

यह पत्र मैं आपके कवि को संबोधित कर रहा हूं।

नवनीत शर्मा के पहले कविता संग्रह, ढूंढ़ना मुझे को पढ़ना मेरे लिए एक प्रीतिकर अनुभव रहा। ख़ासकर इसलिए भी कि जिस टॉपोग्राफ़ी में रहते हुए उन्होंने कविता लिखी है, उसकी महती भूमिका मेरे रचनात्मक रसायन के निर्माण में भी रही है।

नवनीत के काव्य फलक में - कवि, कविता, समाज, भावनाओं का उच्छवास - काफ़ी कुछ समाया हुआ है। कविता स्थानिकता के भीतर प्रवेश करती है। उसकी कई परतों को खोलती खंगालती भी है। यह स्थानिकता एक प्रतिबद्धता की तरह उपस्थित है। यह कविता की पहचान भी है और कवि की अपने जनपद से संलग्नता का प्रमाण भी। जैसा कि गणेश पांडेय ने भूमिका में ज़िक्र भी किया है कि यह स्थानिकता 'लोक' से भिन्न है। एक तरह की तार्किक दृष्टि इसे लोक से अलग करती है। इसी वजह से मुझे यह कविता मुख्य धारा की कविता से अलग लगती है। इसीलिए यह बहुत सी एक जैसी कविताओं से अलग है। इसीलिए उसमें सर्वव्याप्त सार्वभौमिकता नहीं है। इसीलिए इस तरह की कविता की ज़रूरत है। क्योंकि इस कविता से हमारे विशाल हिंदी क्षेत्र की विविधता अग्रभूमि में आती है।

नवनीत की कविता में कहीं राजनीतिक, आर्थिक, समाजशास्त्रीय इकहरापन नहीं है। भावुकता का अतिरेक भी नहीं है। प्रकृति कवि के अंगसंग है। ऐसा होना लाज़िमी भी है, क्योंकि कवि का कर्मक्षेत्र प्रकृति की सुरम्यता के बीच स्थित है, शायद इसलिए यथार्थ के वर्णन में प्रकृति परोक्ष रूप से मरहम का काम कर देती है, तिखनाहट या खुरदुरापन थोड़ा कम हो जाता है।

कवि का मन प्राणीजगत में उतना ही रमता है जितना प्रकृति में। यह अद्भुत है। अपने इसी प्रेम के कारण नवनीत कुछ मूक प्राणियों पर कविताएं हमें दे सके हैं। ये कविताएं पाठक को राग से भर देती हैं। इससे कवि की स्थानिकता सर्वांग भी होती है। गधा’, ‘ठुमको कुतिया’, ‘उसका परिवार’, ‘चोटिल गाय’, ‘कुतिया पुटू’, ‘तारो’, ‘बछड़ा टिकलू’, ‘दो प्रार्थनाएं’, जैसी कविताएं एक अनूठे परिवार को साकार करती हैं। ये कविताएं महज़ पशु प्रेम के चलते या पर्यावरण कार्यकर्ता की दृष्टि से नहीं लिखी गयी हैं। ये हमारे जीवन का अभिन्न अंग हैं। या कहना चाहिए, इन्हें अपना बनाने की हूक कवि के अंतर्मन में है। इसी कारण ये कविताएं हमें करुणा से नम करती हैं। ये हिंदी कविता की उपलब्धि हैं। 

नवनीत पत्रकार और ग़ज़लगो भी हैं। शायद इसलिए भाषा का एक अनुशासन उनमें है। पूर्व परंपरा का थोड़ा असर उनमें दिखता है, फिर भी अपना अलग लहज़ा बनाने की तरफ़ वे अग्रसर हो रहे प्रतीत होते हैं। भाषा की फ़िज़ूलख़र्ची वे नहीं करते। अपनी बोली के शब्दों को भरने की कोशिश भी वे नहीं करते हैं। जबकि स्थानिकता से जुड़े हुए कवि के लिए इस तरह के पाश में बंधना बड़ा सहज होता है। अपनी सजगता की वजह से ही कवि ने कृपया ठुंग न मारें कविता में अपनी बोली के मुहावरे का विलक्षण प्रयोग करते हुए कविता को भाषाई विमर्श से आगे ले जा कर व्यापक बना दिया है। (हमारी बोली में ठुंग मारना का अर्थ है, चोंच मारना। प्राय: तोते अमरूदों को ठुंग मार-मार कर खाते हैं।) दृश्य चित्रण में बंधी यह कविता जीवन से सीधे उठायी गयी प्रतीत होती है। रेहड़ी पर मूंगफली बेचने वाले ने ग्राहकों द्वारा परखने के नाम पर मूंगफली खाने से या चुगने से होने वाले अपने नुक़सान को बचाने के लिए इस जुमले का बिजूके की तरह इस्तेमाल किया है। कवि इसमें भाषाई चमत्कार को पकड़ता है और कविता में सारे परिदृश्य की समाजशास्त्रीय शिनाख़्त कर डालता है।

संग्रह की अंतिम कविता 'वे जो बज रहे हैं' का संदर्भ देव परंपरा के देवताओं के बजंतरियों यानी साज़िंदों से है। यह एक कलाकार की पीड़ा, उसके संघर्ष और सत्ता से टकराहट को बख़ूबी स्वर देती है। बजंतरियों पर बहुत पहले सुंदर लोहिया ने और हाल में मुरारी शर्मा ने जागरूकता भरी कहानियां लिखी हैं। नवनीत शर्मा की यह कविता सुगठित, सुगुंफित, बहुपरतीय और सुपाठ्य कलाकृति है : 'आये देवता पर प्रेम / तो उसे छू नहीं सकते / जगे देवता से भय / तो उसे छोड़ नहीं सकते / आये देवता पर क्रोध / तो सदियों का ग़ुस्सा भर सकते हैं शहनाई में / सदियों का आवेग पटक सकते हैं ढोल पर / .... आसीन है पालकी पर देवता / लगभग दौड़ रहे हैं कहार / देखो मत, ग़ौर से सुनो / कितना दर्द बजा रहे हैं / ख़ुद बज रहे हैं बजंतरी।'

 तीसरा पत्र

 प्रिय कमल,

आपका कविता संग्रह पढ़ा। वक़्त की किल्लत के चलते या वक़्त को ठीक से मैनेज न कर पाने के कारण किताब क़िस्तों में पढ़ी। काव्य संग्रह को मेरे ख़याल से वैसे भी क़िस्तों में पढ़ना ही ठीक रहता है क्योंकि एक एक कविता अपने आप में मुक़म्मिल होती है। कई कविताएं ज़्यादा देर गूंजती भी रहती हैं। अगर तुरंत दूसरी तीसरी कविता पढ़ ली जाये तो गूंज दब जाती है जैसे थाली की टंकार को हाथ से दबाकर बंद कर दिया जाये। दूसरी तरफ़ कई कविताएं शृंखला में होती हैं या शृंखला का आभास देती हैं उन्हें साथ साथ पढ़ना ही ठीक रहता है। वे समग्रता में खुलती हैं।

पढ़ते वक़्त कई बार मन इतना उछल पड़ता था कि मन करता था फ़ोन कर लूं। पर ख़ुद पर क़ाबू किये रहा। वक़्त बेवक़्त फ़ोन करना भी ठीक नहीं। यों कविता का आनंद भीतर ज़्यादा घुलता रहा। अभी चिट्ठी लिख कर आपसे अपनी बात साझा करने की सोची है तो भी पता नहीं कितनी बात कर पाऊंगा। काफ़ी कुछ उड़ भी गया होगा या उन बातों को शब्दों में बांधना हो भी पायेगा या नहीं। वैसे भी समीक्षा में मेरा हाथ तंग है।

आपकी कविता का डिक्शन या मुहावरा ग़ज़ब का है। सधा हुआ। सटीक। संक्षिप्त। तराशा हुआ। झोल न के बराबर। सरल भाषा। सूक्ति की तरह। आपका यह फ़ॉर्म ही कविता का प्रवेशद्वार भी है। इसी से आपकी कविता की बस्ती में पाठक घुसता है और रमता है। वैचारिक त्‍वरा भी सूक्तवाक्यनुमा कविता को तेज़ धार देती है। आपकी वैचारिकी में भी मुझे झोल नज़र नहीं आया। बल्कि सजगता है। छद्म पर प्रहार करने की मंशा है। मुक्ति की कामना है। आशा की डोर का भी साथ है। आज की कविता में प्रायः एक उदासी और नाउम्मीदी दिखती है। आपके यहां यह रोग नहीं है। जीवन संघर्ष का वर्णन है और उससे पार पाने की कामना है। आप का वर्णन वृतांतवादी नहीं है। बिंब हैं। वे ही सब कुछ खोलते हैं। और भाषा की लघुता मुहावरे बनाती चलती है। फिर से किताब पलट रहा हूं तो आम चुप क्यूं रहे कविता पर अटका हूं। चिनार और आम कश्मीरी और पंडित के द्वंद्व को या कश्मीर और जम्मू के द्वंद्व को, पृष्ठभूमि को, वर्तमान को, ऊहापोह को आपने इस छोटी सी कविता में साकार कर दिया है। (समझने में ग़लती तो नहीं कर रहा हूं) संग्रह के पन्ने पलट रहा हूं और इन कविताओं पर अटक रहा हूं, ‘तीन आदमी, ‘क्या बात है, ‘कविता के लिए, ‘घड़ा, ‘तुम आती हो, ‘पंक्ति में खड़ा आख़री आदमी, ‘औरत, ‘पत्थर...

जब महानगरों से बाहर के कवियों की कविताओं का रसास्वाद लेता हूं तो यह जानने की चाह बनी रहती है कि कवि की कविता में स्थानीयता किस तरह आ रही है। वहां का समाज, भूगोल, कविता में किस तरह उपस्थित है। महानगरीय कविता में यह विविधता कम देखने को मिलती है। वहां स्टीरियोटाइप होते हैं। एक तरह की सार्वभौमिकता होती है। आप की कविता समकालीन कविता के समकक्ष खड़ी है और अपनी तरह से सार्वभौमिकता की रचना भी करती है। साथ ही उसमें आपके इलाक़े के खेत, गांव, शहर भी आते हैं। लद्दाख के दृश्य भी आकर्षित करते हैं।

यह चर्चा मैंने कविता के रूप पक्ष से शुरू की थी। मुझे लगता है इनका पाठ सशक्त और प्रभावशाली ढंग से किया जा सकता है। मुझे नहीं पता आप पाठ करते हैं या नहीं। करते हैं तो कैसा करते हैं। यह इसलिए कह रहा हूं क्‍योंकि हिंदी के अधिकांश कवि प्रभावशाली ढंग से कविता नहीं सुनाते। बल्कि कविता रचना में ही वह पक्ष ग़ायब रहता है। कविता का संगीत और लय कविता को ग्राह्य बनाते हैं। एक तरफ़ हम कविता की लोकप्रियता की कमी का रोना रोते हैं दूसरी तरफ़ इस पहलू पर ध्यान नहीं देते हैं। ऐसे समय में जब बुद्धिजीवी और कवि समाज से कटा हुआ है, तुक्‍कड़ों, हंसोड़ों और चुटकुलेबाज़ों ने सारा मंच मला’(घेरा) हुआ है, सही कविता की परफ़ारमेंस की तरफ़ हमें ध्यान देना ही होगा। आप की कविता इस निकष पर खरी उतरती है, ऐसा मुझे लगता है।

शीर्षक यों तो आकर्षक है पर उसका अभिप्राय मुझे समझ में नहीं आया। हिंदी का ही नमक क्यों, धरती का नमक क्यों नहीं। हालांकि मेरे कयाफे लगाने का फ़ायदा नहीं है। आपके पास बेहतर व्याख्या होगी।

आप जम्मू में हिंदी की मुख्य धारा की कविता लिख रहे हैं, यह स्वागत योग्य है। हिमाचल में भी कई युवा कवि सक्रिय हैं, पर कुल माहौल सिन्नड़-पिन्‍नड़ होता है। कई पीढ़ियों के लोग कई युगों की कविता एक साथ रच रहे होते हैं। उनका चुंबकीय बल अपनी अपनी ओर खींचता है। जम्मू में भी कमोबेश वैसा ही माहौल हो सकता है। आप कठिन माहौल में कविता लिख रहे हैं, यह बड़ी बात है।

आप की कविता आगे और निखरती जाये, गहरी भी होती जाये, इन्हीं शुभकामनाओं के साथ।

मो. 9820696684

पुस्तक संदर्भ

ज़रूरत भर सुविधा : चंद्ररेखा ढडवाल, अंतिका प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद, 2019

ढूंढ़ना मुझे : नवनीत शर्मा, बोधि प्रकाशन, जयपुर, 2019 

हिंदी का नमक : कमल जीत चौधरी, दख़ल प्रकाशन, दिल्ली, 2019 

 

 

 

 

 

 

 

 

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