वैचारिक चर्चा-3

 वर्ग और जाति की समझ : कार्यवाही के साझा आधार एवं डॉ. आंबेडकर

अजय कुमार और रमाशंकर सिंह

 हमारे सामने आनंद तेलतुंबड़े की दो किताबें हैं। इन दोनों का संबंध डॉ. भीमराव आंबेडकर से है। पहली किताब है : रिपब्लिक ऑफ़ कास्ट : थिंकिंग एक्वालिटी इन द टाइम ऑफ़ नियोलिबरल हिंदुत्व(2020) और दूसरी किताब है : भीमराव रामजी आंबेडकर : भारत और साम्यवाद(2019)। रिपब्लिक ऑफ़ कास्ट में आनंद तेलतुंबड़े ने डॉ. आंबेडकर के विचारों की पड़ताल करते हुए डॉ. आंबेडकर के समय के इतिहास और भारतीय समाज की बनावट एवं समकालीन भारत से उनकी वैचारिक मुठभेड़ का बेधक वर्णन किया है, जबकि भीमराव रामजी आंबेडकर : भारत और साम्यवाद में आनंद तेलतुंबड़े ने अपनी एक लंबी भूमिका के साथ डॉ. आंबेडकर की उस अपूर्ण किताब से पाठकों को परिचित कराया है जिसे वे अपनी असामयिक मृत्यु के कारण पूरा नहीं कर सके। भीमराव रामजी आंबेडकर : भारत और साम्यवाद दर असल, इंडिया एंड कम्युनिज़्म का अनुवाद है जिसे अखिल विकल्प ने किया है।

इन दोनों किताबों को हम दो लोगों द्वारा साथ-साथ पढ़ा गया था और आपसी बातचीत में हमने पाया कि एक किताब दूसरे को पूर्ण करती है। इसलिए हम दोनों ने मिलकर इन दो किताबों की समीक्षा लिखने का प्रयास किया है। फिर भी इसमें एक चुनौती यह थी कि हमें एक ही साथ डॉ. आंबेडकर और आनंद तेलतुंबड़े के बारे में बात करनी थी जिनमें आधी शताब्दी से ज़्यादा का समयांतराल है।

आनंद तेलतुंबड़े ने अपनी बात को पुष्ट करने के लिए आंबेडकर के लेखन को आधार बनाते हुए उसमें हमारे अपने समय के वैचारिक ताप को भी मिला दिया है और जैसा हम आगे देखेंगे कि अपनी एक अधूरी पांडुलिपि में डॉ. आंबेडकर भारत की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं को उसके इतिहास, ब्रिटिश भारत में उसकी वस्तुस्थिति और आज़ाद भारत की संवैधानिक उपलब्धियों के आलोक में देख-समझ रहे हैं।

अब हम रिपब्लिक ऑफ़ कास्ट पर बात करेंगे। किताब के प्राक्कथन में सुनील खिलनानी ने लिखा है कि तेलतुंबड़े ने किसी को नहीं बख़्शा है। तेलतुंबड़े ने वामपंथियों की इस बात के लिए खिंचाई की है कि उन्होंने सुविधाजनक तरीक़े से जाति की राजनीतिक वास्तविकता को नज़रअंदाज़ किया और इसे वर्गीय गतिशीलता के साथ संभावनाओं पर जोड़ने की कोशिश करते रहे। वे जाति की पहचान का जश्न मनाने के लिए आंबेडकरवादियों की भी आलोचना करते हैं। जाति के विनाश के लिए आंबेडकर की दृष्टि का अनुसरण करने के बजाय, एक ‘निष्क्रिय देवता’ के रूप में उनकी पूजा किये जाने की भी आलोचना करते हैं। लेखक ने अपने साथी भाइयों को जाति के शोषण के संकट से बाहर निकालने में विफल रहने के लिए 'दलित पूंजीवाद' को भी ख़ारिज किया है। इसके आगे वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा आंबेडकर को अपने पाले में लाने की कोशिशों पर ध्यान केंद्रित करते हैं।

इस किताब में तेलतुंबड़े आरक्षण की नीति का वैचारिक आधार विश्लेषित करते हैं। सामान्य धारणा के विपरीत यह अंग्रेज़ नहीं बल्कि कुछ देशी शासक थे जिन्होंने आरक्षण की शुरुआत की, मसलन कोल्हापुर के राजा शाहू महाराज (1874-1922) के रूप में, मद्रास प्रेसीडेंसी में न्याय पार्टी, मैसूर, बड़ौदा और त्रावणकोर की रियासतें इस दिशा में आगे आयीं। यह आंबेडकर थे जिन्होंने गोलमेज़ सम्मेलन (1931-32) के दौरान आरक्षित सीटों के साथ दलितों के लिए अलग निर्वाचक मंडल का प्रस्ताव रखा था। सितंबर 1932 में पूना पैक्ट के बाद, दलितों को वरीयता देने की नीति के रूप में आरक्षण को भारत सरकार अधिनियम, 1935 में शामिल किया गया। 1943 में,आंबेडकर ने वायसराय की कार्यकारी परिषद के सदस्य के रूप में, इस प्राथमिकता नीति को कोटा में तब्दील कर दिया।

तेलतुंबड़े दिखाते हैं कि आरक्षण शासक वर्गों के हाथों में एक हथियार बन गया है, लेकिन इसका मतलब यह कदापि नहीं है कि यह स्वाभाविक रूप से बुरा है और इसे छोड़ दिया जाना चाहिए। वे मानते हैं कि आरक्षण संविधान में जाति के संरक्षण का बहाना बन गया। दोनों किताबों में तेलतुंबड़े की चिंता का एक प्रमुख बिंदु ‘वर्ग और जाति के अंतर्विरोध’ हैं जिन्हें अपने जीवन के अंतिम दो दशकों में डॉ. आंबेडकर ने संबोधित किया था। भारतीय समाज की विशिष्टता ऐसी है जहां वर्ग की गतिशीलता जाति की परतों से और अधिक जटिल है, उसने कार्ल मार्क्स को भी झकझोर कर रख दिया था। आश्चर्यजनक रूप से, दोनों आंदोलनों- साम्यवाद और दलित सक्रियता- में किसी समान और साझे उद्देश्य की खोज नहीं हो सकी। इसके लिए वे दोनों की खिंचाई करते हैं। वे आधार और अधिरचना के रूपक को लेने के लिए कम्युनिस्टों को ज़िम्मेदार ठहराते हैं, हालांकि यह असंगत लग सकता है। उन्होंने बंबई की कपड़ा मिलों के उदाहरण को उद्धृत किया है जहां श्रमिकों पर कम्युनिस्ट नियंत्रण के बावजूद, अस्पृश्यता का अभ्यास जारी रहा। साथ ही वे आंबेडकरवादियों को भी भूमि आंदोलनों में भाग नहीं लेने के लिए दोषी ठहराते हैं जो आरक्षण की तुलना में अधिक लाभकारी मांग साबित होने वाली हो सकती थी। भूमि पर हक़दारी दलितों को सक्षम बनाने में एक कारगर उपाय साबित होती।

वे यह भी सवाल उठाते हैं कि दलितों पर अत्याचार के मामलों में हम क़ानूनी न्याय और सामाजिक अस्वीकृति दोनों एक साथ कैसे हासिल कर सकते हैं? दूसरे लक्ष्य को हासिल करना असंभव सा है क्योंकि इस बात की संभावना बहुत कम है कि ऊंची जातियों के लोग स्वयं की निंदा करने के लिए आगे आयेंगे। एक जातिवादी समाज में न ही इस बात की नैतिक स्पष्टता है और न ही इस तरह की आत्मनिंदा उन लोगों के भौतिक और बौद्धिक हितों पर कोई फ़र्क़ डालेगी जो समाज के कर्ताधर्ता होने का दावा करते हैं। मानव अधिकार कार्यकर्ताओं के सामने यह एक उलझन है कि वे इस बात पर तो ज़ोर दे सकते हैं कि राज्य संवैधानिक प्रावधानों का पालन करे, परंतु वे नागरिकों को संवैधानिक नैतिकता का पालन करने पर मजबूर नहीं कर सकते हैं। एक सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर तेलतुंबड़े कई मानव अधिकार आंदोलनों में शामिल रहे हैं। उन्हें यह समझ है कि भारतीय गणतंत्र को आकार और दिशा उसकी परंपरागत ‘रिपब्लिक ऑफ़ कास्ट (जाति का गणतंत्र)’ दे रहा है। यहां आकर किताब के शीर्षक का अर्थ खुलता है।

इसके साथ ही वे हमें यह उपाय सुझाते हैं कि एक नागरिक के तौर पर हम इस आपराधिकता की जड़ को कैसे कमज़ोर कर सकते हैं, कैसे इस आपराधिकता के ख़िलाफ़ काम कर सकते हैं। राज्य हमें कई प्रकार की सामाजिक सुरक्षाएं देता है और हमारे कल्याण के लिए बहुत कुछ करता है। राज्य के इस पक्ष की व्यावहारिक उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए हम तार्किक और आलोचनात्मक व्याख्या से कैसे यह देखें कि दलितों के मामले में हम कहां खड़े हैं और हमें क्या करना है? दरअसल, उनकी पुस्तक, रिपब्लिक ऑफ़ कास्ट इस बात पर ज़ोर देती है कि हम जाति व्यवस्था और वर्ग प्रणालियों के संदर्भ में भारतीय राज्य की प्रकृति और आचरण का निरंतर आकलन और अध्ययन करें। अगर संविधान द्वारा निर्मित राज्य भारत के लोगों की संप्रभुता का प्रतिनिधित्व करता है तो हम यह भी देखें कि यह संप्रभुता किस रूप में अभिव्यक्त होती है। मसलन, क्या राज्य सामाजिक न्याय को सार्थक तरीक़े से लागू करना चाहता है या केवल औपचारिकता का निर्वहन करने का इच्छुक है। यह एक महत्वपूर्ण अंतर है और तेलतुंबड़े चाहते हैं कि हम इस पर ध्यान दें। सरकार के औपचारिक निर्णयों से भी कुछ परिणाम हासिल किये जा सकते हैं और इन सभी को तिरस्कार की दृष्टि से देखना भी ठीक नहीं है।

आज के नवउदारवाद के बढ़ते प्रभाव के चलते राज्य ने अपनी कल्याणकारी भूमिका का संकुचन किया है और जनता एवं राज्य के बीच नए क़िस्म के संघर्ष उपजे हैं। तेलतुंबड़े कहते हैं कि राज्य का उद्देश्य केवल टकरावों और संघर्षों को नियंत्रित कर शांति की स्थापना करना नहीं हो सकता, राज्य को यह भी समझना होगा कि टकराव इसलिए हो रहे हैं क्योंकि समाज में आर्थिक असमानता और सामाजिक संकीर्णता है तथा संस्कृति व इतिहास के क्षेत्रों में संघर्ष की स्थितियां उत्पन्न हो गयी हैं। इसका हल यह नहीं है कि असहमति के स्वरों के दबाया जाये या टकराव के कारणों पर चर्चा प्रतिबंधित कर दी जाये। राज्य को खुली और जनतांत्रिक बहसों को प्रोत्साहन देना चाहिए।

जब जनतांत्रिक दायरे सिकुड़ते हैं तो वे ऊपर और नीचे – दोनों जगह अपना प्रभाव दिखाते हैं। इधर पिछले कुछ वर्षों में नागरिकता के गुणों का पतन हुआ है, भीड़ अफ़वाह से हिंसा की ओर आकर्षित होने लगी है जिससे कुछ बहुत ही दर्दनाक घटनाएं हुई हैं। तेलतुंबड़े इसकी तह में जाने का प्रयास करते हैं। भारत में भीड़ के इस हिंसक और आश्चर्यजनक प्रदर्शन को 'लिंचिंग' कहा गया है। इस भीड़-भाड़ के माध्यम से कई लोगों की जान गयी है। तेलतुंबड़े आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि कृष्ण, बुद्ध, अशोक और महात्मा गांधी के इस देश में इस तरह के उपद्रव और भयावह घटनाएं कैसे संभव हुई हैं?  तेलतुंबड़े ने दिखाया है कि मनुष्यों की हत्या मनुष्यों के द्वारा हो रही है जिसमें जाति से उपजी घृणा दलितों को शिकार बनाती है। यह 'लिंचिंग' अल्पसंख्यक समुदायों के सदस्यों के ख़िलाफ़ भी धर्म के आधार पर की जाती है। वे इस किताब में 'लिंचिंग' की घटनाओं से निपटने में राज्य की संस्थाओं की भूमिका को ज़मीनी स्तर पर पुलिस-नौकरशाही-नेताओं की सांठगांठ के रूप में सामने लाते हैं। इसी बात को आगे बढ़ाते हुए तेलतुंबड़े कहते हैं कि ऐसा लगता है कि न्यायपालिका में लोगों की आख़िरी उम्मीद भी ग़ायब हो रही है और कुछ सम्मानज़नक अपवादों को छोड़कर अदालतें हमेशा ग़रीबों, आदिवासियों, दलितों और मुसलमानों के ख़िलाफ़ पक्षपाती रही हैं। इस संदर्भ में लेखक का मानना ​​है कि एक लिंच वाली भीड़ की विशेषताएं- नैतिक धार्मिकता की अपनी आसान धारणा और अपनी निष्पक्षता के बारे में विश्वास, सहज रूप से उत्पन्न नहीं होती हैं, बल्कि यह सब एक विशेष राजनीति के तहत उन्हें कई वर्षों के प्रयोग और अवलोकन से परिपूर्ण एक रणनीति की अभिव्यक्ति के रूप में सौंप दिया जाता है जो मुख्य रूप से दलितों और अल्पसंख्यकों को सबक़ सिखाने से जुड़ी मिसालों के माध्यम से होती है।

भारत की आज़ादी की लड़ाई अलग अलग समूहों के लिए अलग अलग अर्थ संधान करती है। एक कांग्रेसी के लिए इसका जो आशय होता है, वह एक आंबेडकरवादी के लिए नहीं हो सकता है। मज़दूर आंदोलनों से जुड़े लोगों एवं मार्क्सवादियों के लिए इसका आशय भिन्न होता है।  डॉ. आंबेडकर के योगदानों के बारे में भारत सहित दुनिया में जो राय बनी है, उसमें उनके द्वारा जाति-उन्मूलन के प्रयास, दलितों को संघटित और शिक्षित करने की अपील तो है ही, वे एक राजमर्मज्ञ के रूप में याद किये जाते हैं। भारत के संविधान को रूप देने में उनकी विलक्षण भूमिका थी। 

  तेलतुंबड़े रेखांकित करते हैं कि वे जो कर रहे थे, उसके परिणाम के बारे में वे स्पष्ट थे और दलित, आदिवासी, पिछड़ी जातियों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों, ग़रीब जनता और उनकी भावी पीढ़ियों के लिए उनके अद्वितीय योगदान पर संदेह नहीं किया जा सकता है। हो सकता है कि इन समूहों को वर्ग संघर्ष या ऐतिहासिक भौतिकवाद जैसे नुस्ख़े की तरह कोई जादू की छड़ी नहीं दी गयी हो, लेकिन आंबेडकर ने व्यक्ति की गरिमा का आश्वासन देकर सभी के बीच भाईचारे को बढ़ावा देकर एक सामाजिक-आर्थिक क्रांति की शुरुआत की है। 25 नवंबर 1949 को संविधान के अंतिम मसौदे पर चर्चा को छोड़कर, आंबेडकर ने संविधान की खूबियों पर कहा था कि यह एक अच्छा संविधान साबित हो सकता है, लेकिन यह संविधान का व्यवहार करने वाले लोगों की गुणवत्ता पर निर्भर करेगा। इसी के साथ आंबेडकर संविधान की संभावित निंदा के बारे में जानते थे, ख़ासकर कम्युनिस्टों द्वारा, क्योंकि वे सर्वहारा वर्ग की तानाशाही के सिद्धांत के आधार पर एक संविधान चाहते थे। उनके अनुसार कम्युनिस्ट इसलिए संविधान की निंदा करते हैं क्योंकि यह संसदीय लोकतंत्र पर आधारित है। इस तरह से इस पुस्तक में लेखक घटनाओं और आंदोलनों के बीच दिलचस्प घटनाओं का खुलासा करते हुए सूचना और विश्लेषण की एक बृहत व्याख्या प्रदान करता है, जिस पर, अक्सर अनुसंधान के संबंधित क्षेत्रों के विशेषज्ञों का ध्यान नहीं जाता है। इस काम में, लेखक पाठकों के साथ यह  साझा करते हैं कि एक क्रांति का सपना देखने के लिए, जो दलितों और सर्वहारा वर्ग के एक सम्‍मिलित वर्ग द्वारा संघर्ष के माध्यम से आगे बढ़ने की वकालत करता है। यह पुस्तक उन सभी को अवश्य पढ़नी  चाहिए जो जाति और वर्ग के मुद्दों में रुचि रखते हैं।  

अब बात करते हैं दूसरी किताब, भीमराव रामजी आंबेडकर : भारत और साम्यवाद की। यह किताब दो हिस्सों में है। पहले हिस्से में तेलतुंबड़े ने एक लंबी भूमिका लिखी है और दूसरे हिस्से में एक अधूरी पांडुलिपि है जो डॉ. आंबेडकर के कागज़ात में मिली थी। इसे 1950 के दशक में लिखा बताया जाता है। इसमें बहुत सी वे बातें हैं जो रिपब्लिक ऑफ़ कास्ट में कही गयी हैं, लेकिन इसका एक नवीन परिप्रेक्ष्य भी है कि साम्यवाद और डॉ. आंबेडकर की वैचारिकी के बीच कोई साझा भूमि विकसित की जा सकती है? यह अब तक संभव नहीं हुआ तो उसके क्या ऐतिहासिक और मनो-राजनीतिक कारण रहे हैं? इधर हाल के वर्षों में विद्वत जगत, सार्वजनिक बहस-मुबाहिसों एवं सोसल मीडिया में, छात्र संघ चुनावों से लेकर पतली पुस्तिकाओं एवं लेखों के माध्यम से बुद्धिजीवियों का एक बड़ा तबक़ा आरोप लगाता है कि मार्क्सवाद का आंबेडकर से कोई संवाद नहीं रह गया है। एक सीमा के बाद वे यहां तक कहने लगते हैं कि इसके बीच कोई संवाद संभव ही नहीं है। तेलतुंबड़े इसकी धज्जियां उड़ा देते हैं।

इसके लिए तेलतुंबड़े तीन काम करते हैं। आंबेडकर की वैचारिक यात्रा का इतिहास बताना, मार्क्सवाद से उनकी मुठभेड़ और अंत में दोनों की बीच समझ स्थापित करने वाली साझा कार्यवाहियों की सूची प्रस्तुत करना। अपनी लगभग 67 मुद्रित पृष्ठों की प्रस्तावना में आंनद तेलतुंबड़े ने उस वैचारिक काई को साफ़ करने का काम किया है जो आंबेडकर और मार्क्सवादी हलक़ों के बीच जम गयी है। इस काई पर या तो लोग फिसल कर गिर पड़ते हैं या उन्हें इसके नीचे उन्हें आंबेडकर की वह राजनीतिक भावभूमि नहीं दिखायी पड़ती है जिस पर चलकर श्रम, जाति और जोतने वाली ज़मीन का मुद्दा हल हो सकता है। इसके लिए उस ऐतिहासिक अनुभव को व्याख्यायित करते हैं जिसे मज़दूरों, ग़रीब किसानों और महिलाओं ने अनुभव किया है।

डॉ. आंबेडकर की किताब, भारत और साम्यवाद उनके काग़ज़ात में अपूर्ण पांडुलिपि के रूप में मिली थी। इसमें हिंदू समाज व्यवस्था और उसके प्रतीकों पर चर्चा की गयी है। इसमें डॉ. आंबेडकर का लेखन उनके पहले के लेखन से सरल और स्पष्ट है। संभवत: संविधान सभा के वाद-विवादों, आज़ाद भारत में अस्पृश्य जनों की दशा और उनके राजनीतिक भविष्य पर वे पहले की अपेक्षा ज़्यादा सोच-समझ पा रहे थे।

जिस नवउदारवाद की चर्चा वे अपनी पिछली किताब में कर रहे थे, उसे यहां थोड़ा विस्तार देते हैं और उसको समझने के लिए एक खिड़की उपलब्ध कराते हैं। वे लिखते हैं कि दुनिया लगातार और तेज़ी से बदल रही है । इसके सार को उन ढांचों की मदद से नहीं समझा जा सकता है, जिनसे इसके पिछले संस्करणों के साथ जूझा गया था। यह 'वाद' केवल प्रकाश स्तंभ जैसे तो हो सकते हैं लेकिन जनता को उन कठिन परिस्थितियों के बीच से ही अपने लिए रास्ते निकालने होंगे जिन परिस्थितियों में वह रह रही है। इस एहसास के पैदा होने पर पहचानवादी जिद समाप्त हो जानी चाहिए। तेलतुंबड़े आंबेडकरवादियों एवं मार्क्सवादियों को स्वाभाविक मित्र मानते हैं लेकिन यह तभी संभव है जब आपस में विश्वास पनपे। वे लिखते हैं कि भारत के दलितों के कंधे से कंधा मिलाये बग़ैर कोई क्रांति संभव नहीं हो सकती है और मेहनतकश जनता के व्यापक तबक़ों द्वारा उन्हें अपनाये बग़ैर जाति का विनाश संभव नहीं है । इसी के साथ कम्युनिस्टों को यह समझना चाहिए कि दलितों के साथ हाथ मिलाने का दायित्व उनके ऊपर है और यह मेल सच्चा और किसी भी चुनावी गणित से परे होना चाहिए । दलितों को भी यह महसूस करना होगा कि जातीय पहचान पर आधारित राजनीति उन्हें केवल अधिक टुकड़ों में बांटेगी और उनका टुकड़ों में बंट जाना शासक वर्ग के खेमे में खुशियां लेकर आयेगा । उनकी मुक्ति का मार्ग जाति के पास नहीं है बल्कि वर्गीय एकता ही उन्हें मुक्त करा पायेगी । कम्युनिस्टों को यह भी समझना चाहिए कि क्रांति किसी एक बिंदु तक सीमित नहीं है बल्कि यह एक प्रक्रिया है। क्रांतिकारी रणनीति को संचालित करने वाली तमाम नीतियां इसी क्रांति का हिस्सा हैं।

1927 से लेकर भारत की संविधान सभा में आने से पहले के डॉ. आंबेडकर के लेखन को, कोई यदि सरसरी तौर पर देखे, तो पायेगा कि भारतीय समाज व्यवस्था, हिंदू धर्म और उसके अंदर अस्पृश्यों की स्थिति पर न केवल लिख और बोल रहे थे बल्कि उनके लिए राजनीतिक भागीदरी की ज़ोरदार पैरवी भी कर रहे थे। भारत की संविधान सभा की बहसों में भाग लेने, उसे रूप देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने के दौर में ही उन्होंने भारत की सामाजिक व्यवस्था को संवैधानिक नैतिकता से चालित होने का स्वप्न देखा था। 4 नवंबर 1948 को उन्होंने ग्रीक इतिहासकार ग्रोट को उद्धृत करते हुए शासन और संविधान के बीच संबंधों की व्याख्या के लिए 'संवैधानिक नैतिकता’ पर बल दिया और कहा कि किसी भी समाज को इसे स्वत: विकसित करना होता है। अभी भी हमारे लोगों यानी भारतीय जनों को इसे सीखना है। उन्होंने कहा कि भारत में लोकतंत्र ऊपरी छिड़काव भर है, वह भारत जो मूल रूप से अलोकतांत्रिक है।

अपनी अधूरी पांडुलिपि में वे कहते हैं कि स्वाधीनता एक स्वतंत्र सामाजिक व्यवस्था के लिए आवश्यक है। यहां पर डॉ. आंबेडकर दो प्रकार की स्वाधीनताओं की बात करते हैं : नागरिक स्वाधीनता और राजनीतिक स्वाधीनता। डॉ. आंबेडकर की चिंता थी कि हिंदू समाज व्यवस्था जिस सीमा तक इन सिद्धांतों को मान्यता प्रदान करती है, उसी सीमा तक वह स्वतंत्र कही जा सकती है। इसके बाद वे हिंदू समाज व्यवस्था के मूलभूत सिद्धांतों, विशिष्टताओं और प्रतीकों का वर्णन करते हैं। अपने पूर्ववर्ती लेखन की तरह वे इस पांडुलिपि में अकादमिक परिश्रम के साथ उपस्थित हैं, लेकिन पहले की अपेक्षा भाषा काफ़ी सरल है, शायद वे इसे एक लोकप्रिय लेकिन महत्वपूर्ण पाठ के रूप में विकसित करना चाहते थे।

मो. अजय कुमार : 9415159762 , और रमाशंकर सिंह : 738045713

पुस्तक संदर्भ

रिपब्लिक ऑफ़ कास्ट : थिंकिंग एक्वालिटी इन द टाइम ऑफ़ नियोलिबरल हिंदुत्व : आनंद तेलतुंबड़े,

नवयान, नयी दिल्ली, 2020

भीमराव रामजी आंबेडकर : भारत और साम्यवाद : आनंद तेलतुंबड़े, लेफ़्टवर्ड, नयी दिल्ली, 2019

 

 

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