काव्‍य चर्चा-3

स्त्री विमर्श के संभावनापूर्ण पाठ

रेखा अवस्थी

 शृंखला की कड़ियां और द सेकंड सेक्स के प्रकाशनोपरांत स्त्री लेखन पुराने सामंती प्रेतों की पितृसत्ता से संघर्ष करते करते जिस मुक़ाम पर आज है उसकी ताक़त दुनिया भर का वह महिला आंदोलन और स्त्री विमर्श है जिसने स्त्री नागरिकता का प्रश्न पूरे दमख़म के साथ उठाया, पितृसत्ता के दोहरे मूल्यों तथा दोहरी नैतिकता की नज़ीरों को तार्किक विवेचन के साथ पेश किया, क़ानूनों में परिवर्तन- संशोधन कराये और नये क़ानून बनवाये। लंबी बहसों के बाद स्त्री अध्ययन को पाठ्यक्रमों में स्वीकृति मिली। पर ज़मीनी स्तर पर संघर्ष लंबा है, इसीलिए सदियों की पराधीनता से स्त्रीमुक्ति का अभियान हर स्तर पर जारी रखने का प्रयत्न लोकतांत्रिक जनवादी शक्तियों की कार्यसूची का महत्वपूर्ण कार्यभार बन गया है। आमतौर पर नागरिक अधिकार की ग़ैरबराबरी का कारण लिंग भेद, रंग भेद, नस्ल भेद और जाति भेद माना जाता है जबकि इसके मूल स्रोत में तो है आर्थिक संसाधनों के स्वामित्व का प्रश्न। परंतु इस मूल स्रोत यानी वर्ग वैषम्य को उजागर करने से पहले ऊपर की सतह पर हो रही क्रूरता, ग़ुलामी, प्रताड़ना, निषेध आदि आदि की अंधेरी लंबी सुरंगों के झाड़ झंखाड को पहचानना और उनसे निपटना भी उतना ही ज़रूरी है। स्त्री मुक्ति, रंग भेद मुक्ति और जाति प्रथा से मुक्ति के आंदोलन और विमर्श में साहित्य ने महत्वपूर्ण भूमिका ही नहीं निभायी बल्कि उनका प्रेरक भी है। इसी दृष्टि से इस लेख में पिछले तीन चार वर्षों में प्रकाशित पांच स्त्री कवियों के कविता संग्रहों को टटोलने-पढ़ने की कोशिश है।

 1. पिरामिडों की तहों में

सुमन केशरी का यह तीसरा काव्य संग्रह है। यह ध्यान देने की बात है कि स्त्री याज्ञवल्क्य से बहस करते करते, ह्रदय को आंखों से जानने के बाद इतिहास के पन्नों को पलटती व अपने देश से भी पुरानी सभ्यता मिस्र पहुंचती है जहां उसे तहख़ानों में दबी ममियां/ हमें अपने बीच पा/ अट्टहास कर रही थीं / आख़िर वे भी तो/ ऐसे ही सपनों के मुग़ालते में/ दबी पड़ी थीं हजारों सालों से('क़ैद आत्माएं', पृ. 13) इंद्रजाल', ‘आकांक्षाओं की अंधेरी क़ब्र में’, कविताओं में स्त्री पराधीनता का परिप्रेक्ष्य बहुत ही बेबाक और बेचैन करने वाला है। यह वह वैश्विक परिप्रेक्ष्य है स्त्री यातना और पराधीनता का जिसमें आज की स्त्रियां सहभागी हैं पर जनतांत्रिक चेतना से लैस स्त्री पितृसत्ता की स्त्री विरोधी मानसिकता के विरुद्ध बोलने और संघर्ष के लिए सन्नद्ध है : मैंने अपनी दम भर अपनी सांस बटोरी/ चीखी/...कातर हो/ ध्वनि को पुकारा/...आंसुओं से शब्दों को सींचा/ सहलाया उन्हें/ पुकारा/ फिर पुकारा। चूंकि स्त्री विमर्श और आंदोलन के दबाव से पितृसत्ता को स्त्री अस्मिता को, आधे अधूरे मन से ही सही, स्वीकार करना पड़ रहा है, इसीलिए संग्रह की अंतिम कविता में यह स्वीकारोक्ति है कितहखाने का द्वार/ खुल रहा था धीरे धीरे...(तहख़ाने का द्वार, पृ.111) बंद दरवाज़ों के धीरे धीरे खुलने की यह आशा चल रहे संघर्षों को आगे बढ़ाने में मददगार हो सकती है। यद्यपि समझ की यह सतर्कता अर्जित की जा चुकी है कि पूंजीवाद पितृ प्रेतों को, नये नये रूपों, तरकीबों में अब बाज़ारवाद, सांप्रदायिकता, धार्मिक रूढ़ियों और साबर निगरानी के ज़रिये, ज़िंदा रखने की चतुर साज़िशों में जुटा हुआ है। पिरामिडों की तहों में संग्रह की एक रसूख़ वाले आदमी से’,मृगतृष्णा के जागरण में  तथा किरणों का एक सिरा जैसी कविताएं इस ख़तरे की निशानदेही करती हैं।

  घर को लेकर स्त्री जीवन या समाज में बराबर ऊहापोह है। सुमन की नज़र इस ऊहापोह से जुदा नहीं है: कभी किसी औरत का घर देखा है?/ कहते तो यही हैं कि औरत घर बनाती है/ पर जब बात होती है घर की/ तो वह हमेशा मर्द का ही होता है’ ('निष्कासित', पृ. 51)। यही नहीं यही घर उसकी व्यक्तित्व विहीनता का पर्याय भी बन जाता है: घर/ घर/ घर/ कई बार उच्चारा मैंने/ और धंसती चली गयी उस अंधे कुए में...('वीरान', पृ. 28)। घर, परिवार, विवाह के सपने स्त्री के जन्म लेते ही गढ़े जाने लगते हैं। जबकि यह तीनों संस्थाएं स्त्री के विस्थापन का मूल कारण हैं। सुमन लिखती हैं: विदा होती लड़कियां/ समूल उखाड़ रही थीं ख़ुद को/ आंचल में अपनी जड़ें समेटती .../.... लड़कियों के अपने देस की कोई कथा सुनी है तुमने?’('विदा होती बेटियां', पृ.64)। एक और कविता मेरा कोई घर नहींकी इन दो पंक्तियों में स्त्री जीवन के इस त्रासद यथार्थ को पढ़ें: पेड़ तो हूं/ पर जिसकी जड़ें धंसने नहीं दी जातीं इतनी गहरी/ कि कह सकूं कि यह ज़मीन है मेरी (पृ. 52)। इन संघातों और संघर्षों के बीच स्त्री की अनिवार्यता और उत्कृष्टता को सुमन केशरी ने स्त्री तथा ओ...ऋत कविता में प्रकृति के साथ एकाकार कर दिया है: 'डर तूफ़ान है/ सब कुछ/ छिन्न भिन्न कर देता है...अच्छा!!!औरत ने कहा/ और/ लेट गयी/ क्षितिज-सी... बिछ गयी धरती पर वह हरियाली-सी/ स्वच्छ सुंदर...बादलों में बूंदों-सी समा/ तिरने लगी आकाश के सागर में/ निर्द्वंद्व ...(ओ...ऋत, पृ.59-60). प्रकृति और स्त्री का यह तादात्म्य भाव व्यंजक तो है ही, कलात्मक भी बहुत है। 

2. बूंद बूंद शब्द

मनजीत मानवी का यह दूसरा काव्य संग्रह है। संग्रह में कवि मानवी ने प्रतिगामी व्यवस्था, सामाजिक ढांचों, शास्त्रों और परंपराओं के प्रति प्रतिरोध को अपनी संवेदना एवं वैचारिकी का आधार बनाया है। इसी प्रतिरोध के रास्ते वे अपनी प्रतिबद्धता उन नये रास्तों, विचारों के प्रति व्यक्त करती हैं जिनसे स्त्री को पितृसत्ता की पराधीनता से मुक्ति, दलितों को जाति त्रासदी से मुक्ति, ग़रीबों, मज़दूरों, बेरोज़गारों को आर्थिक संत्रास, शोषण और उत्पीड़न से मुक्ति के रास्ते मिल सकते हैं।

उनका मानना है,देखें कभी/ उलट पलट कर/ सर्वसहमति का/ उलझा जाल/... प्रतिष्ठा में अनिष्ठा देखें/ अनिष्ठा में छिपा सम्मान/ ज्ञान की मूर्खता देखें/ मूर्खता का ज्ञान('उलट पलट', पृ. 89)। अंग्रेज़ी साहित्य के अध्यापन के साथ साथ मनजीत लंबे समय से महिला आंदोलन की प्रतिबद्ध कार्यकर्ता हैं। वे पितृसत्ता द्वारा महिमामंडित भारतीय संस्कृति के झूठे दावों की पृष्ठभूमि में पूछती हैं: किस जटाजाल में/उलझी हो तुम/आधुनिक स्त्री?/...परिवार की परिसीमा/मर्यादा का मोह/प्रेम का जोख़िम/और स्त्री मुक्ति भी?’('जटाजाल', पृ. 63)। मनजीत इस तथाकथित मान मर्यादा के आख्यान को निकृष्टतम पाठ कहती हैं: उसे नहीं मालूम था/ असली आदमख़ोर/ वनों में नहीं/ अंधी परंपरा की/...मांद में पलता है/... लिंग पोंछता है/ वाहवाही लूटता है/ और बेधड़क/ पढ़ाता जाता है/ कुल की इज्ज़त का/ वह निकृष्टतम पाठ/जिसे सभ्यभाषा में/ मर्दानगी कहा जाता है!(पृ. 61-62)। इन दिनों 'लव जिहाद' के नाम से पारित कई राज्यों के अध्यादेशों की स्त्रीविरोधी मानसिकता के संदर्भ में इस कविता की व्यंजकता हरियाणा की खापों की संकीर्णताओं से परे और अधिक बढ़ जाती है। धर्माचार्यों, नेताओं, खाप पंचायतों के फ़रमानों और कुकर्मों के प्रभाव और धार्मिक ग्रंथों एवं विज्ञापनों द्वारा फैलायी मानसिक ग़ुलामी के कारण बड़े पैमाने पर स्त्रियों का अस्तित्व निरंतर संकटग्रस्त है जिसका मनजीत ने संग्रह की अनेक कविताओं में गहन भावानुभूति के साथ चित्रण किया है।  

मनजीत की कविताएं और मनजीत स्वयं हरियाणा की खाप पंचायतों की स्त्री और दलित विरोधी मुहिमों के विरुद्ध एक सशक्त आवाज़ और सक्रिय भागीदार हैं। यक्ष प्रश्न कविता में पुत्र कामना के बरक्स लड़कियों का मर्मभेदी चीत्कार साफ़ साफ़ सुना जा सकता है: खड़ा है रक्तबीज सा/ इक्कीसवीं सदी की/ दहलीज़ पर भी/स्त्री ह्रदय की प्यास लिये/ वही पुराना यक्ष प्रश्न/...जिस वंश को/ चलाने के लिए/...हो जाता है हवन/ एक औरत का तमाम जीवन/ उसी वंश की जड़ों से/ अनुपस्थित है/ क्यों आज भी/ औरत के दर्द की संतति/... पिता और पुत्र की/ खंदक में गर्त/ एकांगी वंश वृक्ष की/..यही है घुटन/ यही जड़ों का मर्म ...(पृ. 4०-41)। यहां यह बताने की ज़रूरत है क्या कि हरियाणा में बेटियों का अनुपात देश में सबसे कम है? यहां विवाह के लिए स्त्रियां दूसरे प्रदेशों से लायी जाती हैं। फिर भी बरस रही है हर दिन/ स्त्री देह पर/ परिपाटी की अंधी लाठी( 'स्त्री देह', पृ. 34)। इसलिए मनजीत स्त्री देह की निजता को अपना कथ्य बनाती हैं: मेरा शरीर/ तुम्हारे खेल का मैदान नहीं/...मैंने छोड़ दी है/ हर ख़्वाहिश तुम्हारा वंश सजाने की/...चुन लिया है मैंने/हर लक्ष्मण रेखा लांघ कर/ रावण से निपटना/ मुक्ति के ख़्वाब बुनना('मेरा शरीर', पृ. 42-44)। स्त्री के इंकार करने के साहस से विभिन्न पितृवादी सत्ताओं के सिंहासन हिल उठते हैं. स्त्री को अपने इंकार की क्षमता का अहसास मेरा इंकार कविता में यह कहते हुए होता है: मैं नहीं जानती थी/ इतनी बड़ी ताक़त है मेरे इंकार में!('मेरा इंकार', पृ.38)। मनजीत मानवी स्त्री मुक्ति के लंबे संघर्ष से वाकिफ़ हैं और अपनी सीधी सरल कविताओं से तैयार रहने का जज़्बा यह कह कर जगाती हैं: अभी तो खुली भर है/नियति की जंग से/ बंद पड़ी खिड़की/...अभी तो शेष है पलटना/ अतीत का हर धोखा !( अभी तो, पृ.71).

3. एक शहर का ज़िंदा होना

सीमा संगसार का यह पहला कविता संग्रह है। पेशे से शिक्षक सीमा की काव्यदृष्टि सामाजिक और वर्गीय अंतर्विरोधों की पहचान कराने से कहीं नहीं चूकती। उनकी पक्षधरता मेहनतकश अवाम के साथ है। स्त्री, किसान, मज़दूर, दलित, अल्पसंख्यक उनकी कविता के नागरिक हैं, जिन्हें हमारा कुलीन तबक़ा अपने देश का नागरिक नहीं ग़ुलाम समझता है। ये सभी आर्थिक शोषण के साथ पितृसत्ता की यातना, जातिवाद की प्रताड़ना और सांप्रदायिक हिंसा के शिकार हैं। संग्रह की पहली कविता, ‘अछूत में दलित स्त्री के यौन उत्पीड़न का सधा बयान स्वयं पीड़िता से कहलाना प्रतिरोध का पहला क़दम है: तुम्हारे प्रार्थना घरों के देवता/भाग खड़े होते हैं/मेरी पदचाप सुन कर!/...तुम रांधते हो मेरी देह को/ मरी हुई मछलियों की तरह/जो स्वादहीन व गंधहीन होकर भी/तुम्हारे भोजन में/घुल जाती है नमक की तरह(पृ. 21)।

प्रतिरोध की यह समझ मुक़ाबला करने का साहस जगाती है। ठाकुर की योजनाबद्ध तरीक़े से हवस का शिकार बनाये जाने की साज़िश को रमरतिया ध्वस्त करती है। मात्र उत्पीड़न/रुदन की कविता न लिख कर सीमा यहां प्रतिकार की इबारत लिखती हैं:  रमरतिया तैयार न थी आज चूड़ी छनकाने को/ कटनी का भूत सवार था/अंचरा में छिपाये/ हंसुआ से/रेत दी ठाकुर की गर्दन!/ लहलहा उठा उसका यौवन।।(पृ. 39-40)  कवि सीमा ने लहलहा शब्द को स्त्री मुक्ति के नये संदर्भों - उत्पीड़न से आत्मरक्षा का साहस और निर्णय की क्षमता - के साथ प्रयुक्त किया है। किसान की फ़सल के लहलहाने के सादृश्य को श्रमिक स्त्री, भूमिहीन और दलित स्त्री, के साथ पढ़ते ही कविता के प्रभाव का तमाम संदर्भों के साथ अर्थ का विस्तार होता है। साथ ही लहलहाती फ़सल से किसान को होने वाली ख़ुशी का बिंब और रमरतिया की आत्मरक्षा/ प्रतिकार की ख़ुशी का बिंब मूर्तिमान हो जाता है।

कविता के लिए यथार्थ या विषय वस्तु, सादृश्य और बिंब प्रतीकों का चयन रचनाकार की जीवन दृष्टि से संपृक्त होते हैं। इस प्रतिमान पर समकालीन कवियों में अपनी रचनाशीलता से सीमा अलग पहचानी जा सकती हैं। उनकी अनेक कविताओं में  स्त्री के बच्चों समेत समाज और प्रकृति से खटने और जूझने के चित्रण की संवेदनशीलता का वैचारिक परिप्रेक्ष्य बहुत सुदृढ़ प्रतीत होता है। पतझड़ में विपन्न स्त्री और बच्चे का यह चित्र उत्पीड़क सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था की पहचान कराता है: जब नंगी होती है प्रकृति/देती है उष्मा/ उन सारे नंगे बच्चों को/ जो दिन भर/ उन झाडू लगाने वाली/ माओं के पास/ चिपके रहते हैं/ कंगारुओं की तरह.../वह कचरा बीनती औरतें/ जमा कर लेती हैं/उन पत्तों के ढेर को/ और/ इस कनकनाती सर्दी में/ जला डालती हैं अलाव.../ कितनी उष्णता दे जाता है/ एक पेड़ का ठूंठ हो जाना...('पतझड़', पृ. 58)। मौसम का हालचाल(पृ. 96) कविता भी इसी तरह खेतों और  घरों में चौका बर्तन करने वाली स्त्रियों और  उनके  बच्चों के जूझते जीवन परिदृश्य को गहरे व्यंग्य के साथ उद्घाटित करती है।

स्त्री पराधीनता से मुक्ति के रास्ते में स्त्रियों की हज़ारों वर्षों की मानसिक ग़ुलामी के अनुकूलन को, संपति के स्वामित्व से बेदख़ल किये जाने को मुख्य कारण मानने के बाद, सबसे बड़ी बाधा माना गया है। इस अनुकूलन में धर्मग्रंथों, धार्मिक कर्मकांडों और रीति रिवाजों की बड़ी भूमिका है. इसी को ध्यान में रखते हुए सीमा संगसार ने कठपुतली सी नाचती स्त्री, जिसने सूरज के ताप में अपनी सारी महक खो दी है, को ग़ुलामी से मुक्ति के लिए घर , परिवार ,कुल-वंश की चौखट को ही स्त्री का संसार बना देनी वाली पितृसत्ता की  हर लक्ष्मण रेखा को लांघ कर बाहर आने का न्योता इस प्रकार दिया है: आना चांदनी रात में/ रातरानी बन कर/ दीदार करना चांद से/ जब तेरी रूह में/समां जाये चांदनी/ यक़ीन मानो/ छोड़ दोगी ग़ुलामी/ सूरज की.../(सूरजमुखी का सच', पृ. 31)। बंधनों से मुक्ति का यह प्रयास मात्र आमंत्रण तक सीमित नहीं रहता। गर्भ गृह को अशुद्ध  मान कर अछूत मानने की धार्मिक पाखंड परंपरा को वे प्रश्नांकित करती हैं: ऊंची मीनार पर/लाल लाल पताके/ लहराते हुए/ गुंबदों के नीचे/ गर्भ गृह स्थित/ ईश्वर को पूजा जाता है/लाल सिंदूरों से पोतकर.../ लाल रुधिर से/सना हुआ/ गर्भ गृह/ फिर अछूत क्यों?’(गर्भ गृह, पृ. 36)। बल्कि उनकी स्पष्ट मान्यता है कि इस दुनिया का सबसे पवित्र कक्ष/प्रसव कक्ष है ।...('प्रसव कक्ष में', पृ. 73)

बिहार के ज़िला बेगूसराय के गांव बरौनी में रहते हुए बर्बर युग में, पहचान पत्र, भीड़ तंत्र कविताओं में  सीमा संगसार की काव्य संवेदना के तार देश दुनिया की हर उस घटना परिघटना से जुड़े रहते हैं जो मनुष्यता के पक्ष में है और प्रतिक्रयावादी ताक़तों का विरोध करती है।  अनेक ऐसी कविताओं के साथ उनकी चेग्वेरा’, ‘मक़बूल’, 'ब्रह्मराक्षस की ख़ोज’,सिमरिया घाट और कामरेड जैसी बहुप्रशंसित कविताएं भी इस संग्रह में संकलित हैं।

 4. सीता नहीं मैं  

आभा बोधिसत्व का यह पहला ही संग्रह है जबकि वे तीन दशकों से लिख रही हैं। संग्रह की भूमिका कवि आभा का प्राक्कथन नहीं लगता क्योंकि वहां कोई नाम नहीं दिया गया है। आभा की कविताएं ही उनका वक्तव्य हैं। हज़ारों वर्षों से उपलब्ध अनुपलब्ध स्त्री लेखन में स्त्री जीवन का यथार्थ यही है कि ख़ुद की मर्यादा खोकर उन्हें अब भी कुल मर्यादा की लक्ष्मण रेखा में बांधने के फ़रमान, अध्यादेश, क़ानून जारी हो रहे हैं, उन्हें बाध्य किया जा रहा है। उनकी स्थिति बिलकुल वही है जो आभा बयान कर रही हैं: आगे निकलना तो दूर/ ज़िंदगी की भागमभाग में बराबरी तक के लिए/ घिसटते हुए दौड़ रही हैं पीछे पीछे/ संभालती हुई गर्भ को/ और उनको संभालने के लिए/ कोई रुक नहीं रहा/ फ़िलहाल('स्त्रियां', पृ. 98)।

बाहर निकलो और ख़ुद से बातें कविताओं में चित्रित पितृसत्ता के बोझ की असहनीय स्थितियां अस्मिता बोध को ही जन्म देती हैं कि मेरा जुर्म तो स्वतः सिद्ध है/ मैं एक औरत हूं/ जननी सारे पापों की/ जननी।('जज साहब', पृ. 51)। अस्मिता बोध के  साथ ही पिछले सौ डेढ़ सौ सालों के विमर्श और आंदोलन ने यह विश्वास पैदा कर दिया है कि यशोदा की बेटी कविता में बेटे के लिए मारे जाने के सच को जान कर भी बेटी की उद्घोषणा है,मैं फिर फिर आऊंगी(पृ. 27)। संग्रह की तुम, पत्थर ही सही, संघर्ष, चक्रव्यूह, तलाश, व्यवस्था तथा कई और कविताएं स्त्री की अपनी  पहचान की तलाश और  मुक्ति की चाहत की बेकली और बेचैनी को व्यक्त करते हुए विमर्श और रागात्मकता के संतुलित समन्वय की नज़ीर पेश करती हैं .

स्त्री मुक्ति का लेखन, चिंतन या विमर्श अथवा संघर्ष या आंदोलन किसी एक देश, महाद्वीप, जाति,धर्म की सीमाओं तक सीमित नहीं है। पूरी दुनिया में स्त्रियां अपने प्रति समाज की सोच और व्यवहार, क़ानून और धर्म में बदलाव के लिए लिख रही हैं, लड़ रही हैं। जेलों में बंद हैं। पुलिस, मिलिट्री और धर्मांधों की गोली खाकर जान दे रही हैं। दूसरी तरफ़ धर्म, संस्कृति, परंपरा तथा बाज़ारवाद के नाम पर स्त्री पराधीनता के नये नये फ़रमान व जुगतें ईजाद की जा रही हैं। इसलिए देशज या विदेशज की फांक करना मुनासिब नहीं है। हर देश की स्त्री अपने देश की पितृसत्ता के गढ़े इतिहास, मिथक, परंपरा से दो-चार करने को बाध्य है। दुनिया के मज़दूरो एक हो की तरह दुनिया की स्त्रियां एक हो का आह्वान होना चाहिए क्योंकि यहां भी खोने के लिए जंज़ीरें ही हैं। पुरुष का उपनिवेश बन कर स्त्री नहीं रहना चाहती। स्त्री-पुरुष का सह जीवन बराबरी, प्रेम और एक दूसरे का ध्यान रखने के लिए होना चाहिए ना कि स्वामित्व और साम्राज्य के लिए। इसी भावभूमि पर आभा ने कई कविताएं लिखीं हैं: एक साथी ज़रूरी है/ बिलकुल ज़रूरी है/ सेवा-प्यार का मौसम मनाने के लिए('एक साथी', पृ. 23) साहचर्य की इस विचार भूमि पर कवि आभा इस साथीपन को सात फेरों या कि क़ुबूल है में चित्रित करने की बजाय दिया बाती के बिंब का  सादृश्य रचती हैं: हमें तो बनाये रखनी है/ अपनी रौशनी अपने दिया बाती के रिश्ते को/मंजूर करते हो मेरे साथ चलना/मेरे साथ जलना?/’('संबंध', पृ.17-18)। यही हमसफ़र और साथी मेरे लिए कविता में फटा बांस नहीं सुर और साज का मधुर संगम है, सिंफ़नी है।

रोमांस और प्रेम, जीवन के लिए हवा पानी हैं। स्त्री को भी चाहिए। आभा की स्त्री में प्रेम की आकांक्षा का उल्लसित वर्णन करने का साहस है: मैं तुम्हें काजल बनाना चाहती हूं/ रोज़ रोज़ थोड़ा आंज कर/ थोड़ा कजरौटे में बचाये रखना चाहती हूं।/मेरे मन पर छाये हो तुम/ मुझ पर आविष्ट हो तुम/ मैं तुम्हें एक बार नहीं हर दिन रात/हर सांस हर पल अपनी पलकों में/ रखना चाहती हूं।(पृ.15-16)। उसमें प्रेम को पाने और देने की इच्छा आकांक्षा के साथ उस प्रेम में अपनी निजता और अस्तित्व को बचाये रखने की दृढ़ता भी ख़ूब है। सीता की तरह उसे अपने अस्तित्व की समाप्ति स्वीकार्य नहीं है। अकेले भटकते हुए अपनी राह बना कर जीवित रहने का संकल्प करती यह स्त्री पितृसत्ता की बाधाओं, अवरोधों के प्रति शुक्रिया लिखती और अदा करती है। कविता में व्यंग्य की पैनी धार है। यही जिजीविषा, कर्मठता और आत्म सजगता आज की स्त्री का गंतव्य है: विलग हो कर/ सज गयी मैं डट कर/ तुम्हारे बोये हुए/ पत्थरों का/ शुक्रिया शुक्रिया शुक्रिया(पृ. 78) स्त्री मर्यादा की रक्षा के लिए तत्पर यह स्त्री पितृसत्ता को सलाह देकर सचेत भी करती है: पहले स्त्री से बोलना सीखो...(पहचानो,पृ. 55).

निस्संदेह आभा बोधिसत्व को स्त्री जीवन के विभिन्न पहलुओं और समाज के प्रति अपने गहरे सरोकारों को निजता और निर्वैयक्तिकता दोनों तरह की शैलियों में व्यक्त करने की परिपक्वता हासिल है।

   5. ईश्वर नहीं नींद चाहिए

अनुराधा सिंह का यह पहला कविता संग्रह है। 73कविताओं का यह संग्रह एक महा कविता है जिसकी थीम है स्त्री जीवन और उसका मनोजगत। पितृसत्ता के हज़ारों वर्ष पुराने काल खंडों से निकल कर स्त्रियां सुना रही हैं अपनी आपबीती। यह आपबीती अतीत का वर्त्तमान भी है। अतीत और वर्तमान की निरंतर आवाजाही पूरे काव्य संग्रह में मौजूद है। कविताएं पढ़ते पढ़ते परिवार और घर की चहारदिवारी के भीतर स्त्री के अपने वजूद को बचाने की छटपटाहट और बेचैनी से उत्पन्न भावात्मक उथल पुथल और उनकी विचार वीथियों का बायस्कोप भी प्रतीत होने लगता है यह संग्रह। इन 73 कविताओं के पुरज़ोर काव्यात्मक स्त्री विमर्श के उपक्रम के माध्यम से अनुराधा सिंह की वैचारिक एवं रचनात्मक तैयारी का अनुमान किया जा सकता है।

जातक कथाओं से लेकर सावित्रीबाई फुले, ताराबाई शिंदे, पंडिता रमाबाई और अनाम अज्ञात स्त्री लेखकों ने भारतीय स्त्री जीवन के संताप के आख्यान लिखे हैं । परंतु आज जब हम स्त्री पराधीनता के संदर्भ में स्त्री अस्मिता की बात करते हैं तो भारतीय स्त्री अकेली नहीं होती उसके साथ वैश्विक स्त्री और उसके संदर्भ उपस्थित रहते हैं।  चूंकि दुनिया भर में स्त्री मुक्ति आंदोलन, लेखन और विमर्श बड़े पैमाने पर हो रहा है। ईश्वर नहीं नींद चाहिए काव्य संग्रह इसी वास्तविकता को हमारी अनुभूतियों का हिस्सा बना देता है। मानव सभ्यता के विकास क्रम में स्त्री अस्तित्व के विलोपन के भावनात्मक आघात की व्यथा को अनुराधा ने बड़ी सजगता और सघनता के साथ क्या सोचती होगी पृथ्वी’ ‘खेद है’ ‘न दैन्यं’ ‘तफ़तीश जैसी अनेक कविताओं  में अभिव्यक्त किया है। 

अनुराधा सिंह के स्त्री वृतांत का शिल्प बहुआयामी है। प्रथम वचन की वाचकता यानी अभिव्यक्ति की आज़ादी स्त्री जीवन के मौलिक अधिकारों की पहली मांग है। स्त्री की वाणी और भाषा को छीन लेने की साज़िश और स्त्री के क्रमशः अपने बोलने और लिखने के अधिकार का इस्तेमाल करने के संकल्प को वे एकसाथ बयान करती हैं: हमारे लफ़्ज़ों की नब्ज़ पर/ दुनिया हकीम ने उंगलियां रखीं/और दबा दी कमज़ोर नस/ सन्नाटे से आतंकित/ढूंढ़ते रहे एक आवाज़ जिससे कह सकें दो शब्द/...लेकिन हमें बोलना पड़ेगा/ जैसे जैसे आत्मा जागेगी शीतनिद्रा से/मुखरित होंगे युग युग के तिरोभूत शूल/भर शब्दकोष बोलेंगे/ तुम्हारी घुन्नी अदालतों में('तुम बोले और मैं चला', पृ. 51-52) नकाब कविता में अपनी पराधीनता का इतिहास बताते बताते पहले पहल हुए अकथ दुःख की स्मृति का वर्णन बेजोड़ है: पहली बार दुःख हुआ था तो/ साईकिल की चढ़ी चेन को/ ज़्यादा चढ़ाती रही थी/ आंसू गिरते रहे ऐन ग्रीस की जगह/ आसमान धीरे धीरे स्याह हुआ था बहुत/ ज़िंदगी की गाड़ी ठीक से चलाने में/ग्रीस से ज़्यादा आंसू काम आये/और काम आयी यही धोखेबाज़ मुस्कराहट/(पृ. 55-56)। यह स्त्री किसी एक देश, जाति, रंग, धर्म, नस्ल या भाषा-संस्कृति की नहीं है। यह अखिल ब्रहमांड की पराधीन स्त्री का सर्वजनीन दुःख है। पराधीनता की इस बेकली को विचार मुखर एवं बहुआयामी भाव व्यंजकता देने के लिए आत्माभिव्यक्ति और निर्वैयक्तिकता के दोहरे शिल्प को अपनाया गया है।

  बची थीं इसीलिए कविता में पितृसत्ता के वर्चस्व में जी रही स्त्री की सहनशीलता और मनुष्यता को बचाये रखने के साहस का वर्णन पठनीय है: इस नृशंस समय में भी/ बचाये रहीं अपनी कोख़ हाथ और छाती/ क्योंकि रोपनी थी उन्हें रोज़ एक रोटी/ उगाना था रोज़ एक मनुष्य/ जोतनी थी असभ्यता की पराकाष्ठा तक लहलहाती/ सभ्यता की फ़सल(पृ.16)।  स्त्री की क्रमश: विकसित होती सोच, सवाल उठाने, कार्रवाई करने और निर्णय लेने की वैचारिक ऊर्जा की विविध रंगतों की कविताओं से पाठक स्त्री विमर्श की अलग अलग परतों से रूबरू हो सकता है। सृष्टि के शुरुआती प्रेम के दिनों की स्त्री को बराबर याद आती और वह पुरुष से जानना चाहती है कि क्या तुम्हें भी बुरा लगता है/ हमारी साथ बनायी सृष्टि में यूं अकेले अकेले रहना(पृ. 29-30)। परंतु संबंध का आधार बदलते ही संबंध का चरित्र भी बदल जाता है। इसीलिए पिछले कुछ दशकों से स्त्री की आर्थिक बराबरी का प्रश्न स्त्री आंदोलन और विमर्श का मुख्य मुद्दा है. यहां तक कि उसके घर के कामों के श्रम मूल्य को जी. डी. पी. में शामिल करने की मांग है. इसलिए सदियों की पराधीनता के बाद स्त्री के यह तय करने पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि मैंने बिछोह साध लिया है(पृ. 44) और सभी होंगे सफ़र में साथ मेरे/यह तय है तुम न होगे(पृ.19)। स्त्री चेतना का यह विमर्श अलगाव के लिए नहीं बल्कि उस समझ के लिए है जिससे स्त्री के मन और स्त्री देह पर क़ब्ज़ा करने के पितृसत्ता के प्रेतों से पुरुष मानसिकता मुक्त हो सके। संग्रह की कविता स्वागत है नये साल में स्त्री स्पष्ट शब्दों में कहती है, ‘तुम्हें वह औरत बन कर तो कभी नहीं मिलूंगी/ जो चोट खाने पर रोती है/ मारने पर मर जाती है/ छले जाने पर व्यर्थ हो जाती है/... अब तय करना है/ किस भाषा में मिलोगे मुझसे/ क्योंकि मैं तो व्याकरण से उलट/ परिभाषाएं तोड़ कर मिलूंगी(पृ. 25-26) संग्रह में क्या चाहते हो स्त्री से,विलोम,तब भी रहूंगी मैं, मैं चांद पर कविता नहीं गाऊंगी, सपने हथियार नहीं देते , यह अति प्रश्न, बचा लो, घुसपैठ,तुम विहीन कविताएं  स्त्री अस्मिता की बहुआयामी प्रकृति को बहुविध व्यंजनाओं के माध्यम से  अभिव्यक्त  करने में सक्षम हैं .      

  संग्रह पढ़ते हुए आश्वस्ति का अहसास होता है कि समकालीन हिंदी कविता में अनुराधा सिंह वैचारिक स्पष्टता एवं कलात्मक सजगता के साथ शामिल हुई हैं।

   इन संग्रहों को पढ़ते हुए ईरान की कवि मार्जिया अहमदी उस्कुई, जिनकी राजशाही के विरुद्ध हुए आंदोलन के दौरान 1973 में सेना ने हत्या कर दी थी, की कुछ  पंक्तियां मन में लगातार गूंजती रहीं कि: एक औरत जो न जाने कब से.../अपनी ताक़त से ज़्यादा मेहनत करती आयी है/... एक औरत जिसके लिए तुम्हारी बेहया शब्दावली में / एक शब्द भी ऐसा नहीं है जो उसके महत्व को बयान कर सके/...तुम्हारी शब्दावली उसी औरत की बात करती है/ जिसके हाथ साफ़ हैं/ जिसका शरीर नर्म है/ जिसकी त्वचा मुलायम है और बाल ख़ुशबूदार हैं। हिंदी साहित्य की प्रगतिशील जनवादी धारा ने पितृसत्ता की इस कुत्सित मनोवृत्ति के विरुद्ध निरंतर लेखन किया है । प्रेमचंद ने स्त्री पराधीनता के प्रश्न को अपने कई उपन्यासों, कहानियों में विस्तार से लिखा और सौंदर्य की परिभाषा बदलने का आह्वान किया। महादेवी वर्मा और निराला के बाद से लेकर अनेक रचनाकार अब तक लिख रहे हैं। पर जैसा कि चिनुआ अचेबे ने एक कविता में हिरनों के इतिहास में शिकारियों की शौर्य गाथाएं गाये जाने का कारण बताया है: जब तक हिरन/ अपना इतिहास/ ख़ुद नहीं लिखेंगे / तबतक। इसलिए हिंदी साहित्य में महादेवी वर्मा के बाद 1960 से स्त्री लेखन का लंबा इतिहास है, पर स्त्री लेखन स्त्री विमर्श की आवाज़ बन कर, आपातकाल के बाद, स्त्री आंदोलनों के जुझारू संघर्षों के साथ साथ सामने आया। नाम गिनाने की ज़रूरत नहीं है। सभी उन नामों तथा संघर्षों से परिचित हैं। और अब सुमन केशरी, मनजीत मानवी, आभा बोधिसत्व, सीमा संगसार और अनुराधा सिंह के संग्रहों के बाद स्त्री विमर्श की परिधि का दायरा और नयी संभावनाओं की ओर अग्रसर होगा, ऐसी उम्मीद की प्रतीति है।

                                                    मो. 9818183255 

  पुस्तक संदर्भ :

 1. पिरामिडों की तहों में : सुमन केशरी, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2018

 2. बूंद बूंद शब्द : मनजीत मानवी : ऑथर्स प्रेस, नयी दिल्ली, 2017

 3. एक शहर का ज़िंदा होना : सीमा संगसार, लोकोदय प्रकाशन, लखनऊ, 2019

 4. मैं सीता नहीं : आभा बोधिसत्व, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2019

 5. ईश्वर नहीं नींद चाहिए : अनुराधा सिंह , भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली, 2019    

                               

   

         

      

                   

          

    

               

 

                     

                    

 

 

  

No comments:

Post a Comment