उपन्यास चर्चा-3

 आज के हिंदी उपन्यास के वर्णक्रम के दो छोर

विभास वर्मा

 वंदना राग का, बिसात पर जुगनू तथा शिवेंद्र का चंचला चोर, ये दोनों उपन्यास पिछले दिनों प्रकाशित हुए। संरचना और कथ्य की दृष्टि से ये दोनों उपन्यास इतने भिन्न हैं कि हिंदी उपन्यासों के वर्णक्रम (स्पेक्ट्रम) में ये दो छोरों पर रखे जा सकते हैं। लेकिन इन्हें पढ़ने पर इस बात को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता कि जिन मूल्यों, चिंताओं को लेकर आज का हिंदी उपन्यास लिखा जा रहा है, वे मूल्य और चिंताएं इन दोनों उपन्यासों की सारी भिन्नताओं के बावजूद इनमें देखी जा सकती हैं। ये दोनों उपन्यास इस बात की भी तसदीक़ करते हैं कि इक्कीसवीं सदी के हिंदी उपन्यासकार शिल्प और कथानक में नये प्रयोगों को लेकर काफ़ी सजग हैं। सशक्त स्त्री पात्र, पिछड़े समाजों की अंतरंग पहचान के साथ एक विवेकपूर्ण इतिहास-बोध इन दोनों उपन्यासों के कथ्य की विशेषता है । इन दो उपन्यासों की भिन्नता इन पर एक साथ बात करने का अवकाश नहीं देती, इसलिए इन दोनों उपन्यासों पर अलग-अलग बात करना ही उचित है।

 1. बिसात पर जुगनू : सभ्यताओं का इत्तिहाद

हम सब इत्तिहाद से बने हैं। हम सब में एक-दूसरे का कोई न कोई हिस्सा है। इनसान इस सच से रू-ब-रू हो जाये तो नक्शों में बनी सरहदों के बावजूद न कहीं जंग होगी न कोई नफ़रत और लालच की इंतेहाई दास्तान। इनसान यह जान लेगा तो यह भी जान लेगा कि अमन और मोहब्बत ही असल सम्त हैं। बाक़ी सब मायाजाल हैं। (पृ. 262, बिसात पर जुगनू)

आजकल चीन के साथ भारत के संबंध बड़े तनावपूर्ण बताये जा रहे हैं, लेकिन इन दो देशों की जनता और सभ्यताओं के संबंध सिर्फ़ आज की निगाह से तय नहीं किये जाने चाहिए। विश्व की इन दो प्राचीन सभ्यताओं के आपसी जुड़ाव के निशान कितनी ही चीज़ों में देखे जा सकते हैं। आज जब पूंजी की राजनीति ने अपने विस्तार के लिए 'सभ्यताओं के संघर्ष' का एक छद्म सा तर्क प्रचारित कर दिया है तो इस समय साहित्य यह ज़िम्मेदारी उठा रहा है कि लोगों को यह ध्यान दिलाये कि सभ्यता और संस्कृति आपसी मेल-मिलाप से, इत्तिहाद से ही विकसित हो पायी हैं। संस्कृति के सर्वश्रेष्ठ भौतिक उपलब्धियां- कलाएं, इसका सबसे बेहतर प्रमाण हैं।

वंदना राग का उपन्यास, बिसात पर जुगनू में 1840 से 1910 के बीच के भारत और चीन के उथल-पुथल भरे इतिहास में बिखरे पात्रों की कहानियां हैं जो 2001 में आकर बड़े रोचक और लगभग चमत्कारी तरीक़े से आपस में जुड़कर एक हो जाती हैं। उस उथल-पुथल भरे दौर का इतिहास इन पात्रों के जीवन में तमाम उतार-चढ़ाव लाता है लेकिन ये पात्र उस अंधेरेभरे इतिहास की बिसात पर जुगनुओं की तरह सत्ता, पूंजी के लालच, शोषण और ग़ुलामी के अंधकार में अपनी मानवीय सदाशयता और उम्मीद की रोशनी से भरी टिमटिमाहट छोड़ जाते हैं। इस उपन्यास में विभिन्न देशकाल में बिखरे इन पात्रों की कहानियां एक दूसरे से काफ़ी अलग हैं, लेकिन ये सारी कहानियां उपन्यास में एक नाटकीय तरीक़े से अंत में सभी पात्रों के जीवन को जिस तरह से जोड़ती हैं उससे यह उपन्यास विभिन्न सरहदों और कालों के बीच धड़कती उस मानवता को व्यक्त कर पाता है जो देशकाल की सीमाओं से नहीं बंधती और जिसकी सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति मानव ने अपनी कलाओं में की है। हजारीप्रसाद द्विवेदी के बाणभट्ट के शब्दों में, 'नरलोक से किन्नरलोक तक एक ही रागात्मक हृदय व्याप्त है'। यह उपन्यास इस बात की गवाही देता है कि रागात्मक ही नहीं, बल्कि बंधनों को काट फेंकने को व्याकुल हृदय भी नरलोक से किन्नरलोक तक व्याप्त है और वह उसी रागात्मक हृदय का ही हिस्सा है। इस उपन्यास में बाबू कुंअर सिंह और होन्ग जी-क्वान से प्रेरित क्रमशः परगासो बीबी और यू-यान का संघर्ष असफल होकर भी इरादों को साकार होता देखने की उम्मीद कभी नहीं छोड़ता। इन दोनों का संघर्ष हिंदुस्तान और चीन में साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष कर रही जनता के संघर्ष की कहानी है। उपन्यास के प्रमुख वाचक फ़तेह अली ख़ान (जिसके रोज़नामचे को उपन्यास की मुख्य कथा का आधार बनाकर पेश किया गया है) के शब्दों में, '...मुल्क में एक परगासो बीबी होती हैं और चीन में एक यू-यान बीबी। दोनों की ज़मीन कितनी अलहदा लेकिन फ़ितरत कितनी एक-सी। ये बहादुर औरतें जंग में कितना कुछ हार गयी हैं, लेकिन फिर भी मुल्क की बेहतरी की चिंता करती हैं।' इन दोनों औरतों की समान फ़ितरत के मूर्त रूप हैं -फ़तेह अली ख़ान द्वारा बनाये गये इनके दो जुड़वां चित्र। ये चित्र पटना कलम शैली के चित्र हैं, जो शैली किसी भी महान कला-रूप की तरह  इत्तिहाद से बनी है। उपन्यास में इस शैली के गुरु शंकर लाल की सोच को उद्धृत करें तो- 'यह अपने आप में अनूठी कला थी। कितने अलग तरह के लोगों के बीच इसका लालन-पालन हो रहा था। लोग जो कितनी सरहदें पार कर, अपने 'इलाक़ों से चित्रकला की कितनी ही भंगिमाएं लेकर आये थे। राजस्थानी शैली, पहाड़ी शैली, मुग़ल शैली और कंपनी शैली का अद्भुत मेल था इस कला में।' इस  शैली के चित्र हैं- 'बिना पेचीदगियों, रेखाओं के सादे चित्र। रंगों के बने सादे चित्र। ज़िंदगी की नुमाइंदगी करते सादे चित्र। ज़िंदगी जीते जाते आम इनसानों के सच्चे चित्र। साफ़ कोरे काग़ज़ सी ज़िंदगी को बयां करता कोई जीवनोत्सव। कोई मेला। कोई रोज़गार। बुनियाद की ही सारी बातें। बुनियादी बातें। जिनके ऊपर तोताचश्मी का रंग न चढ़ा हो। …यह कला दुनिया के लिए थी। यही कला हर उस इनसान के लिए भी थी जो सीखना चाहे, उससे जुड़ना चाहे। कला आम जन के लिए। ...इस कला - पटना की इस कला का दुनिया के नाम यही संदेश होगा –बक़ौल शंकर लाल।' उपन्यास में इक्कीसवीं सदी की शुरुआत की आहट पर चीन से एक शोध-छात्रा, ली-ना इसी शैली के उस चित्र की खोज में पटना आयी है जिसकी एक जुड़वां प्रति उसके पास भी है। ये चित्र उसके पूर्वज चिन के हैं जो फ़तेह अली ख़ान के साथ हिंदुस्तान आकर राजा सुमेर सिंह और परगासो बीबी का लख़्ते-जिगर कान्हा सिंह बन गया और पटना का मशहूर चिकित्सक बना। चिन कहता है- 'मैं कितने नसीब वाला हूं। मेरी दो मांएं और तीन पिता हुए।' तीसरे पिता फ़तेह अली ख़ान जो न उसे चीन के ख़तरों से बचाकर हिंदुस्तान लाते हैं और मायूसी के अंधेरों में घिरे सुमेर सिंह-परगासो की गोद में उजाले  की तरह सौंपते हैं, बल्कि उसके उन चित्रों के मुसव्विर भी हैं जिन्हें खोजकर चिन की वंशज ली-ना  कला की जोड़नेवाली ताक़त की पहचान करा पाती है। ली-ना भी उत्तर बिहार की एक छोटी रियासत चांदपुर के युवराज सुमेर सिंह और एक माली द्वारा पालित अनाथ परगासो दुसाधन की कहानियां अपने में अनोखी हैं। दोनों समाज द्वारा प्रदत्त औरत-मर्द की भूमिकाओं से अलग, लेकिन एक-दूसरे को अपनाने में कुल, हैसियत और समाज की सरहदों को मिटाकर एक दूसरे के बनते हैं। सुमेर की कोमलता और परगासों की दृढता और बहादुरी एक अनूठे संबंध की रचना करते हैं। अंग्रेज़ों के ज़ुल्म से परेशान होकर  बाबू कुंअर सिंह के साथी बने सुमेर के पिता राजा दिग्विजय सिंह अनिच्छा से ही इस संबंध को स्वीकार कर पाते हैं, लेकिन परगासो उनकी लड़ाई को सच्चे उत्तराधिकारी की तरह आगे बढ़ाती है। वह चांदपुर की रियासत को भी संभालती है और अपने कोमलमना साथी सुमेर सिंह को भी।  वह मरते दम तक आज़ादी के सपने देखना नहीं छोड़ती और आंखें बंद करने से पहले देश में आज़ादी की मांग के लिए फैली चेतना देख जाती है। ली-ना की नानी की नानी की बहन यू-यान अपने प्रेमी का साथ देने के लिए होन्ग जीक्वान के नेतृत्व में मांचू राजवंश के ख़िलाफ़ छेड़े गये ताइपिंग युद्ध की योद्धा बनती है जो विद्रोह के कुचले जाने, अपने पति और नेता के मारे जाने के बाद भी अपने मासूम बेटे के सुरक्षित भविष्य को लेकर आशावान है और उसके भविष्य के लिए दिल पर पत्थर रख उसे फ़तेह अली ख़ान के साथ भारत भेज देती है। इन दोनों औरतों की शख़्सियत की दृढ़ता, इनकी बहादुरी, सब्र और सारे उज्ज्वल गुणों का द्रष्टा है बचपन से अनाथ, नियति के थपेड़ों से भटककर पटना, चांदपुर, कलकत्ता से लेकर कैंटन तक का सफ़र करनेवाला नक़्शानवीस फ़तेह अली ख़ान जो अपने रोज़नामचे में अपने समय की तमाम हलचलों और उन सारी जगहों के इतिहास को दर्ज करता है जिसमें इन दोनों औरतों के चरित्र जुगनुओं से कहीं ज़्यादा चमकीले होकर बयां होते हैं। फ़तेह अली ख़ान का रोज़नामचा इस उपन्यास की आधिकारिक कथा कहता है। उपन्यास में इनके अलावा इस क़िस्से की बुनावट का एक और अहम हिस्सा पटना के लोदी कटरा के पास चित्रकला के उस्ताद शंकर लाल का मुसव्विरख़ाना है जो पटना-कलम के मुसव्विरों का आर्ट्स स्कूल है। इस कला के अभ्यासियों में रुकुनुद्दीन जैसे मुर्शिदाबाद से अंग्रेज़ों द्वारा बंगाल की की गयी बरबादी के निशान हैं तो विलियम स्टोन जैसे कला की दीवानगी में कंपनी बहादुर की नौकरी छोड़ आये फिरंगी भी हैं। रुकुनुद्दीन और विलियम स्टोन का कोमल संबंध रुकनुद्दीन के मन में फिरंगियों के प्रति बैठी नफ़रत और विलियम के प्रति उसके प्यार की उथल-पुथल का शिकार हो जाता है और रुकुनुद्दीन की रुग्णावस्था के मानसिक आवेश में इस संबंध का रक्तरंजित हश्र होता है। इस मुसव्विरख़ाने के उस्ताद शंकर लाल और उसकी एकलव्य समान शागिर्द ख़दीजा बेगम की प्रेमकथा भी कला को समर्पित दो कलाकारों की दुर्भाग्यपूर्ण कथा है। शंकर लाल का अपनी कला के प्रसार की चिंता उसे चीन जाने को उकसाती है लेकिन वह कलकत्ते में ही फिरंगियों द्वारा ग़लतफ़हमी में क़ैद कर लिया जाता है और ख़दीजा  बेगम उसके इंतज़ार और मुसव्विरख़ाने के मुस्तक़बिल की चिंता में इस कला के उज्ज्वल भविष्य का सपना आंखों में लिये अपने दुःखद अंत तक पहुंचती हैं। शंकरलाल के परिवार का कला के बारे में जो रवैया है वह प्रायः सभी मध्यवित्त उत्तर भारतीय परिवारों का कला के प्रति रहा है। अपनी संतान को इस कला का वारिस बनाने का उनका अधूरा सपना कुछ पीढ़ियों के बाद ही किसी तरह पूरा हो पाता है। ये बिखरी कहानियां यातना और संघर्ष से भरी हैं लेकिन ये पात्र स्वप्न देखना नहीं छोड़ते। विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी जीवन के प्रति उम्मीद नहीं छोड़ते। कला उन्हें सुकून देती है। यह ध्यातव्य है कि उपन्यास में जीवन की परेशानियों के हल के रूप में कला को नहीं, बल्कि संस्कृति की उस दृष्टि को लिया गया है जो यह बताती है कि जीवन मेलजोल से आगे चलता है, नफ़रत और अलगाव से नहीं। कला यह दिखाती है कि कैसे दो अलग से रंग, सुर या शैलियां मिलकर नये सौंदर्य की सृष्टि करती हैं। तहजीबें भी इसी तरह आगे चलती हैं। शंकर लाल एक अभिभूत से क्षण में यह देख पाते हैं कि 'कला और जीवन जब तहजीबों से घुलना-मिलना सीखेंगी तभी वे दुनिया को नयी राह पर लिये चलेंगी।'  शंकर लाल की यह आकांक्षा अभी तक पूरी नहीं हो पायी है। सत्ता और पूंजी की ताक़तें तहजीबों के नाम पर लोगों को एक-दूसरे से लड़ा रही हैं। शंकर लाल, परगासो, यू-यान और फ़तेह अली ख़ान के ख़्वाब काफ़ी हद तक अभी तक अधूरे हैं।  

चांदपुर, कैंटन और पटना के तीन परिवारों के अधूरे-पूरे ख़्वाबों की यह कथा है जिनके बीच का धागा फ़तेह अली ख़ान है। उपन्यासकार ने एक कालक्रमिक तरीक़े से इन परिवारों के जीवन-संघर्ष  को न दिखलाते हुए देश-काल के भिन्न भिन्न धागों को बेतरतीब से प्रतीत होने वाले क्रम में रख दिया है। लेकिन यह क्रम इतना बेतरतीब भी नहीं है। उपन्यास की शुरुआत फ़तेह अली ख़ान के रोज़नामचे से होती है जो दरअसल उसकी चांदपुर यात्रा की शुरुआत भी है। साथ ही समय के दूसरे छोर से ली-ना की भारत यात्रा की शुरुआत होती है। समय के इन दोनों छोरों से शुरू हुई घटनाएं सिर्फ़ रोज़नामचे और ली-ना के सफ़र के ब्यौरों से कही जा सकती थी, पर शंकरलाल के मुसव्विरख़ाने की कथा तब अनकही रह जाती। इसलिए एक बयान इन दोनों कथा-सूत्रों के साथ मुसव्विरख़ाने का भी है। कथानक की इस पूरी योजना में इतिहास के तथ्य, कलकत्ता जर्नल अख़बार के समाचारों और संपादकीय टिप्पणियों से भरे गये हैं। ये टिप्पणियां और ख़बरें असली होने का शक पैदा करती हैं। उपन्यासकार का इतिहासबोध और व्यापक शोध इस काल्पनिक कथा को ऐतिहासिक गरिमा देता है। उपन्यास का सबसे सशक्त पक्ष उसके पात्रों का चित्रण है। जिन मुख्य पात्रों का नाम ऊपर आया है उसके अलावा रुकुनुद्दीन, विलियम स्टोन जैसे चित्रकार, सुमेर सिंह को बचपन से नशें का आदी बनानेवाला हरिया, सूर्य दरबार जहाज़ का कप्तान मास्टर, परगासो को पालनेवाले माली और पंडित, शंकर लाल के वंशज सुंदर लाल और समर्थलाल- ये सभी बेहद विश्वसनीय बन पड़े हैं। उपन्यास का वितान व्यापक है फिर भी उपन्यास को तीन किताबों में कालक्रम के हिसाब से बांटने का औचित्य पता नहीं चलता। क्योंकि कालक्रम में व्यवधान देती ली-ना की कथा तीनों किताबों में मौजूद है। जितने रचाव और सधे तरीक़े से चांदपुर की कथा कही गयी है, मुसव्विरख़ाने में ब्यौरों की जिस कुशल बारीक़ी के साथ कहानी कही गयी है,उसके मुक़ाबले  कैंटन की कथा भागती हुई लगती है, उसमें ब्यौरे उस सधे तरीक़े से रचे नज़र नहीं आते और ऐसा लगता है कि उपन्यासकार अब निपटा देने की हड़बड़ी में है। कलकत्ता जर्नल अख़बार की कई ख़बरें भी अनावश्यक लगती हैं। जिस प्रयत्न और वैचारिक सफ़ाई से उपन्यास की संरचना का ख़ाक़ा तैयार हुआ है, कई जगह उसकी तामीर में झोल नज़र आता है। संभव है कि यह सब पाठकीय रुचि के कारण भी नज़र आये। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि अपने समग्र प्रभाव में यह उपन्यास लगभग एक गहन ऐतिहासिक अनुभूति को  रचता है और अंध-राष्ट्रवाद के इस व्यथित समय में कलाओं में प्रकट होनेवाली समग्र मानवीयता की कहानी कहकर मनुष्यता के भेदभावों और भेदक रेखाओं  की व्यर्थता को सामने लाता है।

कला में ही हम दोनों का जीवन है। वही हमारी प्राणशक्ति है। कला ही सबको जोड़ती है। हर एक दिल को दूसरे दिल से।

इसके अलावा सब कुछ बेमानी है!'

(पृ. 279, वही)

 ली-ना की खोज पूरी होती है लेकिन समाप्त नहीं क्योंकि कलाओं में व्यक्त होनेवाली इस मानवता का ख़तरा अभी भी बरक़रार है। 

2. चंचला चोर : स्मृति और सपनों से बुनी एक यथार्थ-कथा

शिवेंद्र का उपन्यास, चंचला चोर कथानक में एक साहसिक प्रयोग है। इसके कथानक के बारे में कुछ कहने से पहले वैसा ही ‘स्पॉयलर एलर्ट’ दे देने की आवश्यकता महसूस होती है जैसा रहस्य आधारित कथानकों या फ़िल्मों के बारे में कुछ कहने से पहले देने की प्रथा है। यानी यह चेतावनी कि यदि किसी ने यह उपन्यास नहीं पढ़ा है तो समीक्षा में जो कहा जा रहा है उससे बाद में उपन्यास के कथानक में निहित राज़ खुलता है जिसके कारण उसे पढ़ने का आनंद बाधित हो सकता है। यानी इस उपन्यास की संरचना एक सुराग़रसा या रहस्यमय उपन्यास की है, जिसमें आगे घटित होने वाली घटना के ज्ञान पर ही उपन्यास की पठनीयता टिकी रहती है। लेकिन इस उपन्यास की पठनीयता महज घटनाओं की मुहताज नहीं। इसका कथ्य नहीं बल्कि इसके कथानक की संरचना रहस्यमय उपन्यास की तरह है जिसमें ‘चंचला चोर’ जो उपन्यास के नायक (?)/वाचक के सपनों में उसे दिखती है, उसका रहस्य जानने, उसे खोज निकालने की कथा केंद्रीय है। चंचला, जो लाल फ़ीते की दो चोटियों वाली आठ साल की लड़की है, उसे खोज निकालना इसलिए भी नायक/वाचक के लिए अस्तित्व-अनस्तित्व का प्रश्न बन जाता है क्योंकि वही जानती है कि वाचक को महीना क्यों नहीं आता (??)। मुंबई के फ़िल्म-जगत में सहायक निर्देशक के तौर पर अपना मुक़ाम बनाने की कोशिश में लगा यह वाचक इस खोज में अपने पिछले देशकाल की यात्रा पर निकल पड़ता है कि चंचला जो उसे सपने में दिखती है, किसकी छवि या स्मृति है या कौन है, जो अमरूद के पेड़ पर चढ़कर इमली खाती है और अपनी लाल फ़ीते से बंधी दो चोटियां हिलाती रहती है। उसके जीवन में बचपन से अब तक आनेवाली तमाम लड़कियों और औरतों –जो चंचला हो सकती हैं, के पास वह अपने मन की टाइम मशीन से जाने का प्रयत्न करता है और इस तरह उपन्यास में कई ऐसे अनूठे अधूरे-पूरे स्त्री-चरित्रों की आमद होती है जिन सब में चंचला कहीं थी। इनमें मुंबई की उसकी प्रेमिका सनम है, उसके गांव की ‘सखी’ है, वाचक की आजी हैं, गांव में कभी स्कूटी पर घूमनेवाली अपने कामरेड मित्र की ‘वैधानिक हत्या’ से नीम-विक्षिप्त हो चुकी गांव के मार्क्सवादी पुजारी सनिचरा बाबा की बेटी क्रांति है, ननिहाल के रिश्ते से उसकी मौसी लगती बचपन की मित्र शोभा है जिसने आत्महत्या कर ली थी और वाचक की मां है। इन सबमें चंचला को ढूंढ़ने के प्रयासों में लगे वाचक को उसकी सखी यह सुझाती है- 'हो सकता है कि चंचला सिर्फ़ एक लड़की न हो बल्कि हर लड़की का वह एक बचपन हो जो उससे छीन लिया जाता है।' उपन्यास के ताने-बाने में आती इन तमाम स्त्रियां के सपने, इच्छाएं और जीवन कहीं न कहीं अधूरे रह गये हैं। जो व्यवस्था इस समाज ने तैयार की है उसके कारण यह अधूरापन उनकी नियति बन जाता है चाहे वे सनम की तरह महानगरों की रहनेवाली हों, या गांव-क़स्बों की। वाचक जिस बात को अपने जीवन में बीती किसी घटना से संबद्ध मानकर चल रहा है वह हर लड़की का इतिहास और वर्तमान है। यह तथ्य वाचक को एक अनिवार अपराधबोध से भर देता है। यह अपराधबोध उसका व्यक्तिगत अपराधबोध नहीं रह जाता।

हम सब मिले हुए हैं सखी' –मैं हुड़क-हुड़क कर रोता रहा...' कितनी ही लड़कियां थीं जो अंतरिक्ष में जा सकती थीं, हिमालय को हरा सकती थीं, फ़िल्में बना सकती थीं, पर उनकी ज़िंदगी आलू-गोभी बनाने में ही ख़त्म हो गयी। जो देश-दुनिया को दिशा दे सकती थीं वे रोटी बेलती रहीं, जिनका प्रेम इस दुनिया को और ख़ू़बसूरत बना सकता था उन्होंने ज़हर खा लिया, जो अकेले रहकर धरती को थाम सकती थीं हमने उन्हें बदचलन बना दिया।

उसे अपने आसपास के ऐसे तमाम प्रसंग याद आते हैं, जहां औरतों को पुरुषों की इच्छाओं के लिए बल से, छल से गढ़ा जाता रहा।

तब मैं यह देख पाया कि यह पृथ्वी हम जिसे अपना घर कहते हैं, दरअसल यह सुनार की एक बहुत बड़ी भट्ठी है, जहां लड़कियों को पिघलाया जा रहा है, मनचाहे सांचे में ढाला जा रहा है, महीन और पैने औजारों से तराशा जा रहा है और फिर उन्हें छोटी-छोटी झिल्लियों में पैक करकर बिकने के लिए टांग दिया जा रहा है और हम समाज और परिवार में रहनेवाले इंसान उनके ग्राहक भर होके रह गये हैं...शर्म से सिहरकर मैंने अपना मुंह दूसरी ओर कर लिया-

पर यह सवाल रह जाता है कि वह चंचला उसे ही क्यों दिख रही है? और उसकी खोज अपने अतीत की उन लड़कियों की तलाश करने में लगती है जिनका बचपन शायद उसकी वजह से छीना गया हो। सपने की खोज में मन की टाइम मशीन से अपने गांव के लोगों तक वाचक का पहुंचना-बतियाना लगभग लोककथाओं के शिल्प में होता है जहां कथाएं महज कथाएं नहीं होतीं वास्तविकता के ऊपरी नियमों से आज़ाद जिनकी दुनिया में पशु-पक्षी, पेड़-पौधे सभी पात्रों की तरह सहभागिता निभाते हैं। मन के साथ घूमता वाचक सर्वदा संवाद में रहता है, दूसरों से भी और अपने से भी। इन्हीं संवादों में इस उपन्यास की संवेदना विस्तार पाती है। वह अपने अतीत और अपने भूगोल में जैसे-जैसे वापस जाता है अपने गांव-ननिहाल की दुनिया में, वह परखता है उन क्रूरताओं को जो पुरुष होने के नाते उसके लिए दृश्य थीं और उसके जीवन में आनेवाली औरतों के लिए जीवन का सच। कई अनसुलझे सवाल हल होते हैं, कई अनजाने राज़ खुलते हैं। गांव जो उसके लिए अधिवास की तरह है, उसके बचपन और उसकी स्मृतियों की दुनिया- वह देखता है कि कैसे गांवों में 'सबकुछ कितना खुला- खुला है...बस विचार नहीं। बाहर से यहां क्या-क्या नहीं पहुंच गया है—सड़क, गाड़ी, मोबाइल, जींस, अंग्रेज़ी, आधुनिकता(?) मगर एक भी बुरी चीज़ यहां से अब तक नहीं हटी—छुआछूत, जातपात, दहेज।'

वह बचपन में सुनी लोककथाओं के आकर्षण और उनमें निहित संकेतों को समझने की कोशिश करते हुए इस बोध तक पहुंचता है कि 'हमें शुक्रगुज़ार होना चाहिए कि हमारे पास कहानियां हैं। वे हमें भटकाव से बचाती हैं और उस समय हमारा रास्ता बनती हैं जब हमारे पास और कोई रास्ता नहीं बचा होता। युगों के अनुभव, पीढ़ियों के विचार और मनुष्यों की संचित संवेदना को व्यक्तिगत या सामूहिक कल्पना के सूत में पिरोकर एक कहानी बनती है...इसलिए जो समाज कहानियों से किनारा करता है, वह भटक जाता है और हर कोशिश के साथ अपनी समस्याओं को और जटिल बनाता जाता है।' लेकिन स्मृतियों और विचारों के परस्पर संवाद के दौरान उसके अंदर यह भी सवाल उठता है कि 'क्या लोककथाएं केवल पुरुषों की चाहतों, उसके संघर्षों और उनके पा लेने की कहानियां हैं? और उसमें स्त्रियों के सपनों और उनकी समस्याओं के लिए कोई स्थान ही नहीं है?' उपन्यास में यह यात्रा मन की यात्रा है जो लोककथाओं के शिल्प से विकसित होती है लेकिन इस मन की यात्रा को देखता, विश्लेषित करता, उसकी गुत्थियां सुलझाता वाचक का भी एक रूप है जो लोककथाओं के गैर-यथार्थवादी शिल्प का रूप लेते इस उपन्यास का एक छोर यथार्थ की भूमि से जोड़े रखता है। इस तरह चंचला की खोज की यह कथा कई पात्रों से, और सामाजिक-मनोवैज्ञानिक जटिलताओं से दो-चार होते चलती है। इस कथा की संरचना को रहस्य-कथा की संरचना इसलिए कहा जाना चाहिए क्योंकि चंचला की खोज किसी अमूर्तन या प्रतीकात्मकता पर ख़त्म नहीं होती। वाचक वाक़ई उस चंचला को सामाजिक और मानसिक गुहांधकार से भटकते हुए भी अपनी स्मृतियों के घटाटोप के पार जाकर खोज लेता है और जिस तरह किसी जासूसी उपन्यास में घटनाओं की अचूक और सटीक तार्किकता किंवा कार्य-कारण संबंध होता है, वैसी ही सटीकता चंचला की पहचान में दिखती है। लेकिन चंचला की खोज के साथ उपन्यास खत्म नहीं होता क्योंकि चंचला की खोज तो इसलिए ज़रूरी है वाचक के लिए कि चंचला उसे बता सके कि उसे माहवारी क्यों नहीं आती? जिस बात के लिए उसके घरवाले इतना परेशान रहते थे कि वह उनके इलाजों, झाड़-फूंक आदि से बचने के लिए मुंबई भाग आया था। यह राज़ जब खुलता है तो उपन्यास की संरचना एक दूसरा ही रूप ले लेती है।

उपन्यास में सपनों, कथाओं और स्मृतियों की इतनी चर्चाओं का एक और ही संदर्भ सामने आता है। जो सपना वाचक को इस यात्रा पर ले जाता है, उस सपने की खोज वाचक को ही एक सपना बना जाती है। इससे अधिक इस संबंध में कुछ बताना ‘स्पॉयलर एलर्ट’ को भी पार कर जाना होगा। लेकिन यह कहा जाना चाहिए कि शिवेंद्र की शिल्प पर अद्भुत पकड़ है। रहस्य-कथा की संरचना को बनाये रखते हुए भी जिस तरह से यह कथा अपनी पूरी संरचना को बाद में औंधा खड़ा कर देती है वह क्रिस्टोफर नोलान की मोमेंटो, इनसेप्शन, इन्टरस्टेलर जैसी फ़िल्मों की ग़ैर-परंपरागत आख्यान-संरचनाओं का स्मरण कराती है। स्मृति, स्वप्न, मनोविकारी गुत्थियां, वैयक्तिक अस्मिता, कथा आदि की प्रकृति की पड़ताल करते हुए जिस तरह शिवेंद्र स्त्री के शोषण, अस्मिता, आकांक्षा और स्वप्नों के सामाजिक-ऐतिहासिक यथार्थ को ज्ञान-मीमांसात्मक थीम पर ले आते हैं वह बेहद सधे शिल्प की मांग करता है। लेकिन शिवेंद्र शिल्पवादी या कलावादी नहीं हैं। इस उपन्यास के संबंध में कलावाद का सवाल ही बेमानी है। उपन्यास की भाषा लोककथा, कविता और नाटकीयता के मेलजोल से रची गयी है जिसमें उत्तर भारत के पूर्वांचल के गांवों की महक भी घुली-मिली है। कुछ जगहों पर वाचक के आत्मालाप भाषण या निबंधों का रूप लेते लगते हैं लेकिन कुल मिलाकर अपनी संरचना के नयेपन से चमत्कृत करते हुए भी यह उपन्यास हमारे समाज के उन पहलुओं को हमारे ज़ेहन में नये तरीक़े से जागृत करने में सफल रहता है जो साहित्य के सरोकारों का अंग रहे हैं।

मो. 99682 81417

 पुस्तक संदर्भ

बिसात पर जुगनू : वंदना राग, राजकमल पेपरबैक्स, नयी दिल्ली, 2020

चंचला चोर : शिवेंद्र, आधार प्रकाशन, पचकूला, 2019

 

 

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