स्मृति शेष : जो साथ रहेंगे हरदम-3

 सागर सरहदी की याद को नमन

शैलेश सिंह

                 सागर सरहदी की गालियां फ़कीरों की दुआओं की तासीर थीं।  

आज सुबह नींद की खुमारियां,  चाय की चुस्की व अख़बार की सुर्ख़ियों से दूर करने के सामान्य- से नुस्ख़े को आज़मा ही रहा था, तभी सुदूर मुंबई से साथी रमन मिश्र का फ़ोन आया। आमतौर पर रमन जी इतनी सुबह फ़ोन नहीं करते। दरअसल, वे ख़ुद रतजगा करते हैं और सुबह मुर्ग़े की बांग या मस्जिद की अज़ान या चिड़ियों की कर्णप्रिय कलरव से नहीं बल्कि दस बजे सब्ज़ी के ठेले वाले के लयात्मक क्रय निवेदन, जिसकी आवाज़ में आरोह-अवरोह के साथ एक ख़़ास तरह की लरज होती है, जिसके घनात्मक स्वर‌ आघात  के बलात् से उनके नेत्र उन्मीलित होते हैं और अंगड़ाइयां लेते हुए बिस्तर को शुभ प्रभात कहकर ज़मीन पर पांव रखते हैं, चुनांचे साढ़े पांच या कि पौने छह बजे फ़ोन पर उनका नंबर देखते ही किसी अंदेशे का सहज ही अंदाज़ा सा हो गया।  आदाब का फ़र्ज़ निभाऊं उससे पहले ही उन्होंने कहा, 'यार यारों के यार सागर साहब नहीं रहे।' उनके वफ़ात की ख़बर सुनकर भी सहसा यक़ीन नहीं हुआ। दो बार तस्दीक करने के बाद उन्होंने कहा, 'सच मित्र सागर सरहदी साहब इस फ़ानी दुनिया को छोड़ कर सदा-सदा के लिए प्रस्थान कर गये।   

अभी दो दिन पहले ही हम लोग भगत सिंह की शहादत दिवस पर उन्हें भाषण के लिए आमंत्रित करना चाहते थे, पर पता चला कि उनकी तबीयत कुछ नासाज़ है। वे इस नशिस्त में शिरकत नहीं कर पायेंगे। जैसा कि विदित हो शहीदेआज़म भगत सिंह पर उनका एक बेहद मक़बूल व कामयाब नाटक है, जिसके हजारों प्रदर्शन हो चुके हैं।  

करोना / कोविड--19 महामारी के कहर के पहले 

 सन् 2018 में हम लोगों ने उन्हें मीरारोड के निहाल कार्नर के नुक्कड़ पर इसी निमित्त बुलाया था, हालांकि उस समय भी उनकी तबीयत दुरुस्त नहीं थी, पर वे आये और जमकर बोले। उनकी तक़रीर आज भी मीरा रोड को लोग न केवल याद करते हैं, अपितु दूसरी नशिस्तों से उसकी तुलना भी करते हैं। सागर सरहदी की तक़रीर मीरा रोड के लोगों के लिए  एक मिसाल बन गयी  थी।   

  सागर सरहदी से मेरी मुलाक़ात भी अजीब ढंग से हुई।  मैं उन दिनों सेंट ज़ेवियर्स इंस्टीट्यूट ऑफ़ एजुकेशन एंड ब्वायज़ एकेडमी में बतौर मुदर्रिस मुलाज़िम था।  मुंबई जैसे महानगर में अदबी जलसों, नशिस्तों, महफ़िलों में शिरकत किया करता था। बावजूद इसके सागर सरहदी से किसी अदबी प्रोग्राम में मुलाक़ात नहीं हुई। दोपहर के क़रीब ढाई बज रहे होंगे काम के दबाव से फ़ारिग़ हो कर दोस्तों के साथ ऊलजलूल बातें कर रहा था, तभी कथाकार मित्र विजय यादव के साथ ढेरों पत्रिकाओं से भरी वारली पेंटिंग्स से सुसज्जित थैले लिये जनाब सागर सरहदी दाख़िल हुए। इससे पहले कि औपचारिक परिचय हो, उन्होंने छूटते ही कुछ देशज गालियों से मेरा स्वागत किया! उनके इस संबोधन से स्टाफ़ रूम में बैठे लोग सकते में आ गये। विजय यादव मंद मंद मुस्कुरा रहे थे। इससे पहले कि उनके गाली कोश से और गालियां निकलें, मैं उन्हें और विजय यादव को लेकर सम्मान रेस्टोरेंट  की ओर चला । रसम वड़े के लज़ीज़ स्वाद ने उनके गालियों के शब्द कोश को कुछ देर के लिए बंद-सा कर दिया। कुछ देर तक हंस में प्रकाशित महत्वपूर्ण कहानियों की चर्चा  होती रही, फिर बातचीत का सिलसिला राजनीति की तरफ़ मुड़ गया। सी पी एम, सी पी आइ  की कांग्रेस के साथ नज़दकीयों को उन्होंने ख़ूब कोसा और जमकर गालियां दीं। 

सागर सरहदी का रुझान वाम की 'एम एल' राजनीति से था। वे सभी 'एम एल' संगठनों से गहरी सहानुभूति रखते थे। ज्वालामुखी, वरवर राव और तमाम दीगर कवियों को उन्होंने बुलाया और उनसे गुफ़्तगू  की, उनकी कविताओं का पाठ रखवाया और 'एम एल' राजनीति  की सफलताओं और असफलताओं पर  चर्चा भी की। 

  वैसे देखा जाये तो सरहदी साहब बेहद भावुक स्वभाव के रचनाकार थे। बात उन दिनों की है, जब 'नर्मदा बचाओ आंदोलन' शीर्ष पर था। वे एक जनसभा में गये और वहां उन्होंने 'नर्मदा बचाओ आंदोलन' की नेत्री मेधा पाटकर को सुना और वे उनके मुरीद हो गये। उन दिनों मध्यप्रदेश की नर्मदा घाटी में उनका आंदोलन चल रहा था। हरसूद को डूबने से बचाने के लिए मेधा पाटकर आरपार की लड़ाई लड़ रहीं थीं। भोपाल में धरना प्रदर्शन जारी था। सागर साहब सबकुछ छोड़कर मेधा पाटकर के साथ हो लिये और महीनों उनके साथ विभिन्न जगहों पर आंदोलन में हिस्सेदारी करते रहे। वे मेधा पाटकर की सादगी, ईमानदारी, संगठन क्षमता और पारदर्शी व्यक्तित्व की तारीफ़ करते अघाते नहीं थे। लगभग चार महीने बाद वे 'नर्मदा बचाओ आंदोलन' से वापस मुंबई लौटे और 'नर्मदा बचाओ आंदोलन' पर डाक्यूमेंट्री बनाने की बात हम लोगों से करते रहे। इस संदर्भ में उनके पास सामग्री और फ़ुटेज पर्याप्त मात्रा में थी, पर किन्हीं कारणों से वे इसे क्रियान्वित नहीं कर सके। मेधा पाटकर के बारे में वे कहते 'उसके काम में ज़बरदस्त सौंदर्य है। उसका लोगों से जुड़ने का तरीक़ा नायाब है। मेधा के काम को देखकर मैं ख़ूबसूरती क्या होती है  यह जान सका। सादगी का मोहक सौंदर्य, पारदर्शिता का आकर्षक सौंदर्य और भाषा के बरतने का अनुपम सौंदर्य --- इस त्रिगुण समुच्चय में घुली है मेधा पाटकर की ख़ूबसूरती। धीरे धीरे नर्मदा और मेधा पाटकर  के आंदोलन के असर की खुमारी कम हुई और वे अपने पुराने 'एंग्री यंग मैन' की भूमिका में पुनः दाख़िल हुए। 

वे उर्दू में  लिखते थे, पर पढ़ते हिंदी और अंग्रेज़ी ही थे। उनके पास  किताबों का बेहतरीन कलेक्शन था।  सिनेमा के विभिन्न पहलुओं के संदर्भ में उनके पास सैकड़ों किताबें थीं। अंग्रेज़ी, हिंदी, पंजाबी, उर्दू भाषाओं की किताबें, पत्रिकाएं और अख़बार उनके यहां नियमित आते रहे। किताबें, पत्रिकाएं , शराब और लज़ीज़ खानों पर वे दिल खोलकर ख़र्च करते थे। तीन कमरे के फ़्लैट में दो कमरे किताबों के रंग बिरंगे चमकते कवर से हमेशा रोशन रहते थे।  किताबों को ले जाने की हर किसी को पूरी छूट थी। उनके यहां एक रजिस्टर रखा रहता था, आपको जो भी किताब पढ़नी हो उसका नाम और अपना नाम लिखिए और ले जाइए। अधिकतम दो महीने के लिए वे किताबें पढ़ने के लिए देते थे। उनका मानना था कि वैसे तो पंद्रह दिन में कोई भी किताब पढ़ी जा सकती है, पर  मुंबई जैसे शहरों की मसरूफ़ियत को देखते हुए उन्होंने दो महीने का वक्त़ मुक़र्रर किया था। वे कहते थे, 'जब आप दो महीने में कोई किताब नहीं पढ़ सकते हैं तो पूरी ज़िंदगी आप उसे नहीं पढ़ सकते। 

सागर सरहदी जितना किताबों के शौकीन थे उतना ही खानों के । उन्हें देश के विभिन्न शहरों  में कौन-सा व्यंजन स्वादिष्ट पकता है, इसका पता था। मुंबई के हर उपनगर के उम्दा रेस्तरां की न केवल जानकारी थी, बल्कि दोस्तों के साथ वे अक्सर जाया करते थे। वे खाने और खिलाने के बेहद शौकीन थे। इस संदर्भ में उनकी उदारता का कोई सानी नहीं था। भोजन का बिल कितना ही क्यों न हो वे सदैव आगे बढ़कर चुकाते थे। मुझे लगता है उनकी आय का बहुत सारा हिस्सा किताबों और भोजन में ही ख़र्च होता रहा होगा। कृपणता उनके स्वभाव का हिस्सा नहीं था। मेहमाननवाज़ी उनका विशेष शगल था।   

 सागर सरहदी जनवादी लेखक संघ के हर कार्यक्रम में सहर्ष शामिल होते तथा अपनी टिप्पणी और तक़रीर से हम सबको लाभान्वित करते।  सागर सरहदी अपनी सहमतियों और असहमतियों को खुलकर ज़ाहिर करते थे। अपनी  नाराज़गियों, आलोचनाओं और  क्रोध को प्रकट करने में वे ज़रा भी शील-संकोच नहीं करते।

एक बार की बात है, सुधा अरोड़ा का कहानी पाठ आयोजित किया गया था। लेखक, अनुवादक आत्माराम जी सुधा जी की कहानी पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे थे। आत्माराम जी का अंदाज़ेबयां कुछ और ही था। वे दायें- बायें घूम-घूमकर हाथों को हवा में लहरा लहरा कर सप्तम स्वर में बोल रहे थे। उनके वक्तव्य में मराठी और अंग्रेज़ी लेखकों के उद्धरणों की भरमार थी। वे तमाम उद्धरणों से यह कहना चाहते थे कि सुधा अरोड़ा ने अपनी कहानी में स्त्री विमर्श को एक नया आयाम दिया है। उनकी बात चल ही रही थी कि सागर सरहदी सहसा उठ खड़े हुए और ज़ोर से कहा, 'बंद करो अपनी ये बकवास, हम सब तुम्हारे स्टूडेंट्स नहीं हैं, जो बातें आप कह रहे हैं, वे हम सब जानते  हैं।' आत्माराम ने उसी रौ में कहा यदि आप मेरी बात नहीं सुन सकते तो खुशी से आप बाहर जा सकते हैं! सागर सरहदी ने उसी दृढ़ता से कहा, 'मैं नहीं तुम बाहर जाओगे' और उन्हें बाहर भेजने का दबाव बनाने लगे। हम लोगों के सामने बड़ी अजीब-सी स्थिति पैदा हुई। कैसे स्थिति को संभाला जाये।? यह संकट पेश्तर था, अंत में सबके कहने पर आत्माराम जी ने अपनी तक़रीर अधूरी छोड़ी और बैठ गये। इस तरह से परिस्थिति को संभाला गया। यह आत्माराम जी की उदारता थी, जो उन्होंने सबकी बात मान ली।  कहने का तात्पर्य यह कि सागर सरहदी अपनी बात कहने में ज़रा भी शील-संकोच नहीं करते थे। 

बहुत दिनों बाद उन्होंने एक नाटक, राजदरबार लिखा। उसे कुछ कलाकारों को लेकर उन्होंने निर्देशित भी किया। नाट्य प्रस्तुति में हम सभी मित्र शामिल हुए, पर नाटक की कहानी और निर्देशन बहुत बिखरा-बिखरा था। हम लोग बीच में ही नाटक छोड़ कर चले आये। सागर सरहदी को यह बात बहुत नागवार गुज़री। उन्होंने  फ़ोन पर बहुत गालियां दीं और कुछ दिनों के लिए संवाद बंद कर दिया। दो वर्षों के बाद उनसे फिर संबंध सामान्य हुए। 

 भगतसिंह की स्मृति गोष्ठी में वे हर बार न केवल शामिल होते बल्कि अपने वक्तव्य से गोष्ठी को मानीखेज़  बनाते। सागर सरहदी की ज़ुबान पर गालियां धरी रहती थीं। बिना गालियों के उनसे संवाद संभव ही नहीं था। उनकी गालियों में मुहब्बत की चाशनी होती थी। उनकी गालियां स्नेह का गुलदस्ता होतीं थीं। यदि आपसी संवाद में वे औपचारिक हुए तो समझिए आपको वे पसंद नहीं करते हैं। उनके पास गालियों का ख़ज़ाना था। वे पंजाब के दूर-दराज़ इलाक़ों में प्रयुक्त होने वाली गालियों का इस्तेमाल करते थे। उनकी गालियों में भी एक लालित्य था। उनकी गालियां किसी फ़कीर की दुआओं से कम नहीं थीं। 

  सागर सरहदी ने सिनेमा को रोमान की एक नयी ज़ुबान दी। मोहब्बत के पूंजीवादी नज़रिये/ फ़्रेम से अलहदा उन्होंने ज़िंदगी की उलझनों, संघर्षों, ख़ूबसूरतियों और श्रम के रसायन से एक ख़ूबसूरत भाषा या कहें जीवन राग रचा। उसे शब्दों और भावों की अद्वितीयता प्रदान की। कभी कभी, नूरी, सिलसिला, चांदनी, फ़ासले, बाजीगर, अंदाज़ और कहो ना प्यार है, जैसी फ़िल्मों की पटकथा और संवाद लिखकर अपनी भाषा व दृष्टि का  लोहा मनवाया।  

 बाज़ार फ़िल्म उनके जीवन और रचनात्मकता की हासिल फ़िल्म है। बाजार के निर्देशन ने उन्हें देश के शीर्ष फ़िल्मकारों की श्रेणी में ला खड़ा किया।  प्रेम और स्त्री मुक्ति को लेकर उनकी फ़िल्म, बाज़ार हिंदी सिनेमा ही नहीं, विश्व सिनेमा की ख़ूबसूरत व मानीखेज़ फ़िल्मों में से एक है। बाज़ार से सागर सरहदी ने धन और यश दोनों कमाये। बाज़ार की सफलता के बाद उन्होंने, तेरे शहर में और चौसर नामक फ़िल्में बनायीं, पर ये दोनों फ़िल्में किन्हीं कारणों से चल न सकीं। इन फ़िल्मों की असफलताओं से सागर सरहदी को बहुत आर्थिक नुक़सान उठाना पड़ा। वे भीतर से टूट-से गये, कर्ज़ का बोझ न उठा सके।  

  बाद में रूसी साहित्य के बेहद मक़बूल लेखक मैक्सिम गोर्की के मशहूर उपन्यास, मां पर उन्होंने दूरदर्शन के लिए एक  धारावाहिक बनाने का निर्णय लिया था। उनकी यह महती योजना दूरदर्शन (मंडी हाउस) से पास भी हो गयी थी, पर किन्हीं कारणों से वह प्रोजेक्ट साकार नहीं हो पाया। 

सागर सरहदी में रचनात्मकता, कला कौशल और विचारों की दृढ़ता के साथ साथ लोक जीवन की ख़ूबसूरती को समझने और उसे  सिनेमा में रूपायित करने का कमाल का हुनर और दृष्टि थी। सिनेमा में गीत-संगीत की अहमियत को बाज़ार फ़िल्म से देखा व समझा जा सकता है। 

सागर सरहदी का एक संघर्ष यह भी था कि उर्दू भाषा को कैसे आधुनिक संवेदनाओं से लैस किया जाये। विशेषकर उसमें लिखी जा रही शायरी को कैसे अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी के सामंतीय सौंदर्यबोध से बाहर निकाला जाये, उसे आधुनिक संवेदनाओं और उसके सौंदर्य से सुसज्जित किया जाये।  शहीदे आज़म भगतसिंह पर फ़ुल लेंथ प्ले लिखकर उन्होंने यह रास्ता भी दिखाया।    

 सागर सरहदी  रचनात्मक ऊर्जा से भरे रहते थे। मायूसी उनकी फ़ितरत में थी ही नहीं। वे  एक  जिंदादिल इंसान थे। ज़िदगी की ख़ूबसूरती उनके रोम रोम में भरी थी। उदासी, अकेलापन और अवसाद जैसी आधुनिक बीमारियों से उन्होंने न केवल अपने को बचाये रखा, अपितु अपने सर्किल में भी इन बीमारियों को आने नहीं दिया। उन्होंने अपने चाहने वालों से  बेपनाह मुहब्बत की और भरपूर  स्नेह  दिया। उन्हें जीवन व समाज की अहमियत और ख़ूबसूरती समझायी। गालियां उनकी घृणा और विद्रूपता की बायस नहीं थीं। वे जिंदादिली को  व्यक्त  करतीं थीं। वे गालियों का इस्तेमाल जीवन के लालित्य को, उसकी विशेषताओं को अभिव्यक्त करने के लिए करते थे। उनकी गालियां फ़कीरों, संतों की दुआओं के मानिंद हुआ करतीं थीं। उनके चाहनेवालों को उनकी याद ताउम्र न केवल आयेगी, बल्कि सतायेगी। ऐसे जीवन व सौंदर्य से भरे एक मुकम्मल रचनाकार के निधन से मुंबई का साहित्यिक संसार बेहद नीरस और वीरान सा हो गया है। हम मुंबई के जनवादी लेखक संघ के साथी, मित्र उनके प्रति अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।  

मो. 9969345438  

    

 

 

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