काव्य चर्चा-3

  कविता की संभावना और आलोचना के संकट

प्रियदर्शन

 इस समय हिंदी में जितनी कविता लिखी जा रही है, क्या किसी दूसरे समय में लिखी गयी होगी? अगर लिखी भी गयी होगी तो क्या वह इस क़दर प्रकाश में आयी होगी? संभव है, बहुत सारी कविताएं किन्हीं कॉपियों या डायरियों में पड़ी रह गयी हों और उम्र के साथ मुरझाती-सूखती ख़त्म हो गयी हों, या फिर बहुत सी कविताओं को संपादकों ने ख़ारिज कर कई संभावनाओं को ख़त्म कर दिया होगा। लेकिन यह दौर निर्बाध-निर्बंध अभिव्यक्ति का है। तकनीक ने पहले यह सुविधा दी कि आप जो कुछ भी लिखें उसे असंपादित सबके सामने ला सकें और फिर लोगों की प्रतिक्रियाओं ने यह साहस भी दे दिया कि यह काम कुछ ज़्यादा आत्मविश्वास से बार-बार दुहराया जा सके।

इस प्रक्रिया ने भी दो तरह की कविताएं पैदा की हैं- एक तो वाक़ई बहुत अच्छी- बिल्कुल जीवन के पहाड़ों से निकलते प्रपातों जैसी कविता है- परंपराप्रदत्त सयानेपन और संपादकीय सख़्ती के किसी अंकुश से परे- कहीं-कहीं संपादन की ज़रूरत का आभास कराने के बावजूद अपने संपूर्ण प्रभाव में विलक्षण, लेकिन इसके साथ-साथ बहुत बड़ी मात्रा में औसत या बहुत ख़राब कविताएं भी लिखी जा रही हैं जिनको भी उतनी ही तादाद में पाठक और प्रशंसाएं सुलभ हैं जितनी अच्छी कविताओं को। हालांकि कहा जा सकता है कि किसी भी कविता को औसत या ख़राब कहना दरअसल एक तरह का अलोकतांत्रिक काम है- क्योंकि इससे यह संदेश जाता है कि जो अच्छा लिख सकते हैं, सिर्फ़ वही लिखें, मामूली लिखने वालों को अपनी अभिव्यक्ति रखने का अधिकार नहीं है। लेकिन क्या वाक़ई? क्या उन्हें औसत या ख़राब बता कर हम उनके रचयिताओं के लिए यह अवसर नहीं पैदा कर रहे कि वे अपने अनुभव के संसार में कुछ और गहराई से उतरें और अपनी अभिव्यक्ति को कुछ और तराशें? हमारे समय के बहुत सारे उदीयमान कवि इस दुर्घटना के भी शिकार हैं कि प्रारंभिक दौर में ही उन्हें इतनी तारीफ़ मिल गयी कि अब वे आलोचना करने वालों को मूर्ख मान बैठने का दंभ पाल सकते हैं।

संकट बस इतना ही नहीं है। अब हमारे चारों तरफ़ अच्छी-बुरी-सामान्य-विशिष्ट-महान-मामूली इतनी सारी कविताएं एक साथ सुलभ हैं कि हम आस्वाद की अपनी क्षमता खो बैठे हैं। भाषा से जो हमारा गहरा नाता है- जिसमें हम एक-एक शब्द में उतरने, उसके आशय समझने के आदी रहे हैं- उसको स्थानापन्न करके एक सतही रोमानियत और सुबोधगम्यता भर हमें भाने लगी है। यह दरअसल कविता से ज़्यादा उसके आस्वाद की, मूल्यांकन की चुनौती  है- मूलतः एक आलोचक की चुनौती- जो इस बात से कुछ और कड़ी हो जाती है कि इस बहुत तेज़ रफ़्तार समय में सबकी नसें इस तरह तड़की हुई हैं कि किसी अनुकूल या प्रतिकूल टिप्पणी को उसके संभव अर्थों के साथ समझने की जगह हम बिल्कुल सपाट ढंग से लेने और उस पर प्रतिक्रिया जताने के आदी हुए जा रहे हैं। इसका एक नतीजा यह भी हुआ है कि आलोचना के अब तक जो जाने-पहचाने औज़ार थे, वे आलोचक के हाथ और दिमाग़ से जैसे छिटक चुके हैं, उसे बिल्कुल निहत्था होकर इस दौर की कविताओं से मुठभेड़ करनी है (हालांकि यह अपने-आप में कोई बुरी बात नहीं है)।

ये सारे ख़याल, नया पथ के लिए कुछ समकालीन कविता संग्रहों पर टिप्पणी के आग्रह का मान रखने के क्रम में पैदा हुए। इन संग्रहों में पहला अविनाश मिश्र का है, चौंसठ सूत्र सोलह अभिमान कामसूत्र से प्रेरित  अविनाश मिश्र उन युवा लेखकों में हैं जिनकी भाषा, जिनके अंदाज़ का मैं मुरीद रहा हूं। जिस दौर में संवेदना से सूक्ष्मताएं लगातार निर्वासित की जा रही हैं, वे अपने लेखन में जैसे उनका पुनर्वास ही नहीं, विस्तार करने पर तुले हुए हैं। वे कविता लिखें, आलोचना लिखें या किसी और तरह का गद्य- उनको पढ़ना अक्सर सुखद लगता है। निस्संदेह, एक तरह की अक्खड़ विवादप्रियता भी उनके भीतर दिखती है जिसका नुकीलापन संभवतः बहुत सारे लोगों को चुभता हो, लेकिन उनका गद्य और उनका पद्य दोनों हिंदी लेखन की शोभा और शक्ति बढ़ाते हैं।

लेकिन उनका यह संग्रह एकाधिक बार पढ़ने के बावजूद कई वजहों से मुझे कुछ फीका, कुछ भटका हुआ, मेरी अपेक्षाओं से कुछ कम संवेदनसिंचित नज़र आया। क्या अविनाश ने जानबूझ कर इसे ऐसा रहने दिया? क्या वे शीर्षक से ध्यान खींचने के खेल में अपनी कविताओं को उस शीर्षक की परिधि में बांधे रखने की मजबूरी के शिकार हो गये? हिंदी साहित्य-समाज की बहुप्रसूत कल्पनाशीलता से उपजी अल्पज्ञ स्मृति में, कामसूत्र एक ऐसी वर्जित किताब की तरह दर्ज है जो यौन-संबंध का सुख लेने के तरीक़े सिखाती है। अविनाश 64 सूत्रों के नाम पर 64 कविताएं और फिर 16 अभिमान के नाम पर 16 और कविताएं इस संग्रह में जोड़ते हैं। लेकिन अगर इस किताब का नाम हटा दिया जाये और इनके शीर्षक बदल दिये जायें तो क्या इन कविताओं का वास्ता कामसूत्र के किसी तत्व या उसकी किसी स्मृति से है?

ख़ुद किताब की भूमिका में अविनाश इसका जवाब देते हैं- ' 'चौंसठ सूत्र’ शीर्षक खंड में समायी कविताओं और कामसूत्र का संबंध बस इतना ही है कि इनका कवि कामसूत्र और प्रेम में बिल्कुल एक ही समय डूबा हुआ रहा।'

इस कैफ़ियत की ही उंगली पकड़ कर चलें तो आप उम्मीद कर सकते हैं कि इस संग्रह में प्रेम और दैहिकता के अनुभव से बंधी कविताएं होंगी। बेशक, वे हैं भी, लेकिन ज़्यादातर कविताएं इस अनुभव का संप्रेषण करने की जगह उनको बस दर्ज करके रह जाती हैं। जैसे अविनाश जिस अनुभव में अपने ‘डूबे होने’ का दावा कर रहे हैं, वह उनकी कविता में यत्नपूर्वक - उनके भाषिक कौशल के सहारे ही - दाख़िल हो पा रहा है। हालांकि भूमिका में ही वे एकाधिक जगह यह उल्लेख करते हैं कि ये कविताएं ‘लिखी नहीं गयी हैं, आयी हैं और हुई हैं।  ‘मंगलाचरण’ में वे लिखते हैं, ‘मेरे लिए अब प्रार्थना करने / और तुम्हारे नाम के / दुहराव के बीच / कोई दुराव नहीं है / मेरे प्रार्थनाक्षर / तुम्हारे नाम के वर्णविन्यास को चूमते हैं / मेरी आकांक्षा है कि / सतत प्रार्थना में ही रहूं।

दरअसल, यह पूरा संग्रह बहुत छोटी-छोटी कविताओं से बना है - आती-जाती सांस की तरह - लेकिन उतना सहज नहीं है। कुछ कविताओं में खेल है, कुछ में प्रश्न है, कुछ में बौद्धिक तर्क है, इन सबमें संवेदना का स्पर्श भी है, लेकिन अंततः ये कविताएं प्रेम की किसी गहरी संवेदना, दैहिकता की किसी ऊष्मा या किसी द्वंद्व के संप्रेषण में कुछ पीछे छूट जाती हैं। निस्संदेह अविनाश इनसे बेहतर लिखते रहे हैं।

अविनाश के ही लगभग हमउम्र सुधांशु फ़िरदौस का संग्रह, अधूरे स्वांगों के दरमियान, इस युवा कविता की संभावना और सामर्थ्य को नये सिरे से उजागर करता है। फिर से याद आता है कि इन युवा कवियों के पास बहुत समर्थ और प्रांजल भाषा है, प्रेम को लेकर अपने पूर्ववर्ती कवियों से कहीं ज़्यादा निर्द्वंद्व और अकुंठ अभिव्यक्ति है, अपने समय की कशमकश भरी समझ भी है और कविता में संभव हो सकने वाले उपकरणों की बेहतर पहचान भी। सुधांशु के पास एक चीज़ और ज़्यादा है जो उनके समकालीन दूसरे कवियों में कम दिखायी देती है - प्रकृति के उन अभिराम रूपों की उपस्थिति जो जीवन और कविता दोनों से दूर हुए जा रहे हैं। उनकी कविता जैसे शुरू से अंत तक तरह-तरह के सैरों - लैंडस्केप - से बनी है। इन कविताओं की भाषा कई जगह बिल्कुल शास्त्रीय हो उठती है जिसमें अपनी तरह की समृद्ध सुवास है। जैसे वे बहुत सारे देखे-अनदेखे-खोते हुए दृश्यों की हमारे लिए पुनर्रचना कर दे रहे हैं, उन्हें बचा रहे हैं। कहीं-कहीं तो वे बिल्कुल विलक्षण हो उठते हैं- ‘मछलियों से महकती- / झींगुरों की रागिनी से सजी पूनम के ओस-भीगे बालों को झटकती भादो की यह ज़रखेज रात / यों लगता है कि दियरा में गभाये हुए धान से देखते ही फूट कर निकल आयेगा बाल / मद्धम पड़ने लगा है इस ख़राबे में शाम की दुल्हन का अंगराग / अभी देर है- / निशीथ को शुरू करने में अभिसार’।

लेकिन फ़िरदौस प्रकृति के कवि नहीं हैं। और न ही प्रकृति इतने स्वतंत्र रूप में इन कविताओं में आती है। वह लगभग हमेशा प्रकृति को उपादान बना कर या फिर उससे आगे जाकर कुछ ऐसा कहने की कोशिश करते हैं जिसका वास्ता जीवन से हो- चाहे वह प्राचीन की स्मृति हो या समकालीन का अनुभव। उनको धीरे-धीरे पढ़ते हुए हम पाते हैं कि वे समय की वक्रताओं-विडंबनाओं को भी ठीक से पहचानते और पकड़ते हैं। बेशक, उनको पढ़ते हुए यह उदास करने वाला ख़याल भी आता है कि एक तरह का अकेलापन ही नहीं, व्यर्थताबोध भी कभी कभी इन कविताओं में चुपचाप दाख़िल हो जाता है- ‘सुलझाते-सुलझाते आख़िरकार / इतने उलझ गये हैं सारे समीकरण / कि ज़िंदगी गोया मूंज की रस्सी हो गयी है / उसके जीवन में न कोई प्रेम बचा है न प्रतीक्षा / वह ख़ुद ही महसूस करने लगा है ख़ुद की व्यर्थता’। यह  उदासी, यह अकेलापन इन कविताओं में बार-बार दबे पांव आता है। कहीं वे लिखते हैं, ‘आज की रात तो मेरे साथ / मेरी परछाईं भी नहीं है’,  कहीं ‘औंधे पड़े आकाश ने / सीधे मुंह लेते आदमी से कहा: / कितने अकेले हो तुम / एक फुसफुसाहट हुई / तुम भी तो! / फिर दोनों हंसने लगे।'

क्या यह बहुत निजी दुख है? कवि का निचाट एकालाप? या इसका कोई सार्वजनिक पक्ष भी है। कवि को प्रेम की बात करते-करते किसी तानाशाह की याद क्यों आ जाती है? अचानक हम पाते हैं कि अपनी निजता में बिल्कुल डबडबाया सा यह कवि अपने समकालीन यथार्थ के प्रति भी बहुत सजग और संवेदनशील है और उसके पास कई ऐसी कविताएं हैं जहां जीवन और समाज और सियासत को लेकर गहरी बेचैनी, शिकायत, सवाल सबकुछ है, कहीं-कहीं संघर्ष करने की इच्छा भी। शायद निजता में सार्वजनिकता का जो अतिक्रमण हमारे समय में  हुआ है, उसने यह स्थिति रहने ही नहीं दी है कि कोई कवि प्रेम की बात करते-करते अपने परिवेश को भूल सके। एक गड्डमड्ड यथार्थ के बीच हम पल-पल बदलती दुनिया को और उसके साथ अपने रिश्ते को पहचानने में हलकान हुए जाते हैं।

निशांत का तीसरा कविता संग्रह, जीवन हो तुम मूलतः प्रेम कविताओं का संग्रह है। लगभग संवाद की तरह लिखी गयी इन कविताओं में वाचक बदलते रहते हैं, लेकिन प्रेम की कोमलता, उदात्तता, तीव्रता और उसका सब्र, उसके द्वंद्व भी- लगभग एक-सी कोमल संवेदनशीलता के साथ अभिव्यक्त हुए हैं। हालांकि प्रेम को किसी नये पुराने दौर से कितना जोड़ कर देखा जाये, यह बहसतलब है, लेकिन वाट्सऐप और फ़ेसबुक के आभासी संसार के बीच बहता और कई अंतरंग कथाएं कहता यह प्रेम कई मायनों मे इस आधुनिक समय का है। यहां प्रेयसी प्रिय का संबल है, वह स्कूटी से आती-जाती है, लेकिन नायक के एक आवाज़ देने पर फिर भी चली आती है। प्रेम में हमेशा की तरह बहुत कुछ अनभिव्यक्त है जिसे कविता में भी अनभिव्यक्त की तरह ही दर्ज किया गया है। यह संग्रह कई छोटी-बड़ी कविताओं से मिलकर बना है जिन्हें पढ़ते हुए बरबस यह ख़याल भी आता है कि इस भागते-दौड़ते समय में भी प्रेम संभव होता है और प्रेम कविता संभव होती है। यह खयाल भी आता है कि इस दौर में बहुत सारी कविता ऐसी लिखी जा रही है जिसे आसानी से प्रेम कविताओं के ख़ाने में डाला जा सकता है। यह सब जोड़ने के बाद यह लिखने की इच्छा ज़रूर होती है कि निशांत की ये कविताएं अच्छी और संवेदनशील होने के बावजूद वह जादू नहीं जगातीं जो कई प्रेम कविताएं हमारे भीतर पैदा करती रही हैं।

हिंदी में हाल के वर्षों में पचास के पार जाकर भी युवा बने रहने की जो प्रवृत्ति विकसित हुई है, उसे भूल जायें तो अनिल करमेले  वरिष्ठ लेखक हैं और उनकी कविताओं से हिंदी का संसार सुपरिचित है। इस साल सेतु प्रकाशन से आया उनका संग्रह, बाक़ी बचे कुछ लोग अपने समय, समाज और अपनी कविता के प्रति सजग एक परिपक्व कवि के रूप में उनकी पहचान को कुछ और पुख़्ता करता है। बीतते और बदलते समय के बीच निजी और सार्वजनिक जीवन की विडंबनाओं पर उनकी नज़र है जिसे वे उनकी कविता में बहुत सहजता के साथ दर्ज करते हैं। ‘जीवन में  समेटी हुई चालाकियों से / एक बेहद सुखी इंसान’ बन गये अपने क़रीबी मित्र का ज़िक्र करते हुए वे लगभग अचूक ढंग से इस सुख का खोखलापन पकड़ते हैं, ‘उसके पास एक संभ्रांत नैतिकता थी / जिसके भीतर लड़कियों को पाने की ख़्वाहिशें थीं / लेकिन उनका सार्वजनिक इज़हार मना था / और मैं अपने इस बयान से कभी नहीं डरा / कि मुझे ख़ूबसूरत लड़कियां पसंद हैं / वह पाठ्य-पुस्तकों और जानकारियों से भरा हुआ था / उन्हीं के उधार लिये शब्दों का कवच पहन कर / निकलता था शहर में / उसकी सज्जनता और क़ायदे के चर्चे आम थे / मेरे लिए महफ़िल थी गप्पबाज़ों की / जहां आवारगियां लिखती थीं अपना रोज़नामचा।

दरअसल, अनिल करमेले की कविता मूलतः उस मध्यवर्गीय-क़स्बानुमा शहरों की कविता है जहां घर बचे हुए थे, हालांकि उनकी हताशाएं बड़ी हो रही थीं, लड़के बेरोज़गार थे, प्रेम वर्जित मगर प्राप्य फल था, लड़कियां सहमी-शर्मायी सी निकलती थीं और बहुत सारी मजबूरियों के बावजूद जीवन सादा-सरल और जीने योग्य था। हालांकि इसको वे हमेशा किसी रोमानी ढंग से याद नहीं करते- इसकी लाचारियां, इसकी बेचारगी, इसकी बेरुख़ी, इसके अभाव और इन सबसे पैदा होने वाले विद्रूप भी उनकी कविता में अलक्षित नहीं रह जाते। लेकिन दरअसल जो गुज़र जाता है, जब वह स्मृति बन जाता है तो उसकी चुभन ग़ायब हो जाती है, बल्कि धीरे-धीरे वह अनमोल लगने लगता है। बहरहाल, वह जीवन- और उस जीवन की बहुत सारी निशानियां- अब एक बीते हुए दौर की कहानियां हैं, यह जाना-पहचाना ख़याल इस संग्रह में कई जगह, कई रूपों में दिखता है। टेलीग्राम की व्यवस्था ख़त्म होने पर लिखते हुए वे याद करते हैं कि जीवन में कितनी सारी चीज़ें- जो बहुत ठोस और लगभग अपरिहार्य सी लगती थीं- कैसे धीरे-धीरे गायब होती चली गयीं।

लेकिन अनिल करमेले की कविता उस माहौल का अतिक्रमण भी करती है, अपना एक अलग संसार रचती है, जैसे छोटे शहरों में भी उन दिनों तरह-तरह के सांस्कृतिक-वैचारिक समूह हुआ करते थे और अपना अलग संसार बना-बसा लेते थे। इस संसार में उनकी कलागत संवेदना है, उनकी प्रखर राजनीतिक दृष्टि है, धर्म और सत्ता के दुष्चक्रों पर सीधी नज़र भी है। ‘देवताओं को सोने दो’ कविता की शुरुआत तो अद्भुत है- ‘जब बहुत ज़रूरत थी मनुष्यों को देवताओं की / वे निद्रा में थे अपनी आरामगाहों में / नुमाइंदे अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए / वोटिंग मशीनों तक गायों को खींच लाये थे / वे बता रहे थे / हमारी सोने की  चिड़िया रह चुके इस देश में / अब बहुत अच्छा समय आ गया है / अब कोई दलित, कोई ग़रीब नहीं बचा / स्त्रियां अभी भी शर्मसार थीं / बच्चे अभी भी फुटपाथों पर, प्लेटफ़ॉर्म पर, होटलों में काम करते थे / भ्रूण परीक्षणों में लगे हुए थे धंधेबाज़ / बेरोज़गारों को गाय बचाने की ज़िम्मेदारी दे दी गयी थी / अल्पसंख्यक मारे जा रहे थे / ग़रीबों और मजलूमों की होली जला कर / अमीर दिवाली मना रहे थे।

हालांकि कभी-कभी ऐसा भी लगता है कि जिस वैचारिक प्रशिक्षण ने अनिल करमेले को यह तीक्ष्ण समझ दी, उसी ने वह रोमानी आशावाद भी दिया जो कभी-कभी इन कविताओं के कुछ हिस्सों को 'क्लीशे' में बदलता है- ‘हमें दुनिया बचानी होगी’ या ‘हमे बढ़ाना होगा आपसी प्रेम’ जैसी पंक्तियां चाहे जितनी भी सच हों, लेकिन कुछ सपाट और बार-बार दुहरायी जान पड़ती हैं। यह दुर्घटना कवि की दूसरी कविताओं में भी लक्ष्य की जा सकती है, हालांकि इसके बावजूद उनको पढ़ना हमेशा सुखद लगता है क्योंकि उनके पास जीवन की अंदरूनी कशमकश के बीच बनने वाली बेचैनियों को समझने वाली दृष्टि और पकड़ने वाली भाषा है।

तो अविनाश मिश्र, सुधांशु फिरदौस, निशांत और अनिल करमेले के ये वे चार संग्रह हैं जो मुझे यह टिप्पणी लिखने के लिए मुहैया कराये गये। क्या इन संग्रहों को पढ़ते हुए इस दौर की कविता को लेकर कुछ निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं?

पहला निष्कर्ष तो यही है कि यह कविता राजनीतिक-वैचारिक आग्रहों से बहुत बंधी नहीं है। यानी सत्तर-अस्सी के दशकों में जिस तरह कविता पर जनपक्षीय होने का राजनीतिक दबाव था, वह शायद इस कविता पर नहीं है। इसमें वे सामाजिक-सामूहिक प्रतिबद्घताएं नहीं हैं जो एक समय कविता के लिए लगभग अपरिहार्य मानी जाती थीं। निम्नमध्यवर्गीय से मध्यवर्गीय होती हिंदी पट्टी के दुख और अभाव जिस राजनीतिक संघर्ष और उससे हासिल बराबरी की कविता का आधार बनाते थे, उसे जैसे आज की कविता कुछ पुरानेपन की चीज़ मानती है। बराबरी का स्वप्न यहां भी है, लेकिन उसमें निजता की छायाएं ज़्यादा हैं। यह मनुष्य की गरिमा का सम्मान करने वाली कविता है, लेकिन किसी आंदोलन के उद्घोष से ज़्यादा वह प्रतिरोध का मानवीय स्वर रचने पर यक़ीन करती है। लेकिन यह भी सच है कि इस दौर की ज़्यादतर कविताएं पूंजी, बाज़ार और सूचना क्रांति के कंधों पर सवार बहुत अश्लील और सतही क़िस्म के मनोरंजन उद्योग के बीच की उन सामाजिक विडंबनाओं को पकड़ने में नाकाम रही हैं जो इक्कीसवीं सदी के जिस्म पर कई नासूरों की तरह दिखायी पड़ती हैं। जिन कुछ कवियों में फिर भी यह विडंबना पकड़ में आती है, उनमें आर चेतन क्रांति, संजय कुंदन, विहाग वैभव के नाम तत्काल याद आते हैं।

दूसरी बात यह कि इन वर्षों में यह कविता ज़्यादा नागर हुई है। देश और समाज में भी गांव का अनुपात घटा है, कविता में भी। गांव अगर है भी तो उसमें एक आधुनिक चेतना की उपस्थिति है।

तीसरी बात- इस दौर की कविता पुराने समय की तरह प्रेम के उल्लेख से सकुचाती नहीं है। प्रेम अगर सांस लेने की तरह सहज न भी हो तो जीवन में एक स्वीकार्य तथ्य है और उसमें कामना का तत्व भी शामिल है। बल्कि इस दौर में शायद बहुत अच्छी प्रेम कविताएं लिखी गयी हैं जो अक्सर प्रेम-कविता की किसी परिभाषा का अतिक्रमण करती हुई एक बड़ी मानवीय, उदात्त, राजनीतिक और कभी-कभी आध्यात्मिक कविता में भी बदल जाती है। गीत चतुर्वेदी, अंबर आर पांडेय ऐसी बड़ी कविता रचने वाले हमारे समय के विशिष्ट कवि हैं। इस क्रम में कुमार अनुपम या शायक आलोक जैसे कवियों को भी याद किया जा सकता है जो निजी अनुभव के संसार को कभी-कभी उसकी अद्भुत ऐंद्रीयता में रचते हैं और कभी-कभी किन्हीं दूसरे उदात्त आशयों में। बेशक, कई बार अंबर पांडेय की शब्द बहुलता काव्यास्वाद से बाधा भी बन जाती है। उनके अलावा ऐसा थोड़ा सा जादू वीरू सोनकर के पास दिखता है। कुछ पुराने पड़ते कवियों को इसमें शामिल करें तो आशुतोष दुबे और चंद्रभूषण को भी उनकी सूक्ष्म दृष्टि के लिए अलक्षित करना उनके साथ नहीं, इस टिप्पणी के साथ अन्याय करना है।

चौथी बात- और जो शायद ज़्यादा महत्वपूर्ण बात है- यह कविता स्त्री अस्मिता के प्रति कहीं ज़्यादा सजग और सावधान कविता है। इत्तिफ़ाक़ से यह वह समय है जब स्त्री पहले से कहीं ज़्यादा स्वतंत्र है, वह घर की दहलीज ज़्यादा आसानी से फलांग रही है, परंपरा की ज़ंजीर बिना हिचक के तोड़ रही है और बहुत सारे मूल्यों और आदर्शों पर इस तरह सवाल उठा रही है कि घरों की दीवारें थरथराती दिखायी पड़ रही हैं। मगर यही वह समय भी है जब स्त्रियां सबसे ज़्यादा पिट रही हैं। उनकी ख़रीद-फ़रोख़्त हो रही है, रिश्तों में उनके साथ धोखा हो रहा है, उनका यौन उत्पीड़न हो रहा है। यह अनायास नहीं है कि इस दौर की सबसे सच्ची और ईमानदार, सबसे उल्लसित और सबसे उदास कविता भी महिलाओं ने लिखी है। बल्कि इस दौर की कविता की प्रतिनिधि और सबसे विविधतापूर्ण स्वर स्त्रियां ही रचती हैं। इनमें एक तरफ़ मोनिका कुमार जैसी कवयित्री है जो बहुत सघन वैचारिकता से अपनी कविताएं बुन लेती है, तो दूसरी तरफ़ बाबुषा कोहली है जो जैसे धरती-आकाश से अपने बिंब चुनती हुई कई जादुई कविताएं लिख डालती है। तीसरी तरफ़ शुभमश्री है- सबको अंगूठा दिखाने, सबकुछ तोड़फोड़ देने पर आमादा, कहीं-कहीं बहुत सटीक और कभी-कभी बहुत सपाट भी, लेकिन अक्सर बनी-बनायी सरणियों को बहुत तीखेपन से ठोकर मारने वाली। बहुत अच्छी और प्रखर कवयित्रियों की यह सूची यहीं ख़त्म नहीं होती। शैलजा पाठक,  अनुराधा सिंह, लीना मल्होत्रा राव, देवयानी भारद्वाज, रश्मि भारद्वाज, सुजाता, प्रतिभा कटियार, पूनम अरोड़ा, रुचि भल्ला, विपिन चौधरी, विमलेश शर्मा, श्रुति कुशवाहा, निवेदिता शकील, कलावंती सिंह सुमन, सुदर्शन शर्मा, सीमा संगसार, जोशना बनर्जी आडवाणी जैसी कई कवयित्रियां हैं जो लगातार काव्य-अनुभव का क्षितिज विस्तृत कर रही हैं। निस्संदेह यह सूची आधी रहने को अभिशप्त है- कई नाम छूटने अवश्यंभावी हैं। बल्कि यह भी जोड़ना चाहिए कि इस स्त्री अनुभव को कई पुरुष स्वरों ने भी समृद्ध किया है। पवन करण के कविता संग्रह इस लिहाज से उल्लेखनीय हैं। 

इन सबके अलावा हिंदी कविता में जो बहुत प्रखर आदिवासी और दलित स्वर हैं, उनको अलग से रेखांकित किये जाने की ज़रूरत है। निर्मला पुतुल, जसिंता केरकेट्टा, अनुज लुगुन, मुसाफ़िर बैठा जैसे कवि इस चर्चा में छोड़ दिये जायें तो चर्चा कुछ अधूरी रह जाती है।

हालांकि फिर दुहराने की ज़रूरत है कि यह सारी काव्यात्मकता इतने शोर-शराबे के बीच घटित हो रही है कि इसके ठीक से मूल्यांकन के लिए ज़रूरी अवकाश- या प्रशांति- किसी आलोचक के लिए सहज-संभाव्य नहीं है। दूसरी बात यह कि इसे हिंदी साहित्य की कविता और परंपरा के बीच रखकर किस तरह देखा जा सकता है? यानी क़रीब अस्सी बरस पहले, तार सप्तक के साथ जो ‘नयी राहों के अन्वेषी’ आये थे, उनकी बनायी या उनसे अलग लीक कहां बढ़ रही है? अगर बीते पचास बरस का ही हिसाब लगायें तो साठ के दशक के मोहभंग और सत्तर के दशक में नक्सली विद्रोह के साथ उभरी हिंदी कविता कितना बदली है और उनके प्रतिनिधि स्वरों की हम कैसे शिनाख़्त कर सकते हैं? अज्ञेय, कुंवर नारायण, केदानाथ सिंह, केदारनाथ अग्रवाल, शमशेर-मुक्तिबोध, नागार्जुन, त्रिलोचन, रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, भवानी प्रसाद मिश्र, धूमिल, लीलाधर जगूड़ी, विष्णु खरे, मंगलेश डबराल, आलोक धन्वा, असद ज़ैदी जैसे कवियों से होती हुई देवी प्रसाद मिश्र, कुमार अंबुज और एक दौर के संजय चतुर्वेदी तक पहुंची कविता उसके बाद किस ओर बढ़ रही है? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम किसी नयी हिंदी की खुशफ़हमी में पुराने काव्य अनुभव को ही दुहरा रहे हैं? क्या वे उपमान पुराने नहीं पड़ रहे जिनके बीच आज की हिंदी कविता बन रही है? अगर यह नयी और नये दौर की कविता है तो उसकी पहचान और उसके मूल्यांकन के नये निकष क्या हैं? उनमें कितना हमारा समय दिखता है, कितनी नयी संवेदना या उसका क्षरण दिखायी पड़ते हैं? इस टिप्पणी को इन सवालों के बीच छोड़ना ही फिलहाल समीचीन लग रहा है।

मो.  9811901398

 पुस्तक संदर्भ

1.  चौंसठ सूत्र सोलह अभिमान कामसूत्र से प्रेरित: अविनाश मिश्र, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2019

2. अधूरे स्वांगों के दरमियान: सुधांशु फ़िरदौस, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2020

3.  बाक़ी बचे कुछ लोग: अनिल करमेले, सेतु प्रकाशन, नोएडा, 2020

4.  जीवन हो तुम: निशांत, सेतु प्रकाशन, नोएडा, 2020

 

 

 

 

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