कहानी चर्चा-3

 तीन निगाहों से झलकता यथार्थ

( तीन कहानी संग्रहों के हवाले से)

रश्मि रावत

 वर्तमान के जटिल और भयावह होते जाते यथार्थ को तीनों कहानीकारों ने एक-दूसरे से नितांत भिन्न कोण से देखा है । इनके बीच अंत:संबद्धता का सूत्र खोजना मुश्किल है, मगर एक संग्रह में दर्ज यथार्थ की परतें दूसरे या तीसरे से भी संप्रेषित हुईं । मनोज रूपड़ा के कहानी संग्रह, टावर ऑफ़ साइलेंस की तीनों कहानियां देश-काल को एक विशाल कैनवास में इस अंदाज़ में प्रस्तुत करती हैं कि पाठक एक युग की कोख़ से निकलते हुए दूसरे युग की थरथराहट महसूस कर सकते हैं। दो अलग व्यवस्थाओं के संधिस्थल में अवस्थित पात्र समय की करवट के साथ कैसा रिश्ता बनाते हैं, मनोज रूपड़ा की कहानियां अक्सर इससे आकार लेती हैं । साज-नासाज में संगीत की दुनिया में आये तकनीकी बदलावों की भित्ति पर एक कलाकार (सैक्सोफ़ोन वादक) का आत्मसंघर्ष सजीव हुआ है कि वह बदलते समय के साथ ताल मिलाते हुए अपने जीवन के सारतत्व अर्थात अपनी संगीत कला को कैसे बचाये । उनके पात्र अपने भीतर ‘आत्म’, या कहें, उसे अर्थ देने वाले मूल तत्व, को बचाने के लिए अक्सर सनक की हद तक चले जाते हैं । मगर यह कहानीकार की सिद्धहस्त कलम से इस ख़ूबसूरती के साथ होता है कि कहानी पाठक की संवेदना में धंस जाती है । ज़िंदगी की बुनियादी ज़रूरतों पर संकट आने पर भी अपनी ज़िद पर टिके रहना पहले सनक लग सकता है मगर अंत तक महसूस होने लगता है कि यही तो ख़ुद के साथ खड़े होना है । इस समय का ‘न्यू नार्मल’, कम से कम शहरी मध्यवर्ग में, है - समर्पण, प्रतिरोधहीनता या महज रस्मी विरोध । मनोज रूपड़ा की कहानियां इस ‘न्यू नार्मल’ का प्रतिवाद हैं। 

टावर ऑफ साइलेंस में पारसी समुदाय की जीवन-प्रणाली, गतिविधियों, आस्थाओं, कृत्यों, कर्मकांडों, पूजा-स्थल आदि के ब्यौरे हैं । यह इस कहानी की ताक़त भी है और कमज़ोरी भी । अपरिचय मिटाने का अपना महत्त्व है मगर ऐसे अंतर्मुखी समुदाय से पाठकों को परिचित करवाना एक अतिरिक्त सावधानी की मांग करता है । कहानी के कुछ पात्र हास्यास्पद से लगने लगते हैं जैसे ‘बेस्ट’ जैसी कामयाब, देश की सबसे बड़ी सिटी बस सर्विस शुरू करने वाले मुकदम बंधु और कभी बहुत कामयाब फ़ूड टेक्नोलॉजिस्ट रही हक्कू फई के व्यक्तित्व और आपसी रिश्ते बड़े बेढब से हैं और कहानी में कुछ ख़ास जोड़ते भी नहीं । पारसियों को देश की हलचलों और राजनीति से पूरी तरह निरपेक्ष दिखाया गया है जबकि आज़ादी के आंदोलन में पारसी समुदाय की नेतृत्वकारी भूमिका रही है । मगर कहानी का असल सौंदर्य देश की आर्थिक घड़ी की टिकटिक को धर्म की पवित्र अग्नि के साथ जोड़कर वर्णित करने में है।

पारसी समुदाय के लिए अग्नि बहुत पवित्र होती है । उनकी मान्यतानुसार 1300 वर्ष पहले जरथोस्त्री अनुष्ठान के द्वारा आसमान की बिजली का आह्वान कर जो आतश (आग) प्रज्वलित की गयी थी, वही अब तक जल रही है और इसी के ताप में उनके संकल्प उद्यमों में ढलते रहे । असली जरथोस्त्री आतशों को कभी मरने नहीं देता । इसी तरह असली उद्यमी अपने उपक्रम की भट्टी को ठंडा नहीं होने देता। देश की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और अपने समय की सबसे बड़ी कपड़े की मिल का पूरा तापमान रोमिंगटन दस्तूर के हाथों से नियंत्रित होता था । वे भट्टी, चिमनी और बॉयलर के विशेषज्ञ थे। व्यवस्थाएं बदलती हैं और तकनीक भी रिटायर होती है । पूंजीवाद जब उग्र पूंजीवाद में बदलता है तो मिलों और उद्यमों के स्थान पर मॉल इत्यादि बनने लगते हैं । कारीगरों की जगह कंज्य़ूमर महत्वपूर्ण होने लगते हैं । इसी प्रक्रिया का अक्स  कहानी में रोमिंगटन की अनुभव पगी निगाहों में झलकता है जब  वे जमशेदजी टाटा की तस्वीर को भरपूर सम्मान से देखने के बाद बुझी आंखों से रतन टाटा की तस्वीर को ताकते हैं । जिस पहली मिल से टाटा का पूरा एम्पायर पैदा हुआ उसे बेचना उन्हें बूढ़ी मां को लावारिस छोड़ देने जैसा महसूस होता है । मिल के बंद होने के बाद भी घर छोड़कर उस बीहड़ सी जगह में रहने और किसी भी तरह चिमनी की आग बचाये रखने की अजीब सी ख़ब्त रोमिंग्टन के सिर पर सवार हो जाती है। अंत में वे ख़ुद उसी चिमनी में कूद जाते हैं । जीते जी चिमनी की आग बुझने देना उनकी पारसी चेतना को मंज़ूर जो नहीं। इम्प्रेस मॉल बनने से पहले इम्प्रेस मिल के मलबे को हटाये जाने पर चिमनी से एक नरकंकाल मिलता है । यह चिमनी एक तरह से वह ‘टावर ऑफ़ साइलेंस’ है जहां पारसी समुदाय की प्रथानुसार शव चील कौवों का भोज्य बनने के लिए छोड़ दिये जाते हैं।

अर्थव्यवस्था की वहशी चाल तले मनुष्य - और एक समूची मूल्य व्यवस्था – इसी तरह रौंद दिये जाते हैं, इसे कहानी बेजोड़ ढंग से रोमिंगटन के बेटे टेम्पटन दस्तूर की नज़र से दिखाती है । फूल के खिलने को एकटक देखने से उनकी चेतना में एक नाज़ुक अनछुआ सौंदर्यबोध घर कर गया था, जिसने उनमें समुदाय में रहते हुए भी उसे दृष्टा भाव से देखने की सलाहियत पैदा कर दी । वर्ना कैसे मिलते भीतर के अनूठे अनुभव एक पर्यवेक्षक की निगाहों से? पारसी जैसे रंध्रहीन समुदाय के रक्त प्रवाह में गहरे धंसे मूल्य ही विकास या कहें विनाश की आंधी में नहीं टिक सके तो अन्यों पर इसके प्रभाव के परिमाण को समझा जा सकता है। शायद लेखक ने भयावहता के इस स्तर को दिखाने के लिए ही अतिशयोक्ति का सहारा लिया हो । आवारा पूंजी से गठजोड़ बनाये उत्तर पूंजीवाद की विनाशक आंधी में उद्योगों के साथ धार्मिक आस्था जैसे पवित्र संबंध बनाने वालों के संकल्प ही अडिग न रहे तो अन्यों की गति तो कल्पनातीत ही होगी।

लंबी कहानी, ‘सैकंड लाइफ़’ में प्रचंड पूंजीवाद की उपभोक्तावादी प्रवृत्ति की ऐसी बेतहाशा दौड़ दिखायी गयी है जिसमें व्यावसायिक नैतिकता की कोई जगह नहीं रह गयी है । न इसे निर्माण या उत्पादन से ही कुछ लेना देना है । कहानी दर्शाती है कि उदारीकरण के आगाज़ के बाद नये-नये बनते 'सेज़' (स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन) तले क्या कुछ रौंदा या कुचला जा रहा है । छोटे से क़स्बे की शांत ज़िंदगी से निकलकर प्रशांत पांचाल पुणे जैसे हाइटेक शहर में आगे की पढ़ाई करने आता है, जहां चारों तरफ़ ‘सुपीरियर’ और ‘फ़ाइन’ कॉर्पोरेट कर्मचारी पैदा करने वाले शिक्षण संस्थान हैं । वह 'सिम्बयोसिस' से प्रबंधन की डिग्री हासिल करता है । मेधावी, हुनरमंद और तीक्ष्ण बुद्धि वाले लेकिन भोले व्यक्ति के लिए सहपाठिन रीना अनासे के अलावा किसी के मन में जगह नहीं बन पाती। सब उसका मखौल बनाते हैं जिससे उसके कोमल मन के तिड़कने की शुरुआत हो जाती है। बाज़ारवाद के तूफ़ान में हुनर की अर्थवत्ता बची रहती तो रीना जैसी संवेदनशील समझदार स्त्री के आत्मीय दायरे में रहते हुए वह जीवन गुज़ार सकता था । लेकिन बेईमानी, छल-प्रपंच और आंकड़ों में हेरफेर को ही नया स्किल मान लेना उसकी सोच और कल्पना के दायरे से परे था । वह यह मासूम भरोसा नहीं कुचल पाता कि कारपोरेट में पूरी प्रतिबद्धता से काम करते जाने से वह काम में परफ़ैक्ट, अधिकाधिक सफल हो सकेगा । अगर ... बहुत लंबी सूची है जिसका अनुमान वर्तमान परिदृश्य से लगा पाना दुष्कर नहीं। उससे छलपूर्वक उल्टे-पुल्टे काम करवा कर उसके अधीन रह कर काम सीखने वाले अनाड़ी लड़के को उसका बॉस बना कर उसे कंपनी से बर्ख़ास्त कर दिया गया।  रीना के सान्निध्य और व्यक्तित्व की आंच उसे फिर खड़ा कर सकती थी, लेकिन यथार्थ उसके लिए इतना असहनीय हो गया कि वह वास्तविकता से मुंह मोड़ कर ‘सैकंड लाइफ़’ नाम की वर्चुअल दुनिया की नागरिकता लेकर अपने वर्चुअल ‘स्व’ के ज़रिये वर्चुअल तोष हासिल करने में ख़ुद को खपाने लगा। व्यवस्था के महाचक्र में पिसता वह ख़ुद को इतना निरीह और अकेला महसूस करता है कि यथार्थ से पूरी तरह पलायन कर जाता है। अन्यायों और मानवविरोधी आर्थिक गतिविधियों के ख़िलाफ़ उसका प्रतिरोध भी वर्चुअल है - डिजिटल दुनिया में वर्चुअल स्त्री मदर यूनिवर्स से वर्चुअल संभोग करके छापामार संतानें पैदा करके बदला लेने की चाहना । इस प्रक्रिया में उसका मानसिक रोग इतना बढ़ता गया कि वह वास्तविक सहवास के क़ाबिल न रहा और कोमा में पहुंच गया । जाते-जाते ‘सैकंड लाइफ़’ चलाने वाली लिंडल लैब कंपनी को ज़रूर कुछ डॉलर का फ़ायदा पहुंचा गया।

रद्दोबदल’ अनूठी कहानी है जो अ-दिखते जबड़े में फंसे वर्तमान युग को पूरी समग्रता में व्यापक विज़न से दिखाती है। असंभव और कुछ अतिरंजित लगते प्रसंगों से भारी-भरकम शब्दों में लगभग रिपोर्टिंग की शैली में कहानीकार विवरण दिये जाता है । विवरण बड़े खौफ़नाक हैं और भाषा बेमुरव्वत। साफ़ दृष्टि और सधे हाथों से कहानीकार पन्नों में शब्द उकेरता है तो हमारे समय की अगणित घटनाएं रील की तरह मानस के परदे पर चलने लगती हैं - मसलन नोटबंदी, संविधान संशोधन विधेयक से संबद्ध घटनाएं, कश्मीर का फ़रमान, कोरोना काल में सड़कों पर उमड़े भूखे-प्यासे मज़दूर, इस समय का किसान- प्रदर्शन या फिर अतिशय रंगों, स्वादों, शब्दों, ध्वनियों में ऊब-डूब करते, उपभोग में मग्न, लफ्फ़ाज़ लोगों की आत्मतुष्ट दुनिया । चंद ऐसे चेहरे भी कौंधते हैं जो अपनी आदमियत को, अपने होने के अर्थ को एक ज़िद की तरह मुट्ठी में भींचे रखते हैं । उनका हश्र वही हुआ, हो रहा है जो एक फ़ासीवादी व्यवस्था में होता है । नहीं, यह सब कुछ कहानी में मौजूद नहीं, मगर पाठक के अंतर्मन के परदे में कहानी पढ़ने के दौरान चलता रहता है - इसलिए यह भी कैसे मान लिया जाये कि कहानी में नहीं है।

  महज़ आठ दशक पहले एक दूसरे देश (जर्मनी) में जो कुछ और जिस तरह हुआ, वह इतिहास का हिस्सा है। उसके हवाले कहानी में आते जाते हैं । उनकी ही तर्ज़ पर व्यवस्था आज के अपने एजेंडे की पूर्ति करती दिखती है । पाठक को बोध होता है कि देश-काल और एजेंडे के फ़र्क़ के बावजूद हिंसा और ‘दूसरेपन’ से नफ़रत के स्तर में कोई अंतर नहीं है । जर्मनी में लाखों ज़िदगियां जिस तरह एक तानाशाह की हिंसक सनक का निशाना बनीं, ऐसा होना आज आसान नहीं - इसलिए कि व्यक्ति व्यक्ति के तौर पर भले क़तई ग़ैरज़रूरी हो लेकिन उपभोक्ता के रूप में तो उसकी उपयोगिता है ही। विज्ञान का इतना भी विकास अब तक नहीं हुआ कि आदमियों का फ़ैक्ट्रियों में उत्पादन हो सके। मगर अपनी (कु)बुद्धि के बल पर विज्ञान और तकनीक के भरपूर दोहन से यह ज़रूर संभव किया जा सकता है कि मनुष्य अपना वैशिष्ट्य खो कर नाम, पहचान और चेतना से विहीन एक ‘रोबो’ या ‘ज़ोंबी’ रह जाये, जिसके रिक्त अंतर्जगत से व्यवस्था के मंसूबे हवा की सी सरलता से पूरे होते रहें।

नागरिकों से उनकी संस्कृति, उनकी सोचने-विचारने-जीने की क्षमता निचोड़ कर अपना ठप्पा लगाने के शासन के तरीक़े एक अतियथार्थवादी शैली में संपन्न होते दिखते हैं । एक अजीबोग़रीब बिल्ला जो सत्ता का प्रतिनिधि है और ख़ुदा से भी ज़्यादा शक्तिशाली और सर्वव्यापी है - कहानी में बार-बार आता है । वह नागरिकों से कुछ भी करवा लेने में समर्थ है। एक-एक कर सभी वर्गों और व्यवसायों के लोग सत्ताधीन होते जाते हैं। एक अतियथार्थवादी फ़ैंटेसी के ढांचे में अतिरंजित लगते विवरणों के समानांतर एक दूसरे देश का यथार्थ पूरी प्रामाणिकता से कहानी में दर्ज होता रहता है - ज़बरन यहूदियों को ले जाया जाना, प्रश्न पूछने पर गोली मार देना...इत्यादि। हिटलर के वफ़ादार कर्मचारियों की यूनिफ़ॉर्म पर एस.एस. लिखा होता था । समकाल में लोगों का सामान, रोज़गार तबाह करने के बाद जिसका नाम और काम चलना है वह है आर.आर.। उग्र पूंजीवाद और फ़ासीवाद के गठजोड़ में जो घटित होता दिख रहा है और आगे जो होने की आशंकाएं हैं, उन्हें पूरी सजीवता से मनोज रूपड़ा साकार करते हैं। एक घेरा है जिसमें नागरिक घिर गये हैं। एक फंदा है धीरे-धीरे कसता हुआ। प्रतिरोध और संघर्ष तो दूर लोग निराश और भयभीत भी ठीक से नहीं हो पा रहे हैं । जब दूसरे की गर्दन पर शिकंजा कसता है, वे तटस्थ रहते हैं। जैसे वह सब कहीं और, किसी अन्य प्रजाति के साथ हो रहा है, बल्कि शिकंजे कसने में सहयोगी होने में भी उन्हें गुरेज़ नहीं । जर्मनी में ‘कापो’ (यातना शिविरों में यहूदियों के बीच से ही चुने जाने वाले, उनके उत्पीड़न में सहयोगी) बिरादरी का हश्र अन्य यहूदियों जैसा ही हुआ। मुल्क दो भागों में तक़्सीम हो गया है। एक ओर वे हैं जिनसे इक़रारनामे पर दस्तख़त करवा लिये गये हैं । दूसरे वे जिन्हें ऐसी किसी रहस्यमयी कार्यवाही की भनक भी नहीं है। ये एक अन्य देश और समय में हुई सच्ची घटनाएं हैं, इसलिए इन विवरणों को अयथार्थ नहीं कह सकते, भले ही वे कितनी ही भयावह, अतिरंजित या अविश्वसनीय महसूस हों। लेखक धीरेंद्र अस्थाना और शायर निदा फ़ाज़ली कहानी में पात्रों के रूप में आते हैं । वे सत्ता की आयोजना का हिस्सा बनने से इनकार करते हैं लेकिन प्रतीकात्मक प्रतिरोध से अधिक कुछ नहीं कर पाते। एक यथार्थवादी शिल्प में पात्रों, घटनाओं, प्रसंगों, संवादों के ज़रिये कहानी विधा के अंतर्गत ये बातें कहना संभव न था। इसके लिए मोटे उपन्यास की दरकार होती। इक़रारनामा लेकर आने वाला बिल्ला मिख़ाइल बुल्गाकोव के प्रसिद्ध रूसी उपन्यास मास्टर और मार्गरीता से लिया गया है। कहानी पाठक की संवेदना की बनिस्बत उसकी समझ को अधिक संबोधित है। यह भावविह्वल नहीं करती, लेकिन सजग, चेतनायुक्त और बोधसंपन्न ज़रूर बनाती है । मुक़म्मल न होते हुए भी यह एक सशक्त, सक्षम, महत्त्वपूर्ण कहानी है।

पूंजी के वैश्विक दौर में भूमाफ़िया-कारपोरेट और सरकारों के चरित्र को अलग-अलग मान कर यथार्थ को नहीं समझा जा सकता। ‘सैकंड लाइफ़’ में प्रशांत की कारपोरेट कंपनी ‘मोर, मोर’ की हवस में स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन के लिए ज़मीन हड़पने के लिए सीमांत किसानों के खेतों की ओर रुख़ करती है । इस कुचक्र का दूसरा सिरा देश की जिस आबादी को अपनी गिरफ़्त में लेता है, वह हम कथाकार रणेंद्र की अन्य रचनाओं की तरह उनके सद्य:प्रकाशित कहानी-संग्रह, छप्पन छुरी बहत्तर पेंच की छः कहानियों में देख सकते हैं। पराधीन अभिव्यक्ति और बिकाऊ बुद्धिधर्मिता के इस दौर में सामने दिखती दुनिया और इस दुनिया से दूर, हाशिये के समुदायों के बीच अंधेरे का एक पूरा समुद्र पसरा हुआ है। दूर से आती उस पार की डोंगियां  दिख भी जायें तो उन्हें परखा जाता है इस पार के नज़रिये से ही।

रणेंद्र की कहानियां अंधेरे के उस पार के जीवन को उसकी समूची जीवंतता और ऊबड़-खाबड़पन में सजीव करती हैं। इनमें आदिवासी समुदायों के जीवन को गौरवान्वित नहीं किया गया है, न पर्यटक की निगाहों से देखा गया है, न बुद्धि की बनी बनायी नागरी परिपाटी से यथार्थ को ग्रहण किया गया है। इनका कथ्य इस दौर का यथार्थ है जब तथाकथित विकास का रोलर दूरस्थ इलाक़ों तक अपनी पहुंच बना चुका है। समझ और संवेदना दोनों ही स्तरों पर समृद्ध करने वाली ये कहानियां सीमांत इलाक़ों और वहां के जनों की दुर्दशा के पीछे कार्यरत शोषक-शक्तियों का तानाबाना खोल कर रख देती हैं। संरचनागत हिंसा के विविध तत्वों की अंत:संबद्धता को प्रामाणिकता के साथ तर्कतः प्रस्तुत करती हैं।  जिन किरदारों पर यह पूरा घटनाक्रम घटित होता है उनकी ज़िदगियों को वहीं की बोली-बानी में इतनी ख़ूबसूरती से उकेरा गया है कि पाठक अपने को बख़ूबी पात्रों के साथ जोड़ पाता है और उनके उतार-चढ़ाव के साथ उसकी संवेदना भी हिलोरें लेती हैं। अक्सर किरदारों के संघर्ष और सपनों की परिणति उनके हिंसा का निवाला बनने में होती है, जो पाठक के संवेदना तंत्र को झकझोर कर रख देता है। वह ख़ुद को इन सीमांत जनों के सरोकारों के साथ खड़ा पाता है।

सत्ता तंत्र का शिकार निर्दोष जन तरह-तरह से बनते हैं। बिना किसी प्रमाण के उन्हें नक्सलवादी क़रार दे कर जेल में ठूंसने या मारने के अस्त्र का प्रयोग प्रशासन अलग-अलग मक़सद से अकसर ही करता है। कभी अपने लालच को पूरा करने के लिए, (सरेंडर जतरा), कभी आवेग के तहत आकस्मिक ढंग से किये गये कृत्य को न्यायसंगत दिखाने या संसाधन हड़पने और बलि जैसे कुत्सित कृत्य के लिए । आदिवासियों के प्रति तथाकथित सभ्य लोगों और अधिकारियों का हेय दृष्टिकोण भी उनकी बदहाली के लिए ज़िम्मेदार है। ‘भूत बेचवा’ में इसी सब से पैसा कमा कर एक साधारण कर्मचारी त्रिपाठी का मेगा शो रूम खुल गया है। कहानी दिखाती है कि धर्म, सत्ता, अफ़सरशाही, पूंजीवाद, जातिवाद सबके दुष्चक्र में मूल निवासियों को कूट-पीस कर शोषकों ने कैसे चमकते-दमकते भवन और व्यवसाय खड़े कर लिये हैं। धार्मिक अंधविश्वासों के क्रूरतम रूप ‘बलि’ का पेट नक्सलवाद के नाम पर मौत के घाट उतारने की पुलिस तंत्र की कारगुज़ारी से भरता है। मेधावी, संवेदनशील, निर्दोष अनिल - जिसके सपनों की दुनिया उससे कुछ ही क़दमों की दूरी पर थी - और उसके दोस्त बहादुर बाखला की मोटर साईकिल सवारी से एक ऐसा लम्हा उनकी ज़िंदगी में आया कि उनके सारे सपने बिखर गये। अस्पताल में भर्ती बहादुर की गोमकाइन (पत्नी) के प्रसव के लिए वे पैसे का इंतज़ाम करने गांव गये थे। शहरी सभ्य (?) जनों से अलग लगती अपनी शक्लों का वे क्या करते? ट्रैफ़िक सिपाहियों को संदेह हो जाता है कि वे चोरी, उचक्कागिरी करके पैसे लाये होंगे या नक्सलियों के कूरियर होंगे। पैसे हड़पने के लालच के अलावा दूसरों को नीचा समझने वाले विकृत दृष्टिकोण के कारण भी उन दोनों के अस्पताल के काग़ज़ और यूनिवर्सिटी के प्रमाण पर शहरी कर्मचारी भरोसा नहीं करते। दोनों नक्सली क़रार दिये जा कर जेल के सलाख़ों के पीछे पहुंच जाते हैं। एक के बीबी-बच्चा मर जाते हैं, दूसरे से उसका सुनहरा भविष्य, उसका प्रेम सब छिन जाते हैं। सच्चाई पता चलने पर ऊपर के अधिकारी उन्हें छोड़ने के मक़सद से थाने पहुंचते हैं। मगर दोनों को बुरी तरह ज़ख़्मी हाल में पा कर छात्रों के बीच लोकप्रिय अनिल को छोड़ना ख़ुद अपने लिए ख़तरे से ख़ाली उन्हें नहीं लगता, अपने बचाव के लिए उनके नक्सली होने की कहानी गढ़ ली जाती है और 'पोटा' एक्ट में उनका चालान काट दिया जाता है। ऐसे मामलों में सिस्टम की सारी मशीनरी एकजुट होती है। ‘कारण-कार्य संबंध, काफ़िया-वज़न-नुक्त़ा सब चाक-चौबंद दुरस्त।’ (पृ. 42, भूत-बेचवा, छप्पन छुरी बहत्तर पेंच, रणेंद्र) इस बीच अनिल की प्रेमिका और बहादुर की बहन रंजीता को धूर्त, चालाक, हाई स्कूल फ़ेल मनोज रूंडा से शादी करनी पड़ती है। हाई स्कूल की शिक्षिका के पद पर रंजीता का चयन हुआ था । नियुक्ति के लिए उसे मूल प्रमाण पत्र और थाने का क्लीयरेंस सर्टिफ़िकेट जमा करवाना था। उसे नक्सली की बहन होने के नाते नौकरी गंवाने और शादी की शर्त पर क्लीयरेंस सर्टिफ़िकेट लेने में से एक चुनना था। भाई-प्रेमी जेल में होने से उपजी विषम परिस्थिति में नौकरी उसके लिए ज़रूरी थी सो करनी ही थी। बाद में बलि के भयावह दृश्य, चंद स्वार्थी, धूर्त आदिवासियों की प्रशासन से सांठ-गांठ आदि के कारण उपजे संकट, एनकाउंटर आदि कई कुचक्रों में मासूमों की ज़िदगानियों को लथेड़ते हुए कहानी ख़त्म होती है सारे घटनाक्रम से अनजान रंजीता को माध्यम बना कर अनिल के मारे जाने से। प्रचंड हिंसा को अंजाम देने के बाद भी ख़ुद को शुद्ध ब्राह्मण समझने का त्रिपाठी का श्रेष्ठताबोध खंडित नहीं होता। वह संगम में डुबकी लगाकर पाप धो आता है।

सरेंडर जतरा’ में नौकरी देने के बहाने सीधे-सादे स्नेहिल मिजाज़ के मंगल के खेत और पैसे पुलिस वाले ले लेते हैं। उसे बताया जाता है कि उसके एवज़ में उसे बस ख़ुद को नक्सली कह कर सरेंडर ही तो करना है। थोड़े दिन में उन्हें छोड़ दिया जायेगा और सरकारी नौकरी मिल जायेगी। इसके लिए दोनों को मनाने के लिए आंगनवाणी में कार्यरत स्त्री भी उनका साथ देती है। मगर पुलिस हिरासत से मंगल की देह भर लौटती है। नायिका का भाई तो कभी लौटता ही नहीं। राज्य की सीआईडी ने इस झूठे सरेंडर की पूरी ख़बर दे दी थी फिर भी लालच के बुलडोज़र ने सच्चाई को रौंद दिया और हज़ारों हंसते-खेलते परिवार तबाह हुए।

आदिवासियों के विकास के लिए बनी योजनाएं शायद ही कभी सही ढंग से लागू होती हों। काग़ज़ों में दिखता विकास किन आदिवासियों का होता होगा, यह इन कहानियों से समझा जा सकता है। लालच में अंधे, मक्कार आदिवासी जो शासन-तंत्र के साथ मिलकर बाक़ी मूल-निवासियों का शोषण करते हैं, उन्हीं को प्रशासन शह देता है। ‘बाबा, कौए और काली रात’ में भी शासन के छल-प्रपंच का पर्दाफ़ाश करने वाले तीन भाई जैसे दोस्तों की और ढीपाकुजाम गांव की ख़ुशहाल ज़िंदगी में काले बादल मंडराने लगते हैं, जब उनमें से एक, सुरेश की महत्त्वाकांक्षाएं उड़ान लेने लगती हैं । सत्ता और पद की दौड़ में अपनी प्रेमिका की आत्महत्या का कारण भी वह बनता है। उसके शासनतंत्र की मज़बूत कड़ी बनने के साथ-साथ उस गांव की बदहाली बढ़ती जाती है। ख़ास तौर से उसके दोनों मित्रों की ज़िंदगी बरबाद हो जाती है। एक मज़दूर के रूप में गांव से भागकर इलाज की कमी से दम तोड़ता है। गांव के हित में काम करने वाले दूसरे दोस्त स्वाभिमानी बाबा का मनरेगा के तहत मिलने वाला मज़दूरी का पैसा रोक लिया जाता है और तरह-तरह से उसे त्रास दिया जाता है। सत्ता का हिस्सा होने के ग़ुरूर में चूर सुरेश और उसके सहयोगी बाबा के स्वाभिमान को टूटते देखना चाहते हैं और बाबा की ज़िंदगी उनकी इस अमानवीय इच्छा की भेंट चढ़ जाती है। उसके मनोविज्ञान से खेलते हुए ऐसा प्रपंच उसके चारों ओर खड़ा किया जाता है कि उसकी सायास हत्या आत्महत्या लगे। अंधविश्वासी गांव वालों के लिए इसे ‘डायन’ का काम मानने का विकल्प है। अंधविश्वास का फ़ायदा उठाते हुए डायन वाला झूठ काफ़ी समय से वहां फैलाया जा रहा था। प्रशासन का मक़सद था योजनाओं की धांधली पर टोकने वाले का ख़ात्मा, बाबा के रिश्तेदारों का मक़सद था बाबा की ज़मीन हड़पना क्योंकि उनका बेटा नहीं था और वे नहीं चाहते थे कि बेटी को पैतृक संपत्ति मिले। राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति के समीकरण के हिसाब से सुरेश जब किसी और से शादी कर रहा था, तब उसकी प्रेमिका और बच्चे को उन्होंने अपने घर में पनाह दी थी। सुरेश अपने मित्र से इस बात से ख़फ़ा था।

अन्य कहानियों सहित इसमें भी आदिवासी समुदाय के भीतर व्याप्त अंधविश्वास, लालच-लोभ, अज्ञान भी रणेंद्र ने दिखाया है कि कैसे प्रशासन इसका फ़ायदा उठाकर उन्हें बाक़ियों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करता है। औरतों के डायन होने की कहानियां बना-बना कर फैलायी जाती हैं। उनकी जिजीविषा और संघर्ष शक्ति को उभारने के साथ समुदाय के भीतर से आने वाले अवरोधों को भी कहानीकार रेखांकित करता है कि गौरव बोध और ताक़त अर्जित करने के लिए ही नहीं अत्याचार करने के लिए भी मिथक गढ़े जाते हैं, क़िस्से रचे जाते हैं।

छप्पन छुरी बहत्तर पेंच’ और ‘दरवाजे में भिंची उंगली’ में स्त्री की दुर्दशा का सजीव चित्रण है। शासनसत्ता और पितृसत्ता की परस्पर संबद्धता से यथार्थ भयावहतर होता जाता है। ताक़तवर व्यक्ति अपने धनबल, पदबल, सामाजिक पदक्रम से स्त्री के लिए जीने की राह नहीं छोड़ता। पहली कहानी में जीवन से भरी एक सुंदर, स्वस्थ स्त्री गांव के दबंग पुरुष के बलात्कार, अत्याचार सह-सह कर बिल्कुल निचुड़ जाती है। उसकी मौत के बाद ही दोबारा अपने ज़िंदा होने का उसे एहसास होता है। सवाल उठता है कि प्रशासन और क़ानून ऐसे में कहां चले जाते हैं? वे सिर्फ़ नक्सली क़रार देने और संपत्ति हड़पने के ही काम आते हैं?

  ‘हमन को होशियारी’ में एक कलाकार है जो अपनी शर्तों पर जीता है, उसका कलाप्रेमी मन समाज के सांचे में नहीं ढलता। ज़िंदगी के मौलिक रास्ते बनाता है और अपने मूल्यों पर अडिग रहता है। शुरू में उसे सामाजिक अनुमोदन नहीं मिलता, पर जब बाद में उपभोक्तावादी अर्थतंत्र का शिकंजा उनके क़स्बे के जीवन को कसता जाता है तब वह जिस तरह अपनी कला से प्रतिरोध का नवीन रास्ता निकालता है, उस पर सब उसके साथ होते जाते हैं। कहानी का अंत इन पंक्तियों के साथ होता है, 'दोपहर में जब भोला का एक बड़े कैनवास के साथ निकले तो पीछे पीछे पूरा मौहल्ला, पूरा दियरा, कुम्हरा टोली, गैरेज मिस्त्री, सारे कलाकार-कवि बुद्धिजीवी, फिर पूरा शहर चल दिया। यहां तक कि मास्टर साहब और दुल्हिन भी जुलूस में शामिल हो गयी। जूलूस बढ़ता जा रहा है। न जाने क्या अंजाम हो!'  (पृ. 111, 'हमन को होशियारी', छप्पन छुरी बहत्तर पेंच, रणेंद्र)

स्थानाभाव के कारण सभी कहानियों पर पूरी चर्चा यहां संभव नहीं। मगर सभी कहानियां अलग मिजाज़ की महत्वपूर्ण कहानियां हैं। तीन कहानियां मृत्यु और असीम दुख के साथ पाठक को छोड़ जाती हैं। तीन की परिणति ऐसे बिंदु पर होती है जहां से प्रतिरोध, संघर्ष, आशा की किरणें फूटती दिखती हैं। कहन की महारत हासिल है रणेंद्र को। स्थानीय शब्दों का प्रयोग हिंदी को नवीन सौंदर्य से समृद्ध करता है। इन शब्दों की अर्थछवियां कहानी के प्रभाव में भी वृद्धि करती हैं। इन कहानियों की एक अन्य बड़ी उपलब्धि यह है कि वे सधी हुई व्यंग्यात्मक भाषा में विकास भगवान की सृष्टि के प्रपंच को तार-तार करते हुए सत्ता-पूंजीवाद-सामंतवाद की क्रूर गुटबंदी को उघाड़ती हैं – फिर भी विकराल यथार्थ के बीच जीवन को अर्थ देने वाले, संजोकर रखने लायक़ तत्व पूरी मुलामियत से बचे रहते हैं । कहानी की अंडरटोन में प्रेम के कोमल राग की गूंज एहसास कराती रहती है कि ऐसे उदात्त प्रेमी और इनका प्रेम बचा रहे तो आदमियत का अंकुर किसी भी चट्टान को फोड़ कर उग आयेगा। इधर की कहानियों में इतने मनमोहक प्रेम प्रसंग कम ही मिले हैं।

मनोज रूपड़ा ऊंचाई पर दूरबीन रख कर समूचे युग का जायज़ा लेते हुए दिखते हैं। रणेंद्र के यहां ‘संरचनागत हिंसा’ या ‘विकास के आतंकवाद’ को अपने ऊपर झेलने वाले चेहरों की इतनी साफ़ लकीरें मौजूद हैं कि पाठक न केवल उन्हें पहचान पाता है बल्कि उनके लिए प्रेम से भर उठता है। युवा कहानीकार उमाशंकर चौधरी के कहानी संग्रह, दिल्ली में नींद की चार लंबी कहानियों में यथार्थ के दवाब को व्यक्ति के स्नायुओं पर पड़ने वाले असर के माध्यम से दिखाया गया है । कहानी की टोन प्रस्तावित करती नज़र आती है कि व्यक्ति-मन पर पड़ी खरोंचों का मूल वर्तमान के जटिल यथार्थ में कहीं है।

संग्रह की शीर्षक कहानी, ‘दिल्ली की नींद’ के मुख्य पात्र चारुदत्त सुनानी की ज़िंदगी नागरी जीवन की गुंजलक में फंसे और उसका दिमाग़ सनक जाये, घटनाक्रम को यह दिशा मिलती है उसके पिता शाक्यमुनि सुनानी के उड़ीसा की अपनी ख़ुशनुमा ज़िंदगी छोड़ कर महानगर दिल्ली में कूच कर जाने से। उमाशंकर की कहानियों में अक्सर गांव, क़स्बों के जीवन का नॉस्टेलजिया मिलता है। वहां के सुखविभोर जीवन के बाद गाड़ियों, बहुमंज़िला इमारतों, रौशनियों, विज्ञापनों से लदे-फदे शहर में आकर किरदार अजीब सी ग़फ़लत में पड़ कर सनक जाता है। लंबी कहानी, ‘नरम घास, चिड़िया और नींद में मछलियां’ में फुच्चु बाबू इलाज के लिए बेटे-बहू के पास आते हैं और कैंसरग्रस्त होने पर उन्हें वहीं ठहर जाना पड़ता है । वे गांव में प्रतिष्ठित मास्टर और होम्योपैथ हैं, पत्नी विद्योत्तमा के साथ भरापूरा गृहस्थ जीवन जी चुके हैं। गांव भर उनसे प्रेम और सहयोग पाता और देता है। शीर्षक से ही प्रकृति और चिड़िया, मछलियों के प्रति उनका प्रेम स्पष्ट है। ऐसे फ़ुच्चु बाबू शहर की गाड़ी, लिफ़्ट, गहमागहमी, अकेलेपन से, रणेंद्र की भाषा में कहें तो ‘भौंचक-भकुवा’ गये, उन्हें जैसे ‘ठक्क-मुक्की’ लग गयी। जैसे-जैसे उनकी वापसी टलती रही उनका मानसिक तवाज़ुन बिगड़ता रहा। वे कभी फ़र्श को तालाब समझ मछलियों से बातें करते, कभी सड़क में दौड़ती गाड़ियों को चिड़ियां समझ कर बिस्किट खिलाते। कई दिनों से बंद एक बालकनी में पंछियों के पानी के लिए रखा गया सूखा कसोरा उन्हें बेचैन करता। अंत में अपार्टमेंट के नीचे बने स्विमिंग पूल से अंजुली भर कर बालकनी में बैठी चिड़िया की ओर पानी फेंकने की हास्यास्पद कोशिश करते हुए बेहोश हो कर वे गिर जाते हैं। हर किसी के साथ स्वस्थ रिश्ता रखने वाले सुलझे दिमाग़ के फुच्चु बाबू अपने पोते-पोतियों, बेटे-बहू के साथ कोई रिश्ता नहीं जोड़ पाये? स्वस्थ बोध का मनुष्य अपने परिवेश में कुछ ज़िंदा रच ही लेता है और बदली हुई स्थितियों से संगति बिठाता है। जिसका बेटा सालों से शहर में रह रहा हो, क्या शहरी जीवन से उसकी ज़रा भी वाक़फ़ियत न थी? लोगों का इलाज करने वाले, पढ़े लिखे मास्टर को ‘सैनिटाइज़र’ चौंकाता है, ‘बायोप्सी’ शब्द अजनबी लगता है। इन सब विवरणों से लगता है जैसे वे किसी दूसरे ग्रह / युग से आये हों।

32 पृष्ठों की कहानी, ‘कहीं कुछ हुआ है, इसकी खबर किसी को भी न थी’ के मुख्य पात्र वासुकी बाबू की पोस्टिंग 20 साल से ‘भीतरगांव’ नामक गांव में है। वे वहां व्यवस्थित और भरापूरा सुंदर जीवन जीते हैं, उनकी आत्मा इस गांव में धंस सी गयी है। बड़े बाबू के पद पर तबादला होने के कारण उन्हें कानपुर जाना पड़ता है तो शहर की सजधज देख कर फुच्चु की तरह वे भी ‘भकुवा’ जाते हैं। उनके लिए मुख्य समस्या है जवान होती बच्चियों के लिए सुरक्षित आवास की तलाश क्योंकि शहर और शहरवासियों पर तो भरोसा किया जा सकता नहीं। किसी तरह महीने भर की जद्दोजहद के बाद घर किराये पर लेते हैं। यहां भी बतौर स्टेटस सिम्बल ख़रीदी गयी उनकी कार चोरी होती और फिर लौटायी जाती है और धन्यवाद के तौर पर मल्टीप्लेक्स सिनेमा की चार टिकटें परिवार के लिए रखी हुई मिलती हैं। कहानी में जिस तरह उनका चरित्र बुना गया है, उसे देखते हुए यह विश्वसनीय नहीं लगता कि वे बेटी की शादी के लिए गहने और जीवन भर की पूंजी से भरा घर छोड़ कर रात का शो देखने के लिए सहर्ष तत्पर हो जायें। दरअसल इसी पूंजी को हड़पने के लिए चोर ने कार लौटाने की तरकीब इस्तेमाल की थी। इस बार पर्ची में लिखा मिलता है कि यह चमक-दमक, यह भव्यता सब छद्म है। सब धोखा है।

  21 वीं सदी में शहर से चंद कि.मी. दूर रहने वाले वासुकी का पात्र इतना मासूम है कि उसने वर्तमान युग की धड़कन सुनी नहीं है, उसके प्रति सनक की हद तक पहुंचे संशय से भरा हुआ है। दूसरी ओर, वह एक गुमनाम शख़्स की बात बच्चे की तरह मान लेता है और अंत में उसी के शब्दों से वासुकी के शक का सही होना पुष्ट भी होता है। वैसे वे एनडीटीवी में रवीश कुमार और अभिज्ञान प्रकाश को देखते सुनते हैं। गांव के दिनों से ही ‘जूम’ और ‘चैनल वी’ पसंद करने वाली, सी.डी. प्लेयर पर नयी मूवीज़ देखने वाली बेटियां शहर की पढ़ाई के बावजूद अपने परिवेश के प्रति क़तई जागरूक नहीं। घर की पूरी कमान वासुकी के हाथ में है, बाक़ी पात्र सिर्फ़ अनुसरण करते हैं। मगर बड़ी बेटी के इस सुझाव पर, कि इससे लड़के वालों पर रौब पड़ता है, कार ख़रीदी जाती है। उसे पिता की पूरी जमा-पूंजी दहेज में लुटा कर वर जुटाये जाने से कोई आपत्ति नहीं है। उसका जीवन-साथी खोजने की प्रक्रिया में उसके गुणों और पढ़ाई आदि का कोई जिक्र नहीं, सिर्फ़ दहेज की रक़म पर बात होती है।

  भीषण मजबूरी में ही उमाशंकर चौधरी के पात्र गांव का सुखमय जीवन छोड़ कर शहर जाने को राज़ी होते हैं और वहां सब लुटा बैठते हैं। मगर समुद्र और मछलियों से बेतहाशा प्यार करने वाले शाक्यमुनि सुनामी के जीवन में ऐसी कोई भीषण परिस्थिति न थी। सब अच्छा चल रहा था। अचानक उसके दिमाग़ को यह अजीब ख़याल डस लेता है कि एक दिन समुद्र का पानी ख़त्म हो जायेगा और मछलियां मर जायेंगी। यह पागलपन बेहद बढ़ जाने पर वह सिर्फ़ इसलिए दिल्ली में बस गया क्योंकि वहां समुद्र नहीं है इसलिए ख़त्म होने का डर भी नहीं रहेगा। शाक्यमुनि के दिमाग़ के गड़बड़झाले के पीछे कोई दुष्कर परिस्थिति या परिवेशगत कारण नहीं । वह एक अजीब और अबूझ तरीक़े से अपने आप ही फिर गया। उसके दिल्ली बसने पर उसका परिवार अथाह उठापटक झेलता है। लिहाजा चारुदत्त के मानसिक दबाव के लिए तो भरपूर ठोस कारण मौजूद ही हैं। उसकी पढ़ाई, भाषा, समुद्र, विकास के रास्ते सब छूट जाते हैं। बड़े होने पर वह एक कबाड़ जैसी दुकान पर चोट खायी हुई गाड़ियों के ज़ख़्म निकालने का काम करता है। उसकी शादी ख़रीद कर लायी हुई ग़रीब लड़की मृगावती से होती है। मां द्वारा बचाये गये और गैरेज से मिले पैसों से अपना कहने भर को एक छोटे से आवास का वह बंदोबस्त करता है। किसी तरह ज़िंदगी घिसट रही थी। हालांकि एक डरपोक असामान्य बच्चे, चुप्पा बीबी और जवान होती लड़कियों को बस्ती में होने वाली दिक्क़तों से उसके मन में रगड़ पड़ती, लेकिन उसका मन मान लेता कि दिल्ली में हवा, पानी, भोजन सब है पर सब कुछ बहुत कम। मॉल के ख़ातिर बस्ती ख़ाली करवाये जाने से कहानी में मोड़ आता है। अब उसे अपने छोटे से आवास के एवज़ में इतनी दूर फ़्लैट दिया जाता है कि कबाड़ के बीच गैराज में ही उसे रातें बितानी पड़ती हैं। रात भर नींद न आने और शहर की चकाचौंध और गहमागहमी के बीच टहलते रहने का सिलसिला यहां से शुरू होता है। दिमाग़ में कीड़े पड़ने की बीमारी भी उसे हो जाती है। अचानक कुछ पलों के लिए वह सुन्न पड़ने लगता है। पीड़ाओं के इस घटाघोप में घिरने पर रात घर लौटने की संभावना ख़त्म होती जाती है। कहानी के अंत में उस पर सनक सवार हो जाती है कि वह गैराज से अपने घर तक सुरंग खोदेगा। पात्रों के दिमाग़ की ख़लल उन्हें वास्तविक समस्याओं के असंभव समाधान खोजने की ओर ठेलती है और पाठकों को?

सामूहिक स्नानघर के झीने परदे की आड़ में नहाती बेटियों को गली के शोहदों द्वारा ताड़ना हो या असहनीय बदबू और गंदगी की दिक्क़तें, ये वहां के बाशिंदों की साझा समस्याएं होंगी। मिलकर आपस में हल निकलने की कोई सूरत हो भी सकती थी, लेकिन इस कहानी में उसकी तलाश नहीं है। निर्धन की तो ताक़त ही सामुदायिकता है। इतने कम संसाधनों में नितांत अकेले वह भला कैसे रह सकता है? घर में तीन जवान लोग चुपचाप मूक टी.वी. के सामने बैठकर उम्र में बड़े हुए जा रहे हैं। बड़ी बेटी का स्कूल पैर में फोड़ा होने के कारण और बाद में छोटी का दूरस्थ जगह पर शिफ़्ट करने के कारण छूट जाता है। पत्नी तो पहले से ही ना के बराबर बोलने वाली अनूठी स्त्री है, बेटे को शोर से दौरे पड़ते हैं इसलिए घर म्यूट मोड में ही रहता है। इतने सारे विशिष्ट पात्रों का एक ही घर में होना और वह भी इस वर्ग में, सहज नहीं लगता। विपरीत परिस्थितियों से जूझने के लिए पत्नी और बेटियां कुछ भी काम नहीं करतीं। यहां तक कि शिकायत तक नहीं। इंडिया और भारत के अंतराल या उग्र पूंजीवाद के असर में विकराल होती स्थितियों के बारे में पाठक कैसे सोचे? हालांकि ये ठोस स्थितियां ही उनकी ग़रीबी और दूरदराज बसने का कारण रही होंगी। कहानी ऐसे यथार्थ के बोध की दिशा में नहीं ले जाती। मगर कहानीकार की वर्णन क्षमता लाजवाब है। पूरा लोकेल मन की आंखों के समक्ष सजीव हो जाता है। इमानुएल कांट ने कहा था कि मनुष्य प्रकृति में हस्तक्षेप कर सकता है, अपने परिवेश को बदल सकता है। ज्ञान की दुनिया में यह बड़ा शिफ़्ट था। इन कहानियों के पात्र इस बोध के पहले के समय के प्रतीत होते हैं। उन्हें एक सुरंग बना कर वह कालावधि पार करके समकाल में आने की ज़रूरत है। शायद कहानी में आयी सुरंग इसी का प्रतीक हो।

कम्पनी राजेश्वर सिंह का दुख’ में राजेश्वर शहर आये बिना गांव में ही सनक जाता है । शानदार, ठाटदार ज़िंदगी जीने के बाद उम्र के उत्तरार्द्ध में इस दयनीय अवस्था के पीछे कारण है पुत्र पैदा ना होना। कहानी का वाचक इनका भतीजा है। अपने विशाल रुतबे के कारण कम्पनी का दर्जा पाये राजेश्वर के बड़े भाई यानी वाचक के पिता नर्मदेश्वर जन्मना अपंग हैं, इस कारण उन्हें घर में कभी बड़े बेटे, बड़े भाई, ख़ानदान के वारिस का सम्मान नहीं मिला बल्कि दादा कामेश्वर तब तक लज्जित ही महसूस करते रहे जब तक उनका स्वस्थ हृष्टपुष्ट दूसरा बेटा राजेश्वर पैदा नहीं हो गया। बाद में पिता शहर जाकर पढ़ाई पूरी करके प्रोफ़ेसर भी हो जाते हैं तब भी घर में यथोचित सम्मान नहीं मिलता। उनके तीन बेटे होते हैं तब भी नहीं। कालांतर में जब चाचा की छह बेटियां होती हैं और बेटा नहीं, तब वे शर्मिंदा महसूस करने लगते हैं और अपनी पत्नी के साथ दुर्व्यवहार भी करते हैं। शहर से आयी जागरूक जेठानी ही अपनी देवरानी का साथ देती है। देहाती जीवन को घोंटने वाली सामंती जकड़नों की अमानवीयता इस कहानी में साकार होती है। स्त्री-मुक्ति के सूत्र बहनापे में होने का संकेत भी कहानी देती है।

  अन्य कहानियों में गांव की मोहमयी याद है, मगर लिंग और जाति की विषमता, अंधविश्वास और अज्ञान के अंधेरे का ज़िक्र नदारद है। अपंग बेटे के निरादर की समस्या का निराकरण उसके तीन पुत्रों के होने से होता है। इक्कीसवीं सदी की कहानी में क्या यह सामंती मूल्य समाधान की तरह चित्रित किया जा सकता है? अपने अंत समय में राजेश्वर गिड़गिड़ा कर बड़े भाई से उसका बेटा मांगता है ताकि उसका अंतिम संस्कार पारंपरिक ढंग से हो सके। चाचा की बेटियां बड़ी हुईं, संस्कारी हुईं और अपने ताऊजी द्वारा ब्याही गयीं। उनका ‘परिचय इतना, इतिहास यही....’ क्या आज के समय में संभव है? कहानी में प्रतिगामी मूल्यों का सबल प्रतिकार नहीं दिखता। है भी तो इतना क्षीण है कि समाधान के पश्चमुखी प्रभाव को दरकाने में उसे सक्षम नहीं माना जा सकता।

  इन कहानियों का शिल्प समकालीन है लेकिन कथ्य साठ सत्तर साल पहले का प्रतीत होता है। लंबी कहन का ढांचा समकालीन कहानी का लक्षण है। लेकिन कथ्य या विषयवस्तु छोटे कलेवर में अट सकते हों तो कहानी के पारंपरिक आकार में इसे लिखने में क्या हर्ज़ है? इन कहानियों को फ़ैंटेसी या अतियथार्थवाद के ख़ाने में डालना भी संभव नहीं। ऐसी कहानियों में जो आंतरिक तर्कसंगति होती है, वह इन कहानियों में क़ायम नहीं रहती, बल्कि संघर्षों से विमुख पात्र विद्रूप तक पहुंच जाते हैं और पाठक में भी प्रतिरोध की कोई चेतना नहीं जगाते।

उमाशंकर चौधरी के पास कहन और वर्णन की अद्भुत क्षमता है। जीवंत ब्यौरों और प्रभावी शीर्षकों से गुज़रते हुए लगते रहता है कि कहानीकार को कहानी कहना बख़ूबी आता है। लंबी कहानी का ढांचा, जिसमें एक सजग निगाह से अगणित सूत्रों को एक साथ थामना होता है, इस समय के जटिल और बहुआयामी यथार्थ को उद्घाटित करने की बेचैनी से उपजा है। लंबी कहानी कहानीकार की साफ़ दृष्टि की लय में लिपटी न हो तो बिखर जाती है। उमाशंकर चौधरी की कहानियां उत्कृष्ट वर्णनों और चित्रणों की कोलाज सरीखी हैं, जिनके चंद हिस्से बहुत आकर्षक और चमकदार बन पड़े हैं। दार्शनिक जुमले और सूत्रवाक्य कहानी में आते रहते हैं, मसलन, 'मोहब्बत करना सीखो। हम जो चोट यहां देता है वह ज़ख़्म भरने के लिए देता है न कि ज़ख़्म देने के लिए।...तुम बोलो कला के बिना बचेगी दुनिया।' (पृ. 72-73, 'दिल्ली में नींद', उमा शंकर चौधरी) इसी वाक्य को सुनकर सुनानी कार के ज़ख़्म निकालने वाला कुशल कारीगर बनता है। सार यह कि टुकड़ों-टुकड़ों में कई चीज़ें प्रभावित करती हैं। मगर ये वर्णन, ब्यौरे, और सूत्रवाक्य संश्लेषित होकर समग्रतः एक मूल्यवान अनुभव या विचार नहीं बनते। इसलिए कहानियां अपने समूचेपन में पाठक की चेतना को समृद्ध नहीं कर पातीं।

मो. 8383029438

पुस्तक संदर्भ :

1. टावर ऑफ़ साइलेंस : मनोज रूपड़ा, आधार प्रकाशन, 2020

2. छप्पन छुरी बहत्तर पेंच : रणेंद्र, आधार प्रकाशन, 2020

3. दिल्ली में नींद : उमाशंकर चौधरी, राजकमल प्रकाशन, 2020

 

 

 

 

 

 

 

  

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