किसान आंदोलन : समसामयिक परिदृश्य -3

                 दो नज़्में

गौहर रज़ा

 

1. किसान

तुम किसानों को सड़कों पे ले आये हो

अब ये सैलाब हैं

और सैलाब तिनकों से रुकते नहीं

 

ये जो सड़कों पे हैं

ख़ुदकशी का चलन छोड़ कर आये हैं

बेड़ियां पाओं की तोड़ कर आये हैं

सोंधी ख़ुशबू की सब ने क़सम खायी है

और खेतों से वादा किया है कि अब

जीत होगी तभी लौट कर आयेंगे

 

अब जो आ ही गये हैं तो यह भी सुनो

झूठे वादों से ये टलने वाले नहीं

 

तुम से पहले भी जाबिर कई आये थे

तुम से पहले भी शातिर कई आये थे

तुम से पहले भी ताजिर कई आये थे

तुम से पहले भी रहज़न कई आये थे

 

जिनकी कोशिश रही

सारे खेतों का कुंदन, बिना दाम के

अपने आक़ाओं के नाम गिरवी रखें

उन की क़िस्मत में भी हार ही हार थी

और तुम्हारा मुक़द्दर भी बस हार है

 

तुम जो गद्दी पे बैठे, ख़ुदा बन गये

तुम ने सोचा के तुम आज भगवान हो

तुमको किस ने दिया था ये हक़,

ख़ून से सबकी क़िस्मत लिखो, और लिखते रहो

 

गर ज़मीं पर ख़ुदा है, कहीं भी  कोई

तो वो दहक़ान है,

है वही देवता, वो ही भगवान है

 

और वही देवता,

अपने खेतों के मंदिर की दहलीज़ को छोड़ कर

आज सड़कों पे है

सर--कफ़, अपने हाथों में परचम लिये

सारी तहज़ीब--इंसान का वारिस है जो

आज सड़कों पे है

 

हाकिमो! जान लो, तानाशाहो सुनो!

अपनी क़िस्मत लिखेगा वो सड़कों पे अब

काले क़ानून का जो कफ़न लाये हैं

धज्जियां उसकी बिखरी हैं चारों तरफ़

इन्हीं टुकड़ों को रंग कर धनक रंग में

आने वाले ज़माने का इतिहास भी

शाहराहों पे ही अब लिखा जायेगा।

 

तुम किसानों को सड़कों पे ले आये हो

अब ये सैलाब हैं

और सैलाब तिनकों से रुकते नहीं

 

2. हदबंदी

 घर में चैन से सोने वालो!

संघर्षों की पथरीली राहों पर चलना

बिल्कुल भी आसान नहीं है

ये दहक़ां जो सड़कों पर हैं

इन के लिए भी

खेतों को, खलियानों को 

या बाग़ों को, चौपालों  को

छोड़ के अपने हक़ की ख़ातिर

दिल्ली की सरहद तक आना

बिल्कुल भी आसान नहीं था

 

काश कि ऐसा होता, दिल्ली

तुमने बांहें खोली होतीं

इनको गले लगाया होता

ज़ख्मों पर कुछ मरहम रखते

इनके दुःख को साझा करते

और कुछ अपने ज़ख़्म दिखाते

इनसे कहानी, इनकी सुनते

अपनी भी रूदाद सुनाते

 

काश कि ऐसा होता, दिल्ली

तुम इनको मेहमान समझते

तुम इनको भगवान समझते

बांहें खोल के स्वागत करते

 

गर ये नहीं तो इतना करते

तुम इनको इंसान समझते

कांटों के ये जाल न बुनते

पत्थर की दीवार न चुनते

कीलों के बिस्तर न बिछाते

उन पर तुम इल्ज़ाम न धरते

तरह तरह के नाम न धरते

 

काश कि ऐसा होता हमदम,

संघर्षों के इन गीतों में

एक नग़मा दिल्ली का होता

काश कि आज़ादी की पहली

जंग की यादें ताज़ा होतीं

काश कि तुम को याद ये रहता

मेरठ के जब बाग़ी पहुंचे

तुमने क्या सम्मान किया था

                   दहक़ानों के उन बेटों पर

जान को भी क़ुर्बान किया था

 

काश कभी वो वक़्त न आये

जब ये दहक़ां लौट के जायें

गांव की हदबंदी कर लें

कांटों  के कुछ जाल बिछायें

कीलों के बिस्तर फैलायें

और तुम देश के राज सिंहासन पर बैठे तनहा रह जाओ

मो. 9810358179

 


 

 

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