कोरोना काल : तबाही के मंज़र-4


 महामारी में दलित
गुलाब सिंह

 सभ्यता के इतिहास में महामारियां आती रही हैं और जाती रही हैं। हम महामारियों के इतिहास में जाकर उस दौर का उल्लेख नहीं करेंगे। वह इतिहासकारों का विषय है। सांख्यिकीय आंकड़े दिखा कर बेरोज़गारी कितनी बढ़ी या शेयर बाज़ार कितना उठा-गिरा यह बताने का काम अर्थशास्त्री का है। आसमान और हवा कितनी साफ़ हुई, नदियों का जल कितना निर्मल हुआ, बर्फ़ से ढके पर्वत मैदानी शहरों से दिखने लगे, जंगली जानवर इंसानों के आवासीय क्षेत्रों की सीमाओं में आ गये, कुत्तों और बंदरों को खाने की भारी क़िल्लत होने लगी, यह पर्यावरणविद और पशु प्रेमी जानें। राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक समीकरण कैसे बदल रहे हैं और ये सब आने वाले समय में किस प्रकार का स्वरूप ग्रहण करेंगे, यह राजनीतिशास्त्र का विषय है। कोरोना के उपचार के लिए दवा बनी या बनेगी और उस दवा से कौन कितना पैसा कमायेगा फ़िलहाल इस बारे में सोचना भी हमारा विषय नहीं है। यद्यपि मनुष्य होने के नाते ये सभी विषय जितना एक को प्रभावित करेंगे उतना ही दूसरे के जीवन पर भी असर डालेंगे। ये सारे मसले स्पष्ट तौर पर इंसानी जीवन से गहरे तौर पर संबंधित है जिनसे बचा नहीं जा सकता। किंतु, इस सबके साथ-साथ दलित की पहचान रखने वाले समूह, जिन्हें परंपरा से अछूत  कहा गया और जिनसे छुआछूत बरती गयी, इस वृहद समूह को कोरोना जैसी महामारी एक अलग रूप में भी प्रभावित करेगी। इसकी शिनाख़्त किये बिना इस दौर में उत्पीड़ितों के उत्पीड़न की मुक्कमिल तस्वीर सामने आने  से रह जायेगी। इसलिए इस अहम मुद्दे पर विचार करना एक आवश्यक कार्यभार है।
कोरोना एक वायरस से फैलने वाली बीमारी है। यह एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को छूने से फैलती है। कोरोना ग्रसित व्यक्ति स्वयं, उसके द्वारा छुए गये सामान या स्थान के संपर्क में जब अन्य व्यक्ति आते हैं तो यह अत्यन्त सूक्ष्म वायरस उसके हाथों और फिर नाक, कान या मुंह के ज़रिये श्वास नली में प्रवेश कर जाता है। इसके नतीजे में उस व्यक्ति या व्यक्तियों में इस रोग का संक्रमण हो जाता है। इसके बचाव के लिए चिकित्सा जगत में सोशल-डिस्टेंसिंग का व्यवहार करने की तजवीज़ की जाती है। यह सामाजिक दूरी नहीं वस्तुतः शारीरिक दूरी होनी चाहिए। किंतु, छुआछूत की सामाजिक बीमारी के प्रति सचेत लोगों के द्वारा इसकी मनाही के बावजूद यह सोशल-डिस्टेंसिंग ही कही जा रही है जो परंपरागत अस्पृश्यता के शिकार वर्गों के प्रति छुआछात की गलाजत को फिर से ताज़ा करा रही है। वही घृणा अपमान का घूंट जिसे दलित जातियां सदियों से पीने को मजबूर थीं  उन्हें आज फिर परोसा जा रहा है। बोतल में बंद जिन्न एक बार फिर बोतल से निकल हमारे सामने आ खड़ा हुआ है। इससे सत्ता की जातीय भेदभाव के प्रति ग़ैरसंजीदगी का पता चलता है। इतना ही नहीं, वह स्वयं जातिवादी समूहों की भावनाओं को अभिव्यक्त करता है। निम्न कही जाने वाली जातियों पर की जाने वाली वारदातों के संदर्भ में स्वयं प्रधानमंत्री ने एक बार कहा था कि इसे एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति पर किये गये अपराध की तरह देखो, जातीय अपराध के रूप में नहीं। इससे उनमें जातीय उत्पीड़न की उपस्थिति से साफ़ इनकार करने का भाव छिपा है और फिर उसे दूर करके लोकतंत्र और समता के मूल्यों को स्थापित करना तो दूर की बात। यह क़ाबिले ग़ौर है कि उसी संविधान की शपथ लेकर प्रधानमंत्री और उनका मंत्रिमंडल पद संभालता है जिसके उपबंधों का उल्लंघन अक्सर वे करते रहते हैं।
कृषि में मशीनों के आ जाने से उस पर निर्भरता कम हुई। इसके परिणाम स्वरूप गांव से बड़ी संख्या में पलायन करके लोग महानगरों या अपेक्षाकृत उन्नत राज्यों के छोटे-बड़े शहरों में काम की तलाश में आये। इन नगरों में स्थित छोटे-मंझोले-मध्यम आकार की औद्योगिक इकाइयों से लेकर बड़े उद्योगों में भी अपना श्रम बेचने को उपलब्ध हुए। यहां ये तुलनात्मक रूप से किंचित बेहतर आमदनी पाने में कामयाब हुए। इन श्रमिकों का शहरों में आने वाला एक बड़ा तबक़ा भूमिहीन दलित समुदायों से था। उज़रती मज़दूर के रूप में रूपांतरित होने वाला यह बड़ा समुदाय सामंती शोषण से मुक्त होकर एक हद तक आत्मनिर्भर श्रमिक बन सका था। इस प्रकार वह जागरूक मज़दूर की अवस्था को प्राप्त हो मज़दूर यूनियनों का हिस्सा बन परिवर्तन की दिशा में अग्रसर था। यद्यपि यहां भी बड़े बड़े अनियोजित बेतरतीब आवासीय परिसरों में मूलभूत जनसुविधाओं से वंचित रहकर जैसे-तैसे जीवन बसर कर रहा था। कोरोना पर क़ाबू पाने वाली  राज्यसत्ता की अकुशल कोशिश ने एक झटके में उनसे वे काम-धंधे छीन लिये जिन्हें करते हुए किसी तरह अपनी ज़िंदगी की गाड़ी को खींच रहे थे। इस परिवेश में उन्हें गांव के दमघोटू सामंती वातावरण से एक हद तक सुकून तो था। कोरोना से बचाव के कुप्रबंधन से यह दलित मज़दूर फिर से उस अमानवीय स्थिति में जाकर फंसने को बाध्य हुआ है। इसी सामंती जकड़न से मुक्त हो गांव के दक्ख़िनी टोलों की सीमा से आज़ाद था।
दिल्ली सहित हिंदुस्तान के तमाम नगरों और महानगरों की संभ्रांत आवासीय कालोनियों को छोड़ कर शेष अनियोजित आवासीय क्षेत्रों में रहने वाले तबक़े का एक बड़ा हिस्सा दलित कही जाने वाली जातियों से आता है। इस संदर्भ में हम यों ही उन्हें ज़बरन जातीय पहचान नहीं दे रहे हैं, बल्कि अपने स्वरूप में ही यह तबक़ा लगभग उन्हीं कार्यों को करने की स्थितियों में फंसा हुआ है जो परंपरा से उसके पुरखे करते थे। इसलिए पुरखों द्वारा झेले जाने वाले अपमान और भेदभाव बराबर इनके हिस्से की चीज़ बने हुए हैं। यह अतीत में अपने भूस्वामी, सेठ जी और पंडितजी की सेवा करते हुए किसी तरह जीवनयापन करता था। अपने सामाजिक स्तर के अनुसार अपना जीवन खींचते हुए, मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी, ‘सदगति’ के किरदार दुखी की तरह सदगति को प्राप्त होता है। दुखी की यह मृत्यु, दरअसल, पीड़ादायी श्रम की चक्की में पिसते दलित की दारुण दशा का मर्मभेदी चित्रण है। यही वर्ग, दुखी जिसका प्रतिनिधि पात्र है, नगरीकरण की प्रक्रिया में आकर अनियोजित आवासीय बस्तियों में मूलभूत नागरिक सुविधाओं से महरूम रहकर उन्हीं कार्यों में जकड़ा है जिन्हें उसके ग्राम्य पुरखे करने की स्थितियों में मौजूद रहते हुए त्रासद मृत्यु का शिकार होते थे। आज इन्हीं में से असंख्य ‘दुखी’ गटर की सफ़ाई करने की प्रक्रिया में ‘सद्गति’ को प्राप्त होते हैं।  
आज के कोरोना काल में ये फ़्रंटलाइन वारियर की क़तार में तो किसी तरह सम्मिलित हैं जो जान जोख़िम में डालकर अपने ‘आध्यात्मिक सुख’ को हासिल करते हैं। जी हां, इसी फ़्रेज़ का प्रयोग किया था माननीय प्रधानमंत्री ने अपनी पुस्तक में! यानी घृणित और जोख़िमभरे कार्य से मुक्त करने की बजाय उन्हें महिमामंडित करके उन्हीं में फंसे रहने का पक्का बंदोबस्त करना। प्रधानमंत्री द्वारा बनारस में कुंभ के समय सफ़ाईकर्मियों के पैर धोने का ड्रामा भी उसी समझ के तहत किया गया था। आज भी ये सफ़ाई सैनिक इन कार्यों को देने वाले कार्य को पूरी तन्मयता से करने में व्यस्त हैं और बदस्तूर सदगति को प्राप्त होते रहते हैं। किंतु, किसी अमित राणा या अन्य उच्चजातीय सरकारी कर्मी की तरह वीरगति को प्राप्त होकर एक करोड़ की राशि अपने पीछे छूटे परिवार को दिलवाने वाली सूची में शामिल होने से वंचित रहते हैं। इस प्रकार समता के तमाम उसूलों को धता बताते हुए उन्हें जातिवाद की भेंट चढ़ा दिया जाता है। सत्ता के वर्गीय और जातिवादी चरित्र की यह एक बानगी भर है।
एक अन्य प्रसंग जिसका ज़िक्र करना ज़रूरी है। कोरंटाइन केंद्रों में या रात्रि आवास केंद्रों में तथाकथित उच्चजाति के मज़दूरों में दलित मज़दूरों के प्रति अस्पृश्यता के व्यवहार की अनेक घटनाएं सामने आयीं। यह वर्ग के अंदर पड़ी जाति की फांस ही है जो मुसीबत के समय भी उनमें एकजुटता क़ायम करने में बाधा उत्पन्न करती है। इसके साथ ही सामूहिक भोजनालयों में काम करने वाले स्त्री या पुरुष की दलित पृष्ठभूमि के चलते खाना खाने से इंकार कर देने की घटनाएं भी देखने में आयीं। यह घटना हमें ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी, ‘ख़ानाबदोश’ के ब्राह्मण मज़दूर महेश की याद ताज़ा करा जाती है जो ‘मानो’ के हाथ की रोटी खाने से इसलिए मना कर देता है क्योंकि ‘मानो’ दलित है जबकि महेश भी भट्टा मालिक के शोषण का उतना ही शिकार है जितना कि मानो और सुखिया दलित!
उक्त घटनाएं अख़बारों और टेलिविज़न के ज़रिये प्रकाश में आने वाली कुछ घटनाओं के आधार पर कह रहे हैं। इससे यह तथ्य उभरकर सामने आता है कि भारतीय समाज में मज़दूर के अंदर जाति विभेद किस क़दर व्याप्त है!  इसी प्रकार न जाने कितने ही प्रसंगों में दलित कहे जाने वाले नागरिकों को स्वयं अपनी नागरिकता संदेहास्पद लगती होगी। जातिभेद की उपस्थिति से इंकार करने वाले भद्रजन के लिए भी ये आंख खोल देने वाली घटनाएं हैं।
यातायात के सार्वजनिक साधनों के बंद होने पर दलित पृष्ठभूमि के मज़दूरों ने कितनी मुसीबतों का सामना करना पड़ा होगा इस का अनुमान उस तथ्य से लगाया जा सकता है कि एक पंद्रह वर्षीया बालिका अपने घायल पिता को साइकिल पर बैठा कर हरियाणा से बिहार तक की लंबी यात्रा करती है। यात्रा पूरी होने पर समाचारों और सोशल मीडिया में वायरल होने पर यह घटना प्रशंसनीय हो जाती है जबकि जातीय पृष्ठभूमि की वजह से भी उसने और उसके पिता को किन-किन जातिगत भेदभावों का सामना करना पड़ा होगा!
दलित मज़दूर शहरी संभ्रांत को अनिवार्य सेवाएं देकर बदले में बेहद मामूली कमाई पाता रहा। ये सेवाएं पाकर ही यह भद्र जन अपने ऐशो आराम का साजोसामान और सेवाएं इनके सस्ते श्रम की बदौलत पाता रहा। और जब तब उन्हें उनकी मानवीय गरिमा को ठेस भी पहुंचाता रहा। वर्षों से इन बेशक़ीमती सेवाओं को सस्ते मूल्य में देकर स्वयं किसी तरह गुज़र-बसर करने वाले इस श्रमजीवी तबक़े को कोरोना के चलते काम पर न आने की हिदायत दी गयी। प्रशासन की ओर से सभ्य और शिष्ट मालिक वर्ग को यह औपचारिक निवेदन भी किया गया कि वे अपने इन सेवकों या अधीन काम करने वालों को तालाबंदी के दौरान वेतन देते रहें। अपने वर्ग चरित्र के अनुसार मानवता का झूठा ढोल पीटने वाले इस वर्ग ने उनको उनके हाल पर छोड़ दिया। किसी तरह क्षुधा राहत केंद्रों की अनुकंपा पर जीवन यापन किया। लेकिन खाने के अलावा अन्य ज़रूरतों को पूरा होते न देख इस तबक़े ने अपने उसी गांव की राह पकड़ी जिसकी जकड़न से आज़ाद होकर  शहर आया था। फिर शुरू हुआ परेशानियों, ज़लालत और उत्पीड़न का अंतहीन सिलसिला। इसे पार करने वाली असंख्य तस्वीरें द्रवित करने वाली हैं जिन्हें शब्दों में बांधना मुश्किल ही नहीं, इस विषय पर लिखने वाले मुझ जैसे व्यक्ति के लिए नामुमकिन है।
मो0 9354001242

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