वैचारिक चर्चा-4

भारत के राजनीतिक यथार्थ के संकट

वैभव सिंह

 यह आलेख भारत के राजनीतिक यथार्थ का विचारोत्तेजक विश्लेषण करने वाली हिंदी व अंग्रेज़ी की तीन प्रमुख पुस्तकों की समीक्षा पर आधारित है। ये पुस्तकें अभय कुमार दुबे की हिंदी में रचित पुस्तक, हिंदू एकता बनाम ज्ञान की राजनीति, पैरी एंडरसन की पुस्तक, द इंडियन आइडियोलॉजी और एंडरसन की पुस्तक के विवादास्पद तर्कों के जवाब के रूप में प्रकाशित पुस्तक, द इंडियन आइडियोलॉजीः थ्री रिस्पांसेज़ टु पैरी एंडरसन हैं। अंतिम पुस्तक में पार्थ चटर्जी, सुदीप्तो कविराज तथा निवेदिता मेनन के लेख शामिल हैं। अब आगे हम सिलसिलेवार ढंग से इन पुस्तकों पर चर्चा करेंगे।

अभय कुमार दुबे की पुस्तक, हिंदू एकता बनाम ज्ञान की राजनीति हिंदुत्व के व्यापक उभार के बौद्धिक-राजनीतिक स्रोतों की पडताल करती है। यह पुस्तक, लेखक के अनुसार, विमर्श-नवीसी (डिस्कोर्स मैपिंग) की शैली में लिखे निबंधों का संग्रह है जिसमें संघ विरोधी राजनीति की सीमाओं को उजागर करने पर बल है। पुस्तक हिंदुत्व की विभिन्न बुराइयों तथा समस्याओं का विवरण देने के स्थान पर विभिन्न क़िस्म की अस्मितावादी राजनीति, वामपंथी विचारधारा तथा कांग्रेसी नीतियों की सघन शल्यक्रिया करती है। इन सभी को लेखक ने एक सामूहिक नाम प्रदान किया है वह है-मध्यमार्गी विमर्श। यह मध्यमार्गी विमर्श वामपंथी, दक्षिणपंथी, सेकुलरवादी, आंबेडकरवादी, बहुलतावादी, समतावादी, बाज़ारवादी-विकासवादी विचारों से मिलकर तैयार हुआ है। केवल हिंदुत्व तथा माओवाद इस मध्यमार्गी विमर्श से बाहर हैं और लेखक के अनुसार यह मध्यमार्गी विमर्श और उसके रुझान कुल मिलाकर वामपंथी हैं।

अभय कुमार दुबे ने इस किताब को पॉलिमिकल प्रोजेक्ट की तरह लिखा है जिसमें धर्मनिरपेक्षता, बहुलतावाद, दलित राजनीति जैसी मान्यताओं तथा उनसे जुड़े प्रदत्त विश्वासों पर पुनर्विचार करने का प्रयास किया गया है। उनसे विमर्श के धरातल पर अपना कील-कांटा दुरुस्त करने की अपील की गयी है। इन बौद्धिक उद्यमों से गुज़रते हुए लेखक ने अपने इस भय को भी व्यक्त किया है कि- ज्ञान की विवादात्मक राजनीति के तहत मुझ पर हिंदुत्ववादी परियोजना के एक नये प्रच्छन्न समर्थक होने का आरोप लगाया जा सकता है। अगर ऐसा हुआ तो मैं इसे सार्वजनिक जीवन में सेकुलरवाद और उदारतावाद की निरंतर पराजय के कारण पैदा हुई निराशा का परिणाम मानकर नज़रअंदाज़ कर दूंगा।

अभयकुमार दुबे ने लगभग आस्था का रूप ग्रहण कर चुकी राजनीतिक अवधारणाओं को खंगाला है तथा उनकी कमियों-सीमाओं में वर्तमान हिंदुत्व की सियासत की सफलता के सूत्र ढूंढ़े हैं। लोकतंत्र पर हावी होते बहुसंख्यकवाद के प्रति उनकी चिंता पूरी पुस्तक में व्याप्त है और वे मानते हैं कि इस बहुसंख्यकवाद का एक संरचनागत आधार भारतीय समाज में हमेशा से मौजूद रहा है और कथित मध्यमार्गी विमर्श (वामपंथी, सेकुलर, उदारतावादी) ने इसे नज़रअंदाज़ करने की भूल की। रजनी कोठारी जैसे मेधावी विचारक जो भारतीय राजनीति में अल्पसंख्यकवाद बनाम बहुसंख्यकवाद के विभाजन के ख़िलाफ़ थे, वे भी 1990 के बाद जातियों के राजनीतिकरण के मुद्दे पर शोध करने की दिशा में मुड़ गये और उन्होंने चुनावी प्रक्रियाओं से पैदा होते सांप्रदायिक बहुसंख्यकवाद के बारे में बात करना लगभग बंद कर दिया। आज़ादी के पश्चात कई तरह से कांग्रेस स्वयं एक बहुसंख्यकवाद का निजी राजनीतिक संस्करण निर्मित कर रही थी। विभिन्न प्रांतों (पंजाब में अकाली दल, कश्मीर में पीडीपी-नेशनल कान्फ्रेंस, उत्तरप्रदेश में बसपा का बहुजनवाद) ने बहुसंख्यकवाद की राजनीति को ही व्यापक स्वीकृति दिलाने में न केवल बड़ी भूमिका अदा की बल्कि संघ की बहुसंख्यकवाद की राजनीति को एक ज़मीनी आधार मुहैया कराया।

किताब में अभय कुमार दुबे ने मोटे तौर पर छह प्रमुख राजनीतिक आस्थाओं को प्रश्नांकित करने पर बल दिया है जिसके आधार पर बहुसंख्यकवाद से संघर्ष की रणनीति तैयार की जाती है। पर वह रणनीति अब समय के साथ आत्मघाती तथा यथार्थ की अवज्ञा करने वाली साबित होने लगी है। पहली आस्था यह है कि भारत में हिंदू भले बहुसंख्यक हों, पर भारत एक सामासिक संस्कृति है और मैत्रीपूर्ण सामासिकता विवादों से परे है। दूसरी आस्था यह है कि भारत का बहुलतावाद हिंदुत्ववादी एकता को परास्त कर देगा। तीसरी आस्था यह कि भारतीय सेकुलरवाद का काम अल्पसंख्यकों की रक्षा करने से जुड़ा है। चौथी आस्था यह कि दुष्ट ब्राह्मणवाद से कमज़ोर जातियों का संघर्ष अंततः लोकतंत्र की रक्षा करने में समर्थ होगा। पांचवी आस्था यह कि भारतीय संविधान सभी अतिवादी विचारधाराओं (साम्यवाद, जातिवादी उग्रता, हिंदुत्व) को मध्यमार्ग पर चलने के लिए मज़बूर कर देगा। छठी आस्था यह कि सेकुलर, उदार, वामपंथी चिंतन श्रेष्ठ है तथा हिंदुत्ववादी बौद्धिकता हेय व हीन है और इसीलिए उनके बारे में पढ़ने-समझने की ज़रूरत भी नहीं है। पूरी पुस्तक में इन्हीं छह राजनीतिक विश्वासों की सघन पड़ताल की गयी है और यह दावा किया गया है कि इन आस्थाओं का ईमानदारी से सामना करके ही हिंदुत्ववादी राजनीति की बनावट व सफलता के इतिहास को समझा जा सकता है। हिंदुत्ववादी राजनीति के आंतरिक विकासक्रम व उहापोहों को समझने के लिए भी इन आस्थाओं पर गंभीर पुनर्विचार करना होगा। तभी हम उस पॉलिटिकल करेक्टनेस के जाल से अपने को आज़ाद कर सकेंगे जिसमें विचारधारात्मक आग्रह तो बहुत तीव्र हैं पर यथार्थ की रोशनी में यथार्थ के मूल्यांकन के बौद्धिक प्रयास विरल हैं। आज़ादी के बाद भारतीय इतिहास, समाज व राजनीति के बारे में निर्मित इन आस्थाओं का उल्लेख करने के बाद लेखक ने पुस्तक में (जिसे वह निबंध कहता है) आज़ादी से पहले की हिंदुत्ववादी एकता, चुनाव से जन्म लेते बहुसंख्यकवाद, भारतीय बहुलतावाद के बारे में विमर्शी आस्थाओं के संकट, ब्राह्मणवाद विरोधी व कांग्रेसी धर्मनिरपेक्षता की समस्या, सामासिक संस्कृति के अंतर्विरोध तथा हिंदू वोट बैंक तैयार करने की राजनीतिक प्रौद्योगिकी का विस्तार से विवेचन किया है। पुस्तक हिंदुत्व की राजनीतिक शक्ति के विस्तार का श्रेय हिंदुत्ववादी विचारकों-नेताओं को प्रदान करने के स्थान उसका ऐतिहासिक-समाजशास्त्रीय मूल्यांकन इस प्रकार करती है कि हिंदुत्व की विजय बहुत स्वाभाविक तथा स्वीकार्य प्रतीत होने लगती है। ऐसा लगता है जैसे भारतीय इतिहास लगातार सांप्रदायिक-बहुसंख्यवादी राजनीति की कामयाबी के लिए उफन रहा था और हिंदुत्व की राजनीति के लिए हिंदुत्व कम भारतीय धर्मनिरपेक्षता व चुनावी गणनशास्त्र ज़िम्मेदार है।

पर लेखक के द्वारा उठाये प्रश्नों में यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है कि संघ विरोधियों ने संघ परिवार-भाजपा को देखने की दृष्टि को सत्तर के दशक में ही क्यों जड़ीभूत कर रखा है! संघ ने एक सीमा तक बहुलतावाद को आत्मसात कर लिया है और वह बहुलतावाद को हिंदू एकता के मार्ग में बाधक नहीं समझता है। इसी प्रकार वह आरक्षण, कमज़ोर जातियों की सत्ता में हिस्सेदारी, शिया मुसलमानों को जोड़ने, संविधान के प्रति निष्ठावान होने जैसे कई रणनीतिक प्रयासों को सफलतापूर्वक अंजाम दे चुका है, जबकि संघविरोधी संघ के बारे में सत्तर के दशक की पुरानी समझ के आधार पर उसकी आलोचना करते हैं। इस प्रकार संघ से संघर्ष करने के लिए वक्त़ी फ़ैशन के दबाव में कई राजनीतिक अवधारणाओं का सहारा लिया जाता रहा जिससे संघ के विस्तार को रोकना असंभव था। केवल चुनावी जय-पराजय पर संघ के हिंदुत्व की जय-पराजय नहीं निर्भर करती है। कई चुनावों को हारने के बावजूद संघ-भाजपा का जनाधार बढ़ता रहा है और इसलिए संघ की राजनीति की काट केवल चुनाव जीतने में नहीं बल्कि दीर्घकालीन वैचारिक अभियान में निहित है।

पुस्तक में औपनिवेशिक व उत्तर औपनिवेशिक काल में सरकारी प्रयासों के द्वारा हिंदूपन के बोध को पुख़्ता करने के प्रयासों का विस्तृत विवेचन किया है। लेखक ने यह स्थापना रखी है कि मध्ययुगीन स्थितियों तथा औपनिवेशिक बौद्धिक अभियानों -- दोनों से हिंदू आत्मछवि को लगातार गढ़े जाने की प्रक्रिया को बल मिला है तथा विभिन्न जनगणना संबंधी प्रयासों, औपनिवेशिक क़ानूनों तथा आज़ादी के बाद के क़ानूनों ने भी एकजुट हिंदू समुदाय की कल्पना को बल प्रदान किया है। भारत के चौथे वायसराय लार्ड मेयो ने वर्ष 1871 में जब पहली जनगणना करायी तभी लोगों को न केवल आधिकारिक स्तर पर चतुर्वर्ण व्यवस्था में विभाजित किया गया बल्कि बिखरे हुए, असंबद्ध तथा परस्पर संघर्षरत हिंदू समुदाय को पहली बार आधिकारिक तौर पर बोध कराया कि वे हिंदू हैं। जनगणना और हिंदूपन के बोध में संबंध बना। जनगणना के माध्यम से कई निम्नजातियों ने उच्चजाति ख़ासकर क्षत्रिय होने का दावा किया ताकि वे ब्रिटिश फ़ौज में युवकों को रोज़गार दिला सकें और जनगणना में दर्ज जानकारी के आधार पर द्विज होने का गौरव प्राप्त कर सकें। आज़ादी के आंदोलन के दौरान भी हिंदू एकता व हिंदूपन के बोध को हवा मिली। 1937-47 के दौरान कांग्रेस-मुस्लिम लीग के संबंधों में जो गिरावट व टकराव दर्ज हुए, उसके पीछे कांग्रेस के एक पार्टीवाद को ज़िम्मेदार माना जा सकता है जिसने लीग को मुसलमानों में यह भ्रम फैलाने का अवसर दिया कि जब पराधीन भारत में हिंदू कांग्रेस किसी प्रकार का समझौता नहीं कर रही है तो आज़ाद भारत में तो मुसलमानों को वह हाशिये पर डाल देगी। आगे चलकर हिंदू अस्मिता का बोध स्वतंत्र भारत के क़ानूनों से भी निर्मित हुआ। हिंदुओं के लिए बने क़ानूनों जैसे हिंदू विवाह क़ानून (1955) और हिंदू उत्तराधिकार क़ानून (1956)  ने हिंदुओं के पारंपरिक विवाह व दूसरे सामाजिक क़ानूनों की विविधता को समाप्त कर दिया और उन्हें एक हिंदू समुदाय की तरह चित्रित किया जिसमें बौद्ध,जैन, सिख को भी सम्मिलित कर लिया। इस प्रकार लेखक के अनुसार, सावरकर की पुण्यभूमि व पितृभूमि को भारतीयता का आधार बनाने की थीसिस को केंद्रीय क़ानूनों ने अपना लिया। समाजशास्त्री दीपंकर गुप्त के हवाले से लेखक ने बताया है कि जिसे हम हिंदू बहुमत मानते हैं वह इन्हीं क़ानूनों की देन है और उदारतावादी लोकतंत्र ने इसकी रचना की है। इनके बनने के बाद अदालतों में सारे मुक़दमे व विवाद हिंदू धर्मसमुदाय की स्मृति-परंपरा व उसकी विशेषताओं के केंद्र में रखकर हिंदुत्व के एजेंडे को मज़बूत करते रहे हैं।

पर हिंदू एकजुटता को उत्तर-औपनिवेशिक क़ानूनों में ढूंढ़ने की अपनी सीमाएं भी हैं। पहली बात तो यह है कि ये क़ानून किसी भी सभ्य, आधुनिक देश की पहचान हैं जिसमें शास्त्र-परंपरा के स्थान पर लिखित क़ानूनी संहिताओं का अस्तित्व संभव होता है। चूंकि वे नये क़ानून किसी धार्मिक समुदाय के सभी सदस्यों पर लागू होते हैं इसलिए उनके सिर्फ़ उसी के आधार पर बहुसंख्यकवाद पैदा होने के ख़तरे को देखना विवेक कम हड़बडी अधिक है। भारत में धर्मनिरपेक्षता तभी संभव हो सकती थी जब यहां की बहुसंख्यक हिंदू आबादी को शास्त्र व धार्मिक परंपरा के स्थान पर आधुनिक क़ानूनों के दायरे में लाया जाता। इन्हीं क़ानूनों से स्त्रियों, निम्नजातियों को अधिकार प्राप्त हुए हैं और इन्हीं के बल पर हिंदू आत्मपहचान बल्कि एक धर्मनिरपेक्ष देश के आधुनिक नागरिक की पहचान अधिक पुख़्ता हुई है। बहुसंख्यकवाद प्रगतिशील क़ानूनों के माध्यम से बने धार्मिक एकताबोध पर नहीं निर्भर करता है बल्कि वह हिंदू संस्कृति के कुछ तत्त्वों जैसे उपासना की तरीक़े, मिथकों के राजनीतिकरण, प्रतिशोधमूलक मानसिकता, संख्याबल के महत्त्व को समझने और तर्क-विवेकवाद से घृणा करने की बुनियाद पर टिका होता है। मध्ययुग के कई राजा-सामंत इन प्रगतिशील क़ानूनों के अस्तित्व में आने से पहले अपने राजकाज के संचालन में हिंदू गौरव की वैचारिकी का इस्तेमाल करते रहे हैं। इसी प्रकार लेखक ने आज़ाद भारत की नेहरू सरकार को जिस प्रकार से हिंदूपन के बोध से ग्रस्त बताया है वह भी जिरहतलब स्थापना है। यह धर्मनिरपेक्ष राज्य-राष्ट्र की स्थापना में नेहरू के योगदान के महत्त्व को अनदेखा करती है जिसमें नेहरू ने हिंदुओं को धर्मनिरपेक्षता के बोध से परिचित कराने का व्यवस्थित शासकीय-राजकीय प्रयास किया था। उसे केवल यह कहकर ख़ारिज नहीं किया जा सकता कि नेहरू एक हिंदू की तरह हिंदू संस्थाओं व हिंदू सांस्कृतिक जीवन को बदलने का प्रयास कर रहे थे। नेहरू की प्राथमिकता में जीवन के हर क्षेत्र का धर्मनिरपेक्षीकरण करना शामिल था और इसके लिए यह आवश्यक था कि देश के आम नागरिक को धार्मिक प्रथा-परंपरा के अनुसार जीवन जीने की बाध्यता से मुक्ति दिलायी जाये। नेहरू की धर्मनिरपेक्षता में सर्वधर्मसमभाव ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि का प्रचार प्रसार अभिन्न हिस्सा था और इस दिशा में आधुनिक क़ानून संहिताओं को बल प्रदान कर उन्होंने कई निर्णायक क़दम उठाये थे। तिस पर अगर कोई यह तर्क दे कि नेहरू हिंदू होने का लाभ उठाकर हिंदू धार्मिक जीवन को बदल रहे थे तो इस तर्क से बहस करना बेकार है क्योंकि यह तत्कालीन स्थितियों में समाजवाद, गांधीवाद तथा पश्चिमी आधुनिकता के प्रभावों से मिलकर बने उच्चशिक्षित मानस के उदारतावादी चिंतन को भी वर्तमान हिंदुत्व के उभार के लिए दंडित करना चाहता है।

अभय कुमार दुबे की इस पुस्तक में कई स्थानों पर चुनावी जोड़तोड़ व सोशल इंजीनियरिंग की राजनीति के माध्यम से बहुसंख्यकवादी हिंदुत्व को रोकने के प्रयासों की विफलता को भी उजागर किया गया है। उत्तर भारत में ख़ासतौर पर यूपी व बिहार में बसपा के जाटववाद, सपा के यादववाद की वास्तविकता को उन्होंने पहचानने पर ज़ोर दिया है और कहा है कि ये दल किसी प्रकार के बहुजन की राजनीति का प्रतिनिधित्व नहीं करते, बल्कि ख़ास जाति-समूहों की नुमाइंदगी पर टिके हैं। ग़ैर-यादव व ग़ैर जाटव राजनीति पर ध्यान देकर भाजपा ने अतिपिछड़ों व अतिदलितों को अपने पक्ष में करने में सफलता हासिल की है। उसने कई छोटी जातिवादी पार्टियों से गठबंधन कर यह संदेश प्रसारित कर दिया है भाजपा केवल ब्राह्मण-बनिया की पार्टी न होकर वह उन सभी कमज़ोर जातियों के लिए राजनीतिक विकल्प है जिन्हें सपा-बसपा-राजद आदि में सम्मानजनक स्थान नहीं मिला। इसी प्रकार सेकुलर दलों ने मुस्लिमों के वोट को जादुई ताक़त की तरह देखा जिसे अपने पक्ष में कर वे चुनाव जीतने को लेकर आत्मविश्वास से भर जाते थे। पर लेखक ने विभिन्न चुनावशास्त्रियों व राजनीतिवैज्ञानिकों के शोधों के हवाले से दिखाया है कि इस क़िस्म की सेकुलरवादी राजनीति ने उच्चजाति के हिंदुओं को इस बात के लिए प्रोत्साहित करना बंद कर दिया कि उन्हें भी सेकुलर राजनीति में हिस्सा लेना चाहिए। सेकुलर राजनीति अपनी हिंदूविरोधी छवि तैयार किये जाने के ख़तरों से बेपरवाह बनी रही। उधर भाजपा ने ग़ैर यादव-ग़ैर जाटव जातियों को अपने साथ जोड़कर तथा सवर्णों का शक्तिशाली वोटबैंक तैयार कर चुनावों में मुस्लिम वोट का पासा पलटने वाली ताक़त को छिन्नभिन्न कर दिया। लेखक के शब्दों में, जिस तरह राजनीति की व्यावहारिक ज़मीन पर सेकुलरिज़्म का कूट अर्थ मुस्लिमिज़्म (सुन्नीइज़्म) हो गया, उसी तरह सामाजिक न्याय का कूट-अर्थ यादविज़्म और आंबेडकरवाद का कूट अर्थ जाटवविज़्म हो गया।

अपनी पूरी संरचना में बहुत विचारोत्तेजक बहसों से भरी यह पुस्तक इसी प्रश्न पर आकर समाप्त होती है कि दलित, दलित चेतना, ब्राह्मणवाद, आंबेडकर-फुले-पेरियार विचारधारा, फ़ासीवाद, सामाजिक न्याय और बहुजनवाद जैसी श्रेणियों की हमारी लोकतांत्रिक राजनीति के लिए कोई उपयोगिता बची है? लोकतंत्र को हिंदुत्व के आघात से बचाने के लिए लेखक यह अपील करता है कि हमें उन ढांचागत परिवर्तनों को समझना होगा जिनके बल पर हिंदुत्व की पूरी राजनीति तेज़ी से फैलती चली गयी। हालांकि यह पुस्तक हिंदुत्व का विरोध करने वाले राजनीतिक विचारों की सीमा को प्रकट करती है, लेकिन कोई ठोस वैचारिक समाधान प्रस्तावित करने में इसकी भी रुचि नहीं है। हम अधिक से अधिक लेखक के कुछ विश्लेषणों से कुछ नतीजे अवश्य निकाल सकते हैं। जैसे यह कि सामाजिक न्याय की राजनीति केवल जाटव या यादव जैसी जातियों तक सीमित नहीं रहनी चाहिए और उसे बहुसंख्यक पिछड़ी जातियों को स्वीकार करना होगा। सेकुलर राजनीति को मुस्लिम वोट पर ज़्यादा ज़ोर देने के स्थान पर तथाकथित सांप्रदायिक ढंग का चुनावी आचरण करने वाले हिंदू वोटों को फिर से अपने पक्ष में करना होगा। या बहुलतावाद के आधार पर हिंदुओं की राजनीतिक एकजुटता को असंभव समझने के भ्रम से हमें मुक्त होना पड़ेगा और भ्रम-मुक्त होने से ही हिंदुत्व के वैचारिक क़िले को तोड़ा जा सकता है। अल्पसंख्यकवाद से जुड़ी पॉलिटिकल करेक्टनेस से मुक्ति भी ज़रूरी है ताकि इस सच को पहचाना जा सके कि अल्पसंख्यकों में भी शिया मुस्लिमों व सिखों का बड़ा हिस्सा बहुसंख्यकवाद के साथ सहयोग कर रहा है। कुल मिलाकर यह पुस्तक हिंदुत्व की राजनीति के बारे में हमारी समझ को गहरा बनाने के लिए हिंदुत्वविरोधी राजनीति की व्यवहारिक व वैचारिक समस्याओं का बारीक़ अध्ययन प्रस्तुत करती है। यह सेकुलर-उदार राजनीति को आत्मघाती भ्रमों से घिरा हुआ दिखाती है और उसके भ्रम-निवारण का बौद्धिक प्रयास करती है।

अब हम भिन्न निष्कर्ष प्रदान करने वाली और भिन्न विषयवस्तु पर केंद्रित एक अन्य पुस्तक पर चर्चा कर सकते हैं जिसकी लेखन शैली इस पुस्तक से मिलती है। यह है वर्ष 2012 में प्रकाशित ब्रिटिश मार्क्सवादी विचारक पैरी एंडरसन की पुस्तक, द इंडियन आइडियोलॉजी। इसमें भी भारत की वर्तमान दुर्दशा के कारणों की समीक्षा के लिए गांधी के राजनीतिक प्रयोगों, नेहरू की विफलताओं व विभाजन के अमानवीय फ़ैसले का सख़्त विश्लेषण किया गया है। हिंदू भारत के निर्माण की प्रक्रिया को समझने के लिए इतिहास को जांचा-परखा गया है। वर्तमान में भारत में विभिन्न क़िस्म के राजनीतिक-सामाजिक संकट इतने गहरा रहे हैं कि जो विदेशी राजनीति-वैज्ञानिक भारत का अध्ययन कर रहे हैं वे भारत की स्वातंत्र्योत्तर लोकतांत्रिक यात्रा की सफलता के दावों को चुनौती दे रहे हैं। स्वतंत्र भारत में लोकतंत्र के कामयाब होने के दावों को ब्रिटिश विचारधारा और हिंदुत्ववादी दृष्टिकोण, दोनों से चुनौती मिल रही है। जिन पुस्तकों के माध्यम से ये काम किये जाते रहे हैं, उनकी न तो पहले कोई कमी थी और न आज कोई कमी है। पेरी एंडरसन ने अपनी पुस्तक, द इंडियन आइडियोलॉजी के माध्यम से भी यही काम किया है।

एंडरसन प्रतिष्ठित पत्रिका, न्यू लेफ्ट़ रिव्यू के संपादक रहे हैं। अपनी पुस्तक में उन्होंने भारत में लोकतंत्र की स्थिरता, बहुसांस्कृतिक एकता-सहिष्णुता और भारतीय राज-व्यवस्था की निष्पक्ष धर्मनिरपेक्षता को द आइडिया आफ इंडिया के केंद्रीय विचार की तरह प्रस्तुत करने के दावों की सीमाएं प्रस्तुत करने का काम करते-करते उन्हें लगभग ख़ारिज कर दिया है। उन्होंने लोकतंत्र, सहिष्णुता, धर्मनिरपेक्षता को मुख्यधारा का विमर्श यानी इंडियन आइडियोलॉजी माना और इसकी सीमाएं प्रकट करने के उद्देश्य से अपनी पुस्तक लिखी है। यह पुस्तक भारत के बारे में पांच बड़ी स्थापनाओं को प्रस्तुत करने का दावा करती है। पहली, भारत की एकता-अखंडता का किसी छह हज़ार वर्ष के कालखंड में फैला होना एक भ्रम है। दूसरा, गांधी के द्वारा राष्ट्रीय आंदोलन में धर्म का प्रयोग विनाशकारी साबित हुआ। तीसरा, भारत के विभाजन के लिए अंग्रेज़ नहीं बल्कि कांग्रेसी नेतृत्व ज़िम्मेदार था। चौथा, स्वतंत्रता के बाद नेहरू के प्रशंसकों के दावों के विपरीत नेहरू की विरासत बहुत संदिग्ध व अंतर्विरोधपूर्ण है। पांचवा, जातिगत विषमताएं भारतीय लोकतंत्र को कमज़ोर नहीं बल्कि सशक्त बनाती हैं।

पुस्तक में गांधी के बारे में कड़ा आलोचनात्मक रवैया मौजूद है। उनके विभिन्न राजनीतिक प्रयोगों में उनकी ग़लतियों व समझौतापरस्ती के प्रमाण तलाशे गये हैं। उदाहरण के लिए, उनके किसान आंदोलनों पर भी प्रश्नचिह्न लगाते हुए यह तथ्य बताया गया है कि गांधी ने बारादोली (गुजरात) में उन इलाक़ों में किसानों के बीच आंदोलन किया जो रैयतवाड़ी व्यवस्था के अधीन थे और उन्होंने ज़मीदारी व्यवस्था के अंतर्गत आने वाले गांवों में आंदोलन का इसलिए समर्थन नहीं किया ताकि कहीं कांग्रेस से ज़मींदारों का वर्ग नाराज़ न हो जाये। पैरी एंडरसन ने भारतीय राष्ट्र को मूलतः हिंदू धर्म से संचालित होता हुआ बताया है जिसमें आर्म्ड फ़ोर्सेज़ स्पेशल पावर ऐक्ट (AFSPA) जैसे जनविरोधी क़ानून भी कश्मीर, नागालैंड, मिज़ोरम, पंजाब आदि प्रदेशों में लगाये जाते हैं जहां हिंदू धर्म का वर्चस्व नहीं है।

यह किताब तीन अध्यायों में विभाजित है- इंडिपेंडेंस, पार्टिशन और रिपब्लिक। पैरी एंडरसन ने भारत की उदार-धर्मनिरपेक्ष अवधारणा को केवल भारतीय सत्ताधारी वर्ग की आत्ममुग्ध सोच बताया है, जिसका यथार्थ से सबंध नहीं है। इस किताब की विवादास्पद स्थापनाओं का जवाब देने के लिए 2015 में एक और किताब प्रकाशित की गयी -- द इंडियन आइडियोलॉजी- थ्री रिस्पांसेज़ टू पैरी एंडरसन। इस किताब में तीन लोगों ने पैरी एंडरसन की स्थापनाओं की कड़ी आलोचना करते हुए लेख लिखे। ये तीन विद्वान थे- सुदीप्तो कविराज, निवेदिता मेनन और पार्थ चटर्जी। इसमें सबसे दिलचस्प व कठोर अकादमिक तरीक़े से निवेदिता मेनन ने पैरी एंडरसन के उठाये सवालों का जवाब दिया है। उनका मत है कि भारत की स्वतंत्रता, उसकी धर्मनिरपेक्ष अवधारणा तथा उसकी नेहरूवादी विरासत पर सवाल उठाना कोई मौलिक विचार नहीं है बल्कि वह ब्रिटिश विचारधारा व सोच का ही विस्तार है। यह इतिहास लेखन के उस कैंब्रिज स्कूल के निकट है जिसमें माना जाता है कि ब्रिटिश साम्राज्यों ने अपने उपनिवेशों के आधुनिकीकरण में सहायता प्रदान की थी। भारतीयों के राजनीतिक चिंतन के मुक़ाबले श्वेत साम्राज्य को विश्व के लिए हितकर माना जाता था। इसी प्रकार भारत की आज़ादी को भारतीयों के संघर्ष का परिणाम नहीं माना जाता है। यह कहा जाता है कि भारत में अंग्रेज़ों ने ही विभिन्न क़िस्म की राजनीतिक संस्थाओं का विकास किया और फिर अंतर्राष्ट्रीय स्थितियों के कारण उन्हें भारत को स्वतंत्र करना पड़ा। इस प्रकार भारत की स्वतंत्रता दो कारणों पर निर्भर थी और वे दोनों भारतीयों के त्यागमय संघर्ष से निरपेक्ष थे। एक था अंग्रेज़ों के द्वारा प्रतिनिधिक राजनीतिक संस्थाओं (representative institutions) का विकास और दूसरा था अंतर्राष्ट्रीय पटल पर साम्राज्यवादी देशों द्वारा अंग्रेज़ों की सत्ता को चुनौती। आज़ादी के बाद के भारतीय इतिहास के प्रति भी ऐसा ही नकारवादी रवैया मौजूद है। भारत की धर्मनिरपेक्षता व भौतिक विकास की उपलब्धियों को नकारने के लिए इसे मूल रूप से एक हिंदू स्टेट के रूप में चित्रित किया जाता है और 2014 में भाजपा की पूर्ण बहुमत से सरकार बनने के बाद इस धारणा को और बल मिलने लगा है। पैरी एंडरसन ने भारतीय राज्य को कनफ़ैशनल स्टेट का नाम दिया है। यानी ऐसा राज्य जिसमें केवल एक संप्रदाय का महत्त्व होता है और यह कैथोलिक धर्म के प्रभाव वाले यूरोपीय देशों से निकला हुआ शब्द है। निवेदिता मेनन लिखती है, भारत में अधिकांश हिंदुओं के वोट ग़ैरहिंदूवादी पार्टियों में विभाजित होते रहे हैं। मोदी को भी हिंदुत्व के बजाय विकास के मुद्दों पर बार-बार लौटना पड़ता है। यह कहना भी ग़लत है कि जो भाजपा को अपना मत देते हैं, वे सभी हिंदुत्व के पक्षधर हैं। इसलिए भारत को मूल रूप से हिंदू स्टेट कह देना समझदारी का काम नहीं है। भारत के विभाजन के लिए कांग्रेस, नेहरू या गांधी को पूरी तरह ज़िम्मेदार ठहराना अनैतिहासिक सोच है। भारत के विभाजन के अपराध को केवल कांग्रेस के ऊपर थोपने वाले यह नहीं जानते हैं कि साइप्रस, फ़िलस्तीन और आयरलैंड में भी विभाजन की घटना को अंजाम दिया गया है और वहां न तो नेहरू मौजूद थे, न कांग्रेस।

इस प्रकार की पुस्तकें भारतीय विचारधारा (इंडियन आइडियोलॉजी) की खोज करने का दावा करते-करते ब्रिटिश विचारधारा के पाले में चली जाती हैं। उनके माध्यम से जिस उपनिवेशवादी ब्रिटिश विचारधारा का प्रचार-प्रसार होता है, वह हिंदुत्ववादी वैचारिकी के साथ मिलकर इस धारणा का खंडन करती है कि भारत ने सफलतापूर्वक धर्मनिरपेक्षता को लागू किया है और वह आधुनिक क़िस्म के राज्य-राष्ट्र के बल पर राजनीतिक स्वतंत्रता को बनाये रखने में सक्षम है। हिंदुत्व की विचारधारा भी भारतीय धर्मनिरपेक्षता, सहिष्णुता व स्वतंत्रता आंदोलन की सामूहिक उपलब्धियों के प्रति गहरी वितृष्णा से भरी हुई है। उसमें भी माना जाता है कि संघ-भाजपा ही पिछले साठ वर्ष की ऐतिहासिक ग़लतियों को सुधारने का काम बेहतर विज़न के साथ कर सकते हैं। दूसरी ओर, ब्रिटिश-औपनिवेशिक वैचारिकी भी हर निश्चित अंतराल पर सामने आती है जिसमें भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के नायकों, स्वातंत्र्योत्तर भारत की स्वतंत्र राजनीतिक यात्रा तथा उसके संस्थानिक विकास की आलोचना के नाम पर उसे केवल धर्म-संप्रदाय से जुड़ी चेतना का विस्तार माना जाता है। भारतीय समाज में यूरोप जैसी धर्मनिरपेक्षता, उदार लोकतंत्र व नागरिक चेतना का विस्तार न दिखने पर भारत के लोकतंत्र की सफलता पर प्रश्न लगाने का प्रयास किया जाता है। भारत में हिंदू व मुस्लिम झगड़ों को गहरे सभ्यतागत मतभेद का परिणाम बताकर उन्हें किसी साझे राष्ट्रवाद के प्रतिकूल बताया जाता है जबकि सच यह है कि सांप्रदायिकता पूरी तरह से आधुनिक समस्या है और इसके जन्म के निर्णायक कारण आधुनिक क़िस्म के राष्ट्र-राज्य के उदय की परिस्थितियों में निहित हैं। आशीष नंदी और विपिन चंद्रा ने विस्तारपूर्वक पहले ही इस बारे में लेखन किया है जिस पर आज अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। कुल मिलाकर एंडरसन की पुस्तक किस पुरानी औपनिवेशिक समझ पर आधारित है, इसका विस्तार से विवेचन इसी पुस्तक की प्रतिक्रिया में प्रकाशित, द इंडियन आइडियालाजीः थ्री रिस्पांसेज़ टु पैरी एंडरसन नामक पुस्तक में किया गया है।  

मो. 9711312374

पुस्तक संदर्भ

 1.  हिंदू एकता बनाम ज्ञान की राजनीति : अभय कुमारे दुबे, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2019

2 .  इंडियन आइडियोलॉजी :  पैरी एंडरसन, वर्सो लंदन, 2012

3.  द इंडियन आइडियोलॉजी- थ्री रिस्पांसेज़ टु पैरी एंडरसन : पार्थ चटर्जी, सुदीप्तो कविराज, निवेदिता मेनन,

      द ओरियंट ब्लैकस्वान, 2015

 

 

 

 

 

 

 

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