काव्य चर्चा-4

समय के साथ बदल रही है कविता

बोधिसत्व

 इधर की हिंदी कविता वैसे तो रुकी सी दिखती है, लेकिन वह रुकी है नहीं। उसमें एक उथल पुथल, एक छटपटाहट है, एक ऐसी बेचैनी जो कुछ साल पहले की कविता में इसी विकलता से उपस्थित नहीं थी, क्योंकि जीवन, जगत, समाज के यथार्थ का अभिलेखीकरण लगातार क्रूर से क्रूरतर होता गया है। यथार्थ का अपना रूप निहायत हिंसक आलेखन में परिवर्तित हो गया है। यथार्थ का विवरण यहां तक पहुंच गया है कि कविता या साहित्य में आने के पहले वह अन्य अनेक माध्यमों में लगभग पंजीकृत कर लिया गया होता है। कविता और कवियों के सामने अपने काव्य यथार्थ की परीक्षा एक गंभीर संकट के रूप में उनसे मुख़ातिब है। कविता का सच समाज और समय के सच से एक भिड़ंत और मुक़ाबले के लिए अभिशप्त हो चुका है। कवि के सामने उनका युग और उस युग का सच निर्वस्त्र निरावरण खड़ा है। उसे देखने और दर्ज करने के कोण तक वह स्वयं लेकर आता है। कवि की मुश्किल यहां से आरंभ होती है कि वह अपने काव्य वस्तु का कविता बने रहना कैसे संभव करे।

यहां एक बात और ध्यान में ऱखना आवश्यक है कि इतनी बड़ी संख्या में कवि आज के पहले के युग में कभी सक्रिय न थे। यह बात दावे से कही जा सकती है। कई बार लगता है कि कविता हमारे युग में एक उत्पाद होकर रह गयी है और हमारा युग भी एक प्रोडक्ट भर है। बल्कि कहें तो वह सभ्यता की विराट यात्रा की छाड़न है। हम अपने युग की छाड़न में जी रहे हैं और उसे अपनी उन्नत उपलब्धि मान रहे हैं। यह भी हमारा एक विलक्षण यथार्थ है। जैसा कि मैंने पहले ही कहा कि हमारी आज की हिंदी कविता देखने में स्थिर या रुकी हुई दिखती है लेकिन वह रुकी है नहीं। उसमें एक विकट परिवर्तन बारीक़ी में जाने पर लक्षित किया जा सकता है। उसे यदि हम अंदर और बाहर के व्यथा बोध से उबर कर देखें तो वह बारीक़ बदलाव बख़ूबी रेखांकित किया जा सकता है। यहां मैं यह भी कह देना उचित मानता हूं कि मैं कविता का पारखी आलोचक या काव्य मर्मज्ञ पंडित या आचार्य नहीं, बल्कि मात्र एक अपरिपक्व पाठक या भावक भर हूं। मेरी कविता की समझ और मेरा काव्यबोध बहुत उथला और अगंभीर है। लेकिन अपनी इस अबोध समझ के आधार पर मैं अपने आज के समय के चार कवियों की इधर की कविता पुस्तकों पर अपनी पाठकीय प्रतिक्रिया को पंजीकृत कर रहा हूं। यह मात्र एक रजिस्ट्री भर है कविता तेज प्रवाह में अपनी मंद और निजी प्रतिक्रिया कहें तो बेहतर होगा।

                                                                                                                                                                                  1. ध्रुवतारा जल में

 विवेक निराला का यह दूसरा कविता संग्रह है जो 2017 में प्रकाश में आया। इसके पहले उनका एक कविता संग्रह, एक बिंब है यह चर्चित हो चुका है। इस नये संग्रह, ध्रुवतारा जल में की कविताएं अपने समय का सजग आख्यान और कविता का एक नया प्रस्थान हैं। लगभग रूढ़ि बन गये विषय पर उतने ही रूढ़ ढंग के विवरण से बनी शायद ही कोई कविता देखने को मिले। इस संग्रह में विवेक के पथ में वैदिक और पौराणिक युग की त्रासद विसंगतियों के साथ ही आज के समय में बेटी के लिए विद्रोही होने की सदिच्छा का सौम्य संदेश शामिल है। 'तितली' कविता भले ही अपनी बेटी से संबोधित हो, लेकिन कविता संसार की समस्त बेटियों के लिए आत्म स्वातंत्र्य के व्यापक संदेश के आलेख में बदल जाती है :

                        तेरा स्वर हो आरोही

तू होना ही विद्रोही।

यदि हम इस संकलन को ग़ौर से पढ़ें तो यह विद्रोही होने का संदेश कवि के अपने काव्य विषयों के चयन और उनकी निर्मिति में कवि जैसे स्वयं भी तितली की जगह उपस्थित है और विद्रोह करने के लिए उसका मन अभिमंत्रित है। देखा दुख लिखने में दिखे तो कवि की अपनी यंत्रणा को निस्तार मिल जाता है। 'तबले की थाप' में कवि का मन एक पशु के विकल विलाप को सुन पाता है और लिख भी पाता है। यह लिखना भी यथार्थ का एक भारी भरकम प्रस्थान नहीं बल्कि सत्य की बारीक़ वंचना को सामने रख देने जैसा है :

किसी की खाल है जो

खींचकर मढ़ दी गयी है

मढ़ी हुई है मृतक

की जीवंत भाषा

कवि यहां कविता की परंपरा से जुड़ता है तो लोक कविता से। किंतु वह सजग और सुदृष्टि से संपन्न होने के कारण लोक की शाब्दिक ओट लेकर यह जुड़ाव संपन्न नहीं करता, बल्कि लोक की करुणा से जैसे पाणिग्रहण करता है। त्रासद सत्य के साथ कवि का यह अग्नि प्रदक्षिणा जैसा बंधन है, किंतु कविता मात्र अग्नि के फेरे नहीं लगाती बल्कि सीधे उस दहकते हाहाकार तक ले जाती है जहां पहुंचाना कवि का मंतव्य है। आप सभ्यता के उल्लास में एक समुदाय की खाल उतरते देख पाते हैं जहां बचाव का कोई उपाय शेष नहीं रह गया है। वहीं एक दूसरा वर्ग उस खाल उतारने में अपने सांस्कृतिक समुत्थान और सामुदायिक संस्थापना का गौरव देखता है। यह तबला सभ्यता के त्रासद और विभेदकारी विद्रूप का एक बड़ा रूपक बन कर अनहद नाद बन जाता है। जो न बजे तो भी एक वर्ग की खाल उतरती जा रही है और एक वर्ग खाल उतारता जा रहा है।

विवेक के इस कविता संग्रह में अनेक ऐसी गंभीर अर्थबोध की कविताएं हैं जिन पर विस्तार से बात होनी चाहिए। बिना विमर्श के इन कविताओं में अभिमंत्रित काव्य के सम्मोहन की झलक तो मिलेगी किंतु उसके काव्य मर्म से बिंध जाने का सुयोग न बनेगा। 'निषाद कन्या', 'निष्ठा', 'जूठा-झूठा', 'भाषा', 'मुक्तिपर्व', 'स्थगित', 'जूते', 'बूढ़े', 'कहानियां' आदि कविताएं विवेक के काव्य वैभव का प्रतीक हैं। जो लोग यह कहते हैं कि चावल के एक दाने से पूरे चावल के पक जाने का अंदाज़ा लगा सकते हैं, वे यही बात कविता पर लागू नहीं कर सकते। कारण कि हर कविता अपने हर शब्द और अक्षरों और वाक्य के साथ स्वयं ही संसार की सभी कविताओं से अलग हो जाती है।

इस संग्रह में तीन चार लंबी कविताएं हैं। हिंदी समाज को उन पर चर्चा करनी चाहिए। जिसमें संग्रह की अंतिम कविता, 'चार पुरुष और स्वर्ण युगों पर शोकगीत' एक बड़ी संभावना भरी कविता है। यह न केवल पंक्तियों में लंबी कविता है बल्कि अपने कथानक में भी अनेक स्तरों पर युग के हाहाकार को समेटे है। कविता समाज के तथाकथित स्वर्णिम युगों को स्वाहा करके उसकी चकाचौंध से मुक्ति पाने का खुला आवाह्न करती है। यह कहती हुई सी कि जैसे स्वर्ण युगों को स्वाहा करने में ही मुक्ति है, उसे ढोने में नहीं। कविता का यह नया कबीरपन है जो अनेक स्तरों पर हिंदी के काव्य वैभव को संपन्न करता है :

हमने अपने स्वर्ण युगों की चिता जलायी

अपने अपने मोह को

राख होते देखा

2. जीवन के दिन

प्रभात हिंदी के विरले कवि हैं। कुछ साल पहले हमने उनको कविता समय सम्मान से सम्मानित किया था। 2019 में उनका दूसरा कविता संग्रह, जीवन के दिन प्रकाशित हुआ है। कविता में धीरे चलने का धैर्य प्रभात की काव्य शक्ति है। इसके पहले उनका एक संग्रह, अपनों में नहीं रह पाने का गीत प्रकाशित और प्रशंसित हो चुका है। मैं प्रभात के निजी जीवन भूगोल को नहीं जानता लेकिन उनके इस नये कविता संग्रह में आये लोक को, उसके भीतर के जंगल और तालाब के झिलमिलाते जल को, उसमें कवि की प्रकंपित परछाईं को, उसकी काव्य छवि को और उसके स्वप्न को देख सकता हूं। जो भी इन कविताओं को पढ़ेगा, वह इन सब के सामने आयेगा ही, या प्रभात अपने काव्य से उस लोक को सामने लाकर खड़ा कर देंगे। लेकिन यह आवागमन किसी भी तरह बहुत तेज़ नहीं बल्कि एक स्वाभाविक तरीक़े से ही होगा, क्योंकि कवि को धीरे-धीरे जीवन में उतरना प्रिय है। वे अपने कर्म की धूल में पांव धरते हुए धीरे-धीरे उतरते हैं जीवन में। आज जबकि संसार में तेज़ और तीव्र उड़ानों का शोर है, उसके विपरीत कवि धीरे चलने की पैरवी कर रहा है तो कोई तो बात होगी :

संगीत की धुन में गड़रिये

जैसे उतरते हैं झुकी हुई सांझ की

पगडंडी की धूल में पांव धरते हुए

हौले-हौले धीरे-धीरे

मैं अपने कर्म की धूल में पांव धरते हुए

उतरना चाहता हूं जीवन में

हौले-हौले धीरे-धीरे

अगर इस कविता अंश को देखें तो हम समझ सकते हैं या समझने की कोशिश कर सकते हैं कि प्रभात अपने जीवन में ‘धीरे’ का गुणगान और आवाह्न क्यों कर रहे हैं। अपनी कविताओं में प्रभात अपने लिए एक तरल कैनवस रचते हैं। फिर उस पर धैर्य के साथ रंग भरते हैं। उनकी हर कविता में एक दृश्य है। कभी प्रकट तो कभी धुंध में गुम होता। गहरे हल्के मनमोहक रंगों से रचे दृश्य उनको हिंदी का एक अलग कवि बनाते हैं। वे किसी आपाधापी में नहीं हैं। उनकी कविता पर सबसे गहरा रंग उजास उदासी का है। एक ऐसी उदासी जिसकी भीतरी परतों में एक आस की लपट झिलमिलाती जागती है। जैसे बीहड़ में गड़रियों ने आग सुलगा रखी हो। उनकी कविता के गड़रियों के बारे में तारे और आकाश बात करते हैं तो एक आकाशीय दृष्टि का एक भव्य किंतु उदास करता चित्र उभर कर सामने आता है :

नक्षत्र उनकी भेड़ों को आकाशगंगा कहते हैं

आकाश कहता है-

गड़रिये चंद्रमा हैं पृथ्वी पर

चलते हुए

अगर ऊपर से देखते हैं तो आकाशगंगा और चंद्रमा सब कितना मोहक दिखता है, एक विराट सुकोमल पारदर्शी सौंदर्य को मूर्तिमान होते देखते हैं, किंतु इस सौंदर्य के आलोक में गड़रियों और भेड़ों का भटकना मर्माहत करता रहता है। विराटता के आलोक में प्रभात सत्य का सूत्र छोड़ नहीं देते।   प्रभात की कविता में रंग और प्रकाश एक प्रलयकारी भूमिका निभाते हैं। जो पहले रंगा होता है] प्रभात उसी पर दूसरा रंग या प्रकाश डाल कर सारे पिछले कैनवस को नया रूपरंग दे जाते हैं। लगभग हर बार ही वे आपके देखे को मिटा कर अपने रंगों की छाया से उसी दृश्य को नया कर देते हैं। गड़रिये भेड़ों के पैरों से कांटे निकालते जीवन की जोत बन जाते हैं, लोक गायिकाएं अमरता का राग गातीं, अमर राग गुंजाती हैं। सूखे हुए पोखर बिना जल के भी जल से भरे दिखते हैं। उनका सूखा होना भी उनके जीवन को नया अर्थ देता है। इस तरह कवि असंभव को संभव करता है और एक सामाजिक की बड़ी उदास भूमिका में बोलता है :

पोखर होने के लिए

पानी से भरा होना ज़रूरी नहीं

जब उसमें पानी नहीं होता

तब क्या वो पोखर नहीं होता

देखने में यह सादा सा कथन बहुत घुमाव-घेरदार है। अनेक प्रश्नों से लिपटा, अनेक पहलुओं वाला सत्य, जिसके आंतरिक वलय में कितने ही अर्थ गुंथे हैं। सूखा हुआ तालाब भी अंत तक तालाब ही रहेगा, वैसे ही जैसे मरती हुई मनुष्यता भी अंत तक मनुष्यता रहेगी। उसे और कोई रूप रंग नाम पहचान देने का यत्न विफलता के लिए अभिशप्त है।

'दुख', 'घास का उजास', 'कुछ ही लोग', 'आतप में पेड़', 'प्रेम और पाप', 'हे राम', 'भद्दे पैर', 'सूत्रधार', 'शरणार्थी', 'प्राथमिक शिक्षक', 'लोक गायिकाएं, लोक गायक' ऐसी कविताएं हैं जो प्रभात के माध्यम से हिंदी काव्य संसार को उजास रंगों से भरती हैं। 'प्राथमिक शिक्षक' कविता तो एक रूपक की तरह और इधर की सबसे लंबी कविता हो तो कोई संदेह नहीं। अपनी मंद मंथर कविता यात्रा में प्रभात एक आस की एक बहुवर्णी लौ जलाये रखते हैं कि 'कुछ ही लोग होते हैं जो/ आते हैं वक्त़ ज़रूरत पर।' लेकिन वे आते ज़रूर हैं। उनका आना निश्चित है। इसीलिए आतप में भी बीहड़ में खड़े रहते हैं सूखते हुए पेड़। सूखते मरते लोग कहीं और नहीं चले जाते। उनको आस है कि सब सही होगा। प्रभात ने पिछले संग्रह से एक धीमी लेकिन लंबी यात्रा की है। उनके इस संग्रह, जीवन के दिन का स्वागत होना ही चाहिए।

यदि हम ग़ौर करें तो पाते हैं कि कविता अपनी बुनियाद से सूखे तरु की तरह बंधी खड़ी नहीं है, बल्कि उसने अपना स्थान और अपना रूप भाव रंग प्रभाव सब बदला है। समय के साथ वह बदल रही है। कविता ऐसे ही बदलती है धीरे-धीरे जैसे गड़रिये चलते हैं बीहड़ में, जैसे आतप में पेड़ सूखते-सूखते हरे हो जाते हैं या जैसे सुवर्ण युग को स्वाहा करके पीढ़ियां आगे जाती हैं, जैसे स्त्री के मन पर पड़े वैदिक घाव लुप्त होते हैं समय के साथ। 

3. इस तरह ढह जाता है एक देश

 नित्यानंद गायेन हिंदी कविता के युवा कवि हैं। यहां इनके तीसरे संग्रह, इस तरह ढह जाता है एक देश की चर्चा कर रहा हूं, जो कि वर्ष 2018 में प्रकाशित हुआ है। इसके पहले इनके दो और संग्रह प्रकाशित हैं, एक, अपने हिस्से का प्रेम और दूसरा, तुम्हारा कवि। नित्यानंद का मूल स्वर एक जाग्रत और दृष्टिसंपन्न कवि का है। एक तीखी और सधी, भाव और विचार की अभिव्यक्ति, नित्यानंद की कविता का प्रभावी गुण है। यह मानना पड़ेगा कि कि समकालीन हिंदी कविता में व्यवस्था की बर्बरता के प्रतिरोध में एक चुनौतीपूर्ण स्वर है गायेन का। यह संकलन उनकी इधर की यानी 2014 के बाद की राजनीतिक कविताओं का एक संकलन है जिसमें कवि आकांक्षाओं का एक व्यापक आकाश है जहां कविताओं में गायेन अपनी बुनियादी संकल्पनाओं के साथ प्रतिरोध को मुखरता से प्रकट करते हैं। आज की राजकीय सत्ता के लिए नित्यानंद एक प्रभावी रूपक देते हैं। वह रूपक है 'सत्ता का सांड़' जिसमें सत्ता का वह सांड़ प्रजा को रौंद रहा है। वह राजधानी में गोबर बिखेरता हुआ एक नयी तरह की गोबर संस्कृति का विस्तार कर रहा है :

सांड़ जो सिर्फ़ खाता है

...

सींग मारता है

और राजधानी की सड़कों पर

गोबर बिखेरता है    ( राजा का सांड़)

इस कविता को मैं इस संकलन की प्रतिनिधि कविता के रूप में देखता हूं। आपको इसमें राजा का सांड़ संस्कृति के ऐतिहासिक विस्तार के रूप में दिखेगा। वह सिंधुघाटी की महान सभ्यता की यात्रा से चलता हुआ आज राजधानी के महापथ पर अनियंत्रित या कहें कि आत्म संचालित अवस्था में हाहाकार करता हुआ आम जन को रगेद रहा है। नित्यानंद सत्ता के सांड़ का संस्कृति के नाम पर गोबर करने को अपनी कविता में पूरी तल्लीनता से दर्ज करते हैं और यह बताते हैं कि व्यवस्था अब ऐसे सांड़ों की जननी है। वहां से जो सुसंस्कृति के नाम उत्पन्न हो रहा है या पोषण पा रहा है वह ऐसा ही है सींग मारता हुआ और लोगों को त्रास देता हुआ एक छुट्टा सांड़। यह सांड़ और उसके कृत्य ही आज व्यवस्था की अंतिम मनोहर सांस्कृतिक देन हैं।

संकलन में अनेक कविताएं समय की त्रासदी को अपने तरीक़े से अंकित करती हैं और अपने इस प्रयत्न में नित्यानंद नागार्जुन की परंपरा से सीधे जुड़ते हैं। इस जुड़ाव को मैं गहरे अर्थों में जनकविता की परंपरा के प्रसार के रूप में देखता हूं। यहां यह भी कहना आवश्यक है कि ये सत्ता विरोध की फ़ैशन वाली कविताएं न होकर सत्ता से बुनियादी मतांतर की कविताएं हैं। जहां कवि धरती के बाद केवल आसमान की लुभावनी दृश्यावली में अपनी धूनी रमाए बैठे हैं वहां नित्यानंद यह देख पाते हैं कि

स्वर्ग के हर मार्ग में

बह रहा है रक्त

बहुत शोर है,

चीत्कार है,

ख़ामोश हैं चिनार के पेड़

बर्फ़ ने पिघलने से मना कर दिया ( यात्रा-शृंखला-नौवीं कविता)

यह कविता भारत की एक विकट त्रासदी का बारीक़ अंकन है, जो कि बड़बोलेपन की जगह पूरी आत्मिक वेदना से कही गयी है। नित्यानंद कविता लिखते नहीं हैं वे कविता कहते हैं। इनकी कविता संवाद करती है और आपको अपनी वार्ता में चुपचाप शामिल कर लेती है। जैसा कि मैंने पहले ही कहा है कि यह समूचा संकलन ही राजनीतिक कविताओं का है, लेकिन इसमें भी यह लंबी कविता, ‘यात्रा-शृंखला अलग से ध्यान खींचती है। इस कविता को मैं समकालीन भारत का एक काव्यात्मक आकलन कहने में संकोच नहीं करता। संग्रह की अन्य कविताओं को मैं अच्छी और बेहतर की कोटि में बांटने में यक़ीन नहीं रखता, लेकिन फिर भी, 'जीवन के कुरुक्षेत्र में', 'मातला नदी पार करते हुए', 'सूखे का पहरा', 'यह वक्त़ बोलने का है', 'लाईन में खड़ा आदमी', 'राष्ट्रवाद का दौर', 'सूरदास खुश हुए' आदि कविताएं निश्चित रूप से भारत की यथार्थ छवि का अंकन करती हैं। नित्यानंद भविष्य की हिंदी कविता के एक मज़बूत और स्पष्ट स्वर हैं जो अपनी पहचान दर्ज करा चुका है और जो समय के साथ और अधिक भास्वर होता जा रहा है। नित्यानंद ने अपनी काव्य विकास यात्रा के अनेक पड़ाव पार किये हैं और उनकी कविता में निरंतर एक त्वरा और विकलता बनी हुई है, जो एक कवि के लिए बड़ा शुभ लक्षण है।  

 

4. इनकार की भाषा

 इस पुस्तक चर्चा की चौथी और अंतिम किताब है कवि शंकरानंद की 2018 में प्रकाशित, इनकार की भाषा जो कि कवि का तीसरा संकलन है। शंकरानंद की लिखाई में उनका समय सजगता से उपस्थित है। यह कवि दृष्टि उनके पहले दो संकलनों में भी देखी गयी थी। पहले कविता संग्रह, दूसरे दिन के लिए और दूसरे संग्रह, पदचाप के साथ वे अपना आना हिंदी कविता में दर्ज करा चुके हैं। शंकारनंद की कवि दृष्टि उनको उनके समकालीन कवियों से अलग करती है। वे चुप रहने को कविता में निरर्थक मानते हैं लेकिन आवाज़ के मर्म को बख़ूबी समझते हैं। 

अगर कवि राजेश जोशी के शब्दों में कहें तो शंकरानंद को पता है कि चुप रहने से मनुष्यता का ह्रास होता है और इस चुप्पी से ही हत्यारे पैदा होते हैं’। शंकरानंद के काव्य मर्म का मूल तंतु विकलता है। एक सी विकलता जिसे दर्ज किये बिना कवि को किसी तरह भी राहत नहीं मिलती। उस विकलता में मां की कटी अंगुलियां हैं जो रसोईं में काम करने से क्षत-विक्षत हैं। मां की अंगुलियों का यह घाव कब मनोव्यथा में परिवर्तित हो कर एक स्त्री की व्यथा बन जाता है, यह समझने में देर लगती है और शंकरानंद की कविता चुपचाप एक प्राचीन हाहाकार को अपने हृदय में अंकित कर लेती है। अक्सर हम कविता को एक शब्द-बंध से अधिक नहीं देख पाते। यह कविता का अवमूल्यन है। प्रत्येक कविता एक जीवित इकाई होती है। उसकी अपनी संवेदना और आकांक्षा भी होती है। यह बात समझने और समझाने के लिए शंकरानंद के इस तीसरे संग्रह की कई कविताएं एक उदाहरण हो सकती हैं।

हमारा आज का समय न केवल निर्मम और क्रूर है बल्कि वह एक साथ ही छल-बल से भी लैस है। इसमें वास्तविक संवेदना को पहचानना और उसे काव्यवस्तु के रूप में कविता के हृदय स्थल में रखना, यह कवि की एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी और नैतिक भूमिका है। इसीलिए वे कह पाते हैं कि

चुप रहने पर आवाज़ चुप हो जाती है एक दिन

भाषा चुक जाती है

व्याकरण बिगड़ जाता है चुप रहने से  (विरोध)

चुप की परिणति के अनेक उदाहरण हो सकते हैं, लेकिन भाषा का चुप हो जाना और व्याकरण का बिगड़ जाना एक विराट प्रभाव है। यह व्याकरण भाषा भर का व्याकरण नहीं, बल्कि सामाजिकता का व्याकरण अधिक है। जीवन का गणित मौन से मरता है। चुप्पियां उसका जैविक जल सोख लेती हैं और उसमें समझौतों की मृत धूल भर बचती है। मैंने पहले ही कहा है कि शंकरानंद अपने हाहाकार को हाहाकार की तरह नहीं कहते। वे सहते हुए कहते हैं। उनकी कविताएं एक आम भारतीय की सहनशीलता का महाकाव्य हैं। इसके अनेक रंग हैं शंकरानंद के पास। वे सरकार की चुप्पी को ऐसे देखते हैं जैसी उसे नहीं होना चाहिए। उन्हें सरकार की चुप्पी सालती है वे कहते हैं :

अगर समुद्र होता तो गरजता

नदी होती तब भी बहती पुकार लगाती

कोई पक्षी होता तो चहकता दिन रात

हवा होती तो सांय-सांय करती  (सरकार की चुप्पी)

अपनी नागरिक सोच और संवेदना को शंकरानंद बिना चीख पुकार के प्रकट करते हैं। मैं अनेक बार प्रतीक्षा करता हूं कि अपनी कविता में शंकरानंद कब शोर मचाते हैं, लेकिन वे बिना शोर मचाये हाहाकार उठाते रहते हैं। ऐसा नहीं कि वे अपनी कविता में फुसफुसाहट पर बल देते हैं। ऐसा भी नहीं है कि वे केवल संकेत करते हैं। नहीं, वे बोलते हैं, अपनी बात पर टिके रहते हैं, एक सहज सहल साधारण जल की तरह वे एकालाप की जगह गहराई तक जिरह में यक़ीन करते हैं और अपनी बात हर हाल में कहते हैं :

आवाज़ के बिना यह समय कितना अधूरा है

कितना निर्जीव कितना मनहूस कि

घड़ी चलती है पर बजता कुछ भी नहीं है (कुछ नहीं बजता)

अपने समय की निरर्थकता को दर्ज करना सरकार और क़ौमों की निरर्थकता को दर्ज करना है। आख़िर वह किन लोगों का समय है जिसमें घड़ी चल रही है लेकिन समय स्थगित है। समय का रुक जाना सभ्यता की अवनति यात्रा के आरंभ का संकेत है। शंकरानंद बिना बड़ी भूमिका बांधे यह बात कह जाते हैं। संग्रह की कई कविताएं अपनी ओर ध्यान खींचती हैं जिनमें, 'पीछा करने की कला', 'हिंसा', 'रात', 'पहाड़', 'यह वृक्ष', 'नींद का हिसाब', 'मां के हाथ' बहुत महत्वपूर्ण हैं।             

 

हिंदी कविता एक संक्रांति समय से आगे आ चुकी है। इसे संवर्धित करने वाले अनेक कवि आज सक्रिय हैं। यहां जिन चार कवियों और उनकी किताबों पर बात हुई है, उनमें शामिल रचनाएं हिंदी कविता के वर्तमान के साथ ही भविष्य की दिशा का निर्धारण करने वाली कविताएं भी हैं। 

मो. 9820212573  

पुस्तक-संदर्भ

1. ध्रुवतारा जल में,  विवेक निराला, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2017

2. जीवन इन दिनों, प्रभात, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2019

3. इस तरह ढह जाता है एक देश, नित्यानंद गायेन, अधिकरण प्रकाशन, दिल्ली, 2018

4. इनकार की भाषा: शंकरानंद, अनंग प्रकाशन, दिल्ली, 2018   

 

 

 


 


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