कहानी चर्चा-4

वैश्वीकरण के दौर में देशज समीकरणों की कहानियां

सत्यप्रकाश सिंह

 हमारे आसपास की दुनिया जिन स्थितियों में ज़िंदा बने रहने की जद्दोजेहद कर रही है उसकी तमाम सूचनाएं वैसे तो हमें उपलब्ध हैं ही, लेकिन उसके बावजूद क्योंकि जद्दोजेहद अभी भी शेष है, कहानी भी वहां बची हुई होगी ही। जाने-पहचाने सच की कहानी कहने के लिये सिर्फ़ साहस की ही नहीं, पक्षधरता की भी ज़रूरत होती है। इसी पक्षधरता को रेखांकित करती हुई कहानियां हैं, कथाकार टेकचंद की कहानियां। अपने नये कहानी संग्रह, मोक्ष और अन्य कहानियां के साथ कथाकार टेकचंद ने अपने इसी साहस और पक्षधरता को फिर से दोहराया है। दिल्ली देहात और आसपास के बॉर्डर पर बसे गांव का भूगोल टेकचंद की कहानियों में अपनी मुखर उपस्थिति रखता है। न केवल बोली-बानी के रूप में अपितु सामाजिक विन्यास और उसके उभरते नये रूपों के संदर्भ में भी।

उदाहरण के तौर पर टेकचंद की ‘मोलकी’ जैसी कहानी इसी भूगोल का भीतरी दृश्य रचती है। जिसे हम पहले से ही जानते हैं, जिस पर बारंबार और काफ़ी सनसनीखेज कहा और लिखा जा चुका है उस पर फिर एक कहानी लिखना सिर्फ़ साहस ही नहीं कुछ और भी है। शायद अपनी तरफ़ से फिर एक और कोशिश, जो उस स्थिति को, जिसमें एक मनुष्य अब भी ज़िंदा है,  रोमांच और सनसनी से मुक्त कर उसकी अपनी वास्तविक बीहड़ता में कहने से जुड़ी है। ज़िंदा लोग जिन श्मशानी स्थितियों की गिरफ़्त में हैं उनकी शक्लोसूरत को, उनकी रोज़ाना ज़िंदगी को, उस स्थिति में होने की उनकी अकुलाहट को बिना किसी पर्दे के कहने की चेष्टा ही इस संग्रह की कहानियों को बारंबार परिचित विषयों, सत्यों और मुद्दों की तरफ़ साहस के साथ लेकर जाती हैं।

बढ़ता शहर-बाज़ार और सिकुड़ता गांव-समाज तफ़सील के साथ टेकचंद की कहानियों में अपनी जगह पाता है। बाज़ार और शहर को आंधी की तरह देखने की चेष्टा टेकचंद के साथ ही, सोनी पांडेय के कहानी संग्रह, बलमा जी का स्टूडियो की कहानियों में भी मिलती है। बाज़ार और बाज़ार के अनुकूल ढलती जीवनस्थितियां जैसे टेकचंद की कहानियों में देखने को आती हैं, वैसे ही सोनी पांडेय की कहानियों में भी हमें दिखलायी पड़ती हैं। टेकचंद की कहानियों में जो भूगोल विद्यमान है वह वर्तमान भी है। वहीं की कहानियों में ‘भूगोल’ का जो हिस्सा गांव से जुड़ा हुआ है, वह या तो विगत की सीमा पर खड़ा है या फिर बीत ही चुका है। लेकिन हाट-बाज़ार का बढ़ता वर्चस्व दोनों ही कथाकारों की कहानियों में प्रतिपक्ष की भूमिका लेता है। बाज़ार का फैलाव और तत्स्वरूप समाज के सिकुड़ने-सिमटने की प्रक्रिया की बायनरी इन दोनों ही कथाकारों की कहानियां बनाती हैं। हालांकि, सोनी पांडेय की कहानियां टेकचंद की तुलना में डिटेल्स से ज़्यादा भरी हुई कहानियां हैं। एक ‘शहराती’ के छूटे हुए गांव के डिटेल्स इन कहानियों के कोने-कोने में बैठे-बिखरे हैं। स्मृति के रास्ते वे कहानियों की तरफ़ जाते हैं। स्मृतियों में बसा अंचल अपने विवरणों समेत उभरता है। यहां तक की पीढ़ियों तक को अपने में समेट लेता है।

इसीलिए, सोनी पांडे की कहानियों में स्मृति का कथा की रचना में जिस तरह से इस्तेमाल किया गया है वह एक और बात को उभारता है -- देश और काल को। समय और स्थान का विगत और वर्तमान के दो परस्पर हिस्सों में विलग हो जाना, इन कहानियों में बेहद ही सफ़ाई के साथ दिखलायी पड़ता है। विगत की स्मृति वर्तमान की वास्तविकता के साथ इन कहानियों में कथ्य बनकर उभरती है एक टीस के साथ। वर्तमान में लौट कर वापिस न आ सकने वाले अतीत की टीस। हमारे शहर और बाज़ार की पीठ पर सवार वर्तमान का जो संबंध गांव के साथ बन चुका है, जो गांव विलोपित हो जाने की शंकाओं से भरा हुआ है, इन शंकाओं की एक रुंधी चीख़ सोनी पांडेय की कहानियों में है।

अवधारणा के स्तर पर बढ़ते शहरीकरण और बाज़ारीकरण की संज्ञाओं का इस्तेमाल इस कथ्य को ऐतिहासिकता देने के लिए किया जा सकता है, किंतु असल में समस्या उतनी भर है नहीं। गांव हों या फिर शहर, दोनों एक ही केंद्र से बंधे हुए हैं। आर्थिक तौर पर भी और राजनीतिक तौर पर भी। सामाजिक-सांस्कृतिक भूगोल गांवों को विशिष्टता देता तो है, किंतु वह ख़ुद केंद्र के बदलावों से इस तरह बंधा हुआ है कि केंद्र के स्तर पर घटित हुआ हरेक बदलाव इन गांवों के जाने पहचाने सामाजिक-सांस्कृतिक भूगोल से एक हिस्सा उठाकर विगत की सूची में डाल देता है। व्यवहार से उठ जाने के बाद, बस स्मृतियां ही तो शेष बचती हैं, जिनको दोबारा जीने का मतलब हरेक बार विलगाव और बीत जाने से जन्मी टीस से गुज़रना भर हो सकता है।  हम उन्हें चाहकर भी अपने वर्तमान में दोबारा हासिल नहीं कर सकते।

ऐसे में दो तरह से सोचा जा सकता है। एक तरीक़ा यह हो सकता है कि हम इसे आने वाले समय की अपरिहार्यता मानकर आगे बढ़ने को चुन लें। समय तो शहरों की ही नहीं, स्मार्ट शहरों की दिशा में बढ़ चुका है। शहर ही भविष्य के समाज हैं। यह लगभग सुनिश्चित हो चुका है। गांव तो अब जल्द ही ‘सफ़ारी’ और ज़िंदा संग्रहालयों की तरह देखे जाने लगेंगे। लेकिन एक और तरीक़ा भी हो सकता है। वह यह कि जानी- पहचानी अवधारणाओं की जगह केंद्र और उसकी भावी नीतियों को देखा-समझा और उभारा जाये। जीवन और मृत्यु का युग्म यहां मिल सकता है। गांव और शहर के द्वैत की निस्सारता यहां देखी जा सकती है। विद्यमान जीवन, शहर और गांव, दोनों ही भूगोलों में, कैसे मृत्यु की तरफ़ बढ़ और बढ़ाया जा रहा है, उसके दृश्य यहीं मौजूद मिलेंगे। बात कहीं दर्शन के खेमे की न लगने लगे, इसलिए दो उदाहरण एक साथ यहां रखे जा सकते हैं। पहला उदहारण टेकचंद की कहानी ‘घड़ीसाज़’ से है और दूसरा सोनी पांडेय की कहानी ‘बलमा जी का स्टूडियो’ से।

टेकचंद लिखते हैं, 'घड़ीसाज़ धनपत, गुटारी टेलर, पेमल कुम्हार, बलजीत डाकिया और शौक़ीन फ़ोटोग्राफ़र अक्सर ख़ाली रहते और बस अड्डे के भारी से नीम के पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर जमकर ताश की बाज़ियों में लग जाते'। ताश खेलकर समय बिताना शौक नहीं, नीतिगत विस्थापन का परिणाम है। घड़ीसाज़, टेलर, डाकिया, फ़ोटोग्राफ़र एक तरफ़ पेशे हैं तो दूसरी तरफ़ लोग। बढ़ते बाज़ार ने पेशों को विस्थापित किया, और लोग अपने परिवार समेत ख़ुद ब ख़ुद विस्थापित हो गये। बाज़ार का फैलाव किसी अदृश्य की लीला से नहीं, राज्यसत्ता की मातहती में हो रहा है।

लीलाधर मंडलोई अपनी एक कविता में लिखते हैं, 'यह नार्थ ब्लाक है/ यह साऊथ / यहां बनते हैं/ आने वाले समय के मानचित्र/ हर 'नये मानचित्र में/ अमरीका विशाल होता जाता है'। मानचित्र, माने राष्ट्र-राज्य की भावी नीतियां, और हर राष्ट्रीय मानचित्र के बनने पर जहां अमेरिका और विशाल होता है, वहीं 'विगत' की राष्ट्रीय सूची भी विशाल होती है। राष्ट्र-नियंताओं की हर सूची राष्ट्र की भावी योजनाओं से देश को थोड़ा और बेदख़ल कर देती है। इस तरह हर नीति ‘देशी’ बेदख़लों की संख्या बढ़ाती है। ऐसे में क्या गांव और क्या शहर, सब एक ही केंद्र से बंधे एक सांझी नियति के लिए बाध्य हैं। अब यह अपील कि गांवों को शहरों से बचाइए, असल में एक भावुक रुदन को तो जन्म दे सकती है लेकिन किसी मज़बूत हस्तक्षेप को संभव नहीं बनाती। सोनी पांडेय का यह कहना कि 'आप बलमा जी के सत्य को तलाशने मेरे गांव का टिकट मत कटा लीजियेगा ...तलाशना हो बलमा को तो रोकिए हमारे गांवों को कंकरीट के जंगलों में बदलने से। देखिएगा बलमा मिल जायेगा किसी गांव की चट्टी पर गर्दन में कैमरा लटकाये... खचाक से आपकी फ़ोटो खींचते हुए कहेगा, स्माईल प्लीज’ और फिर उसी नफ़ासत से गर्दन झुका कर कहेगा ‘थेंक्यू’।'

हमारे समय की बायनरी को बाज़ार बनाम समाज या फिर गांव बनाम शहर के सांचों में देखने की कोशिश को नज़रिये के स्तर पर एक पुराना दोहराव कहा जायेगा। औपनिवेशिक और स्वातंत्र्योत्तर, दोनों ही समय इस नज़रिये का इस्तेमाल हो चुका है। इस नज़रिये ने चाहते न चाहते पूंजीवाद और शहर को लेकर एक मौन सहमति को ही जन्म दिया है। एक प्रकार की बाध्यता को जन्म दिया है। पूंजीवाद भविष्य है और सामंतवाद अतीत, इसी बौद्धिकी की तर्ज़ पर शहर और गांव को भी समझा-समझाया जाता रहा है।

न तो शहर पूंजीवादी भविष्य की गवाहियां हैं और न ही गांव ख़त्म हो चुके या हो रहे सामंतवाद के अवशेष। अब तो दोनों ही जगहों पर जन और जनता के ख़िलाफ़ एक ही केंद्र से संचालित शोषण की चक्की गतिमान है। गांव बनाम शहर के द्वैत से इस शोषण के विरुद्ध दोनों ही जगहों के नागरिक अकेले पड़ते हैं।  एक ही समाज, उसके तमाम नागरिक, द्वैत को रचती एक अवधारणा के शिकार हो अपनी-अपनी मुक्ति के लिए अलग हो जाते हैं।

राज्य, बाज़ार और जनता का त्रिकोण हमारे समय के मूल द्वंद्व की रचना करता है। हमारे समय का फ़्रेम असल में इसी त्रिकोण पर टिका है। समय को बदलने की हरेक मंशा को इस त्रिकोण को हिलाने-डुलाने की दिशा में ही बढ़ना होगा। प्रवीण कुमार का कहानी संग्रह, वास्कोडिगामा की साईकिल राज्य, बाज़ार और जनता के त्रिकोण के अदृश्य दृश्यों या फिर कहें लगातार छिपाये जा रहे दृश्यों को देखने-दिखाने की रचनात्मक मंशा से भरा संग्रह है।

वास्कोडिगामा की साईकिल  संग्रह की कहानियां रेखांकित करती हैं, कि वैश्विक बाज़ार के तमाम राज्यों के स्वघोषित प्रजाप्रिय शासक प्रजा को चुनौती की तरह ले चुके हैं। प्रजा उनके लिए जीवन मरण का प्रश्न है। प्रजा का अनुकूलन ही ‘राज्य’ की उम्र है। जितना ज़्यादा अनुकूलन उतनी ही ज़्यादा उम्र। और, इस युद्ध के अस्त्र-शस्त्र खोजे गये हैं उन्हीं खोजों से जो शासन और शोषण की मंशाओं के साथ ही होती आयी थीं। इसी लिए ‘भारत’ की खोज अब तक या तो राजाओं ने की या फिर व्यापारियों ने। जनता ने अपने भारत की खोज अब तलक भी नहीं की है। राजाओं और बनियों ने देश खोजा और शासन किया। प्रजा ने देश न खोजने की सजा पायी और शासित हुई।

और ऐसा नहीं है कि जनता को ‘परिभाषित’ करने की खोजें आज जारी नहीं हैं। ‘वास्को डी गामा की साइकिल’  कहानी के भाई जी इसी खोज के यात्री हैं। कहानीकार की टिप्पणी है, ‘ताश में बावन पत्ते होते हैं और राजनीति में तिरपन। हर माहिर खिलाड़ी यह तिरपनवा पत्ता ऐन मौक़े पर फेंकता है। तिरपनवे पत्ते का रंग जाति, धर्म, क्षेत्र, दल, के हिसाब से बदलता रहता है।’ कहानी के भाई जी राजनीति के ऐसे ही माहिर खिलाड़ी हैं जो जानते हैं कि जनता के होते तो बावन ही पत्ते हैं, किंतु इसे खोज नहीं कहा जा सकता, साथ ही इसे मान लेने से राजा भी नहीं हुआ जा सकता, क्योंकि राजा वही हुआ जिसके पास वह तिरपनवा पत्ता था और, यह तिरपनवा पत्ता है उस जनता की खोज जिसे राजाओं और व्यापारियों ने भिन्नताओं और विपरीतताओं में खोजा है, जिसे चलते ही जनता का खेल बिगड़ जाता है। जनता ‘खेल’ से बाहर हो जाती है।

जनता के भय, उसके दुःख और अभाव ही ‘विषय’ नहीं हो सकते, वह राजा भी विषय होना चाहिए जिसकी वजह से जनता के बीच पीढ़ियों तक के विस्तार में भय और दुःख फैले हुए हैं। उस राजा का भी तो कोई भय होगा, उसकी भी तो आशंकाएं होंगी! उन्हें ही, क्यों नहीं रचा जा सकता जनता में, जनता के लिए, भरोसे की तरह। प्रवीण कुमार की कहानियां इसी भरोसे को लेकर जन और जनता की निगाह से हिंदुस्तान की यात्रा करती कहानियां हैं।

धारणाएं और छवियां वैसे तो कोई बुरी चीज़ नहीं हैं। पर इधर के दशकों में इन्हें वैश्विक महाजनों और समाजार्थिक सवर्णों द्वारा, जिस तरह की व्यवस्थित भूमिकाओं में ढाला गया है, वे इन्हें अब हासिल सांस्कृतिक ‘सिद्धियों’ की तरह और बरतते जाने से सावधान ज़रूर करती हैं। इन धारणाओं और छवियों के सहारे कितने क़त्ल हुए हैं और कितनों की अनुशंसाएं की जा चुकी हैं, इसका अवलोकन अपरिहार्य हो चुका है।  आपके हमारे भीतर विराजमान ‘घृणाएं’ और ‘दुश्मनियां’ जिन रास्तों से दाख़िल हुईं हैं, वे रास्ते किस मिट्टी से बने हैं, सोचना चाहिए। सोचते हुए आप ख़ुद को ‘सिद्ध पुरुष’ कहानी के उस ‘गोगिया’ की जगह खड़ा पायेंगे, जिसकी धारणाओं ने उसकी अपनी निगाह में ‘हीन’ एक अन्य को मार डाले जाने जैसी अनुकूलता की रचना की। आज धारणाएं साधारण हैसियत नहीं रखतीं। वे जीवन और मृत्यु की संभावनाओं को साथ-साथ लिये हुए हैं। इसीलिए, आज धारणाओं की ताक़त को देखना हो तो जाति, वर्ग, लिंग और धर्म को लेकर खुलेआम आयोजित होने वाली उन नोंच-खसोंटों को देखिए, जिसमें फंसने वाला चीथड़ों में बदल जाता है और, मालूम भी नहीं पड़ता।

इसे मुख्य संकट की तरह देखे जाने में अब और देरी असल में स्युसाईडल एक्ट होगी, कि हमारी नागरिक निर्मिति को दुनियाभर के शासकों ने लोकली-ग्लोबली हिंसक, उन्मादी और कुंठित धारणाओं से नत्थी कर दिया है और, हम अपनी वैयक्तिक-सामाजिक निर्मिति में कुंठित नैतिकता और उन्मादी आदर्शों के विस्फोटकों में तब्दील होते चले जा रहे हैं। हम जिस ‘राजपथ’ पर चल पड़े हैं उसकी आने वाली नस्लें एक तरफ़ क़बीलाई उन्मादों से भरी होंगी और दूसरी तरफ़ इंसानी उदासियों से।

यह दौर इसी रास्ते पर चल पड़ा है। और यह जनता में नागरिक अनुभूति के लगातार असंभव होते जाने का रास्ता है। प्रवीण कुमार के इस ‘संग्रह’ की कहानियां इसी रास्ते धकेली जा चुकी जन-जनता-प्रजा में उस संभावना को रचती हैं, जिसे राजा और राज्य द्वारा हास्यास्पद भाषा में बदल दिया गया है। इस अर्थ में ये कहानियां राजा के विरुद्ध प्रजा का विलोमत्व रचने वाली कहानियां हैं। अपने समय के उस पंचांग को पढ़ने की चेष्टा से प्रेरित कहानियां, जिसके हरेक घर में देशी-विदेशी व्यापारी, श्रेष्ठी अपने-अपने उन प्रजाप्रियों के साथ विराजमान हैं, जिन्होंने विश्व के अधिकांश से जन-जनता-प्रजा को विस्थापित करने का यज्ञ भलीभांति जारी रखा हुआ है। इस जारी यज्ञ की ‘क्रोनोलोजी’ पकड़ने की चेष्टा, कथाकार प्रवीण कुमार के ‘संग्रह’ की कहानियों को वैश्विक बाज़ार के दौर की कहानियां बनाती है। वे बाज़ार, राज्य और जनता के त्रिकोण को देखने वाली कहानियां हैं, वैश्वीकरण के इस दौर में देशज के बदलते ‘समीकरणों की कहानियां।

मो. 9953486685


पुस्तक संदर्भ

मोक्ष और अन्य कहानियां : टेकचंद, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2020

बलमा जी का स्टूडियो : सोनी पांडेय, रश्मि प्रकाशन, लखनऊ, 2018

वास्कोडिगामा की साईकिल : प्रवीण कुमार, राजपाल एंड संस, नयी दिल्ली, 2020

 

 

  

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