कविता की विश्वसनीय आवाज़ें
बसंत त्रिपाठी
समय, समाज और उसकी परिधि में घट रही या घट चुकी घटनाओं का कविता में आने या कविता में लाने का तौर-तरीक़ा सभी कवियों का एक जैसा नहीं होता। हो भी नहीं सकता। यह तो कवि की रुचि, विचारधारा और उसके रचनात्मक-संस्कार पर निर्भर करता है, जिसमें समय-समय पर बदलाव भी आते रहते हैं। कवि का रचनात्मक-संस्कार भी कोई रूढ़ या बंद तत्व नहीं है। इसीलिए उसकी कविताएं भी बदलती रहती हैं। उसके तत्व और विन्यास के तरीक़े में परिवर्तन होते रहते हैं। यह परिवर्तन ही उसे नये विषय, नये रूप और नये शिल्प-विधान की ओर ले जाता है। उसे पुराने रूप और शिल्प में नयी दृष्टि और ऊर्जा से धंसने के लिए प्रेरित भी करता है। आर चेतनक्रांति, अरुण देव, महेश वर्मा और गीत चतुर्वेदी की कविताओं को पढ़ते हुए इसका अनुभव बार-बार होता है।
1. गीत चतुर्वेदी का कविता संग्रह ख़ुशियों के गुप्तचर
गीत चतुर्वेदी का यह तीसरा कविता-संग्रह है। अपने पूर्ववर्ती दोनों संग्रहों में उन्होंने जो कहन-शैली अर्जित की थी, इसमें वे उससे तनिक अलग दिखायी पड़ते हैं। वैसे हमेशा किसी किताब को उसी रचनाकार की पुरानी किताबों के साथ मिलाकर देखने की आदत, अच्छी आदत नहीं कही जा सकती। लेकिन दिक्क़त यह है कि इसके बिना किसी कवि को पसंद करने का सुदृढ़ आधार भी नहीं बन पाता। इस संग्रह और इसके पहले के संग्रह, न्यूनतम मैं की कई काव्य-पंक्तियां गीत ने सोशल मीडिया पर साझा की हैं। गीत की इन कविताओं पर कई लोगों की राय लगभग एक जैसी है कि वे लगातार कविताओं से सूक्तियों की ओर जा रहे हैं। सूक्तियों की प्रकृति कुछ ऐसी होती है जैसे जीवन को निचोड़कर किसी सार्वभौम सत्य को प्रस्तुत कर दिया गया है। सूक्तियों की प्रकृति वक्तव्य से ज़रा अलग होती है। कविता में कवि का वक्तव्य जीवन-स्थितियों के क्रम में उपस्थित होता है। यदि जीवन-स्थितियां सीधे न भी हों तो उसके संकेत ज़रूर होते हैं। लेकिन सूक्तियां अकसर नीतिशास्त्री या दार्शनिक के अंदाज़ में कही जाती हैं। प्रस्तुतकर्ता उन्हें सार्वकालिक और सार्वदेशिक सत्य की तरह प्रस्तुत करता है। यद्यपि सूक्तियां भी जीवन की वास्तविकताओं के क्रम में ही अर्जित और विकसित होती हैं।
गीत चतुर्वेदी ने इस संग्रह में कई कविताएं सूक्तियों के शिल्प में रची हैं। लेकिन इन्हें सार्वकालिक और सार्वदेशिक मानना भूल होगी। उदाहरण के लिए, पहली कविता ‘चार वचन’ की पहली ही पंक्ति को लें – ‘खिलायी गयी रोटी व दिये गये चुंबन कभी गिने नहीं जाते’। चुंबन को लेकर इस कथन में लोकप्रिय फ़िल्म, रोबोट के एक दृश्य की याद आना स्वाभाविक है। रोटी के बारे में कहा गया वाक्य भी मेज़बान या घर में रोटी परोसने वाले के लिहाज से तो सही है, लेकिन किसी ढाबे या रेस्त्रां के बेयरे के लिए यह ख़तरनाक हो सकता है। इसलिए ऊपर कहा गया है कि ये सूक्तियां नहीं हैं, बल्कि सूक्ति-शैली में लिखी हुई कविताएं हैं जो अपनी सहज और लगभग सपाट शैली में पाठक को अपनी गिरफ्त़ में ले लेती हैं। धूमिल कविता के बीच-बीच में ऐसे वाक्य टांकते थे। गीत ऐसे वाक्यों से ही कविता बुनते हैं। उनके ऐसे वाक्य अपने पाठक को उनके जीवन-संसार में उतरने की जनतांत्रिक छूट देते हैं।
गीत चतुर्वेदी बारहा कही गयी बातों को नये ढंग से कहने की चेतना के भी कवि हैं। कल्पना और चिंतन के बिना ऐसा हो पाना संभव नहीं है। पहली ही कविता का फिर से उदाहरण :
तुम बहेलियों के बुतों में फूल मत चढ़ाया करो
इससे चिड़ियों के पंखों में दर्द बढ़ता है
यदि भाव या विचार के स्तर पर देखें तो कोई नयी बात नहीं है। अत्याचारियों के प्रति श्रद्धा का भाव न रखने की बात कही गयी है क्योंकि ऐसा करने से पीड़ित जन को दुःख होता है। लेकिन बात जिस ढंग से कही गयी है वह अनोखी है। हमारे समय का समस्त राजनीतिक परिदृश्य इन दोनों पंक्तियों में सहसा उभरकर सामने आ जाता है।
गीत चतुर्वेदी में कुछ नया करने की तड़प है। कुछ नये ढंग से कहने की छटपटाहट है। लेकिन इस पर वे अपनी शालीनता का आवरण डाले रहते हैं। इस आवरण को उन्होंने विश्व कविता डूबकर पढ़ने के क्रम में पाया है। इसलिए उनकी कविता का स्वर यूरोपीय संभ्रांतता के निकट खड़ा दिखायी पड़ता है] लेकिन भाषायी ढांचा हिंदी का अपना है। ठेठ भारतीय। इस संग्रह को केवल सपाट लेकिन अपने पंजे में दबोच लेने वाले वाक्यों के लिए ही नहीं, उन नयी उपमाओं के लिए भी ज़रूर पढ़ना चाहिए, जिस पर कवि लगातार काम कर रहा है। ‘रूठी हुई’ कविता में वे कहते हैं :
धागों से ज़ख्म देती, खंजर से सिलती है।
वह मुझसे ऐसे बात करती है,
जैसे गलत कब्र पर फूल रखती है।
पहले खंड में ऐसी सूक्तियों के शिल्प में लिखी बहुधा कविताएं हैं, लेकिन मध्य खंड की कविताओं का मिज़ाज दूसरा है। संतों की-सी सहजता यहां भी है, लेकिन कविता का समूचा वैभव कविता के किसी एक खंड में नहीं, उसकी समूची संरचना के माध्यम से प्रकट होता है। इस खंड की अधिकांश कविताओं का मिज़ाज उनके दोनों पूर्ववर्ती संग्रहों से मिलता है। ये रचाव के सुख और समृद्धि से भरी हुई कविताएं हैं। यहां दुःख है भी तो इतने कलात्मक और दार्शनिक तरीक़े से, मानो वह अभीष्ट हो। गीत ने अपने जीवन के पन्नों को इन कविताओं में सीधे उतार दिया है। जो बात इन कविताओं के माध्यम से उभरती है वह यह कि कवि होना कोई विशेष दायित्व है, कि उसमें संवेदना और ज्ञान का विशेष तत्व होता है। वह लौकिक दृश्य को अलौकिक दृष्टि से देखता है। इस खंड में कुछ अपेक्षाकृत लंबी कविताएं कवि-व्यक्तित्व के प्रति अतिरिक्त आश्चर्य से भर देती है। गीत निश्चित तौर पर चिंतनशील कवि हैं। उनमें क्षण विशेष के अर्जित अनुभवों को तुरंत कविता में पलट देने की अपेक्षा धीरे-धीरे कल्पना के माध्यम से विकसित करने की इच्छा साफ़ दिखायी पड़ती है। इसलिए यदि क्रूरता या यातना भी है तो वह बहुत ही संयत तरीक़े से उपस्थित होती है। वे क्रूरताओं से इस हद तक संत क़िस्म की नफ़रत करते हैं कि उसकी आंच भी अपनी कविता में आने नहीं देते। ‘उस समय’ कविता की इन पंक्तियों को ज़रा देखें :
उस समय
मैंने अचरज किया कि हम कैसे मनुष्य हैं :
जिससे नफ़रत करते हैं, उसे मार देते हैं
जिससे प्यार, उसे कर देते हैं डंठल से अलग।
पत्थर की मूरत पर फूल चढ़ाते हैं और
फूल जैसे लोगों को पत्थर से मारते हैं।
ग़ौर कीजिए कि कवि आश्चर्य कर रहा है, नफ़रत या क्रोध नहीं। ‘हृदय एक खोया हुआ महाद्वीप है’ में भी लिखते हैं : ‘हर आदमी मकड़ी है/ अपनी पहुंच की परिधि में जाल बुनने में मसरूफ़’। यहां भी दुःख है, यातना या छटपटाहट नहीं। मन के उमड़ते भावों पर भाषा का कड़ा पहरा है। अपनी एक कविता में वे अपना परिचय कुछ यों देते हैं : ‘अकेले में खुद से बड़बड़ाता और समूह में सबसे चुप इनसान’। उनका पहरा जलते हुए दृश्यों के वर्णन में भी नहीं उठता। वे अपनी बेचैनियों की हिफ़ाज़त करते हैं, ‘अंततः ख़ुद कवि को करनी होती है/ अपनी बेचैनियों की हिफ़ाज़त’ और उसे बहकने नहीं देते। वे मृत्यु के दुःखद क्षणों में भी जीवन की ओर देखने वाले कवि हैं। ‘पुल गिरने से मरे आदमी के घर में’ भी वे देखते हैं :
मातम से भरे उस कमरे में
दो चीज़ें अब भी मुस्कुरा रही थीं :
मरने वाले की तस्वीर।
रोने वाली की गोद में दो माह का बच्चा।
इस संग्रह में मुझे एक ही ऐसी कविता ‘उपहास के बाद’ मिली जिसमें गीत ने अपने मद्धिम और संयत स्वभाव को खोया है, जिसमें उनकी झुंझलाहट पर कोई पहरा नहीं है। वह बेलाग तरीक़े से प्रकट हुआ है।
संग्रह के तीसरे और अंतिम खंड में भी पहले और दूसरे की तरह 27 कविताएं हैं। संरचना में ये निहायत छोटी-छोटी कविताएं गहरे बोध से जन्मी हैं। चिंतन के सतत क्रम में अर्जित बोध। गीत चतुर्वेदी के इस संग्रह को पढ़ते हुए कविता पर विश्वास और गहरा होता है। उन्होंने हिंदी कविता को नयी पहचान दी है। इसकी तसदीक़ संग्रह के अंत में की गयी ‘प्रमुख शस्तियों’ से भी की जा सकती है। सबसे अच्छी लगी संग्रह के बिल्कुल अंत में पाठकों के नोट्स के चार ख़ाली पन्ने इसी शीर्षक से छोड़ने की युक्ति। प्रकाशक और कवि दोनों ने पाठक को सम्मान दिया, यह हमेशा याद रखने वाली बात है।
2. महेश वर्मा का कविता संग्रह धूल की जगह
महेश वर्मा कवि और चित्रकार हैं। लंबे समय से लिखते और चित्र बनाते रहे हैं। इन दोनों ही कामों को करते हुए नवाचार और वैश्विक उपलब्धियों पर नज़र भी रखते हैं और अभिभूत भी होते हैं। रज़ा फ़ाउंडेशन के सहयोग से उनका पहला कविता संग्रह, धूल की जगह शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। महेश अपनी कविताओं से पाठक को मंत्रमुग्ध कर देने की क्षमता रखते हैं। उनकी कविता मुख्यतः जादुई वाक्यों की कला है। और कल्पना के जादुई विवरणों की भी। यद्यपि अतींद्रिय कुछ भी नहीं है। उनकी कविता में उपस्थित जीवन में निम्नमध्यवर्गीय जीवन के विषाद और उल्लास हैं, लेकिन उन्हें कविता में ले आने का तरीक़ा बिल्कुल अलहदा है। अपने इस तरीक़े के कारण वे तनिक अमूर्त भी प्रतीत होते हैं। यद्यपि अमूर्तता विवरणों में नहीं, बल्कि उसकी अन्विति में है।
महेश वर्मा में भी गीत चतुर्वेदी की ही तरह दुःख या उल्लास को उद्दीप्त और बेलौस तरीक़े से रखने की बजाय मद्धिम और संयत तरीक़े से रखने की काव्य-चेतना है। यह इधर के कई कवियों की अर्जित और विकसित काव्य-मुद्रा है। इन कविताओं को पढ़ते हुए वह भाव अक्सर संप्रेषित नहीं होता, जिसमें कविता विशेष का जन्म हुआ है, बल्कि संप्रेषण उसकी मुद्रा का होता है जिन्हें बहुत सोच-समझकर, सहज और स्वाभाविकता का रूप देकर गढ़ा गया है। लेकिन इसके साथ यह भी है कि यह कला बहुत आकर्षित करती है और कवि के प्रति उसका पाठक श्रद्धा और चमत्कार के भाव से भर उठता है। उदाहरण के लिए, उनकी एक कविता, ‘आदिवासी औरत रोती है’ को देख सकते हैं। इस कविता के केंद्र में भी मृत्यु है, लेकिन वह इतनी आकर्षक है कि मृत्यु की सारी भयावहता लुप्त हो जाती है, बचा रह जाता है भयमुक्त मृत्यु का विस्तार। इसका अर्थ यह बिलकुल नहीं है कि महेश विचार-शून्य कवि हैं। वे राजनीतिक रूप से सचेत और जागरूक व्यक्ति हैं। राजनीति के अंतर्विरोधों और विडंबनाओं पर उनकी गहरी पकड़ है। महेश को निजी तौर पर जानने वाले इसे जानते भी हैं। कभी-कभी कविता में भी वह प्रकट होता भी है, जैसे उक्त कविता के अंत में वे कहते हैं :
हम बहरहाल उन लोगों के साथ हैं
जिनकी नींद ख़राब होती है – ऐसी आवाज़ों से।
संवेदन-शून्य नागर और कथित संभ्रांत सभ्यता पर यह वैचारिक आघात है, लेकिन यह सबकुछ ‘अंडरटोन’ से बंधा हुआ है। इधर समकालीन कविता के एक धड़े ने ‘अंडरटोन’ को रचने में गहरी दिलचस्पी दिखायी है। बिखरे विन्यास, उत्तेजनाहीन भाषा, प्रत्यक्ष राजनीतिक घटनाक्रमों से विलगाव और कविता के यूरोपीय स्वर से अपनी भाषा को समृद्ध करने में उसने महारथ हासिल की है। क्या इसे हिंदी समाज का अपने समकालीन कवियों के प्रति उपेक्षा के फलस्वरूप लिया गया निर्णय कह सकते हैं? इसका ज़वाब तो वे कवि ही दे पायेंगे। एक बिल्कुल भिन्न संदर्भ में महेश वर्मा ने अपनी एक कविता, ‘इस समय’ में कहा है : ‘सुर ऊंचा होते ही फटने लगेगी आवाज़’।
गुजरे समय में, विशेषकर बीसवीं शताब्दी के काव्य-चिंतन में, विशेष का सामान्यीकरण साहित्यिक बहसों का केंद्रीय चिंतन हुआ करता था। लगता है उसे अब त्यागने की तैयारी दिखायी पड़ रही है। इसके स्थान पर विशेष का और विशेषीकरण कलात्मक चिंतन के इस पक्ष के केंद्र में आ गया है। इस पर नये सिरे से विचार होना चाहिए। क्या महेश इस ओर से बिल्कुल उदासीन हैं? ऐसा नहीं है। उनकी कविता ‘हरा रंग’ की इन पंक्तियों के देखने से इसका आभास भी मिलता है :
जब मेरी कविता जाने के लिए उठी तब मैंने उसके लबादे पर ध्यान दिया
उस पर अलंकारपूर्ण ढंग से कढ़ाई की गयी थी
उसमें कीड़ों ने बारीक छेद कर दिये थे
वह जैसे सफ़ेद काग़ज़ के मैदान में चलकर खो गयी
घटनाओं और दृश्यों का पुनराविष्कार करने की अद्भुत क्षमता महेश वर्मा के पास है। इसलिए रोज़मर्रा के अनुभव भी उनकी कविता में आकर बिल्कुल नये और अनोखे हो जाते हैं। संग्रह की शीर्षक कविता में इस रोज़ के अनुभव को पकड़ने की उनकी सूक्ष्म निरीक्षण दृष्टि के जादू से भला कौन बच सकता है :
किसी चीज़ को रखने की जगह बनाते ही धूल
की जगह भी बन जाती, शयन कक्ष का पलंग
लगते ही उसके नीचे सोने लगी थी मृत्यु की
बिल्ली
ऐसे छोटे-छोटे अनुभव-वृत्त को रखने के बाद वे कहते हैं कि ‘कोई गीत था तो यहीं था’। यह जीवन के प्रति गहरे विश्वास से पैदा हुआ है।
महेश वर्मा के इस संग्रह के बीच में 21 गद्य कविताएं है। इनमें से कुछ कविताएं – 'जनदर्शन', 'शेर दागना', 'मछलियां', 'नीला', 'पुराना', 'गुस्सा', 'अनुवाद' - निश्चित तौर पर इस संग्रह की उपलब्धि कही जायेंगी। 'पिता' कविता के गुस्सैल पिता, जो अब अशक्त हो गये थे, को लेकर ये पंक्तियां हमें अज़ीब ढंग से द्रवित कर देती हैं – ‘कभी कभी गुस्साने के उनके चेहरे की उपमा अब दे पा रहा हूं कि जैसे तलवार चलने में एक कौंध का बनना और हवा में सोख लिया जाना’। इसी तरह की कविता ‘पुराना’ भी है। इसमें एक कवि के रचनात्मक संघर्ष, ख़ासकर कुछ नया करने में पुराने से बचने की क़वायद और पुराने के आ जाने से उत्पन्न द्वंद्व को बेहतरीन तरीक़े से उन्होंने पकड़ा है। इस कविता को पढ़े बिना इस द्वंद्व-भाव को नहीं समझा जा सकता।
गद्य कविता के बाद की कुछ कविताएं भी इस संग्रह को विशेष बनाती हैं। कवि की उदासी और उष्णता दोनों के ही दर्शन इन कविताओं में होते हैं। यहां वाक्यों की चमक से अपने पाठकों को चकित कर देने की कला अपेक्षाकृत कम है, बल्कि कविता का समूचा वैभव शब्द, पंक्ति, और पूरी संरचना के दौरान और उसके बाद भी मिलता है, मिलता रहता है। ‘शब्दशः’ कविता में वे अपनी कविता की प्रक्रिया का ज़िक्र भी करते हैं। अनुभूत सत्य को अपने चिंतन से लगातार मांजते रहने के कारण महेश की ये कविताएं अत्यंत निखर उठी हैं। मुझे लगता है कि विश्व कविता की चमक से चौंधियाये पाठकों को आकर्षित करने के लिए पूर्वभाग, यानी गद्य कविता से पहले की कविताएं, यदि उनका पीआरओ हैं, तो ये अंतिम कविताएं उनकी क्षमता का पूर्ण प्रदर्शन हैं जिनमें अपने पाठक को भाव-विभोर और भाव-विह्वल कर देने की कला है। ‘काष्ठशिल्प’ इस दृष्टि से उनकी बेहतरीन कविता है। इसके अलावा भी पूरे संग्रह में, 'पिता बारिश में आयेंगे', 'कुर्सी', 'शू तिंग', 'लोहा और समुद्र', 'नसीहत', 'स्वीकार', 'अंत की ओर से', 'जाना' जैसी कुछ उल्लेखनीय कविताओं के लिए भी इस संग्रह को ज़रूर पढ़ना चाहिए। कई कविताएं पढ़ते हुए पूर्वज कवि की याद आना भी स्वाभाविक है। महेश ने तो ‘पूर्वज कवि’ शीर्षक से एक दिलचस्प कविता लिखी भी है।
महेश वर्मा की इन कविताओं को कलावाद और प्रगतिशीलता की पुरानी बहसों से समझना मुश्किल है। वैसे इन दोनों के बीच जो दीवारें थीं, वे लगातार ढही हैं। मैं नहीं जानता कि यह अच्छा हुआ या बुरा। क्या वह यांत्रिक बहस थी? क्या अबके जीवन ने उसके स्थगन को जायज़ क़रार दिया है? पता नहीं वह सचमुच की दीवार थी या वैचारिक रक्तपात के अहं से प्रेरित थी? तो क्या त्रिलोचन के उस प्रसिद्ध सॉनेट का अब कोई अर्थ नहीं रह गया कि ‘हिंदी की कविता, उनकी कविता है जिनकी सांसों को आराम नहीं था, और जिन्होंने सारा जीवन लगा दिया कल्मष को धोने में समाज के’। महेश वर्मा और गीत चतुर्वेदी की इन कविताओं के पढ़ने की राह में त्रिलोचन और नागार्जुन के उठाये हुए सवाल बार-बार खड़े हो जाते हैं। हालांकि मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि कविता का बहुलतावाद किसी एक रुचि से निर्देशित कभी नहीं हुआ और न होगा। लेकिन बहस ज़रूरी है।
3. अरुण देव का कविता संग्रह उत्तर पैगंबर
अरुण देव हमारे समय के समर्थ कवि तो हैं ही, सतत रचनाशील और ज़रा कटकर रहने वाले कवि हैं। उत्तर पैगंबर उनका तीसरा कविता संग्रह है। इस संग्रह में शामिल कविताओं का कोई एक मिज़ाज नहीं है। अरुण देव अपने कवि को पूरी तरह खुला छोड़ देते हैं। उसे अपनी मर्ज़ी से विषयों के पास जाने की छूट देते हैं। फिर विषय में अंतर्निहित मिज़ाज के अनुरूप अपना वस्तु-संसार बुनते हैं। वे मनुष्य को उसकी संपूर्णता में अपनी कविता में लाने की सतत कोशिश करते हैं। नागरिक चिंता, प्रकृति, समुदाय, स्त्री, प्रेम, सभ्यता, राजनीति और सोशल मीडिया के कई जाने-अनजाने पक्ष उनकी कविताओं में देखे जा सकते हैं। विषय के अनुरूप उनकी भाषा भी तरल, सपाट या वक्तव्यनुमा दिखायी पड़ती है।
अरुण देव की ये कविताएं उस संवेदनशील मनुष्य की कविताएं हैं जो देखने के अधिकार और कर्तव्य के विस्तार को अपने कवि-कर्म का केंद्र-बिंदु मानता है। उनके देखने की क्षमता केवल प्रत्यक्ष घटनाओं तक सीमित नहीं है। अतीत की रूढ़ व्याख्याओं और भविष्य की संभावित दुनिया को वे कई-कई कोणों से देखते और परखते हैं। जायसी और घनानंद पर लिखी कविताएं इसका प्रमाण हैं। घनानंद पर लिखी कविता, ‘सुजान’ तो हिंदी साहित्य की इतिहास-दृष्टि से सवाल करती हुई और इतिहास की पुनर्व्याख्या की मांग करती हुई महत्वपूर्ण कविता है। कविता के अंत में जब वे कहते हैं –
आह! हमारी हिंदी के पास 300 साल पुराने उस प्रेम के लिए
न सम्मान है, न शब्द
तो यह आक्षेप प्रेम, स्त्री, सामंतवादी अभिरुचि और पवित्रतावाद पर जैसे एक साथ आघात करता है। अरुण देव जब इतिहास की पुनर्व्याख्या की मांग करते हैं तो उनकी मांग पुनर्व्याख्या की सांप्रदायिक मांग से कितनी भिन्न है इसे पूरे संग्रह में देखा जा सकता है।
संग्रह की पहली ही कविता ‘रफ़ी के लिए एक शाम’ इस संग्रह की बेहतरीन कविताओं में से एक है। एक कार्यक्रम के संक्षिप्त विवरण पर केंद्रित इस कविता में स्मृतियों में बसी दुनिया को जिस संवेदनशील ढंग से उठाया है, वह इस कविता की खूबसूरती है। इसमें श्रोताओं को केंद्र में रखा गया है। संगीत पर केंद्रित कविताओं में अधिकतर सुर और कवि के ग्रहण-भाव के पारस्परिक संबंध और उसकी प्रक्रिया होती है। लेकिन अपने से इतर श्रोता के ग्रहण-भाव और उसके भीतर निर्मित संसार को पकड़ना एक नया ही कोण है। इसलिए मैंने कहा कि अरुण देव इस संग्रह में मूलतः एक संवेदनशील और वैचारिकी से समृद्ध दर्शक-कवि के रूप में सामने आते हैं। उनके देखने में सोचना और सोचते हुए देखना एक साथ चलता रहा है। एक छोटी-सी कविता, ‘पेपर वेट’ में इसे देखा जा सकता है :
उसका वज़न
काग़ज़ों को इधर-उधर बिखरने से रोकता है
भार से वह
काग़ज़ को कुचलता नहीं कभी भी
ताक़त की यह भी एक नैतिकता है।
अरुण देव की इन कविताओं में मनुष्य की गरिमा के दर्शन होते हैं। विशेषकर इस संग्रह की प्रेम कविताएं बार-बार पढ़ने के लिए आमंत्रित करती हैं। ये इतनी सहज और तरल हैं जैसे पानी। विछोह की मार्मिकता में भी प्रेम की गहराई और अधिक रेखांकित होती है। कोई अतिरिक्त मुद्रा नहीं, कोई भावावेश नहीं, कोई अत्युक्ति नहीं। सबकुछ सीधा, साफ़, सरल और पवित्र। साथ और विछोह, दोनों को समेटी हुई कविता, ‘अलग अलग’ पढ़ते हुए इसका एहसास होता। ‘काम की बात’ केवल दो पंक्तियों की कविता है, लेकिन संलग्नता की कितनी गहरी परतों से उभरी है : 'आज तुमसे बात हुई/ आज बस यही एक बात हुई।' प्रेम पर कविता लिखना किसी भी कवि के लिए चुनौतीपूर्ण होता है। इसमें भावुक या उच्छृंखल होने या फूहड़ होने के तमाम ख़तरे होते हैं। अलावा इसके, प्रेम चूंकि बहुत निजी भाव होता और उतना ही भाव-विह्वल कर देने वाला भी, इसलिए कविता लिखते हुए उसके आवेग से बच पाना अपेक्षाकृत मुश्किल होता है। इस नज़र से देखें तो अरुण देव इन कविताओं में सामर्थ्यवान कवि दिखायी पड़े हैं।
प्रेम कविता लिखते हुए अरुण देव जितने तरल और संलग्न भाव से भरे हैं, राजनीतिक कविताएं लिखते हुए उतने ही तार्किक और दृढ़। संग्रह के अंत में 'पुरस्कार का खेल', 'देशद्रोही', 'बहुमत' शीर्षक से तीन कविताएं और विशेषकर अंतिम कविता ‘मैं बीमार हूं’ ध्यान देने योग्य कविताएं हैं। ‘मैं बीमार हूं’ कविता में लिंचिंग, सत्ता की तानाशाही, क्रूरता और उसके बरक्स मध्यवर्गीय उदासीनता और आत्मकेंद्रिकता को अरुण देव ने रोज़ की घटनाओं के क्रम में उठाया है। दिल दहला देने वाली घटनाएं लगतार बढ़ रही हैं और उसी अनुपात में नागरिक चुप्पी भी। यह किसी भी कवि के लिए मुश्किल पैदा करने वाली स्थिति है।
इस संग्रह को समकालीन कविता के प्रातिनिधिक स्वरों के संकलन के रूप में भी पढ़ा जाना चाहिए। विविधता, परिवेश से जुड़ाव और हस्तक्षेप इसे महत्वपूर्ण बनाती है। संयत, मद्धिम, उत्तेजना, बुदबुदाहट और चिंतन के कई-कई स्वर इन कविताओं में देखे जा सकते हैं।
4. आर चेतनक्रांति का कविता संग्रह वीरता पर विचलित
कथित उदारीकरण से जन्मी मनोवृत्तियों को पकड़ने की दृष्टि से आर चेतनक्रांति की कविताएं लाजवाब हैं। वीरता पर विचलित उनका दूसरा संग्रह है। इसे पहले संग्रह का विस्तार ही कहना चाहिए। चेतनक्रांति हमारे समय के ऐसे कवि हैं जिनका देश और काल नियत है। पिछली शताब्दी के नब्बे के दशक से लेकर आज तक का समय। और देश, राजधानी दिल्ली, जिसमें दूरदराज के गांव-क़स्बे से खिंचे चले आते लोग। लेकिन फिर भी इन कविताओं का विस्तार सार्वकालिक और सार्वदेशिक है। इन कविताओं को हमारे समय की बेचैनी और तनाव की प्रतिनिधि कविताएं कहना चाहिए। कविताएं कैसे समाज, राजनीति और मन-मस्तिष्क़ के कोनों और दरारों को उघाड़ती हैं, यदि इसका जायज़ा लेना हो तो इस संग्रह की कविताएं ज़रूर पढ़नी चाहिए। समय के छद्म, पाखंड और भावुकता के भीतर छुपी वृत्तियों पर चेतनक्रांति जिस तरह से हमला करते हैं वह अद्भुत है। मैं पूरे यक़ीन और ज़िम्मेदारी से कह रहा हूं कि वे हमारे समय के उन विरले कवियों में हैं जिनकी कविताएं पढ़ते हुए पिछले तीस साल की बदलती दुनिया को समझने और उसमें खुद की स्थिति पर विचार करने की दृष्टि विकसित होती है।
चेतनक्रांति भारतीय कविता के भव्य प्रासाद में धंसते भी हैं और वहां से अपनी रचनात्मक-दृष्टि विकसित भी करते हैं। लेकिन कुछ अतींद्रिय या मुग्ध होकर ‘वाह’ कहलाने लायक़ रचने की काव्यात्मक-इच्छा उनके भीतर बिलकुल नहीं है। रघुवीर सहाय अक्सर याद आते हैं – ‘सन्नाटा छा जाये मैं जब कविता सुना कर उठूं, वाह वाह वाले निराश हो घर जायें।’ चेतनक्रांति में भी ज़बर्दस्त खिलंदड़ापन है। और भाषा भी बेहद साफ़ और निर्णित। संग्रह का शीर्षक ही अपना मंतव्य स्पष्ट कर देता है। वे हमारे समय की वीरता से विचलित हैं, क्योंकि वीरता आक्रमण करने और संहार करने का नाम है, जबकि जिसे कायर कहा जाता है वह दरअसल जीवन का समर्थक है। यह पावर डिस्कोर्स का भिन्न कोण है। इसीलिए वे देशभक्त को संबोधित करते हुए ‘देशभक्त हे’ शीर्षक कविता में लिखते हैं :
सपाट सोच, इकहरा दिमाग, दिल पत्थर ।
सैकड़ों साल से ठहरी हुई काई ऊपर ।
बेरहम सोच की ख़ुदकश निगहबानी से फ़रार ।
तुम जो फिरते हो लिये सर पे क़दीमी तलवार ।
तुमको मालूम भी है वक्त़ कहां जाता है ।
और इस वक्त़ से इनसान का रिश्ता क्या है ।
पावर डिस्कोर्स चेतनक्रांति की कविता का केंद्रीय स्वर है। इस शक्ति-संरचना के निर्माण के कारणीभूत तत्वों - मर्दवाद, जाति, धन, धर्म और उपभोक्ता-वस्तुओं पर उनकी नज़र गहरी है। इस शक्ति-संरचना के अर्जन के आकर्षण में दूर-दराज के गांव और क़स्बों से महानगरों में खिंचे चले आते लोगों के स्वप्नों और उनके जीवन-यथार्थ की वे अनदेखी नहीं करते। चूंकि स्थितियां उनके सामने खुरदुरी, नंगी और अपने वास्तविक आकार में हैं, इसलिए उसे रखने की भाषा भी खुरदुरी और लगभग अभिधात्मक है। अभिधात्मक होते हुए लंबी सांस खींचकर बरती हुई भाषा। ‘वरना’, ‘कविता के भले के लिए’, ‘काव्य-यात्रा’ जैसी कविताओं में उन्होंने अपनी कविता संबंधी मान्यताओं को रखा है। ‘कविता के भले के लिए’ में वे लिखते हैं :
आओ अब ये करें
कि सुरक्षित ऊब से निकली
बुद्धि-तरंगों को
रोकें
और कविता को साहित्य-क-र-मि-यों के चंगुल से निकालें।
चेतनक्रांति न केवल 'सुरक्षित ऊब' से कविता को निकालने का आह्वान करते हैं बल्कि अपनी कविता को निकालते भी हैं। मर्दवाद और स्त्रीवाद के नये संस्करणों पर केंद्रित जो कविताएं उन्होंने लिखी हैं, वे हमारे समय सेक्सुअलिटी को समझने का एक ज़रूरी अध्याय हैं। चार खंडों में विभाजित इस संग्रह के तीसरे खंड में नयी स्त्री को परिभाषित करने के क्रम में लिखी कविताएं हैं। ये स्त्रियां खाप पंचायतों, बेधने वाली दृष्टियों, बलात्कार की आकांक्षा पाले घूम रहे हर उम्र के मर्दों, धर्माचार्यों, नैतिकता के नाम पर स्त्री को दीवारों के भीतर बंद करने वाली इच्छाओं के सामने अपनी देह-भाषा, अपने स्वप्न और इरादों के साथ तमाम जुल्मों को झेलती हुई लेकिन प्रतिकार करती हुई साकार खड़ी स्त्रियां हैं। वे इन्हीं स्त्रियों की ओर से कहते हैं :
अपने हल, अपने खुरपे, अपने फावड़े, अपनी लाइसेंसी बंदूकें,
बांहों की मछलियां, जांघों का जांगर, मूंछें,
अपने बेसिर के लोथ शिश्न-योद्धा लड़कों को लेकर
तू जा यहां से
निकल, समेट अपना पसारा
('अब मन की मेहनत कर ताऊ')
ऐसी फटकार, लताड़ और मर्दवाद का पानी उतार उसे शर्मिंदा भाव से भर देने वाली गज़ब की धारदार कविताएं उन्होंने लिखी हैं। इस फटकार भाव में स्त्री का आत्म-सम्मान और अपनी देह के प्रति सम्मान का भाव भी प्रकट हुआ है। ‘यहां जींस बिकती है’ इस दृष्टि से उल्लेखनीय कविता है। सीएए के विरोध में युवा स्त्रियों ने जिस क़दर प्रतिरोध को अंजाम दिया, वह इस कविता के महत्व को प्रमाणित करता है। इसी में वे लिखते हैं – ‘जहां भी कोई बेडौल ख़तरा कुलबुलाता है/ बचाने को एक जींस आ ही जाती है।’ हालांकि उनकी यह कविता उक्त प्रतिरोध के बहुत पहले लिखी गयी है। मर्दवाद को वे कैसे नंगा और अपमानित करते हैं इसे देखने के लिए ‘इनके ऊपर हंसो’ कविता ज़रूर पढ़नी चाहिए। इसमें उन्होंने ऑनर किलिंग के नाम पर अपनी लड़कियों की हत्या कर जेल में बंद गर्वीले पिताओं पर उसी तरह हंसने का प्रस्ताव रखा है जैसे बच्चे सर्कस में भालू का खेल देखकर हंसते हैं।
चेतनक्रांति समय की प्रखर आलोचना यदि अपनी कविताओं में करते हैं तो इस समय के आने के कारणों पर भी नज़र रखते हैं। इसलिए उनकी आलोचना एकांगी नहीं लगती। ‘सीलमपुर की लड़कियां’ उनकी प्रसिद्ध कविता है जो पहले संग्रह में है। इस संग्रह में सीलमपुर के लड़कों पर भी इसी शीर्षक से एक कविता है जिसमें उन राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों को समझने की कोशिश की गयी है जिसने बाद के समय को गढ़ा। धर्म और राजनीति के संबंधों को समझने के लिए वे नब्बे के दशक के पहले के ठहराव और उससे जन्मे खालीपन, मीडिया और कारपोरेट पूंजी के निर्देशन में उतरे बाज़ार के गठजोड़ की बारीक़ शिनाख्त करते हैं। लेकिन यदि चेतनक्रांति की कविताओं की भाषा पर बात नहीं हुई तो कविताओं पर बात अधूरी ही रह जायेगी। भाषा से खेलने और श्लील और मखमली और अनकहे को साधती मौन-धीर-गंभीर भाषा के प्रति उनका आक्रोश न केवल सिद्धांत रूप में आया है बल्कि यह उनकी कविता का वैभव भी है। इस पर ज़्यादा कुछ न कहते हुए केवल दो छोटे उद्धरण :
हर सड़क का नाम स्वदेशी ? जी साहिब कर दिया
हर तरफ हुक्काम स्वदेशी ? जी मालिक कर दिया
औरतें साड़ी में निकलें ? ओत्तेरी, जी भेज दीं
साथ में सिंदूर की डिबियाएं भीं? जी, भेज दीं
मुझसे अपने स्वार्थ छिपाते नहीं बनते
अपने लालच-लोभ मैं धाड़ से कह देता हूं
जिन्हें सुनकर सलीक़े / अवाक रह जाते हैं
(भय-प्रवाह)
जाने क्यों
पर यह मुझे ज़्यादा घातक लगता है
कि दाबे बैठे हैं और धीरे धीरे छोड़ रहे हैं
(सीधी सड़क-टेढ़ी सड़क)
संग्रह के अंतिम खंड में प्रेम से संबंधित कविताएं हैं। ‘प्रेम से संबंधित’ इसलिए कहा कि इसमें प्रेम तो है लेकिन वह प्रचलित प्रेम कविताओं से बिलकुल अलग है, क्योंकि इसमें भी भाव और परिवेश का सतत संघर्ष जारी रहता है। इस संग्रह में केवल एक कविता, ‘बच्ची और बूढ़ा पेड़’ फ़ैटेसी-परक है। प्यार में भी पावर डिस्कोर्स की शिनाख्त़ करने की आकांक्षा चेतनक्रांति को सतत जागरूक कवि सिद्ध करने के लिए काफ़ी है। चेतनक्रांति की ये कविताएं अपने पाठक को मुग्ध नहीं करतीं, उन्हें आलोचन-संपन्न और विवेक-संपन्न बनाती हैं। इसके लिए वे सभ्यता के अंधेरे कोनों का सामना करते हैं। सभ्यता रूपी फोड़े के ऊपर की पपड़ी को उघाड़ देते हैं। अब इसमें खून और मवाद निकले तो इसे कवि का नहीं सभ्यता का दोष मानना चाहिए।
मो 9850313062
पुस्तक संदर्भ
1. ख़ुशियों के गुप्तचर : गीत चतुर्वेदी , रुख़ पब्लिकेशंस प्रा. लि., दिल्ली, 2019
2. धूल की जगह : महेश वर्मा, राजकमल प्रकाशन प्रा.लि., नयी दिल्ली, 2018
3. उत्तर पैगंबर : अरुण देव, राजकमल प्रकाशन प्रा.लि., नयी दिल्ली, 2020
4. वीरता पर विचलित : आर चेतनक्रांति, राजकमल प्रकाशन प्रा.लि., नयी दिल्ली, 2017
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