काव्य चर्चा-5

 श्रेष्ठता के अमानवीय रूपों का सामना करती कविता

बली सिंह

इस दौर में भूमंडलीकरण रचना और रचनाकारों की चिंता के केंद्र में बना हुआ है। सांस्कृतिक धरातल पर जैसे-जैसे वह प्राथमिकता पाता गया, वैसे-वैसे रचना में भी उसने प्राथमिकता हासिल कर ली – रचना के सभी रूपों में, या कहें कि कला के तमाम रूपों में। इसे मोटे तौर पर विश्वस्तर पर चली बाज़ार की मुहिम कह सकते हैं जिसे कुछ चिंतकों ने अंतर्राष्ट्रीय उदारवादी लोकतांत्रिक प्रक्रिया भी कहा है। यह प्रक्रिया वास्तव में जितनी समाहारी है उससे कहीं अधिक बहिष्कारी है। इसने बहुत सारे तबक़ों को हाशिये पर धकेल दिया है, किसान, मज़दूर, छोटे व्यापारी, लघु उद्यमी, निम्न मध्यवर्ग इत्यादि से युक्त एक व्यापक हाशिया निर्मित हुआ है।  इस बीच समाज में खाई भी बढ़ी है और हाशिया भी।  इसके प्रतिरोध स्वरूप  रचनाकारों का ध्यान सांस्कृतिक क्षेत्र में व्याप्त नये-पुराने श्रेष्ठता के प्रचलित प्रतिमानों-प्रतिष्ठानों के दमनकारी रूपों की ओर गया और उन्होंने उत्पीड़ित, उपेक्षित, दमित अस्मिता रूपों की पहचान को तरजीह दी, जिसमें नये-पुराने दोनों ही शामिल हैं। इधर की कविता में हमें इन्हीं उक्त रूपों की, दमनकारी और दमित रूपों की ‘बाइनरी’ उपस्थिति देखने को मिलती है। इसे हम यथार्थ का विशिष्ट रूप भी कह सकते हैं जो नव-यथार्थ है। जैसे अन्य क्षेत्रों में विशिष्टीकरण बढ़ा है उसी तरह कविता के क्षेत्र में भी सामान्य यथार्थ की जगह विशिष्ट यथार्थ का दख़ल बढ़ा है जो इस दौर की कविता की ख़ासियत है। इधर आये कुछ काव्य-संग्रहों को लेकर इस पर ठोस रूप में विचार किया जा सकता है।

कवि शंभु यादव का एक नया काव्यसंग्रह आया है – साध रहा है जीवन निधि। शंभु की प्राथमिकता साधारण जन है, - उसमें मज़दूर है, किसान है, लोक के रूप हैं, जिसमें गांव भी शामिल है। इन सब का विरोध भूमंडलीकरण की चल रही प्रक्रिया के विविध रूपों से है। उसके विनाशकारी चरित्र से है। जो श्रेष्ठता के नये अमानवीय रूप हैं, ग़रीब आदमी उसका दुष्परिणाम झेल रहा है। कहीं मिल बंद होने से मज़दूर फ़ालतू हो गया है – 'रोज़ दोपहर तेज धूप में लू मार खा/ खड़ा रहता है बंद पड़ी मिल के सामने/ मार खाया मज़दूर है, फ़ज़ूल है' (साध रहा है जीवननिधि, पृष्ठ-92) तो कहीं 'ख़स्ताहाल किसान और/ ख़स्ताहाली ख़ुदकुशी' है (वही, पृष्ठ-12) और, कहीं लोगों की सुबह ही मनहूसियत से भरी है। शंभु की एक कविता ‘मेरी गली की एक सुबह’ में  जब ‘मैं’ सुबह अपने कमरे से बाहर निकलता है तो ‘लेटे बीमार पिता’ दिखते हैं, फिर बालकनी में ‘पड़ोसी, जिसकी मां की मृत्यु हुई है परसों’, और ‘बाहर गली में कूड़े भरी थैलियां’ दिखती हैं। गली में ‘पेड़ पौधे और चिड़िया-कबूतरों’ का तो नामोनिशान ही नहीं है – ‘अजीब निराली है यह सुबह’ और दावा किया जा रहा है कि ‘मौसम बसंत का है’ (वही, पृष्ठ-22) उक्त प्रक्रिया के चलते एक तरफ़ तो यह सब घटित हो रहा है और दूसरी तरफ़ 'मल्टी नेशनल वैभव/ महानगरीय तामझाम' (वही, पृष्ठ-17), और ‘ग्लैमर’ से भरी दुनिया छायी हुई है, जिसमें  'मोबाईल टावरों की / आकाशीय टीम-टाम' है।(पृष्ठ-17), ‘इंद्रजालिक होर्डिंग’ हैं (पृष्ठ-28), ‘टीवी के रुपहले परदे पर खुलती’ देवलोक खिड़की है, ‘नाना रूप धर वैभवशाली फ्लैट्स’ हैं, ‘स्त्री-देह’ है, लुभावने विज्ञापन हैं, अप्सरा देह-छवि और अलौकिक देवालय’ हैं।(वही, पृष्ठ-84) कुल मिलाकर एक ‘इंद्रलोक’ (जादुई संसार)  ही रच डाला है। इंद्रिय सुखों की प्रबलता लिये हुए। शंभु ने खाने में ‘मैकडोनाल्ड बर्गर’ और पीने में ‘फ्रेंच रेड वाईन’ का ज़िक्र अपनी कविताओं में किया है। यानी भोग-उपभोग पर बल है और उपभोक्ता संस्कृति का बोलबाला है, इस जादुई संसार में। इस जादुई संसार का क्रिटीक है शंभु यादव का काव्यसंग्रह, साध रहा है जीवननिधि 

इस ‘इंद्रलोक’ ने लोगों को भ्रमित कर रखा है। ‘आमजन के सपनों में मनोहारी दस्तक’ दे रहा है। (वही, पृष्ठ-84) मज़दूरों को लोगों के मानस पटल से बेदख़ल कर रहा है यह, - 'लेकिन इस वंचयिता को नहीं पता है/ मेरे दिमाग़ के अंदर , जहां/ उसका होना घटित हो रहा है/ उसे किसी अन्य प्रबल-परत ने आ घेरा है' (वही, पृष्ठ-78) नतीजतन मज़दूरों के दुःख उसके दिमाग़ की स्क्रीन से ग़ायब हो रहे हैं, -'लिखी जानी जो मज़दूर-व्यथा कथा/ फिर से दिमाग़ के स्क्रीन पर लाने में/ फ़िलहाल, नाकामयाब मैं' (वही, पृष्ठ-73) यानी आज के मनुष्य का मज़दूरों तक स्थानांतरण होने ही नहीं दिया जा रहा है। यही स्थिति किसानों के साथ भी घटित हो रही है। लोग उसके बारे में गढ़े गये खुशहाली के मिथ में फंसे हैं। एक आम धारणा बना दी गयी है कि ' मेरे देश की धरती का किसान / खुशहाल आबाद है, / चौपाल में बैठ/ फुरसत से हुक्का गुड़गुड़ाता है/ खेलता है चौपड़'(वही, पृष्ठ-12) जबकि सच्चाई इसके उलट है। उसकी हालत ख़स्ता है और वह ख़ुदकुशी कर रहा है। किसानों के संबंध में बनाये गये इस मिथ को तोड़ने का काम शंभु की कविता करती है। उक्त मायाजाल में फंसे व्यक्ति की दुर्गति भी शंभु यादव की कविता में है। ‘कपालक्रिया’ उनकी ऐसी ही कविता है, जिसमें एक ‘नया आदमी आसमान मुख़ातिब’ मोबाईल टावर के ‘अंतिम सिरे पर पहुंच कर ‘आनंदित’ था, बौराया, भूला अपनी चेतना’(वही, पृष्ठ-14) बदहवासी में उससे ऊपर वाला किनारा छूट जाता है और वह 'लौह स्तंभों के बीच से अटकता-पटकता/ धरती आ गिरा धड़ाम, खूनम-खून, चित्त'(वही, पृष्ठ-11) यह इस विकास की विसंगति है, जिसके शिकार बहुत लोग हो रहे हैं। उक्त ‘इंद्रलोक’ में देशी-विदेशी व्यापारी बहुत सक्रिय नज़र आते हैं। इनकी वजह से न केवल मज़दूर बेदख़ल हुए हैं वरन् प्रकृति समेत लोक के रूप भी बेदख़ली का शिकार हो, दृश्य-पटल से ग़ायब होते जा रहे हैं। ‘वहां बाग़ रहता था’ नामक कविता इसी ओर इशारा करती है। जिस बाग़ में बचपन का आनंद कवि ने लिया था, दीवार फांद कर घुस जाना और तरह-तरह की चीज़ों का ‘कचरी बेलें, खरबूजे और तरबूजे’ का ‘मीठा मुलायम स्वाद’ और ‘सर्द धूप में बेरों का आनंद लेना, वह बाग़ अब उजड़ चुका है। ‘उजाड़ वाला बाग़ कहे जाने वाली/ उस धरती के, पेड़ कट चुके हैं/ मोल कर  भेज दिये गये हैं शहर को'(वही, पृष्ठ-44) अब 'देशी-विदेशी अंग्रेज़ देखे गये हैं वहां/ जहां बाग़ रहता था'(पृष्ठ-44)

इन्हीं के अनुसंगी ‘तिलकधारी माला-भंडार पहने’ कर्मकांडी और रूढ़िवादी महान आत्माएं हैं, जो लोगों को भ्रमित कर रही हैं। कवि शंभु यादव ने ‘गीता एकमात्र रास्ता है’ और ‘उसने नया कुछ कहा क्या’ कविताओं में इसी भ्रम को चिन्हित किया है। नये और पुराने दोनों तरह के भ्रमों से ग्रस्त व्यक्ति, श्रेष्ठता के इन प्रतिमानों से त्रस्त व्यक्ति, ‘महानगरीय पीड़ा’ भुगतता हुआ आज दिल्ली का हाशिया है। यथार्थ के अनेक ख़ास रूपों को हमारे सामने रखते हुए शंभु यादव ने उक्त मायावी संसार की असंगति को उजागर किया है। 

शंभु यादव की तरह ही कवि जवाहर लाल जलज की कविताओं में भी भूमंडलीकरण की चुनौती, ग़रीब आदमी, मज़दूर-किसान और ग्रामीण लोक चिंता के केंद्र में है। उनका हाल-फ़िलहाल आया काव्य-संग्रह, रहूंगा उन्हीं शब्दों के साथ इस बात का गवाह है। जलज जी ने नये श्रेष्ठता रूपों के बढ़ते दबदबे, उसकी बढ़ती एकरूपता और केंद्रीयता का विरोध अपनी कविताओं में किया है। एक कविता ‘कृतघ्न महासागर’ में वे बताते हैं कि जो नदी समुद्र के पास आयी है उसका वह वजूद ही मिटा देता है, - 'मिटा देते हो तुम/ उसका नामों-निशान तक/ हमेशा-हमेशा के लिए/...कितना अच्छा होता कि/ बना रहता उसका भी अस्तित्व'(रहूंगा उन्हीं शब्दों के साथ, पृष्ठ-27) इसी तरह ‘दुनिया यह सूरज का विज्ञापन’ कविता में सूरज का एक अलग ही प्रतीकार्थ है, 'सूरज उग आता है अचानक/ किसी महापुरुष की तरह' और खो जाती है 'संघर्षरत तारों की मनमोहक दुनिया/ और दहक रहा होता है-/ एक तमतमाता हुआ इतिहास पुरुष सूरज/ तारे कहीं नहीं होते/ उनके इतिहास की किताबों में' (वही, पृष्ठ-30) सूरज यहां सर्वसत्तावाद का प्रतीक है। जिसके चलते तारों की दुनिया ही कहीं खो जाती है। बहुलता और विकेंद्रीयता ख़त्म हो जाती है। एक केंद्रीय चमक दमक न जाने कितनों की पहचान को ख़त्म कर उन्हें दृश्य पटल से ही ग़ायब कर रही है। उत्पीड़ित करते हुए हाशिये पर तो धकेल ही रही है। कवि की इच्छा है कि उनकी भी पहचान बनी रहे और समुद्र जैसे महा केंद्र के सामने उसका अस्तिव भी बचा रहे। भूमंडलीकरण का रूप भी कुछ ऐसा ही है। कवि जलज ने उसे भूत कहा है। उनकी एक कविता है ‘भूमंडलीकरण का भूत’। यह भूत कुछ ज़्यादा ही ख़तरनाक है, भूत सीधे भी होते हैं (ऐसी कहानियां लिखी भी गयी हैं) पर 'यह ऐसा भूत है/ जो पसंद करता है सवार होना/ सिर्फ़ मज़दूर, किसान, मजबूर इंसान/ और असह्य आम जनता पर ही'(वही, पृष्ठ-49) ‘भूत’ शब्द में पुराने साम्राज्यवाद का भी संकेत छिपा है, क्योंकि इसका भी वही लक्ष्य है जो पहले का था। यानी ‘विस्तारवादी अभियान’(वही, पृष्ठ-49) इस अभियान में जो संलग्न हैं उन्हें कवि ने ‘कुबेर के वंशज’ कहा है – 'नहीं सोचते कुबेर के वंशज/ कि जो मज़दूर हैं/ दीन हीन किसान हैं/ वे भी हैं इंसान' (वही, पृष्ठ-29) वे इनको पशु बनाने पर तुले हुए हैं। कवि के मुताबिक़ हमारे देश का ग़रीब आदमी ऐसा ही है जैसे बैल होते हैं – 'देखा है कभी ध्यान से उन बैलों को/ जो लादे हुए कंधों पर/ ज़िम्मेदारियों का जुआ'( वही, पृष्ठ-31) यह ग़रीब आदमी का विशिष्टीकरण है जो हमारे इस दौर ने कर दिया है। ये यथार्थ का ख़ास रूप है। बैल का घनिष्ठ संबंध किसानों से सदैव रहा है, और कवि जलज की कविताओं में किसानों की चिंता प्रमुखता लिये हुए है। इसी संग्रह में उन्होंने किसानों पर गीत भी लिखा है और छंदमुक्त कविता भी। लेकिन दोनों ही तरह की कविताओं में विचारों की प्रमुखता है। ‘पिसा जा रहा है किसान’ गीत में चिंता व्यक्त हुई है कि 'देखो, अब कंगाल किसान सचमुच ही है विकट तबाह/ ग्रस्त अभावों में रहता है हर धनहीन किसान यहां'(वही पृष्ठ-113) और, ‘किसान’ नामक कविता में उसके श्रम का ‘मनुष्यता’ के लिए महत्त्व रेखांकित करते हुए प्रश्न किया गया है कि ‘क्यों नहीं आंका जाता है?/ उसके श्रमसाध्य अवदान का सही मूल्य'(पृष्ठ-53) ऐसी कविताओं में विचारों के सीधे ‘कहन’ के ज़रिये एक सामान्य यथार्थ की उपस्थिति पायी जाती है। कलात्मकता की कमी ज़रूर खटकती है, पर व्यापक सरोकार की नहीं। उनके सरोकार की जड़ें ‘हलाल होते पेड़’ तक जाती हैं – 'आदमी है कि /बना हुआ है जीवधारियों में महान/ चतुर, कुशल, बुद्धिमान/ कर रहा है हलाल/ एक एक पेड़'(पृष्ठ-55)

  महानता या श्रेष्ठता के ये रूप विस्तारवादी रवैया अख्त़ियार करते हुए प्राकृतिक रूपों को ही नष्ट नहीं कर रहे हैं, वरन् लोक को भी तबाह कर रहे हैं – ' लोक अब तबाह है/ वक्त़ खुद गवाह है’(वही, पृष्ठ-72) इस अमानवीय कृत्य के बरक्स कवि को कविता पर, उसकी क्षमता पर पूरा यक़ीन है। ‘मैं कविता हूं’ में कवि स्वयं कविता के मुख से कहलवाता है कि 'नहीं मार पाता है मुझे क्रूर महाकाल/ मैं रहती हूं जीवित हर काल, हर हाल/ बचाने के लिए जूझती मनुष्यता के प्राण'(वही, पृष्ठ-57) कविता वास्तव में वह सृजनात्मक शक्ति है जो सर्वकालिक और प्राणदायिनी है। कविता–केंद्रित बहुत सारी काव्य-रचना कवि जलज ने की है, वे कविता की अस्मिता की पहचान कराने वाले कवि भी हैं।

कविता को लक्ष्य कर हरेराम समीप ने भी कई कविताएं लिखी हैं। उनके हाल-फ़िलहाल आये काव्य-संग्रह का नाम ही है, शब्द के सामने। शब्द कविता या रचना की लघुतम इकाई भले ही हो, पर वह अनिवार्य और मूल इकाई है। कई कवियों ने शब्द को कविता ही कहा है, जिसमें त्रिलोचन शास्त्री का भी नाम लिया जाता है। उनका तो एक कविता-संकलन ही है, शब्द। समीप जी के लिए भी वह कविता और उससे आगे बढ़कर अभिव्यक्ति का पर्याय है।  वे भी शब्द की शक्ति से परिचित हैं – 'शब्द ने बचायी थी/ यह सुंदर मानव सभ्यता/... शब्द ने बनाया है सदैव/ निर्बल को सबल/ निर्जीव में फूंके हैं प्राण।'(वही, पृष्ठ-11) पर इन दिनों तो स्थिति ऐसी हो गयी है कि उसके अस्तित्व पर ही संकट आन पड़ा है –'आज भटक रहे हैं शब्द/ भय व असुरक्षा के बीहड़ में'(पृष्ठ-16) इससे तो फिर भी वे कभी न कभी निकल आयेंगे, पर सबसे बड़ा संकट तो यह है कि वे ग़लत हाथों में पड़ गये हैं। वे न सिर्फ़ 'बाज़ार में बिक रहे हैं' वरन् ' बाबाजी के कमंडल में रखे हैं शब्द' और जिन्हें 'ईश्वरीय प्रसाद' की तरह बांटा जा रहा है।(वही, पृष्ठ-17) यानी वे व्यापार और रूढ़िवाद के शिकार हो रहे हैं।

हरेराम समीप ने हमारे जीवन में बढ़ते बाज़ार के दख़ल और उसके दुष्प्रभावों को अपनी कविताओं में प्रमुखता से जगह दी है। उनकी प्राथमिकता भी साधारण जन जीवन ही है जो मज़दूरों, किसानों और गांव से बना है। कवि के अनुसार इसमें भुखमरी का वास है – 'भूख/ चारे की तरह खा रही है ज़िंदगियां/चपर चपर'(वही, पृष्ठ-37) बच्चों से लेकर बड़े तक इसकी गिरफ्त़ में हैं। कहीं ‘भूख से बेबस’ बच्चा चौक पर तरह तरह का सामान बेचने पर मजबूर है( पृष्ठ-25), तो कहीं उसे 'बेचा गया/भूख के बदले / महानगर से' और उलटे ' रोटी उसको चबा रही है'(वही, पृष्ठ-27)। यही हालत किसान की भी है। 'भूख की रस्सी/ कसते कसते' उसके गले पर ‘ठहर ही गयी है(वही, पृष्ठ-24) और, मज़दूर की रोज़ी-रोटी का कोई ठिकाना ही नहीं है। उसे तो मुक्त बाज़ार के हवाले कर दिया गया है। जगह जगह उग आये हैं ‘लेबर चौक’, जहां पहुंचने के लिए जल्दबाज़ी में लग जाता है सुबह सुबह मज़दूर – 'करे पहुंचने की जल्दी वह/लेबर चौक पर बिक जाने को / सबसे पहले'(वही, पृष्ठ-30) इतना ही नहीं, बाज़ार की ऐसी सत्ता तो कभी नहीं दिखी हमारे यहां। धंधेबाज़ की नज़र गांव पर पड़ी 'तो नये माल की तरह / उसने खूब गांव को बेचा/ बड़े-बड़े बाज़ारों में / अंतर्राष्ट्रीय मंडियों में'(वही, पृष्ठ-36) वास्तव में बाज़ारी-सत्ता की बेचैन अभिव्यक्ति है हरेराम समीप की कविता, क्योंकि ‘ग्लोबल स्प्रिंग मैजिक’ पर उसी का कब्ज़ा है। (वही, पृष्ठ-79)

बाज़ार यहां अकेले ही इतना शक्तिशाली नहीं हो गया है। उसके अनुसंगी राजनेताओं का इसमें बड़ा हाथ है। एक ख़ास तरह की रानजनीतिक शक्ति इसके पक्ष में लगी है। इस ‘लगन’ पर कवि राकेश रेणु  ने काफ़ी कविताएं लिखी हैं जो उनके काव्यसंग्रह, इसी से बचा जीवन में नज़र आती हैं। राजनीतिक कविताएं राकेश रेणु की काव्य-रचना का ख़ास पहलू हैं। वे ‘राजनेता : एक’ और ‘राजनेता : दो’ में बताते हैं कि 'महज़ एक आढ़तिये की सेंध' बन राजनेता ' लगातार रौंदते हैं हमारी उम्मीदों के खेत'(इसी से बचा जीवन, पृष्ठ-47-48) वे ‘स्मार्ट’ हो गये हैं – 'नेता कब के हो गये स्मार्ट'। वे इतने स्मार्ट हो गये हैं कि जब वास्तविक दुनिया में कुछ दे नहीं पाते तो हमें आभासी दुनिया में ले जाते हैं और 'आभासी विकास /आभासी रोज़गार' का भ्रम बनाये रखते हैं।(वही, पृष्ठ-40) इस आभासी दुनिया का एक सच ‘उत्तर सत्य’ भी है। राकेश जी ने ‘उत्तर सत्य: एक’ और ‘उत्तर सत्य: दो’ नामक कविताएं लिखी हैं। कवि के अनुसार आज हमें ऐसे मानस लोक में पहुंचा दिया गया है जहां 'सच एक मरीचिका है' जो वास्तव में सच है वह तो असत्य लगता है और असत्य ही सत्य है – 'रामनाम सत्य है/ मौत का तरीक़ा सच है/ मारना खदेड़ना – बतंगड़/ वह सच नहीं'(वही, पृष्ठ-41) यहां तक कि 'आत्महत्या करने वाले का बयान' तक सच नहीं है।(वही, पृष्ठ-42) यह एक ऐसी राजनीति है जो हमें बहकाने के लिए सुदूर अतीत-गौरव का पाठ पढ़ाती है। एक ऐसी श्रेष्ठता के आभासित काल में पहुंचा देती है जहां से निकलना बहुत मुश्किल है। सुदूर अतीत की श्रेष्ठता के अनेक मिथ हमारे बीच में प्रचलित हैं।  कवि राकेश रेणु ने अपनी कविता ‘उत्तर सत्य: दो’ में उनके अनेक रूपों को चिह्नित किया है। जैसे, ‘हम शांतिप्रिय हैं’, ‘विविधता में एकता वाले’, ‘दलित, स्त्रियां, वंचित,, सब बराबर यहां, असहमति का आदर परंपरा हमारी’, इत्यादि। 'हज़ारों साल पहले/ हमने दिये दुरूह शल्य कौशल/ आणविक शक्ति रही हमारे पास/ हमने ही बनाये विमान, राकेट, मिसाइलें/ पहले-पहल/ किया सदैव सर्वश्रेष्ठ / श्रेष्ठता हमारी रही प्रश्नातीत'(वही, पृष्ठ-43-44) इतने सारे आख्यानों-किवदंतियों को इस अंदाज़ में कवि ने रखा है कि आज के ठोस हालात से टकराकर उनका उलट पाठ होने लगता है। यानी जिसे सच बनाकर पेश किया जा रहा है, व्यवहार में कहीं दिखता ही नहीं। यही ‘उत्तर सत्य’ है। इस उत्तर सत्य के झांसे में फंसने वालों की कमी नहीं है हमारे देश में। अतीतोन्मुखता बढ़ी है और ज़ाहिर है, धार्मिकता भी। कवि के अनुसार 'उस युग में कुछ न होगा धर्म के सिवा/ केवल एक रंग उगेगा'(वही, पृष्ठ-45) और यह भी स्थिति है कि कुछ लोग ऐसे हैं जो इस इस रंग में नहीं रंगेंगे, और मर जाना पसंद करेंगे। यानी जिनका ज़हन जनवादी है उसी की बलि चढ़ा दी जायेगी – 'वे जो रंग न पायेंगे/ उस एक पवित्र रंग में/ वे काफ़िर देशद्रोही/ ओढ़ा दिया जायेगा उन पर एक रंग'(वही, पृष्ठ-46)

उत्तर सत्य’ का एक अर्थ यह अतीतोन्मुखता भी है और एकरूपता भी। कई लोगों ने तो इसे नवयथार्थ का पर्याय ही बता दिया है। पर यह उसका एक रूप ही है पर्याय नहीं। नवयथार्थ के रूप तो अतीत से लेकर वर्तमान और भविष्य तक फैले हैं। यह ज़रूर है कि उसके अतीत से जुड़े रूप बहुत मायने रखते हैं। जहां अतीत की श्रेष्ठता के रूप उभरे हैं, उसी के साथ-साथ उसके विरोधी रूप, उसके उत्पीड़ित रूप भी उभर कर सामने आये हैं – स्त्री, दलित इत्यादि।

स्त्री को लेकर राकेश रेणु ने कई कविताएं लिखी हैं जिनमें उनकी विविध स्थितियों के वर्णन चित्रण के ज़रिये इस समूह की बहुस्तरीयता को अभिव्यक्ति मिली है। ‘स्त्री: एक’, दो, तीन, चार, पांच, छह उनकी कविताएं हैं। इसके अलावा अप्सरा एक, दो तीन भी स्त्रियों की पीड़ा और उनकी मुक्ति की बात कहती हैं। कवि को स्त्री धरती सी लगती है। प्रश्नवाचक शैली में वे बताते हैं कि स्त्री से ही सबने सृजन की कला सीखी है – 'क्या पृथ्वी, जल/ अकास, बतास ने सीखा/ सिरजना स्त्री से'(पृष्ठ-15) स्त्री को ही वे प्रेम का पर्याय बताते हैं, और उसकी तकलीफ़ को समझने के लिए स्वयं स्त्री होना चाहते हैं, ताकि पुरुष द्वारा किये गये उसके प्रति अत्याचार और पुरुष की स्त्री-विरोधी मानसिकता को सही से महसूस कर सकें। वे बताते हैं कि 'मैं स्त्री होना चाहता हूं/ अपने पुरुषों के किये का संताप झेलना है मुझे/ अपनी स्त्रियों का दुःख/ हमारी संस्कृति की सड़न कौन झेलेगा?/ जो तुम नहीं, मैं नहीं/ मैं स्त्री होना चाहता हूं'(वही, पृष्ठ-21) इसी में अफ्सराओं का दुःख भी शामिल है जो इंद्रलोक वाली हैं। अप्सराओं को इस नज़रिये से हमारी पूरी साहित्यिक परंपरा में नहीं देखा गया है। वे अक्सर भोग्या के रूप में ही चित्रित की गयी हैं या ऋषि-मुनियों के ध्यान भंग करने के साधन रूप में आयी हैं। कवि ने इस श्रेष्ठ लोक से अप्सराओं की मुक्ति का सपना देखा है – 'वह तोड़ती बेड़ियां/ अपने अक्षत यौवन से/ अनादि काल से मज़बूत/ पितृसत्ता व्यवस्था की बेड़ियां/ वह मुक्त होती है'(वही, पृष्ठ-78)

राकेश रेणु की कविताओं में एक ख़ास तरह की सामूहिकता पायी जाती है। उनकी अंतर्वस्तु में भी, सादृश्य-विधान में भी और उनके कहने के ढंग में भी। यानी अनेक समूह-रूपों पर उन्होंने लिखा है और साथ ही उनके भीतर की बहुस्तरीयता को भी उद्घाटित किया है। इन में प्रकृति रूपों से लेकर विभिन्न मानव समूह और प्रेम के रूप तक शामिल हैं। प्रकृति को लेकर उन्होंने ‘लहरें’ एक, दो, तीन से लेकर छह तक कविताएं लिखी हैं, जिनमें बादल, वर्षा इत्यादि बहु रूपों को चित्रित किया है। उनके यहां प्रकृति के रूप अक्सर प्रेरणास्पद शक्ति रूपों में आये हैं। और जहां तक प्रेम का सवाल है, वह एक सकारात्मक मूल्य के रूप में कवि के यहां प्रकट हुआ है। प्रकृति की तरह ही प्रेम एक, दो, तीन, चार कविताओं में आया है। जहां प्रेम का शीर्षक नहीं है वहां भी वह आया है, जैसे ‘स्त्रियों से बचा रहा प्रेम पृथ्वी पर/ प्रेममय जो है/ स्त्रियों ने रचा'(वही, पृष्ठ-16) इस घृणा के दौर में प्रेम अपने आप में ही एक सकारात्मक मूल्य है। प्रेम कुछ नहीं संबंध-भावना ही है, और संबंधों में जो अपनापन निहित है वह जीवनदायिनी होता है, 'बचा रहे अपनापन/ बचा रहेगा जीवन/ अपनी पूरी गरमाहट के साथ'(वही, पृष्ठ-35) इस तरह कवि राकेश रेणु की कविताओं में महज़ वर्तमान की विसंगतियां ही नहीं हैं वरन अतीत की विसंगतियों के साथ भविष्योन्मुखता भी है, जहां वे देखते हैं कि 'आदमी से आदमी/ मिलकर गा रहा है'(वही, पृष्ठ-105)

इस तरह के दृश्य कम ही दीखते हैं। इधर की कविताओं में ज़्यादातर दुःख और कष्ट ही नज़र आता है। इधर की कविताओं में कुछ वैचारिकता भी बढ़ी है। कई जगह तो उसका सीधा कथन ही है। नये विचार आये हैं, जानकारी विस्तृत हुई है, लेकिन जिनता वैचारिक उद्वेलन है उतनी संवेदना नहीं जगती। हां, एक संभावना तो जगती है कि निकट भविष्य में ये विचार हमारे भावों में ढलेंगे। वैसे भी इस समाज ने बहुतों के भावों और इंद्रियबोधों को ख़त्म ही कर दिया है, इसकी भरपाई विचारों से की जा रही है। कविता में विचार और विचार प्रणाली की भूमिका अहम् रही है और आज भी है। नये विचारों की वजह से ही इधर की कविता में यथार्थ के नये और विविध रूप आये हैं। उनकी अभिव्यक्ति का ‘पैटर्न’ भी कुछ अलग-सा है। आख्यानपरकता लिये हुए चीज़ों को ‘बाइनरी’ में उपस्थित करती हैं।  इससे यथार्थ का विशिष्ट रूप अभिव्यक्ति पाता है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि इधर की सब कविताओं में विशिष्ट (‘पर्टीकुलर’) यथार्थ ही आया है। सामान्य यथार्थ भी पाया जाता है जो थोड़ा-बहुत प्रभावित ज़रूर करता है। ऐसी कविताओं में कलात्मक संसाधनों का, रूपक, दृश्य, संकेत, व्यंग्य, प्रश्नवाचिकता आदि का अधिक उपयोग करते हुए कविता के स्वरुप की रक्षा की गयी है।

 

मो. 9818877429

पुस्तक संदर्भ

1.  साध रहा जीवन निधि : शंभु यादव, लोकोदय प्रकाशन, लखनऊ, 2018

2. रहूंगा उन्हीं शब्दों के साथ : जवाहर लाल जलज, लोकोदय प्रकाशन, लखनऊ,  2017

3. शब्द के सामने : हरेराम समीप, किताबगंज प्रकाशन, गंगापुर सिटी, 2019

4.  इसी से बचा जीवन  : राकेश रेणु, लोकमित्र, शाहदरा, दिल्ली, 2019

 

 

 

 

 

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