काव्य चर्चा-5

 समकालीन उर्दू ग़ज़ल का परिदृश्य

(शकील जमाली, नो’मान शौक़ और नसीम अजमल के ग़ज़ल संग्रहों के बहाने)

 रहमान मुसव्विर

उर्दू ग़ज़ल पर प्राय: यह आरोप लगता रहा है कि यह हुस्नो-इश्क़, लबो-रुख़सार, जामो-मीना के इर्द गिर्द घूमती रही है और इसके कोई सामाजिक या राजनीतिक सरोकार नहीं रहे हैं। लेकिन हक़ीक़त इसके बरक्स है। उर्दू ग़ज़ल अपने आरंभ से ही अपने समय और समाज के साथ साक्षात्कार करती रही है । लेकिन ग़ज़ल चूंकि अपनी संरचना और प्रकृति में बहुत विशिष्ट और प्रतीकात्मक रही है, इसलिए उसे उसी तरह समझने और देखने की आवश्यकता है। उर्दू ग़ज़ल अब बहुतायत में नागरी लिपि में प्रकाशित हो रही है और सामान्य पाठक तक आसानी से पहुंच रही है। सोशल मीडिया ने इस पहुंच का विस्तार किया है । मीर और ग़ालिब से लेकर फ़ैज़ और नासिर काज़मी तक का कलाम तो नागरी में लिप्यंतरित होकर आया ही है, समकालीन शायरों के संग्रह भी न केवल लिप्यंतरित होकर, बल्कि सीधे नागरी लिपि में प्रकाशित हो रहे हैं। इससे हिंदी पाठकों के बीच उर्दू ग़ज़ल सीधे पहुंच रही है और उसके क्षितिज का विस्तार हो रहा है। यहां समकालीन उर्दू ग़ज़ल के तीन महत्वपूर्ण संग्रहों पर चर्चा की जा रही है जो नागरी लिपि में प्रकाशित हुए हैं :

काग़ज़ पर आसमान : शकील जमाली, एनी बुक पब्लिकेशन, ग्रेटर नोएडा, 2017

चारों तरफ़ बिखरते हुए : नसीम अजमल, अनामिका पब्लिशर्स, दरियागंज, नयी दिल्ली, 2017 

आख़िरी इश्क़ सबसे पहले किया : नोमान  शौक़, रेख्ता बुक्स-राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2019

 इन संग्रहों के शायरों की पृष्ठभूमि एक दूसरे से नितांत भिन्न है । इसी कारण शैली, शब्दावली, रवैये और संवेदना के धरातल पर इनकी शायरी एक दूसरे से बिलकुल अलग और विशिष्ट है, हालांकि एक ही समय में होते हुए वे एक जैसे राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य से रूबरू होते हैं। शकील जमाली मूलत: चांदपुर (बिजनौर) के हैं। कारोबार के सिलसिले में दिल्ली आये और यहीं के हो गये। शकील जमाली ज़बान की सादगी और कथ्य की नवीनता के लिए जाने जाते हैं। इनकी शायरी के विषय में उर्दू आलोचक हक्कानी-अल-क़ासमी लिखते हैं कि ‘आम आदमी के जज़्बे व एहसास से शकील जमाली की शायरी का बहुत गहरा रिश्ता है। ये वो आदमी है जो हमेशा मुआशरे के हाशिये पर रहा है, जो इस्तेह्साल-ज़दा (शोषित) है जिसकी हर आवाज़ जब्र की क़ुव्वत दबा देती है। शकील जमाली ने आम आदमी के दर्दो-कर्ब को अपने बयानिया में मर्कज़ियत (केंद्रीयता) अता की है’। नसीम अजमल का संबंध लखनऊ से है। दिल्ली विश्वविद्यालय में गणित के प्राध्यापक रहे। गणितीय समस्याओं से जूझते हुए ग़ज़ल की जुल्फों की उलझने भी सुलझाते रहे। गणित की अमूर्तता में डूबते उतरते वे दर्शन की ओर झुकते दिखायी देते हैं जिसकी झलक उनकी ग़ज़लों में साफ़ देखी जा सकती है। इनके बारे में ज्ञान प्रकाश विवेक लिखते हैं, ‘आधुनिकता का जन्म परंपरा की कोख से होता है। इस बात को नसीम अजमल अच्छी तरह से जानते हैं। यही वजह है कि वो आधुनिकबोध के अतिरिक्त परंपरा से जुड़ी तहरीक, निशानियां और स्मृतियों को भी शायरी से ख़ारिज नहीं होने देते। उनकी शायरी की ज़बान उर्दू हिंदी के मेल मिलाप से बनी हिंदुस्तानी ज़बान है।’ नोमान शौक़ मूल रूप से आरा, बिहार से संबंध रखते  हैं। वे आकाशवाणी दिल्ली के उर्दू प्रभाग में सेवाएं दे रहे हैं। इनकी ग़ज़ल इश्क़ को नये सिरे से परिभाषित करते हुए सामाजिक और राजनीतिक विसंगतियों को व्यंग्यात्मक स्वर देती है। इनकी ग़ज़ल संवेदना की उस भावभूमि पर अवस्थित है जहां विचार भी है और प्रतिरोध भी। अपनी शायरी के बारे में उनका विचार है कि ‘मेरे लिए शायरी में शब्द उस गोली की तरह हरगिज़ नहीं जो पिता की पिस्तौल से खेलते बच्चे से नादानी से चल जाती है, बल्कि उस फूल की तरह है जिसे शाख़ से उतारने से पहले ख़याली या हक़ीक़ी चेहरा बनाता हूं जिसके बालों में इसे गजरे की तरह टांकना है । मेरा निशाना साफ़ है चाहे ज़द पर मैं ख़ुद ही क्यों न आऊं।’  

ग़ज़ल हर दौर में सर्वाधिक लोकप्रिय विधा रही है। वर्तमान में भी इसकी लोकप्रियता का जादू सर चढ़कर बोल रहा है। ग़ज़ल की सांगीतिकता भी इसका एक प्रमुख कारण रही है। यह ख़ास से लेकर आम लोगों तक के ह्रदय पर राज करती रही है। ग़ज़ल की लोकप्रियता और स्वीकार्यता का कारण संभवत: यह रहा है कि ग़ज़ल ने अपनी परंपरा का निर्वाह करते हुए आधुनिकबोध को भी उदारता के साथ आत्मसात किया है। यह आधुनिक बोध कथ्य, विचार, भाव, शिल्प और शब्द आदि सभी स्तरों पर रहा है। आज की ग़ज़ल वस्ले-यार की तमन्ना, महबूब के वियोग का दर्द, इंतिज़ार की तड़प, दोस्त की बेवफ़ाई आदि विषयों के बीहड़ से निकल कर सामाजिक विद्रूपता, आर्थिक विषमता, मज़दूरों के दर्द, किसान की बेचारगी, स्त्री की अस्मिता और आम आदमी की प्रतिदिन की समस्याओं तक आ पहुंची है। समकालीन उर्दू ग़ज़ल वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था के प्रति भी मुखर है। छल, कपट, बेईमानी, क्रूरता और हिंसा के दानव ने राजनीति का अपहरण कर लिया है। अब राजनीति प्रपंच के अतिरिक्त कुछ नहीं रह गयी है। यह ऑंखें होते हुए भी अंधी है, कान होते हुए भी बहरी है और ज़बान होने के बावजूद गूंगी है।  समकालीन शायरों ने इस स्थिति को देखा और अपने अपने ढंग से बयान किया है :

               फिर इस मज़ाक़ को जम्हूरियत का नाम दिया

हमें    डराने   लगे    वो   हमारी   ताक़त  से  (नोमान  शौक़, 45)

 

अब किस खुदा को लाऊं गवाही के वास्ते

सब फ़ैसले तो  पहले  ही  सरकार कर चुके (नोमान  शौक़, 52)

 

अब मुझे और क्या ख़बर देगा

वो अंधेरों को रात कर  देगा  (नसीम अजमल, 71)

 

आंख खोलूं तो वो हंसता है बहोत

ख़्वाब   देखूं    तो  डरा  देता    है   (नसीम अजमल, 110)

 

नफ़रतें बेचने वालों की भी  मजबूरी  है

माल तो चाहिए दूकान चलाने के लिए  (शकील जमाली, 47)

 

ये शायर इस परिदृश्य को खुली आंखों से देखते हैं, चिंतन करते हैं और राजनीति को सीधे सीधे नसीहत भी करते हैं और तंबीह भी  :

 

अगर साफ़ सुथरी सियासत करो

दिलों  पर  सदा  बादशाहत करो

ये  फ़िर्कापरस्ती  बुरी   चीज़  है

हुकूमत  मिली  है  हुकूमत करो  (शकील जमाली, 66)

 

अगर हम लोग थोड़ी देर लड़ना भूल जाते हैं

सियासी रहनुमाओं का  पसीना छूट जाता है   (शकील जमाली, 54)

 

नाच कर  थक  चुके  सब तेरे  ख़रीदे हुए मोर

झूठ की फ़स्ल को उम्मीद है बरसात की अब (नोमान  शौक़, 126)

 

शायर जो देखता और सुनता है उस पर अपनी बेबाक टिप्पणी करता है। यह उसका मूल धर्म है। वह शुतुरमुर्ग़ की भांति ख़तरा देखकर आंख बंद नहीं कर लेता है बल्कि अपने क़लम और कलाम से उसका मुक़ाबला करता है ।

 

सुनेगा क्या सितारों की सदाएं

मेरा आकाश बहरा हो गया है (नसीम अजमल, 105)

 

नहीं तो शह्र ये सो जायेगा सदा के लिए

मुझे  ख़बर  है  मिरा  बोलना  ज़रूरी है (नोमान  शौक़, 53)

 

सच्चे शायर की पहचान यही है कि वह सत्ता और शासक के सामने घुटने नहीं टेकता है। उसे जो सही लगता है वही कहता है। वह पिछलग्गू नहीं बनता है। शायर ख़ुद को भी सचेत करता है और अपने समाज को भी सचेत करता चलता है। वह न अतीत पर पर्दा डालता है , न वर्तमान से मुंह मोड़ता है और न भविष्य से आंखें चुराता है। वह समय की आंखों में आंखें डालकर अपने होने का एहसास दिलाता है। वह सत्ता से सवाल करने का माद्दा रखता है और पूरी शक्ति के साथ अपना प्रतिरोध दर्ज करता है :

 

कब तलक देखेगा मेरे साथ ना इंसाफ़ियां ।

यार  मेरे  तेरी  पेशानी पे बल कब आयेगा  (शकील जमाली, 43)

 

एक  फ़ायदा  ज़रूर हुआ एहतेजाज से

जो ढो रहे थे हमको वो कांधे बदल गये  (शकील जमाली, 147)

 

जन्नत मिलेगी उसने कहा मोमिनीन को

जलाते हुए मकान से आयी सदा कि बस    (नोमान  शौक़, 35)

 

दुश्मने-जां हो अगर ऐसे ख़ुदाओं का हुजूम

हमने  सीखा  नहीं  राज़ी-ब-रज़ा  हो जाना  (नोमान  शौक़, 24)

 

इक न इक दिन ज़मीन बोलेगी

रोज़ सर  पर  ये आसमां बोले  (नसीम अजमल, 191)

 

तमाम मुश्किलों के बीच भी आज का शायर आशान्वित है। वह जानता है कि घनघोर अंधेरे के बाद उजास फैलेगी और नया सूर्य उदित होगा। वह अपने सामाजिक सरोकारों के प्रति भी सचेत है। वह जिस समाज का हिस्सा है उसके उतार चढ़ाव और उलझनों को भी अपनी शायरी में स्वर देता है। मां, बाप, भाई, बहन, दोस्त, रिश्तेदार इत्यादि के बीच जो संबंध हैं उनमें मिठास है तो तनाव भी है, और कड़वाहटें भी। और उन सबके बीच रिश्तों के दरकने का मलाल भी है। इन सब की प्रतिध्वनियां समकालीन उर्दू  ग़ज़ल में सुनायी देती हैं। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि उसने इश्क़ करना छोड़ दिया है। इश्क़ तो जीवन का हिस्सा है। यह अलग बात है कि आज के इश्क़ का परंपरागत रूप भी बदल रहा है। नये ज़माने के नये रवैयों की अनुगूंज उसकी शायरी में सुनायी पड़ रही है :

 

उम्र  मुक़र्रर  होती  है हर रिश्ते की

मजबूरन भी हाथ छुड़ाना पड़ता है  (नोमान  शौक़, 91)

 

लुटाते हो जो इतना प्यार मुझ पर

तुम्हें  पहचान  भी  है आदमी की (नोमान  शौक़, 66)

 

याद रखता है हर इक वक़्त मुझे

वक़्त  आने  पे   भुला  देता  है   (नसीम अजमल, 111)

 

अगर हमारे ही दिल में ठिकाना चाहिए था

तो  फिर   तुझे  ज़रा  पहले बताना  चाहिए  (शकील जमाली, 151)

 

चलो क़ुबूल कि दिल से निकालना है उसे

वो  बेवफ़ा  है  तो क्या मार डालना है उसे  (शकील जमाली, 155) 

  

भूमंडलीकरण और तथाकथित उदारवाद ने एक नयी व्यवस्था को जन्म दिया है। यह ऐसी व्यवस्था है जिसमें सूचकांक के बढ़ने के साथ साथ आम आदमी की तकलीफ़ें भी बढ़ती हैं। आम आदमी भीतर और बाहर दोनों जगहों से टूट रहा है। समाज और परिवार में मूल्यों का विघटन चिंताजनक है। अपसंस्कृति अपने चरम पर है। अर्थव्यवस्था का विस्तार अनियंत्रित दानव की भांति हो रहा है। प्रत्येक विचार और भाव अब उत्पाद बन चुके हैं। सारी दुनिया उत्पाद और उपभोक्ता में विभाजित है। अब व्यक्ति के आसपास बाज़ार ही बाज़ार है, सिर्फ़ बाज़ार। यह बाज़ार रचनाधर्मिता को भी प्रभावित कर रहा है :

 

ये कैसे इलाक़े में हम आ गये

घरों से निकलते ही बाज़ार है     (शकील जमाली, 64)

 

दुनिया को  जो  नुक़सान  हुआ हमसे हुआ है

हम लोग जो बाज़ार से बाहर के निकल आये     (नोमान  शौक़, 135 )

 

रियायतों की दिल आवेज़ तख़्तियों पे न जा

दुकानदार   किसी   का   सगा   नहीं  होता     (शकील जमाली, 125)

 

मौजूदा अर्थव्यवस्था ने शोषण के नये तरीक़े ईजाद किये हैं। ग़रीबों को संपन्न बनाने के दावे ध्वस्त हुए हैं। पूंजीपतियों की तिजोरी और अधिक लबालब हो गयी है जबकि ग़रीब का जीवन पहले से कहीं अधिक बदतर हुआ है। इसमें मज़दूर की हालत सबसे ज़्यादा पस्ता हुई है। शायर इस दर्द को यों बयान करते हैं :

 

रात हमारे घर जल्दी आ जाया कर

हमें  सवेरे  काम  पे  जाना होता है  (शकील जमाली,116)

 

ऐसा लगता है कि ये लोग कहीं रहते हैं

ऐसा लगता है कि ये लोग पुकारे हुए हैं  (नसीम अजमल,153)

 

प्राय: आधुनिकता या नयेपन की रौ में अपनी जड़ों को भुला दिया जाता है। परिणामस्वरूप रचना चौंकाती प्रतीत तो होती है लेकिन उसमें खोखलापन साफ़ नज़र आता है। लेकिन उर्दू की नयी ग़ज़ल ने परंपरा का दामन नहीं छोड़ा है। उसमें कथ्य और शिल्प के स्तर पर प्रयोग तो हैं लेकिन उनकी जड़ें अपनी परंपरा से विलग नहीं हैं, इसलिए उनमें इकहरापन नहीं है। यह ज़रूरी नहीं है कि शायर किसी दर्शन में बंधा हो। वह स्वछंद होकर इस कायनात को देखता है और इसके रहस्यों को खोलने की कोशिश करता है। प्रत्येक शायर दुनिया को अपनी दृष्टि से देखता और समझता है। वह दैनिक जीवन की मामूली लगने वाली चीज़ों और घटनाओं को अपनी विशिष्ट दृष्टि से विशिष्ट बना देता है। ग़ज़ल यों तो एक पारंपरिक और शास्त्रीय विधा है। इसकी संरचनात्मक स्वरूप से छेड़छाड़ नहीं की जा सकती है, न उस स्तर पर कोई प्रयोग संभव है, लेकिन कथ्य और शब्द प्रयोग के लिहाज़ से समकालीन शायर ग़ज़ल के साथ बेबाक़ प्रयोग कर रहा है और वह उसमें सफल भी है: 

                             हमीं  तो  हैं  जो  ये  गुंजाइशें  निकालते हैं

ग़ज़ल में वैसे हिरन का शिकार होता नहीं (शकील जमाली, 53 )

 

यही तो हो जो ख़यालों से जा नहीं रहा है

ये आदमी  जो  मेरा फ़ोन उठा नहीं रहा है (शकील जमाली, 160)

 

बर्फ़ की तह में लरज़ती हुई शाम

ऐसा मंज़र भी छुपा था मुझ में  (नसीम अजमल, 80)

 

सितारे    ख़मोशी   लपेटे   खड़े  हैं

ज़रा इनसे कुछ बात करके भी देखें    (नसीम अजमल,139)

 

ज़मीं की शक्ल ही तूने बिगाड़ कर रख दी

जुनून    छोड़   इसे  आसमां  बनाने  का  (नोमान  शौक़, 77)

 

लाख कोई चीखे चिल्लाये शोर अंदर कब आता है

उसकी  बस्ती  के नक़्शे  में अपना घर कब आता है (नोमान  शौक़,117)

 

समकालीन उर्दू ग़ज़ल केवल इश्क़ का नग़मा और टूटते रिश्तों का शोकगीत नहीं है। इन ग़ज़लों में युगबोध की पदचाप भी स्पष्ट सुनायी देती है। समस्त विश्व शोषण के चक्रव्यूह में फंसा हुआ है। क्षुद्र इच्छाओं के चलते मानवता लहुलुहान है। सिंहासन पर बैठे आक़ा केवल सत्ता बचाये रखने के लिए लाशों से खेल रहे हैं। हिंसा, अन्याय, सांप्रदायिकता, धर्मांधता और स्वार्थलोलुपता का नंगा नाच हो रहा है। ऐसे में संवेदनशील शायर सिर्फ़ हुस्न, जाम, होंठ, बुलबुल, चांद और सितारों के सौंदर्य के मोहपाश में ही बंधा नहीं रह सकता है। वह इन समस्त विद्रूपताओं के विरुद्ध अपनी शाब्दिक और रचनात्मक प्रतिक्रिया देता है। इस संपूर्ण परिप्रेक्ष्य में शकील जमाली, नोमान  शौक़ और नसीम अजमल की शायरी आश्वस्त करती है।

मो. 9871610200

 

पुस्तक संदर्भ :

काग़ज़ पर आसमान : शकील जमाली, एनी बुक पब्लिकेशन, ग्रेटर नोएडा, 2017

चारों तरफ़ बिखरते हुए : नसीम अजमल, अनामिका पब्लिशर्स, दरियागंज, नयी दिल्ली, 2017 

आख़िरी इश्क़ सबसे पहले किया : नोमान  शौक़, रेख्ता बुक्स-राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2019

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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