कहानी चर्चा-5


 अंतर्ग्रथित यथार्थ की कहानियां

अतुल सिंह

 सुलगन कैलाश वानखेड़े का दूसरा कहानी संग्रह है। इससे पहले साल 2013 में सत्यापन कहानी संग्रह प्रकाशित हुआ। सुलगन कहानी संग्रह में लेखक की कुल नौ कहानियां संग्रहीत हैं। ‘उन्नति जनरल स्टोर्स’, ‘जस्ट डांस’, ‘आज कल, कल आज’, ‘गोलमेज़’, ‘उस मोड़ पर’, ‘कंटीले तार’, ‘खापा’, ‘काली सड़क’ और ‘हल्के राम’। इस संग्रह की पहली कहानी ‘उन्नति जनरल स्टोर्स’ है। कथावाचक कहानी को ‘वह’ की शैली में कहता है। कहानी सरकारी मुलाज़िम राजेश के वर्तमान और अतीत की स्मृतियों की घटनाओं का विवरण प्रस्तुत करती है। कहानी के आरंभ में ही एक बूढ़ा व्यक्ति अपनी अर्नेस्ट मनी (पेशगी) की वापसी हेतु राजेश से मिलने आता है। राजेश को वह जानता है लेकिन राजेश नहीं पहचान पाता है। वह राजेश से कहता है, 'याद है' यह वाक्य राजेश की स्मृतियों को कुरेदता है। राजेश फ़्लैशबैक में जाकर ‘वह’ को पहचाने की कोशिश करता है। दरअसल, राजेश इस शहर में बाइस साल बाद तबादला लेकर आया हुआ है। वह पाता है कि चौराहे नहीं मिलते, सड़क किनारे के पेड़ों का क़त्ल किया जा चुका है। वे साइन बोर्ड नहीं दिखते जो शहर के पेंटर बनाया करते थे। जिस भी जगह को ढूंढ़ रहा था वह वहां नहीं मिल रही थी। कैलाश वानखेड़े इस परिवर्तन के बहाने उदारीकरण के ‘उदार’ एवं ‘समृद्धि’ की 'हक़ीक़त को खोलकर पाठक के सामने रख देते हैं। ‘विकास’ की भारी क़ीमत चुकानी पड़ती है। नये बन रहे सांस्कृतिक परिवेश में व्यक्ति परायेपन के भाव से होकर गुज़रने लगता है। इस परायेपन का बोध कहानी में राजेश और ‘वह’ दोनों को है। इसी कारण ‘वह’ अपनी अर्नेस्ट मनी की वापसी के लिए परिचित की तलाश कर रहा होता है। परायेपन के बोध के अलावा कहानी में प्रेम, अपमान एवं जाति के रंग भी दिखते हैं। ‘वह’ दरअसल तीस वर्ष पहले ‘उन्नति जनरल स्टोर्स’ का मालिक होता है। उन्नति ‘वह’ की बेटी होती है और राजेश उन्नति के प्रति आकर्षित है। दुकानदार जान चुका था कि यह लड़का मेरी लड़की को फंसाने के चक्कर में है तभी तो दुकानदार (वह) ने कहा था, 'इधर-उधर ताको, झांको। तुम्हें क्या? रिज़र्वेशन के चलते नौकरी तो मिलती है।' (सुलगन, पृ. 18)

कैलाश वानखेड़े की कहानियों की यह विशेषता है कि व्यक्ति परिवेश से कटे नहीं हैं बल्कि उसी परिवेश से गुंथे हुए हैं, जिसमें वे जीवन को जीने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं। इसी कारण उनकी कहानियों में राजनीति, भ्रष्टाचार, आर्थिक नीति, जाति एवं व्यक्ति के अलगाव आदि रंग एक साथ गुंथे हुए दिखायी पड़ते हैं। ‘जस्ट डांस’ इस संग्रह की दूसरी कहानी है।  इस कहानी का कथानक प्रेम, राजनीति, टीवी के रियलटी शो, विज्ञापन, समाचार चैनल, एंकर की भाषा, भारत माता, देशद्रोह, आरक्षण, जाति सेंसस, तानाशाही, दूसरी आज़ादी जैसे नारों के मिक्स्चर से तैयार होता है। कथा-वाचन ‘मैं’ की शैली में हुआ है, आभास यह कि लेखक ख़ुद इन घटनाओं का भोक्ता है। लेकिन कहानी में ‘मैं’ आकाश है। कथावाचक ‘काल’ का अतिक्रमण कर वर्तमान, अतीत और भविष्य की चिंता में आवाजाही करता है। कभी-कभी कथानक का निर्माण स्मृति के स्तर पर निर्मित होता है तो कभी यह लगता है कि लेखक रोज़नामचा लिख रहा है। ‘कथावाचक’ फिर ख़यालों में गुम हो जाता है। 'आंटा गूंथता हूं। उसके ख़यालों में होता हूं। सिगड़ी पर ख़ुद को पाता हूं और गूंथे आटे में उसको।' (वही, पृ. 22) कुल मिलाकर ‘वह’ अभिशप्त का बोध पाता है और उसी परिवेश में ‘वह’(आकाश) अपने प्रेम के लौट आने की उम्मीद रखता है। लेकिन उसके प्रेम पर ग्रहण उसकी आर्थिक एवं जातिगत दोनों हैसियतों से लगता है।

‘जस्ट डांस’ कहानी में आकाश के घर का दरवाज़ा उसको ख़ुद की हैसियत और दुनिया की 'हक़ीक़त से रूबरू करवाता है। कहानी में तीन बार दरवाज़े पर दस्तक होती है। हर बार वह रोमांचित होता है कि ‘वह’ आ गयी। लेकिन जन्नत की 'हक़ीक़त कुछ और होती है। पहली बार उसका दोस्त प्रेमशंकर दरवाज़ा खटखटाता है। प्रेमशंकर ‘वह’ को इस यथार्थ से परिचय करवाता है कि तेरे पास पंखा है, तू आवासहीन नहीं है, भले ही किराये के मकान में रहता हो और सबसे क़ीमती चीज़ कि टीवी है तुम्हारे पास, तो 'बंधु, सरकार तेरे को ग़रीब मानती नहीं और लोग तुझे अमीर समझते नहीं।' (वही, पृ. 25) इसीलिए 'देख, भाभी की नज़र में तो तू ग़रीब है। तेरे पास कार नहीं है।' (वही, पृ. 25) दूसरी बार दरवाज़े पर ‘आकाश’ को जातिगत जनगणना करने वाला टीचर मिलता है जो बंद लिफ़ाफ़ा देखकर ख़त का मज़मून भांप लेता है। बिना पूछे, ‘वह’ को देखकर जान लेता है कि वह क्या है? जाति, धर्म, भाषा का कॉलम ख़ुद ही भर लेता है, क्यों? 'सड़क को देखकर पूंछू, तेरा रंग क्या है? डामर के साथ क्या मिलाया है? ये तो वेबकूफी होगी न।... मालूम है तुम लोग बनवासी होते हो। झाबुआ, भूरिया तो तुमने बताया बाक़ी तुम्हें देख-सुन के सब लिख लिया तो क्या ग़लत लिखा मैंने?' (वही, पृ. 30) तीसरी बार दरवाज़े पर गुलाब की दस्तक होती है। जिस चिट फ़ंड कंपनी में ‘वह’ काम करता है वहीं गुलाब चपरासी, चौकीदार, घरेलू नौकर सब है। गुलाब मुस्तैदी के साथ ‘वह’ को सूचित करता है, ‘सेठ जी’ ने बुलाया है। रविवार के दिन ‘वह’ को सेठ जी द्वारा बुलाये जाने का कारण यह है कि 'अन्ना जीत गये हैं। दूसरी आज़ादी मिल गयी है। सेलिब्रेट करना है। दिल्ली में वो जूस पियेंगे इधर हम भी जूस पियेंगे... अंगूर का' (वही, पृ. 32) और कार स्टार्ट नहीं हो रही है अतः तुम दोनों कार को धक्का लगा दो। लेकिन ऐसा होता नहीं है, ‘वह’ प्रतिरोध दर्ज करता है और कहता है 'धक्का आप लगा लो। स्टार्ट मैं करता हूं।' (वही, पृ. 32) ऐसा सुनकर चिटफ़ंड कंपनी के एरिया मैनेजर विनय बिना नज़र मिलाये अपने घर के भीतर घुस जाता है। ‘वह’ के साथ 'गुलाब भी कीचड़ से बाहर निकलने के लिए क़दम बढ़ाता है।' (वही, पृ. 33)

  ‘कंटीले तार’ इस संग्रह की छठी कहानी है। कहानी अग्रवाल दंपति की है जो कि शहर के सिविल लाइंस इलाक़े में रहता है। लोक और परलोक दोनों तरह की चिंता करने वाले जीव हैं अग्रवाल साहब। अग्रवाल साहब की दो बलवती इच्छाएं है कि उनके बागड़ में कोई जानवर घुस नहीं पाये और दूसरा यह कि अपना देश भ्रष्टाचार से मुक्त हो जाये। बागड़ अग्रवाल साहब की फुलवारी है जहां वे बाग़वानी करते हैं और किसिम-किसिम के पेड़ लगे हुए हैं। तमाम जतन करते हैं। कभी घर के फ़ालतू पड़े सामान से बाड़ेबंदी करते हैं तो कभी बबूल की कटी डालियों से। बन गये फांक को भरते रहते हैं। भ्रष्टाचार से मुक्त देश तो अग्रवाल साहब चाहते हैं लेकिन अपना लोक बिगाड़कर नहीं। जिस सरकारी आवास में अग्रवाल दंपति रहते हैं वह उनके नाम पर आवंटित नहीं है, बल्कि किसी गुप्ता जी को आवंटित है क्योंकि वे सरकारी मुलाज़िम होते हैं। अग्रवाल साहब तो किसी अंतर्राष्ट्रीय कंपनी में कर्मचारी हैं। यह तो उनके पिता जी का प्रताप है कि किसी रिश्तेदार के माध्यम से उनको कंपनी में फ़िट करवा दिया। कंपनी वालों को सिविल लाइंस में रहने के लिए सरकारी आवास नहीं मिलते हैं। अग्रवाल जी की तरह उनके पिता जी की भी बलवती इच्छा होती है, जो कि इस प्रकार है, बेटा अधिकारी बने और सरकारी बंगले में रहे। आरक्षण के चलते पहली तो पूरी नहीं होती लेकिन दूसरी के लिए जुगत भिड़ाते हैं। पिता जी की इस इच्छा की पूर्ति उनके दोस्त दीन दयाल गुप्ता उर्फ़ डी.डी. गुप्ता के मार्फ़त पूरी होती है। गुप्ता जी अपडाउन करते हैं। वैसे इस सरकारी बंगले का सरकारी किराया साढ़े सात सौ के बदले अग्रवाल जी बिना नागा हर महीने गुप्ता जी को दो हज़ार रुपया भिजवा देते हैं। दर असल, इस कहानी में कहानीकार मध्यम वर्ग के पाखंड को उजागर करता है। अन्य कहानियों की तरह इस कहानी में भी कैलाश वानखेड़े ने राजनीति एवं सामाजिक अंतर्विरोधों से परिवेश को बनाने की कोशिश की है। लेकिन कोशिश की अतिशयता ने कभी-कभी कहानी में क़िस्सागोई को शिथिल भी बनाया है। तब कहानी-कहानी न होकर कुछ और होने लगती है। क़िस्सागोई की रिक्तता के चलते इस संग्रह की कहानियां ठहर कर पढ़ने की मांग करती हैं।

  कहानी लेखन में राशि चक्रों का इस्तेमाल करते हुए प्रचंड प्रवीर ने कुल ग्यारह कहानियां लिखी हैं। ये कहानियां उनके दो संग्रहों, उत्तरायण और दक्षिणायन में संकलित हैं। उत्तरायण में मकर, कुंभ, मीन, मेष, वृष: सिटी लाइट्, मिथुन है और दक्षिणायन में कर्क, सिंह, कन्या: भिन्न, वृश्चिक संक्रांति और धनु संग्रहीत हैं। प्रचंड प्रवीर के ये दोनों संग्रह वर्ष 2019 में ही प्रकाशित हुए हैं।

  उत्तरायण संग्रह की दूसरी कहानी ‘कुंभ’ है। कहानी मुख्यतः विपिन कुमार की है जो अपना सरनेम कुंभकार लिखता है। विपिन आई.आई.टी का छात्र है। ग्रामीण परिवेश से आता है अतः अंग्रेज़ी भाषा व्यवहार में तंगी महसूस करता है। पढ़ाई में अरुचि हो जाती है। क्लास बंक करता है। कहानी का वाचक उसको पढ़ने-लिखने और आगे बढ़ने के लिए निरंतर प्रोत्साहित करता है। कथावाचक कहानी में ख़ुद मौजूद है। अपने जीवन में बने फ़ार्मूले के तहत विपिन कुमार की तरह के लोगों से मिलने और बातचीत करने का फ़ैसला करता है क्योंकि उसके बैच का हेमंत कुछ इन्हीं परिस्थितियों के कारण आत्महत्या कर लेता है। कथावाचक ने ख़ुद आइ.एस.बी. हैदराबाद से मैनेजमेंट की डिग्री ली है। वस्तुतः कहानी उच्च शिक्षा जगत की विसंगतियों पर बातचीत के लिए आमंत्रित करती है। ऐसा माहौल जहां अंग्रेज़ियत एवं सामंती मानसिकता के चलते परिस्थिति दमघोंटक हो जाती है। इस क्रम में रोहित वेमुला एवं अन्य उसी तरह के युवाओं की दुर्घटनाओं को याद किया जा सकता है। कहानी में विपिन कथावाचक से मिलने से कतराने लगता है क्योंकि कथावाचक की हमदर्दी उसे तरस खाने जैसी लगने लगती है। इसके बजाय विपिन ‘सचिन शतभिषक’ की संगति पसंद करता है। क्योंकि वह भी विपिन की तरह कुंभ राशि का है और गांव के ग़रीब घर से आया है।

इस संग्रह की अगली कहानी ‘मीन’ शीर्षक से है। यह कहानी एक परिवार के तीन बच्चों दिलीप, मैत्रेयी, वीणा और रेवती सिन्हा की स्मृतियों की है। रेवती सिन्हा काफ़ी रसूख़ वाली महिला हैं जिनसे मिलने मुख्यमंत्री तक आते हैं। अंग्रेज़ों के ज़माने के जज की बेटी हैं। जमलापुर में पहाड़ के पास उनकी बड़ी कोठी है। वह ख़ुद बिहार की बड़ी कलक्टर रही हैं। एक दिन दिलीप घर से भागकर शहर से दूर रेवती सिन्हा की कोठी पर जा पहुंचता है। पता चलने पर रेवती सिन्हा दिलीप को उसको घर छोड़ने आती हैं। जाते समय दिलीप के मां-पिता से आग्रह करती हैं, वे रविवार के दिन अपने बच्चों दिलीप, मैत्रेयी और वीणा को कोठी पर भेज दें। बच्चे कोठी पहुंचते हैं। यहां रेवती सिन्हा मैत्रेयी और वीणा के साथ एक खेल खेलती हैं। खेल इस प्रकार होता है कि वह वीणा और मैत्रेयी की कमर में लाल रिबन का एक सिरा बांध देती हैं और दूसरा सिरा पियानों के पावे में। रेवती सिन्हा पियानो पर कोई धुन बजाने लगती हैं और कहती हैं कि तुम लोग भागो, लेकिन याद रहे कि रिबन खुलना नहीं चाहिए। कहानी में यह संकेत है, मानों कथाकार यह कह रहा है कि सबके हिस्से की आज़ादी एक डोर से बंधी हुई है, इजाज़त तभी तक जब तक यह डोर खुलती नहीं है। कहानी में कथाकार ने इस संदर्भ में सूक्ष्मता का परिचय दिया है। बहुत सी बातें स्पष्ट होते-होते रह जाती हैं। आख़िर रेवती सिन्हा पति के होने या न होने, किस स्थिति में आज़ाद थीं? गर पति के न होने पर बंधी महसूस करती हैं तो यह बंधन किस बात का है? 'पर एक दिन... मेरे पति चल बसे और उस दिन के बाद से मुझे लगा मैं उतनी ही आज़ाद हूं जितनी अभी तुम हो। जितनी लंबी यह डोरी तुम्हारी कमर से मैंने बांध रखी है।' (उत्तरायण, पृ. 147) इस कथन के बाद कहानी में रेवती सिन्हा के पूर्व के जीवन के बारे में किसी प्रकार का विवरण नहीं मिलता है।

  उत्तरायण संग्रह की अंतिम कहानी ‘मिथुन’ है। यह कहानी लखनऊ शहर से पचास मील दूर स्थित गांव में बसे राजेंद्रनाथ सिंह और उनके परिवार के इर्द-गिर्द बुनी गयी है। राजेंद्रनाथ सिंह के पास अच्छी ख़ासी जायदाद है। किसी ज़माने में इनके पूर्वज कई सौ एकड़ के मालिक थे। घर-परिवार बंटा तो ज़मीन-जायदाद भी बंट गयी। बूढ़े होते राजेंद्रनाथ सिंह की दो इच्छाएं हैं. पहली, उनके जाने के बाद इस ज़मीन जायदाद को कौन देखेगा और दूसरी चिंता एक पुराना पुलिस केस है। ज़मीन के झगड़े में तैश में आकर उन्होंने बंदूक़ उठाकर गोली चला दी थी। दुलानी से निकली गोली केवल छू कर गुज़र गयी थी। केस तो ले-देकर रफ़ा-दफ़ा हो गया होता अगर गवाह किशोर लोहार गवाही से मुकर गया होता। न जाने उसे कितने पैसे मिले या किसने क़सम दी, उसने गवाही में ज्यों का त्यों बोल दिया। गर्मी की छुट्टियों में राजेंद्रनाथ सिंह के बड़े बेटे सुरेंद्र का पुत्र उदय और उसका चाचा प्रमोद साथ ही बहनें अपने बाल-बच्चों के साथ गांव आते हैं। यहीं गांव-घूमते समय उदय की मुलाक़ात संजय से होती है। संजय किशोर लोहार का छोटा बेटा है। संजय की भी दो ख़्वाहिशें हैं कि उसके जन्मदिन पर उसके घर में केक आये और दूसरी यह कि कार में घूमें। संजय को इसकी पूर्ति उदय के बहाने से होती हुई दिखती है। अच्छा है कि कहानीकार अमीर और ग़रीब को बाइनरी में बांटकर नहीं देखता है। किशोर की बड़ी बहन सुनीता कहती है, 'तुम बुद्धू हो। अमीर लोग ऐसे ही होते हैं। आज पूछ लिया है। कल शायद न पहचाने।' (उत्तरायण, पृ. 170) कथाकार इस बोध का अतिक्रमण करता है। किशोर और उदय के बालसुलभ दोस्ताना संबंध को तवज्जो देता है।   

इस संग्रह की कहानियों में पाठक प्रचंड प्रवीर की क़िस्सागोई की क्षमता से परिचित होता है। पठनीयता संग्रह की विशेषता है। वाचक कथासूत्र को एक बार पाठक को पकड़ाकर कभी उपस्थित और कभी अनुपस्थित होता रहता है, लेकिन पाठक निरंतर कथा रस में अपने को डूबा हुआ पाता है। प्रचंड प्रवीर सिनेमा और विश्व साहित्य के अध्येता हैं अतः उनके संदर्भ इनकी कहानियों में मिलते हैं। इसके अलावा इनके यहां ज्योतिष, खगोलशास्त्र, मिथ कथाएं भी निरंतर मिलती हैं। इन सबसे मिलकर इनकी कहानियों का आस्वाद बनता है।

मो. 7827076372

 पुस्तक संदर्भ

1. सुलगन : कैलाश वानखेड़े, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2019

2. उत्तरायण : प्रचंड प्रवीर, नित्य प्रकाशन, जयपुर, 2019

 

  

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