काव्य चर्चा-6

अब्दुल की आत्मा के सवाल’ और दलित कविता का वर्तमान

टेकचंद

कविता

घेराव में

किसी बौखलाये हुए

आदमी का संक्षिप्त

एकालाप है

कविता

भाषा में आदमी होने की तमीज़ है

कविता

शब्दों की अदालत में

अपराधियों के कटघरे में खड़े

एक निर्दोष आदमी का

हलफ़नामा है।                                        (धूमिल)

 

कविता सबसे पहले यह प्रश्न उठाती है/

जब आदमी की पहचान मिट रही है।’             (विजेंद्र)

 उक्त दोनों काव्यांश समकालीन हिंदी कवि और कविता के तेवर को स्पष्ट करते हैं। साथ ही, विरुद्ध समय में कवि और कविता की प्रतिबद्धता भी तय करते हैं। जब कवि पूछता है, ‘पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?’ तो खुले तौर पर लेखक की राजनीतिक पक्षधरता का सवाल उठाता है। वास्तव में कवि की राजनीतिक समझ ही उसकी सामाजिक चेतना का निर्धारण करती है। दलित कवि भी आज अपनी पक्षधरता, अपनी पहचान को वाणी दे रहे हैं, यहां कुछ दलित कवियों के संग्रहों के माध्यम से दलित रचनाशीलता का आकलन करना इस लेख का मक़सद है।

1. अजय यतीश का संग्रह स्पार्टकस, तुम्हारी मेहनत बेकार नहीं गयी

इस लेख का शीर्षक युवा दलित कवि अजय यतीश की कविता ‘सदी की अविकसित भीड़’ की एक पंक्ति से लिया गया है। अजय यतीश की कविता के शीर्षक से ही स्पष्ट हो जाता है कि अराजक होकर साज़िशन हत्या करती भीड़ कहां से निर्देश, प्रेरणा व ऊर्जा हासिल करती है। दलित कविता से यह अपेक्षा की जानी चाहिए कि परदु:खकातर हो। यह देखा जाना चाहिए कि सदियों से शोषित होता दलित समाज क्या वर्चस्व तथा सांप्रदायिक हिंसा का दंश झेलते अन्य समानधर्मा वर्गों से कोई वास्ता रखता है? भीड़ से सवाल दलितों की आत्मा तो कर ही रही है, साथ ही ‘सवाल तो अब्दुल की आत्मा/ का भी है,’ साथ ही सवाल तो ‘ट्रांसजेंडर’ का भी है कि ‘आख़िर क़सूर क्या था मेरा?’ दलित कविता किन-किन के सवालों को उठाती है, इसी से उसकी प्रतिबद्धता और सरोकार भी तय होते हैं। कितने शोषितों, पीड़ितों को दलित कविता साथ व आवाज़ देती है, यह उसकी कसौटी है। ये सवाल व स्थितियां वर्तमान सत्ता के बरअक्स ठोस रूप में मौजूद हैं। पिछले कुछ वर्षों में सत्ता व प्रशासन ने हाशिये पर के वर्गो को और भी हाशिये पर धकेल दिया है। दलित कवियों ने इन स्थितियों का बखूबी संज्ञान लिया है।

अजय यतीश की कविता में विडंबनापूर्ण स्थितियों के प्रति उद्वेग, उद्वेलन तथा आक्रोश है। पर्यावरण, रोज़गार, शिक्षा इनकी चिंता के विषय हैं। झारखंड जनजातीय क्षेत्रों में, सहज नैसर्गिक जीवन में पूंजीवादी घुसपैठ का गंभीर सवाल है जो इस काव्य-संग्रह की कविताओं में दिखायी पड़ता है। वहां के जीवन को नष्ट कर देने पर कवि गुस्से में है। कंपनियों, ठेकेदारों के प्रति क्षुब्ध हो कवि कहता है- ‘धूल का बवंडर/ समाहित हो रहा है सांसों में/ लोग अभिशप्त हैं, त्रस्त है कोयलांचल/ दिन में ही रात है।’ यहां पारकिंसन, दमा, कुपोषण जैसी तरह-तरह की बीमारियां फैल गयी हैं। स्त्रियां बांझपन का दंश झेल रही हैं। लोगों को जारवा बना देने की साज़िशें चल रही हैं। अशिक्षा इसका एक बड़ा कारण है। कवि में गहरा आक्रोश है कि गटर के लिए मशीन नहीं है, वह ज्ञान के तमाम स्तरों को नकार देता है। दूसरी तरफ़, दामोदर नदी के उदास होने से भी कवि दुखी है। जैसे केदारनाथ अग्रवाल के यहां केन नदी उदास है, वैसे ही अजय यतीश की कविता में दामोदर नदी और नष्ट होती संस्कृति के प्रति उदासी का भाव है। अजय यतीश कई अस्मिताओं को मिलाकर एक मंच पर लाते हैं : स्त्री- ‘काश/मैं जन्म लेती/ गाय के गर्भ से/ बछिया के रूप में’ (61); ट्रांसजेंडर- ‘आख़िर क़सूर क्या था मेरा/ जो हमें कर दिया गया अपने ही/ घर से बेदख़ल (63); ‘कहीं किन्नर का दर्द है’ (92) जहां समाज की प्रताड़ना से पहले परिवार से तिरस्कार शुरू हो जाता है। शीर्षक कविता ‘स्पार्टकस’ संघर्षों को साझा वैश्विक संदर्भ देती है (68)। संघर्षों का ऐसा इतिहास जो पूरी दुनिया के शोषितों को ऊर्जा देता है, स्पार्टकस के बहाने अजय यतीश की कविताओं में दिखायी पड़ता है। माउंटेन मैन दशरथ मांझी (68) विषयक कविता पत्नी प्रेम और श्रम की गरिमा को एक साथ प्रस्तुत करती है। 'मुनादी' (72) कविता में जादुई विकास के मॉडल की पोल खुलती है ‘स्मार्टफ़ोन’ ‘लैपटॉप’ के बरअक्स एम्बुलेंस के अभाव में शव को कांधों पर ढोते आम जन के दारुण बिंब से। साथ ही ‘कॉमरेड की ज़िंदगी’, 'मज़हब', 'ज़रूरी किताब संविधान', खदानों के जीवन, रोज़ होते हादसों, भूख-भीख, मिट्टी की खुशबू में मिली बारूद की गंध, जैसे सवाल बार-बार आते हैं। ‘बम्ब ब्लास्ट’ के साथ छदम राष्ट्रवाद की पड़ताल की गयी है। साथ ही उन्मादी भीड़ पर ख़ासा व्यंग्य किया गया है। कहीं ‘सदी की अविकसित भीड़’ (71) ‘आश्रम की ओर लौटने लगी/ तप के लिए/ शांति की तलाश में/ कुंडलिनी जागरण के प्रयास में’ जैसे बिंब हैं तो कहीं पायल तड़वी और रोहित वेमुला की जातिगत सांस्थानिक हत्याओं के उदास चित्र हैं- ‘इस झोल पड़े समाज के/ ताने बाने से उदास हूं’ (10)। शब्द चित्रों से अजय यतीश आक्रोश भरी उपस्थिति दर्ज करवाते हैं।

2. अरविंद भारती का संग्रह वे लुटेरे हैं

अरविंद भारती का यह तीसरा कविता संग्रह है। यहां गहरा आक्रोश है जो काफ़ी ओवर टोन हो गया है। इसका बड़ा कारण समाज का दोमुहांपन है- पूरी दुनिया में किसी के साथ अन्याय पर दुख जताने वाला मीडिया और सवर्ण समाज दलितों-आदिवासियों के क़त्ल पर शातिराना चुप्पी साध लेता है (9)।  कवि अर्जुन को ललकारता है- ‘सुनो अर्जुन’ (11) फिर उनकी पोल खोलता है कि वे लुटेरे हैं (13)। 

धर्म को आधार बनाकर सवर्णों ने देश व समाज के सभी संसाधनों पर क़ब्ज़ा कर लिया—‘धर्मयुद्ध’ (15) में कवि इस पर व्यंग्य करता है , फिर हथियार उठाने की बात करता है। ‘मुर्दे’ (17) शीर्षक कविता में पाश और उदय प्रकाश की तर्ज़ पर अरविंद भारती कहते हैं—‘मुर्दे कभी नहीं उठाते हथियार/ मुर्दे/ कभी नहीं लिखते इतिहास’ और इसे यहां तक ले आते हैं कि यदि आप अन्याय को देखकर अनदेखा, अनसुना कर देते हैं तो ‘निश्चिंत रहें/ आपमें और एक मुर्दे में कोई फ़र्क़ नहीं’ (17)। 

एक तरफ़ पशु और दलित की तुलना पर रोष है तो दूसरी तरफ़ हिंदुत्व पर भी सवाल हैं—‘उन्होंने कहा/ गर्व से बोलो/ हम हिंदू हैं/ पीठ के ज़ख़्म/ अचानक हरे हो गये’ (20)। यहां हिंदू कहते ही विषमता और शोषण का बोध हो जाता है, फिर गर्व कैसा? इसी प्रकार 'भारत माता की जय' का नारा भी। मात्र नारा लगा देना ही प्रमाण है देशभक्ति का। जो नहीं लगायेगा वह ‘देशद्रोही’ घोषित कर दिया जा रहा है।

दलित कवि मात्र ‘हिंदुत्व’ तथा ‘ब्राह्मणवाद’ की ही आलोचना नहीं करता, वह ‘इस्लामी आतंकवाद’ का भी संज्ञान लेता है- ‘अत्याधुनिक हथियार/ धर्म के कारतूस/ ज़न्नत के ख़्वाब/ होंठों पर अल्लाह/ सीने में नफ़रत/ इंसानियत के क़ातिल’ (38)। कवि तार्किक ढंग से ईश्वर को नकारता है (48)। वह धर्म और ईश्वर के गठजोड़ को भी उजागर करता है। कवि तीखे आक्रोश में है। शिक्षा परिवर्तन ला सकती है—‘शिक्षा का महत्त्व बतायें/ समझायें कि ये कोई भेंड़ें नहीं/ जो ले जाये कोई हांक के’ (42)। धूमिल ने भेड़ों के खूब प्रतीक दिये हैं। दलित कवि जानता है कि शिक्षा भेड़ होने से बचा लेती है। इसीलिए जब दलित व स्त्री शिक्षित होते हैं तो सवर्ण वर्चस्ववादियों को अपना आधार खिसकता दिखायी पड़ता है। इसी दलित उत्पीड़न के कारण ‘... प्रतिभाशाली दलित शोधार्थी रोहित वेमुला/ मानसिक उत्पीड़न से परेशान/ चूम लेता है फांसी का फंदा’ (62)। यह क्रम दिनोंदिन बढ़ता जाता है—गुरुग्राम, मिर्चपुर, डांगावास, सहारनपुर, और अभी हाथरस तो सुलग ही रहा है। दलित कवि उत्पीड़न के तमाम रूपों का संज्ञान लेता है और अपने रोष को धार देता है। संभवतः इसी कारण अरविंद भारती, असंगघोष काफ़ी लाउड भी हो जाते हैं। मगर इस आक्रोश और लाउडनैस से राहत व ऊर्जा देती हैं प्रेम कविताएं जो अरविंद भारती के यहां खूब हैं—‘जब तुम उतर रही थीं/ पानी में/ ऐसा लगा चांद उतर रहा/ पानी में’ (83)। जीवन-संघर्ष में प्रेम याद के तौर पर ही साथ रह पाता है—‘हर ख़ाली पन्ने में/ आंखें गड़ाये/ हम पलटते हैं अपना इतिहास/ और जीते हैं भूतकाल... आंखों की कोर से/ चुपके से निकलकर/ कब एक बूंद/ डायरी में बना देती है/ एक गोल निशान’ (86)। यों दलित कविता में प्रेम भी आता है जो कविता का प्रारंभिक लक्ष्य था, परंतु संघर्षों ने उसे सोख लिया था।

3. कुसुम वियोगी का संग्रह लालबत्ती

कुसुम वियोगी परिपक्व लेखक व चिंतक हैं। प्राय: कम बोल कर, कम लिखकर ही आंदोलन को आगे बढ़ाते हैं। उनकी कविताएं भी इसका प्रमाण हैं। उनके इस संग्रह की कविताओं में बदलते मौसम, बदलती हवाओं की शिनाख़्त कर रहे हैं। साथ ही, ‘दलित अस्मिता’ पर हो रहे हमलों का विरोध करने के लिए ‘औज़ार’ की संकल्पना रखते हैं—‘सब्र का/ बांध टूट चला है/ तीर, तमंचे, बंदूक/ नहीं तो क्या?/ रास्ते के पत्थरों को/ औज़ार बनाना सीखो/ आख़िर/ दलित अस्मिता पर/ हमला/ कब तक/ होता रहेगा’ (5)।  यह कविता यों तो 2019 की है, परंतु इसे उस समय पढ़ा जा रहा है जब देश ‘हाथरस कांड’ से सुलग रहा है और एक बड़ा वर्ग बेटियों को हथियारबंद करने की पैरवी कर रहा है।

कुसुम वियोगी का कवि पंक्ति में खड़ा कर केवल ब्राह्मणवाद की ही आलोचना नहीं करता, वह निकम्मे दलित समाज को भी गरिया रहा है—‘बुढ़ियाती/ नौजवान पीढियां/ दारू के/ दो घूंट लगा/ खरगोश से/ कुदकते हैं/ यहां-वहां/ देशी शराब की/ थैलियां बटोरती/ उनकी/ अपनी ही बेटियां/ बनाने को/ बीजना/ या फिर बिछोनियां/ उम्र ढलती/ मां के/ पेट में पल रहे/ आगंतुक शिशु को’ (29)। इतनी निर्मम आत्मालोचना कोई आंदोलनधर्मी लेखक ही कर सकता है। फिर तमाम उपादान निशाने पर ले लिये जाते हैं। चाहे वह ईश्वर हो, दलेस हो, चरमराता गणतंत्र हो या वामपंथ ही क्यों न हो। यहां तक कि रोहित वेमुला को भी खरी-खोटी सुनायी है कि ‘लड़ता, भिड़ता, झगड़ता/ संवैधानिक दायरे में’ (58)। लड़कर मारकर मरने की वकालत करते हुए कवि का आक्रोश असंतुलित होकर गालियों की तरफ़ मुड़ जाता है। अब वरिष्ठता का तक़ाज़ा है कि संतुलन की अपेक्षा भी की जा सकती है। कहन के स्तर पर इतना गुस्सा कि ‘दलित-अस्मिता’ की रक्षा करते अन्य अस्मिताओं के प्रति संवेदनशील नहीं रह जाते हैं—‘न्याय के नाम पर/ हिजड़े-सा नपुंसक/ बन जाता हो/ मेरे लिए क़ानून’ (69)। 'अकविता' के दौर का सर्वनिषेधवाद और उसका कुछ उच्छिष्ट भी कहीं कहीं आ जाता है। ‘ब्रूटल रेप’ पर लिखते हुए कविता इतनी लाउड हो जाती है कि अर्थ का धरातल छूटता लगता है—‘बुझाने को अपनी/ काम पिपासा/ घुसेड़ते हो गुप्तांगों में/ लोहे की राड...’ (87) तथा ‘करते हो/ तन, स्तन से चिपके/ वसन तार-तार’ (88)। कविता, आंदोलन की ओर लौटकर, फिर गति पकड़ती है। भाजपा के सत्ता पर क़ाबिज़ होने की तार्किक विवेचना करते हुए लिखते हैं—‘मानता हूं/ समय लगता है/ इसमें/ पीढ़ियां-दर-पीढ़ियां भी/ खप सकती हैं/ जैसे/ खपी हैं/ हेडगेवार से मोहन भागवत तक/ हिंदुत्ववादी सांस्कृतिक बदलाव की/ तब/ जाकर कहीं सत्ता हाथ लगी/ कितना/ धीरज कितना त्याग/ कितनी दूरदृष्टि है/ वर्चस्ववादियों के पास/ कभी/ चिंतन/ मंथन किया है मूढ़ो?’ (106)। कविता के इस चिंतन का मिलान जब विगत वर्षो की प्राप्त रिपोर्टों से करते हैं तो पाते हैं कि वर्तमान सत्ताधारियों ने कितना सारा काम किया है। लगातार शाखाएं बढ़ायी हैं, ज़िला, प्रांत से लेकर गली मोहल्ला के स्तर पर बने विभिन्न संगठनों ने काम किये हैं, जनमत को तरह-तरह से अपनी ओर मोड़ा है। जबकि अन्य दल व नेता-कार्यकर्ता केवल चुनाव-काल ही में ‘प्रकट’ होते हैं। नतीजा यह कि अपराधी सत्ता में हैं। कवि यहां चेतना के प्रसार को ज़रूरी मानता है—‘मैं और मेरे समकालीन/ तुम्हें/ पुकारते थे/ बुलाते थे/ मोर्चा, जुलूस आंदोलनों में/ करने को शिरकत/ तब तुम/ गली-मौहल्लों के/ नुक्कड़ों पर बैठ/ ताश खेलते थे/ याद है ना वो दिन/ सारा दिन उड़ाते थे/ सिगरेट-बीड़ी के धुएं में’ (117)। इसका नतीजा यह हुआ कि हम और हमारे पैरोकार सत्ता व सरकार से बाहर हो गये—‘तुम, जैसे असंख्य, नासमझों को/ आरक्षण मिला/ कब गया/ पता न चला/ उदारीकरण के दौर में/ अब क्यों/ चिंता में/ डूब जाते हो/ निजीकरण के युग में’ (119)। एक बहुत बड़ी अशिक्षित बेरोज़गार पीढ़ी को धर्मयुद्ध में झोंक दिया गया। चेतना का अभाव रहा कि शासक वर्ग खुलकर अपने एजेंडे को लागू (‘गाय-मंदिर’) करने लगा—‘अब/ भावी पीढ़ियों को/ स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय/ अस्पताल नहीं/ देश के विकास को/ गाय मंदिर ज़रूरी हैं’ (124)। तो दलित कविता पूरी राजनीतिक समझ को समझती समझाती है।

4. सूर्यप्रकाश जीनगर का संग्रह रेत से हेत

सूर्यप्रकाश जीनगर के प्रस्तुत संग्रह की कविताएं राजस्थानी जन-जीवन का सोंधापन लिये हुए हैं। श्रमिक वर्ग व जीवन से जुड़े जीनगर धर्म पर श्रम का विचार स्थापित करते हैं—‘खेत से फ़सल/ कटकर आती है/ खलिहान में/ फिर/ बेचता है किसान/ मंडी या बाज़ार में/ इसे कौन ख़रीदेगा/ हिंदू या मुस्लमां..?/ सोचता नहीं वह/ बीज बोते समय...’ (22)। जीनगर की कविताएं लिखत में छोटी, मगर कहने में बड़ी हैं। यहां रेगिस्तान खिल उठा है—‘अनथक श्रम का उड़ेला हुआ रस/ आती है इनमें/ थार की सोरम/ हाथों में लेकर/ सूंघता हूं/ पूरा खेत/ खिल उठता है/ सांसों में’ (26)। राजस्थान के रेगिस्तानी खेतों में भी उगती फ़सल उम्मीद जगाती है—‘मेरे रेगिस्तान में/ इन दिनों/ महक रही हैं/ सरसों की बस्तियां/ पढ़ा रही हैं वो/ उम्मीद का पाठ’ (27), और कहीं पर ‘रोहिड़ा का पेड़/ जैसे बरसों इंतज़ार के बाद/ आत्मीय मित्र-मिलन हो गया/ बसंत में खिले/ रोहिड़ा के नारंगी फूल/ धरती पर गिरे फूलों को/ माथे से लगाया/ हाथों से सहलाया/ वाह! मेरे मरुस्थल की शोभा’ (108)। यह सब बहुत लुभावना है, मगर साथ ही छीजते जन जीवन और बढ़ते प्रदूषण के प्रति भी कवि चिंतित है—‘आजकल/ धीमे पड़ रहे हैं/ वे हिये के स्वर/ फीकी पड़ रही है/ वो खेतों की खुशबू/ सोशल मीडिया की तेज़ आंधी में’ (28)। बदलाव प्रत्येक क्षेत्र में हो रहा है। जीनगर के यहां भी विकास के नाम पर विनाश बो दिया गया है—‘मेरे आंचल को/ विकास की भेंट चढ़ाकर/ तब्दील कर दिया/ कंकरीट के जंगल में/ जहां खड़े हैं/ प्रदूषण के बड़े-बड़े केंद्र/ मेरे जीवन का राग/ उनमें कहीं दफ़न हो रहा है/ देखो तुम/ ये अकाल पीड़ित/ मरुधरा’ (31)। राजस्थानी सहज, नैसर्गिक जीवन के क्षरण हो जाने का दुख कवि को गहराई से है। साथ ही, कारीगर दलित जातियों के मज़दूर बनने की विवशता को भी स्वर दिया है—‘महंगाई की चाबुक मार के आगे/ जगू ने छोड़ दिया/ जूती बनाने का धंधा/ पुश्तैनी काम की पहचान/ चली आ रही थी/ बरसों से...’ (87)। अब कारीगर जगू मज़दूर हो गया तो श्रम के वे गीत भी छूट गये जो ‘हरजस’ सी अनुभूति प्रदान करते थे—‘घर की गाड़ी को/ चला रहा है जगू/ माकन चिनाई के/ काम में लगकर/ सांझ ढले/ घर लौटता है जगू/ सुनायी नहीं देती अब/ गीतों की मधुर ध्वनियां’ (88)। यानी श्रम की गरिमा भरी एक संस्कृति लगातार लुप्त हो रही है, जहां उत्पादक अपने उत्पाद से सृजनात्मक आर्थिक तृप्ति पाता था। अब श्रम के अवमूल्यन का समय आ रहा है।

जीनगर का कवि सब्ज़ी बेचते फेरीवाले के साथ है, रोज़मर्रा की चीज़ें बेचते ‘राजूमाली’ के साथ है। अपने श्रम व सृजनात्मक स्वभाव से जीवन को बेहतर बनाने वाले प्रत्येक आमजन के प्रति कवि नतमस्तक है। ‘आभासी दुनिया’ (104) की वाट्सअप ‘यूनिवर्सिटी’ से दीक्षित ‘तथाकथित क्रांतिवीरों’ द्वारा जाति संप्रदाय की नफ़रत फैलाने पर भी कवि रोष में है।

5. असंगघोष का संग्रह अब मैं सांस ले रहा हूं

शोषणतंत्र को यदि न समझें तो यातना उतनी नहीं होती। भाग्य, विधि मानकर व्यक्ति सहता जाता है, किंतु शिक्षित होकर व्यवस्था का रेशा-रेशा दिख जाता है। असंगघोष शिक्षित पीढ़ी के कवि हैं। चेतना का प्रभाव यह है कि समझ और विचारों के प्रकटीकरण में तीखा आक्रोश है। कवि शोषक को फूंक देना चाहता है—‘एक दिन/ अपनी इसी ऊष्मा को संचित कर/ फूकूंगा तुझे मैं ही/ अपने भीतर की धधकती हुई आग में’ (13)। कारण यह है कि कवि को हर वक़्त विगत यातनाएं कचोटती रहती हैं—‘हमारे दुख/ बेहद काले थे/ बेचिराग़ घरों के अंधेरों में/ कभी किसी बाहरी को दिखायी नहीं दिये’ (14)। लेकिन कवि इन शोषकों की बख़ूबी शिनाख़्त करता है। यह शोषक भेड़िया के रूपक में आता है। धूमिल से लेकर सर्वेश्वर तक के यहां ‘भेड़िया’ का रूपक आया है। परंपरा में भेड़िये की उपस्थिति है, मगर दलित कवि उसकी पहचान करता है—‘लेकिन आया होगा/ वह दबे पांव मुंह-अंधेरे/ झांझ-मंझिरा-ढोलक पीटते/ प्रभात फेरी लगाते लोगों की भीड़ में/ छिपते छिपाते हुए/ भाइयो/ सावधान रहना’ (21)। कवि अंबेडकरवादी चेतना के प्रकाश में भेड़िये की समुचित पहचान दर्ज करा रहा है। इसी कारण कवि का लक्षित दलित वर्ग स्पष्ट कह देता है कि ‘नहीं होगी हमसे बेगार’ (25)। इसी तेवर के साथ ‘राष्ट्रवाद’ और ‘जातिवाद’ (26) को भी नहीं बख्शा जाता। ‘अंधराष्ट्रवाद’ तथा उन्माद में ‘भारत माता की जय’ (29) कहने वालों की ख़बर भी कवि ने ली है। जवाब न देकर वह हिंसा पर उतर आता है। कवि स्वयं को हिंदू ही बनाये रखता है ताकि खूब गालियां दे सके हिंदुत्व को, और गालियां देता भी है। वरिष्ठ कवि भी उस भाषा पर यों उतर रहे हैं जो उनको मिली है। यहां अपेक्षा की जाती है कि आक्रोश, क्रोध, घृणा, जो भी भाव उनके व्यवस्था के प्रति हैं, उनके लिए अपनी भाषा का निर्माण करना चाहिए। घृणा का भाव इतना गहरा न हो कि प्रेम ही नदारद हो जाये और कहना पड़े, ‘लिख नहीं सकता प्रेम कविताएं’ (40); ‘मेरा आक्रोश मेरा विद्रोह/ मेरा क्रोध ही मेरे लिए प्रेम है/ इससे इतर नहीं लिख सकता/ मैं प्रेम कविताएं’ (41)। कुछ स्थानों पर कविता जन सामान्य के व्यंग्य पर आ जाती है। क़स्बों, शहरों, योजनाओं के नाम बदलने पर कवि क़रारी चोट करता है—‘गुरु ग्राम/ घंटा ग्राम/ ...पूरे-के-पूरे/ तैंतीस करोड़ ग्राम/ पास में कुछ है नहीं काम/ तो फिर बदलते रहो/ नाम’ (44)। बाद की कविताओं में कवि उद्घोषणाएं ज़्यादा कर रहा है—‘मैं शैली में रक्तबीज’ (47), ‘मेरे पास/ बंजर ज़मीन में, मैं घन से तोड़ता हूं‘(49), ‘थामनी है तलवार’ (50), ‘जवाब हम देंगे’ (52), ‘मेरे हाथ में/ सूअरमार बम है’ (54), ‘लगाम पर मेरा नियंत्रण है’ (55), ‘मिथकों को नकारता हूं’(61); परंतु लेखक फिर शिक्षा और संघर्ष की ओर आकर संयत हो जाता है। ‘क्या नहीं है जातिवाद’ शीर्षक लंबी कविता में वह गांव के स्कूलों में होने वाले जातिगत भेदभाव पर रोष प्रकट करता है और फिर शिक्षा का आह्वान कर देता है- ‘उठो साथियो/ शिक्षित बनो/ संगठित हो/ संघर्ष करो’ (64)। यह आह्वान एकबारगी आश्वस्त-सा करता है, परंतु निश्चिंत नहीं करता। हमें समाज में से परिवर्तनकामी चरित्र भी निकालकर लाने होंगे। सवर्णों को खूब गरियाकर भी अपना क्या भला हो सकता है?

ये वक्तव्य, कथन, उद्घोषणाएं, चेतावनी, दलित समाज के लिए कितनी रचनात्मक हो सकती हैं, यह चिंतन का विषय है। ‘पाय लागी हुजूर’ (107) में दाई की पीड़ा है, उससे हम एकाकार हो पाते हैं। यहां आकर एक संवेदनशील हृदय बनने लगता है—‘उसे न काम का सम्मान मिला है/ ना उसके श्रम का उचित मूल्य/ उसके जचगी कराये बच्चे/ कुछ ही माह बाद/ मूता सूत्र पहन लेते हैं/ तो कुछ उसे दुत्कार निकल जाते हैं/ उसे बंदगी में झुक कहना ही पड़ता है/ हूल जोहार/ घणी खम्मा अन्नदाता/ पाय लागी हुजूर/ पाय लागी महाराज/ ऐसे पांवों को/ कोई तोड़ क्यों नहीं देता’ (108)। करुणा की ऐसी सृष्टि क्या दलित कविता का उद्देश्य हो सकती है?

6. सुदेश कुमार तनवर का संग्रह, माटी के वारिस

शीर्षक के अनुसार यहां गांव, माटी छूट जाने का दर्द शब्द पा गया है और गांव छुड़वा देने वाले तत्त्वों की पहचान भी है—‘वे कौन हैं/ जो करते रहे/ मेरी बहू बेटी की/ इज़्ज़त को तार-तार?’ (37)। दलित कवि भाषायी प्रपंच को पहचान गया है—‘आख़िर/ आग्रह क्यों है तुम्हारा/ आदिवासी की जगह वनवासी पर/ दलित-पिछड़ों की जगह वंचित पर/ समानता की जगह/ समरसता पर?’ (41)। शब्दों का चयन वास्तव में सत्ता करती है, संघर्ष को कुंद करने के लिए। यहां तक कि उनकी समृद्धि का राज़ भी दूसरों को कुंद करता है—‘वे कहते/ भगवान की महिमा/ मैं कहता/ सदियों की साज़िश’ (50)। कवि जातिवाद के विभिन्न रूपों की शिनाख़्त करता है—‘क्यों/ सपनों में भी/ सोच नहीं पाये तुम आज तक/ तुम्हारी बेटी का ब्याह हो/ मेरे घर?/ क्यों नहीं बन पायी/ मेरी बहन की इज्ज़त/ तुम्हारे गांव घर की/ इज्ज़त?’ (67)। कवि अन्याय पर तो उंगली रख ही रहा है किंतु लोगों की चुप्पी पर हैरान भी है—‘मैं हैरान हूं/ किसी औरत ने/ क्यूं जलायी नहीं मनुस्मृति/ पहनायीं जिसने उन्हें/ गुलामी की बेड़ियां’ (87)। यह एक महत्त्वपूर्ण कविता है, जिसमें राम, कृष्ण, इंद्र, तुलसी, दुर्योधन, भीष्म आदि सभी मिथकीय चरित्रों को कटघरे में खड़ा किया गया है और पूछा गया है कि स्त्रियों ने विरोध क्यों नहीं किया? कवि ने बुद्ध को विष्णु का अवतार कहने वालों पर व्यंग्य किया है, साथ ही देश के प्रति उनके ईमानदार न होने की घोषणा भी कर दी है—‘सेवा तुम्हारे हिस्से में नहीं थी/ जिसे तुम अपने हिस्से का समझते रहे/ उसे भी ईमानदारी से निभाया नहीं/ अगर निभाया होता तो देश की/ गोपनीयता विदेशियों को ना बेचते’ (97)।

कवि सवाल करता है—‘बताओ न’ (99), जिनका जवाब महानुभावों के पास नहीं है। ‘अपनी महान संस्कृति का बखान करने वालो/ उन ‘जेहादियों’ के पक्ष में/ सारे क़ानूनों को ताक़ पर रख/ पूरा का पूरा जातीय हुजूम/ क्यों खड़ा हो गया ढाल बनकर?’ (99)।  एकदम अभी जब हाथरस में आरोपियों के पक्ष में जातीय पंचायतें एकजुट होकर भयंकर उद्घोषणाएं कर रही हैं, शासन-प्रशासन खुलकर पंचायतों और आरोपियों को संरक्षण दे रहा है, तब इन पंक्तियों में व्यक्त कवि का दृष्टिकोण अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो जाता है। कवि स्पष्ट कह रहा है—‘बलात्कारियों को/ तुम महिमामंडित करते हो/ जुआरियों को/ धर्मराज कहते हो/ ढोंगियों को पूजते हो’ (104)।  समाज, राजनीति सब का अवलोकन कर कवि पुनः पुनः गांव लौटता है—‘मैं/ गांव बाहर घूरे पर/ बार-बार फूटता/ अंकुर’ (121)।

कुल जमा इकत्तीस कविताओं का यह संग्रह 124 पृष्ठ का है जिनमें 33 पृष्ठों की भूमिका है। प्रत्येक कविता किसी दलित चिंतक को समर्पित है और दो ढाई पृष्ठ में हर कविता का स्पष्टीकरण तथा गद्यात्मक वक्तव्य है। यदि सुदेश तनवर अलग से लेख लिखें तो एक साथ दो विधाओं को समृद्ध कर सकते हैं, यों भी दलित लेखन में निबंध और आलोचना का अभाव है।

7. अमित धर्म सिंह का संग्रह  हमारे गांव में हमारा क्या है?

अमित की कविता, भाषा, शीर्षक तथा क्षेत्र ओमप्रकाश वाल्मीकि वाला है। दलित साहित्य ओमप्रकाश वाल्मीकि के प्रभाव में है और रहना भी चाहिए। यहां वहां प्रभाव स्पष्ट दिखायी पड़ता है। अमित की कविताओं में श्रम संस्कृति के दर्शन होते हैं। दलित बच्चे होश संभालते ही खबात मेहनत से जुड़ जाते हैं। इसके बावजूद यदि भर पेट खाना न मिले तो खेतों से साग-सब्ज़ी ले लेना बुरा नहीं लगता। आज कोरोना काल में जब पैदल लहूलुहान घर लौटता एक मज़दूर किसी की साइकिल ले गया और एक चिठ्ठी छोड़ गया है, तब उसे ग़लत कहने का साहस तो हमारी पीढ़ी के पास नहीं है। और गांव देहात के दलित बालकों पर तो सदियों से ही लॉकडाउन लगा हुआ है। अमित ने जिस बचपन के चित्र उकेरे हैं, वह दलित जीवन साहित्य का आधार रहा है। रोटी की सनातन समस्या को दलित बालक यों भोगते हैं—‘आज तो हद हो गयी/ एक गांडा तोड़ने पर घटानिया ने/ सोनबीरी बुढ़िया पर बजाते-बजाते/ गांडा ही तोड़ दिया/ ..हम माँ को निगाह से टटोलते/ कहीं माँ लंगड़ा तो नहीं रही/ सब कुछ ठीक पाने पर/ माँ के साथ बराबर की लड़ाई बजती....मां चुप रहती/ हम रोटी न बनाने पर भी/ मां को भली-बुरी कहते/ और चिल्ला-चिल्लाकर पूछते/ रोट्टी न बनाने की वज़ह/ मगर क्या मज़ाल/ कि मां ने कभी वजह बतायी हो’ (19)। यह एक बड़ा सवाल है जिसका जवाब मां तो क्या, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की संसद भी नहीं दे पाती और इस सवाल से बचने के लिए सांप्रदायिकता का राज्य प्रायोजित वितंडा रच दिया जाता है।

दलित बालक लगातार अभाव झेलता है, रोटी का अभाव, स्कूल की फ़ीस और वर्दी का संकट। स्कूल की प्रार्थना में परमात्मा की वंदना है परंतु इन दलित-दरिद्र बालकों का परमात्मा न जाने कहां डूब मरा है। दलित बच्चों द्वारा घास काटने से लेकर तरह-तरह की मज़दूरी, यहां तक कि चुंबक लटकाकर चलने व लोहा लंगर बीनने के करुण दृश्य हैं, बस्ता व घास की गठरी में श्रम व ज्ञान का भार ढोने की प्रक्रिया है। जो तथाकथित बुद्धिमान आरक्षण का विरोध करते हैं, क्या उनके बच्चे ऐसा नरक बचपन जीते हैं? और यह सब उदारीकरण की छाती पर, वैश्वीकरण के आगमन पर घट रहा है! सर्दी, गर्मी, बरसात हर मौसम उनके लिए यातना है। ग़रीबी का महासागर ठाठें मार रहा है जिसके हृदय विदारक दृश्य दलित कवि जीता है और रचता है—‘असल में पापा की समस्या/ मालिक का देर से आना या/ रसोई में बनने वाली सब्ज़ियां नहीं/ आट्टा थी/ सौ रुपये की दिहाड़ी में/ साठ रुपये धड़ी आट्टा/ बाकी में तेल-तमाखू/ चाय-चिन्नी हारी-बीमारी/ फीस-किताबें कपड़े-लत्ते आदि’ (57)। अभावग्रस्त ये बच्चे पूरा-पूरा दिन मिलों, फैक्ट्रीयों में लोहा लंगर, रद्दी कबाड़ बीनते ज़िंदगी को बीनते हांडते—अमित उस पीढ़ी के कवि हैं।

साथ ही खेल, मनोरंजन, रामलीला, मेले, साइकिल के खेल, कांवड़, उत्सव जैसे तमाम उपक्रम भी चलते रहते और भूखे-दरिद्र, कुपोषित, अपाहिज, दलित बालकों का देश विश्वगुरु बनकर फूलकर कुप्पा हुआ जाता। 1990 का पूरा दशक यहां वी.सी.आर. फ़िल्मी गीत संगीत और उसके क़स्बाई प्रभाव के साथ नमूदार हुआ है। इतने बारीक़, प्रमाणिक व प्रभावशाली विवरण है कि आंचलिकता का परिवेश आकार लेता दिखायी देता है। श्रम का सौंदर्य और अर्थ की रचना-प्रक्रिया के दोनों पक्ष यहां बखूबी पेश हुए हैं।

अंत में, सवाल अब्दुल की आत्मा का! दलित कविता अपने साथ तमाम अस्मिताओं को लेकर चलती है। किसान, श्रमिक, स्त्री, किन्नर, मुस्लिम सभी को। साथ ही, इनकी स्थितियों के लिए ज़िम्मेदार समाज, संसद, नौकरशाही तथा सवर्ण हिंदुत्ववादी, पूंजीवादियों से सवाल करने का साहस भी दलित कविता कर रही है। आज जबकि असहमति देशद्रोह बना दिया गया है, हक़-अधिकार की वकालत करने वालों को आतंकवादी बनाकर जेलों में ठूंसा जा रहा है; न्यायप्रणाली भी ग़लत को ग़लत कहने में कांप रही है, दंड देना तो दूर की बात है, ऐसे में दलित कवि एक प्रतिरोधी चेतना का सृजन तो कर ही रहे हैं। ये ज़्यादातर एक्टिविस्ट व अकादमिक कवि हैं जो दलित जीवन की बेहद विषम परिस्थितियों से छनकर आये हैं, जो अपने साथ-साथ औरों के सवालों को भी उठाते हैं, औरों की मुक्ति को भी अपना लक्ष्य मानकर संघर्ष करते हैं। यह इन कविताओं से प्रमाणित होता है। यों दलित कविता एक साझा मंच तैयार करती नज़र आ रही है, जो आश्वस्तिपरक है।

मो. 9650407519

पुस्तक संदर्भ

1. स्पार्टकस, तुम्हारी मेहनत बेकार नहीं गयी : अजय यतीश, बोधि प्रकाशन, जयपुर, 2019

2. वे लुटेरे हैं  : अरविंद भारती, रश्‍मि‍ प्रकाशन, लखनऊ, 2019

3. लालबत्ती (आंदोलन की दलित कविताएं) : डॉ. कुसुम वियोगी, अक्षर पब्लिशर्स डिस्ट्रीब्यूटर्स, दिल्ली, 2019

4. रेत से हेत : सूर्यप्रकाश जीनगर ,अंतिका प्रकाशन प्रा. लि., ग़ाज़ि‍याबाद. 2019

5  अब मैं सांस ले रहा हूं : असंगघोष, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2018  

6. माटी के वारिस- सुदेश कुमार तनवर, रश्‍मि‍ प्रकाशन, लखनऊ, 2020

7. हमारे गांव में हमारा क्या है? : अमित धर्म सिंह, बोधि प्रकाशन, जयपुर, 2019 

 

 

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