काव्य चर्चा-6

 यथार्थ का पुनर्सृजन ही कविता है

(तीन काव्य-संग्रह, तीन कवि)

प्रेम तिवारी

 संसार का प्रत्येक कवि अपने जीवन-यथार्थ को कल्पना, अनुभूति और संवेदना से बदलकर उसे पुनर्सृजित करता है। भाषा में यह पुनर्सृजन ही कविता है। कविता पढ़ना इसीलिए एक दिलचस्प और संवेदनशील अनुभव है। कविता की संरचना में ही कुछ ऐसा है, कि वह यथार्थ को, जो चाहे कितना भी क्रूर और ठोस हो, यथास्थिति में नहीं रहने देती। उसे बदल देती है। कविता हमें उम्मीदों से भरे रखती है। कविता के सामने कुछ भी शाश्वत नहीं। न कोई सत्ता, न उसका डर, न कोई निराशा, न अंधेरा। कवि की दृष्टि अनोखी होती है। इतनी अनोखी कि संसार के किन्‍हीं दो कवियों ने एक ही विषय पर बिलकुल एक-सी कविता नहीं लिखी है। यह कवि की सृजनशीलता के मौलिक होने का भी प्रमाण है। जिन तीन संग्रहों की यहां चर्चा होगी, उससे भी यह सिद्ध है।

पी.एम.एस. ग्रेवाल कवि हैं, यह बात हिंदी कविता की दुनिया में बहुत कम लोग जानते हैं। अपने कवि होने का कोई प्रचार या प्रदर्शन उन्होंने कभी नहीं किया। कविताएं लिखते रहे। कुछ कविताएं हिंदी में लिखी हैं, कुछ पंजाबी और अंग्रेज़ी में। मूलतः पंजाबीभाषी ग्रेवाल साहब की पकड़, हिंदी और अंग्रेज़ी पर भी कमाल की है। इनकी हिंदी-अंग्रेज़ी कविताएं इसका प्रमाण हैं। पी.एम.एस. का मुख्य अभ्यास इतिहास के अनुशासन में रहा है। और कई वर्षों तक मध्यकालीन इतिहास के प्रोफ़ेसर रहे। बाद में वामपंथी राजनीति में सक्रियता और व्यस्तता के चलते नौकरी छोड़ दी। और अपना पूरा समय सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों को सक्रिय नेतृत्व देने में लगाया। इस राजनीतिक अनुभव की स्पष्ट अभिव्यक्ति इनकी कविताओं में हुई है। उनकी चौवालिस कविताओं का एक संकलन, अभी कुछ आग है बाक़ी शीर्षक से इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है। इसमें हिंदी के साथ पंजाबी और अंग्रेज़ी की कविताएं भी हैं। यह अनुमान तो संग्रह के शीर्षक से ही लग जाता है कि ये कविताएं ललकार से भरी हैं। संग्रह की पहली कविता ‘आज़ाद राहों के नाम’ पढ़कर लगता है, यह कवि का काव्य-समर्पण है: 'क़त्लगाहों के नाम, बेगुनाहों के नाम/ माओं की बेबस दुआओं के नाम/ बग़ावत की तपती हवाओं के नाम / ख़्वाबों की आज़ाद राहों के नाम।' किसी काव्य-संग्रह का ऐसा समर्पण मैंने अब तक नहीं देखा है।  

दूसरी कविता, भगतसिंह को फांसी देने वाले जल्लाद और भगतसिंह के बीच लंबा संवाद है। भगतसिंह से जल्लाद के यह पूछने पर कि इंक़लाब से आख़िर तुमने क्या हासिल किया? भगतसिंह जवाब में जो कुछ कहते हैं उसे कविता के शिल्प में बस एक लय में पिरो दिया गया है। इस कविता में अंग्रेज़ी हुकूमत के अन्याय, अत्याचार, शोषण, ग़ुलामी, दमन और देश की भीषण दुर्दशा के ऐसे अनेक चित्र हैं, जो उस दौर के इतिहास की ही याद ताज़ा नहीं कराते, बल्कि आज के दौर में भी सत्ता के दमन की साफ़ झलक दिखाते हैं। मतलब यह कि इंक़लाब की ज़रूरत अभी ख़त्म नहीं हुई है। साम्राज्यवाद के विरुद्ध इंक़लाब का नारा बुलंद करते हुए भगतसिंह कहते हैं : 'वतन की आज़ादी ख़ातिर/ हमने जान-जवानी वारी/ मरके भी सामराज को/ बहुत पड़ेंगे हम भारी... राख हमारी इंक़लाब के/ सदा तराने गायेगी/ नाउम्मीदी के सहरा में / बाग़ी फूल खिलायेगी।' साम्राज्यवादी ताक़तों के विरुद्ध यह लड़ाई आज एक नये दौर में पहुंच गयी है। 

संग्रह में, ऐतिहासिक घटना पर आधारित ‘भूमि रण की गौरव गाथा’ शीर्षक से एक लंबी कविता है। इस कविता में ‘बनारस’ ज़िले की एक छोटी-सी तहसील ‘चकिया’ में हुए भीषण भूमि-संघर्ष का जीवंत चित्रण है, जो हक़ के प्रति जनता को जागरूक करती है और मन में जोश भरती है। इस संघर्ष में, कम्युनिस्ट पार्टी का लाल झंडा लिये एक ओर ग़रीब और बेबस मज़दूर-किसान हैं, दूसरी ओर बनारस के राजा, उसके गुंडे और सत्ता-प्रशासन। लेकिन जीत अंततः जनता की संगठित शक्ति की होती है। कवि ने इस भीषण भूमि-संघर्ष का भाषा में लयबद्ध सर्जनात्मक चित्रण किया है : 'हाथ में लाठी, उसपर झंडा/ लहराता हुआ लाल निशान/ बिना ख़ौफ़ के लड़ने निकला/ चकिया का मजलूम किसान/ हम ही मालिक इस भूमि के/ हम ही फ़सलों के हक़दार/ बहुत हुआ अब नहीं सहेंगे/ किसी तरह के अत्याचार'। अपने हक़ के लिए किसान आज फिर सड़कों पर है। सत्ता उसे छलने के हर हथकंडे अपना रही है, लेकिन वह अपनी मांगों के साथ डटा है।   

संग्रह की अधिकांश कविताएं बेबस और लाचार इंसानों को निडर बनाने, अधिकारों के प्रति सजग करने, अन्याय के विरुद्ध लड़ने और उनमें क्रांतिकारी विचार जागृत करने वाली कविताएं हैं। ये अंधेरे में शमा जलाने वाली कविताएं हैं : 'फिर कहीं शमा जली/ आज़ादी के परवानों की / फिर कहीं उठी दहाड़/ लाखों बेजुबानों की/ फिर किसी ग़ुलाम ने/ सुल्तान को ललकारा है/ फिर किसी अवाम ने/ कहा ये मुल्क हमारा है।' 

संग्रह में एक कविता ‘जनवादी लेखकों के नाम’ है। जिसमें कवि ने जनवादी कवियों पर तंज़ किया है कि 'ऐ कलम की दौलत वालो/ क्यों कुंद है कलम तुम्हारी?/ क्यों थके हुए जज़्बों पर करते हो सवारी? ...क्या साहित्यिक आलोचना की/ अफ़लतूनी बातें/ रौशन कर पायेंगी/ जनता के दुख की रातें? ...क्यों भूल गये हो लिखना/ आंदोलन का अफ़साना/ क्यों नहीं रच पाते/ संघर्ष का गीत-तराना?' और अपील करता है कि ' लिख डालो कुछ ऐसा/ जनता के काम जो आये/ रच डालो कुछ ऐसा/ जिससे दुश्मन थर्राये'। पी.एम.एस. ग्रेवाल राजनीतिक कवि हैं। कविता में भाषा का न कोई अनावश्यक चमत्कार है, न पाठक पर उसका कोई भार। ये कविताएं अपने तीखे अंतर्वस्तु के कारण ही छाप छोड़ती हैं। ग्रेवाल साहब ने सिर्फ़ संघर्षों और आंदोलनों को ही कविता का विषय नहीं बनाया है बल्कि बच्चों के लिए भी कविताएं लिखी हैं। इनकी ‘क्यों?’ शीर्षक कविता प्राकृतिक और वैज्ञानिक रहस्यों के प्रति बच्चों में जिज्ञासा जगाने वाली रोचक कविता है : 'कैसे उठती जल में लहरें/ क्यों आ जाता है तूफ़ान/ क्या ये देवों की मर्ज़ी है/ क्या मानव को इसका ज्ञान? ...इतने पक्षी कहां से आये/ क्यों हैं इतने जीव अनेक/ क्यों सदियों में ये उपजे हैं/ या बन बैठे दिन में एक'। समाज के वर्गीय अंतर्विरोध के यथार्थ को व्यंग्यात्मक ढंग से इन्होंने अपनी ‘ठंड’ कविता में अभिव्यक्त किया है : 'ठिठुर रहे वे ठंड में/ न कोट न लिहाफ़ है/ हिंद में गरीब के/ मौसम भी ख़िलाफ़ है/ एक ओर हीटरों के/ ताप का सुकून है/ दूजी ओर जम रहा/ आदमी का ख़ून है ... हर जमात के लिए/ ठंड अलग विसात है/ कुछ के हाथ शह लगी/ बाक़ी सबकी मात है।' संग्रह में ‘बारिश के दो चेहरे’, ‘दीवानगी’, ‘अदालत’, ‘लाल काज़ी के नाम’, ‘इक परेशान बेटी के नाम’, ‘फ़िलिस्तीनी जांबाज़ों के नाम’, ‘हम न रहे तो क्या हुआ’ आदि शीर्षक से एसी कविताएं हैं, जिन्हें पढ़कर ज़ुबां कह उठती है : 'जवानी लुट गयी लेकिन/ अभी कुछ आग बाक़ी है/ हमारी मयपरस्ती में/ ज़हर न घोल ऐ साक़ी...।'

ग्रेवाल साहब की कविताओं में, कवि के भीतर जो खौल रहा है, उसे कह देने की एक जल्दबाज़ी है, इसलिए ‘भाषा’ और ‘रूप’ की दृष्टि से ये कविताएं एकदम सीधी-सपाट दिखती हैं। कविता की भाषा और उसके बनाव-सिंगार पर उतना ध्यान नहीं है, जितना ‘कथ्य’ पर। लेकिन गोबिंद प्रसाद एक बिलकुल सजग कवि हैं। हिंदी कविता की दुनिया में इनकी एक ख़ास पहचान है। कविता में कही जाने वाली बात पर ही नहीं, कहने के ढंग पर भी कवि बेहद संजीदा है : 'जब मैं बोलता हूं/ तो दरअस्ल बोलता कहां हूं/ अंदर-ही-अंदर खौलता हूं रह-रहकर/ ... उस भाषा में/ जिसमें इस हत्यारी संस्कृति की समाई हो नहीं सकी ... कहीं अपने में घोलता हूं/ ज़हर में बुझा वह समय/ जिसकी नाव पूंजी और बाज़ार के/ चप्पुओं के गठजोड़ पर चल रही है।' कवि अपने समय की भीषण विडंबनाओं और विद्रूपताओं के बिलकुल सामने खड़ा है, भीतर खौलता हुआ और विवश। 'अपने को/ अपने में सोए हुए को/ झिंझोड़ता हुआ।' बेशक, देश जिन हालात से गुज़र रहा है, उसमें हर नागरिक बेबस होकर अपने को झिंझोड़ ही तो रहा है। यह छटपटाहट कवि की ही नहीं, हाहाकार करते पूरे देश की भी है। जनवादी कवियों से ग्रेवाल साहब की जो शिकायत है, उसे गोबिंद प्रसाद के संग्रह, यह तीसरा पहर था की कविताएं दूर करती हैं। यह काव्य-संग्रह 2018 में आया है। इस संग्रह में ‘रूप’ और ‘अंतर्वस्तु’ की बहुत विविधता है। तानाशाह सत्ता की क्रूरता और दमन कवि के मानस को खौलाती हैं, तो ‘सर्जना का रंग’ से उसमें उम्मीद भी जागती है : 'तुमने ज़मीनें हड़पीं, फ़सलें जलायीं, खेत चुराये/ धरती की कोख चुराकर दिखाओ/ धरती की कोख से हर पल खिलने वाली/ सर्जन का हरा रंग चुराकर दिखाओ/ दिखाने के लिए है क्या तुम्हारे पास।' कवि इंसानियत को तार-तार होते देख, इस दौर में ‘इंसानियत जैसा कुछ गढ़ने के लिए, आसमान, हवाओं और फूलों के पास जाता है, लेकिन उसकी यह उम्मीद पूरी नहीं होती, बल्कि फूल तो उसे बेरंग, उदास और खौफ़ज़दा-से महज़ टंगे दिखायी देते हैं। उसकी यह उम्मीद पूरी होती है मज़दूरों की एक बस्ती में : ‘आख़िरकार मायूस होकर मेरे क़दम/ मज़दूरों की खंडहरनुमा उस बस्ती की ओर उठ गये/ जहां बुझे हुए चूल्हों में आग की लपटें नाच रहीं थीं/ जिनमें नंगे बच्चे/ और रोटी पकाते हाथों की छायाएं/ दीवारों पर झुलस रही थीं/ आंखों में जल रहे थे बस्ती के सपने।' यह महज़ संयोग नहीं कि दोनों कवि मज़दूरों से ही इंसानियत की उम्मीद रखते हैं। ऐसी उम्मीद दरअस्ल वही कवि रख सकता है, जिसका जनवादी मूल्यों में अटूट विश्वास हो और जिसे अपने युग के वास्तविक और तीखे अंतर्विरोधों की सच्ची पहचान हो। इस नवउदारवादी पूंजीवादी दौर में पनपे नये बाज़ारों ने धीरे-धीरे गांवों-क़स्बों तक में जो पैठ बनायी है और एक बहुत बड़ी युवा आबादी को भ्रमित कर, उसके साथ जो छल किया है, उसकी बिलकुल ठीक पहचान गोबिंद जी ने ‘कौन देश के घिरे हैं बदल’, ‘सपने भी अब सपने कहां,’ ‘आओ सब मिलकर’ और ‘बाज़ार तंत्र’ कविता में की है। कवि ने पूंजी को इंसानियत की ख़ुशबू चुराने वाला और उसकी रंगत उड़ाने वाला माना है। इसलिए इस पूंजी को वह जलाकर भस्म कर देना चाहता है :  'कितना अच्छा हो जीवन में ज़हर बोने वाली/ ज़ुल्म-अन्याय/ दमन-अत्याचार की बेलें/ सूख-सूख मुरझायें, पूंजी का वन जलकर खाक हो जाये/ धरती के कण-कण में मनुष्यता का बीज अंकुर बन-बन फूटे'। इस बाजार-तंत्र में कवि अकेला हो गया है : 'बाज़ार-तंत्र में घिरा अकेला/ पूंजी-वन में भटक रहा हूं/ रहबर, आक़ा, बंधु-सखा सब/ क़दम-क़दम पर मुख मोड़े हैं।' इस पंक्ति को पढ़कर निराला और त्रिलोचन की याद एक साथ ताज़ा हो गयी। निराला ने भी लिखा है : ‘बोलते हैं लोग ज्यों मुख मोड़कर’। निराला भी अकेले हो गये थे। वे अपने युग के अंधेरे से संघर्ष कर रहे थे। त्रिलोचन की याद लय और लहज़े के कारण आयी। गोबिंद जी निराला और त्रिलोचन की काव्य परंपरा को आगे बढ़ाने वाले कवि हैं।

इस युग का बाज़ार-तंत्र इतना मोहक और निर्मम है कि सामान्य व्यक्ति इसे समझ ही नहीं सकता है। कवि ने इसे एक ही फ़्लैश में दिखा दिया है : 'गांवों से भी दूर/ कच्चे और टूटे घरों की/ गंदी बस्तियों से क़स्बे की धूल ओढ़कर आयी थीं कुछ लड़कियां/ दिन-रात एड़ियां रगड़ने के बाद शहर में/ उन्हें अपनी हंसी बेचने का काम मिला।' यहां तक बाज़ार मोहक था। लेकिन ‘एक दिन/ फिर उनमें से एक ने जब इसी शहर में/ अपने को किसी एक नौजवान की आंखों में देखा/ तो सहसा उस नौजवान को एक एसएमएस मिला-/ 'तुम्हारी आंखों में जो अपने आप को बसाना चाहती है/ फ़िलहाल उसकी तमाम मुस्कुराहटें हमारे पास गिरवी हैं/ और उसके सपने बाज़ार में/ कौड़ी के तीन-तीन भाव बिकते हैं/ लेकिन उसके सपनों की बोली भी हम ही लगाते हैं और हम ही छुड़ाते हैं/ उसको अपने आप से मुक्त करने का/ हमारे पास यही एक तरीक़ा है।’ बाज़ार निजी जीवन के भीतर इतनी निर्ममता से घुसा है कि मन सिहर उठता है। यह नया बाज़ार जनवादी अधिकारों को ही नहीं, ‘प्रेम’ और ‘करुणा’ जैसे मानवीय अधिकारों को भी हड़पता जा रहा है। कवि बाख़बर है कि सपने भी अब सपने कहां/ इन आंखों में/ रहते हैं अब अपने कहां/ बाज़ार के वो आक़ा हैं न/ झांसे में उनके आकर/ चले गये हैं, कौन जाने बसने कहां!’ पाश की फ़िक्र भी सपनों को मरने से बचाये रखने की थी। आज सपनों को यह ‘बाज़ार’ लील रहा है, मार रहा है। कवि सपनों को इस मोहक बाज़ार में मरता देख चिंतित और फ़िक्रमंद है। लेकिन निराश नहीं। उसे मालूम है कि संघर्षों से ही टूटेगा इस बाज़ार और पूंजी का तिलिस्म। इसलिए बड़े आत्मीय ढंग से समझाता है : ‘दोस्तो, सवाल नयी भाषा में बोलने का ही नहीं/ उसे कर्म की भाषा में बुनकर/ जीवन की एक नयी हूक उमगाने में है।’ कथनी-करनी का भेद मिटाकर पूंजी के विरुद्ध एक वास्तविक युद्ध में उतरने से ही होगी इंसानियत की जीत।

गोबिंद प्रसाद की कविता में इस सदी के दूसरे दशक की छवियां कई-कई रूपों में चित्रित हुई हैं। इनमें सत्ताधारी राजनीतिक दल का जनविरोधी फ़ासीवादी चरित्र, झूठे वादे और उसके दमन की घटनाएं सबसे ऊपर हैं। कवि ने बिंबों और भाषा के बनाव-सिंगार का मोह छोड़कर बिलकुल सरल-सपाट भाषा में लिखा है : ‘दोमुंही भाषा के बलबूते/ आख़िर कब तक चलते/ चारों ओर से अब पड़ रहे हैं जूते/ पर इनका क्या बिगड़ता है/ ... किसान-मज़दूरों/ सर्वहारा-दिशाहारों की बात छोड़िए/ पढ़े-लिखे तक को/ ये नये-नये नारों से बहलाते हैं/ सब्ज़-बाग़ दिखाते हैं,/ सपनों से बहकाते हैं/...  देखिए न,/ हुक्कामों को कितनी फ़िक्र है/ मुल्क का भविष्य चमकाने की।’ तो कहीं प्रतीकों में क्रांतिकारी जनसंघर्ष और जीत की अभिव्यक्ति है :‘धरती के होंठ/ दहक रहे हैं/ बनकर पलाश/ देखो/ वहां दूर.../ दूधिया से कैसे/ रक्तिम हुआ जा रहा आकाश।’ द्वैत’ कविता में भी प्रतीकों का प्रयोग कमाल का है : ‘नीला था/ कंधा/ आकाश का/ लाल था/ धरती पर/ मुंह पलाश का।’ गोबिंद जी बेशक, जनता के दुःख-दर्द और ग़ैर-बरबारी से मुक्ति का हल लाल झंडे की वामपंथी राजनीति में ही देखते हैं। जनता का दर्द कवि को भीतर तक ऐसा मथता है कि ‘शब्द की शिराएं भी/ सह नहीं पाती हमारा दर्द’ और ‘मैं हंसता ज़रूर हूं/ मगर दुःख के सुरूर में..../ हंसना अब दीवानगी में ढलता जा रहा है।’

इस संग्रह में तीन कविताएं तीन हिंदी कवियों पर हैं - शमशेर, त्रिलोचन और केदारनाथ सिंह। गोबिंद जी पर कुछ प्रभाव इन कवियों का भी रहा है। इन कविताओं में कवियों का एक काव्य-चित्र तो उभरा ही है, इनकी  काव्य-संवेदना की मार्मिकता का भी स्पर्श है। गोबिंद जी ने इन कविताओं में जिस भाषा, लय और शिल्प का प्रयोग किया है, वह इन कवियों की भाषा, लय और शिल्प के बहुत क़रीब है। यह बात विशेष उल्लेखनीय है : ‘शमशेर/ तुम धरती के आसमान/ शब्दों के.../ ध्वनि-रंगों के सहस्र दल में बसे/ तुम, आदिम अभिनव/ राग-विराग के/ पराग प्राण।’ शमशेर की कविता इसी ढांचे की थीं। गोबिंद जी ने प्रकृति और प्रेम पर भी बहुत शानदार कविताएं लिखी हैं। कवि को ‘इंतज़ार है, हर उस चीज़ का/ जो मुझे, मुझ में खोये/ मेरे अपने से मिला दे/ उस सपने से मिला दे/ जिसे देखने के लिए/ हसरत भारी असंख्य आंखें/ धरती-आसमान की अब तक तरसती हैं/ अब तक/ उन्हीं आंखों का/ आंखों में बसे उसी सपने का/ सपने में खोये उसी अपने का इंतज़ार है।’

कुछ कविताओं में जीवन की निजता का रंग बहुत गाढ़ा है। इनमें स्मृतियों के साथ उदासी भी है, अकेलापन भी और निरर्थकता-बोध भी : ‘बेआवाज़ एक लहर/ छूकर चली गयी मेरा पांव सहसा/ मैं देर तक/ खड़ा रहा सागर के सम्मुख/ पर वह फिर नहीं लौटी/ तब से कितना जीवन बीता/ मैं खुद सांझ बन गया।’ कुछ ऐसी ही संवेदना कवि ने ‘कुछ लहरें अब भी ठहरी हैं’ में भी व्यक्त की है : ‘बीते हुए दिनों की नदी में/ कुछ लहरें/ अब तक ठहरी हैं/ तीसरे पहर की वही/ तंद्रिल-सी/ धूप लिये/ ... फिर सोचता हूं/ प्यार की इन नेमतों के लिए/ क्या किसी संग्रहालय में कोई जगह है ...कोई तो ऐसा घर हो जहां इन सपनों को सजायें।’। संग्रह में ऐसी कुछ और भी कविताएं हैं, ‘संधान’, ‘अगर तुम आओ’, ‘उसी पल की गोद में’, ‘छायाओं की समाधियां’, ‘उसी फूल का इंतज़ार’ आदि, जिनमें प्रेम की अनुभूति का एक सूफ़ियाना अंदाज़ है। कुछ कविताएं प्रकृति के सौंदर्य में जीवन को समेटे हुए हैं : ‘फ़िज़ा में हर सू बिखर रही है चनार की पत्तियां/ पांवों में जैसे लिपट रही हैं चनार की पत्तियां/ हर गाम पर हर मोड़ पर कोई बेसबब मेरे साथ था।’ इस संग्रह को पढ़ते हुए प्रसाद और निराला जैसे छायावादी कवि भी याद आते हैं और अज्ञेय, शमशेर और मुक्तिबोध जैसे आधुनिक कवि भी। गोबिंद जी की कविता का रेंज बहुत बड़ा है। जैसे दुःख है, तो दुःख के कई शेड्स हैं। उदासी, प्यार और स्मृतियां हैं, तो उनके भी कई शेड्स हैं। कविता में ये शेड्स कई बार रंगों में आये हैं, तो कई बार संगीत की लय में। गोबिंद जी की कविताएं पेंटिंग और संगीत के असर से सृजित हैं। इसलिए इनका आस्वाद वही ले सकता है जिन्हें संगीत और रंगों का कुछ ज्ञान हो। इस संग्रह में कहीं उदासी है, कहीं उत्साह। कहीं मायूसी है, कहीं उम्मीद। कहीं प्रेम है, कहीं अकेलापन। कहीं स्मृतियां हैं, कहीं कल्पना। कहीं चिंता है और कहीं संघर्ष।

हिंदी कविता में दिलीप शाक्य की पहचान युवा कवि के रूप में है। इनकी अब तक लिखी कविताओं के दो संग्रह आये हैं। पहला संग्रह, कविता में उगी दूब भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित है। दूसरा, मैं और वह नयी किताब प्रकाशन से। दूसरे संग्रह में छोटी-छोटी कुल तीस कविताएं हैं। पंद्रह कविताओं के बाद एक शीर्षक है, ‘बुडापेस्ट’ और फिर आगे की कविताएं हैं। अधिकांश कविताएं हंगरी प्रवास की हैं और हिंदी के साथ हंगेरियन भाषा में भी हैं। यह दिलचस्प है कि हंगरी में रहते हुए दिलीप जी ने अभिव्यक्ति के लिए कविता की विधा चुनीं। नहीं तो, हिंदी से जुड़े अधिकांश लोगों ने अपने विदेश-प्रवास में ज़्यादातर डायरियां और संस्मरण ही लिखे हैं। बेशक, इन कथेतर गद्य विधाओं का साहित्य भी हमारे बहुत काम का है। दिलीप शाक्य कवि हृदय व्यक्ति हैं, इसलिए इन्होंने कविताएं लिखीं। हंगेरियाई समाज, प्रकृति और शहर के अनेक बिंब इन्होंने काव्य के शिल्प में उतारे हैं। संग्रह की कविताओं में ‘मैं’ और ‘वह’ के बीच संवादों का एक अटूट सिलसिला है। ‘मैं’ पुरुष है, ‘वह’ स्त्री। इन संवादों में स्त्री और पुरुष के प्रेम की अदम्य, अकुंठ और अथाह अनुभूतियों और कल्पनाओं के अनेक बिंब और चित्र हैं। हिंदी कविता में प्रेम के अनुभूति की ऐसी बिंबात्मक अभिव्यक्ति विरल है : ‘नवंबर की ऐसी ही रात थी जब ज़मीन से/ आसमान की ओर उठ रहे/ बोगनबेलिया के बैंगनी परदे पर उसकी हंसी/ सितारों सी बिखर गयी थी/ मैंने उससे कहा-देखो,/ चांद से कितना रू-ब-रू है तुम्हारा चेहरा/ उसने चांद से चिढ़कर कहा-/ तुम्हारा चांद तुम्हें ही मुबारक हो, मुझे तो/ सूर्य का इंतज़ार है।’ इन कविताओं में संवाद करती स्त्री ने प्रेम करने के उस परंपरागत ढांचे में एक गहरी और चौड़ी दरार डाली है, जो स्त्री को तरह-तरह से अब तक छलता रहा है। वह अपने को उस ढांचे में फ़िट नहीं पाती, जहां प्रेमी पुरुष स्त्री को ‘चांद’ बनाकर अपने प्रेम से अक्सर छलता रहा है। वह मर्दों द्वारा गढ़े सौंदर्य के प्रतिमानों पर ख़ुद को तौलने के लिए अब तैयार नहीं है। उसे तो सूर्य का इंतज़ार है। उसे अंधेरे का ‘चांद’ बनना अब स्वीकार नहीं। वह ‘असूर्यम्पश्या’ नहीं होना चाहती। कविता के बीच इन संवादों में, प्रेम करती हुई स्त्री अपनी बात कहते हुए, अपने भावों को व्यक्त करते हुए, अपनी इच्छा-अनिच्छा ज़ाहिर करते हुए कहीं लड़खड़ाती नहीं है। वह पुरुष ‘मैं’ की हर बात का बहुत दिलचस्प और माकूल जबाब देती है। उसके जवाब में उसकी पहचान हमेशा शामिल होती है :‘मैं पूरब से आया वह पश्चिम से/  फिर हम दोनों एक बाज़ार में पहुंचे/ मैंने घोड़े की नाल ख़रीदी और उसने घोड़े के पंख/ यह युद्ध का समय नहीं- उसने मुझसे कहा/ यह शांति का भी समय नहीं- मैंने प्रतिवाद किया/ घोड़ा कहां मिलेगा- तब मैंने पूछा/ जहां प्रेम मिलेगा-तब उसने कहा/ क्या यह प्रेम का समय है?-/ मैंने उसकी आंखों के काजल का अर्थ समझते हुए पूछा/ हां, यह प्रेम का समय है-/ उसने अपनी आंखों के काजल का अर्थ समझाते हुए कहा।’ इन कविताओं में प्रेम करती हुई स्त्री, एक बिलकुल नयी स्त्री है। वह प्रेम में बराबर का व्यवहार करती है। प्रेम को अपना हक़ समझती है। प्रेम पाने के लिए पुरुष से वह याचना  नहीं करती, गिड़गिड़ाती नहीं है, प्रेम करने का उसका अपना ढंग है : ‘मैंने उससे पूछा-तुम्हारे होंठ मेरी आंखों से/ ज़्यादा बातें करते हैं। क्या यह सच है?/ तुम्हारी आंखों का धोखा है/ मेरे होंठ तो ख़ामोश रहते हैं-उसने उत्तर दिया।/ मैंने कहा-एक्सप्लेन करो?/ उसने कहा-पोस्टपोन करो।... मेरे होंठ उसके कानों की गरम लवों के इतने नज़दीक थे/ कि उसने कहा- एक्सप्लेन करो?/ मैंने कहा-पोस्टपोन करो।’  इन कविताओं में प्रेम ही नहीं बल्कि सत्ता, पार्टी, नेता, लोकतंत्र और जनता भी है। कविता का ‘मैं’ जब ‘नेताजी के भाषण में पार्टी की टोपी, पार्टी का माइक और शायद पार्टी का ही मुंह देखकर पूछता है, ‘नेता जी का क्या है?/ कुछ नहीं, सब जनता का है/ बालों से हेयरपिन निकालते हुए उसने कहा/ मैंने फिर पूछा-पार्टी का क्या है फिर?/ ‘पार्टीशन’ शब्द पर ज़ोर देते हुए उसने/ प्रतिप्रश्न किया-‘हिंद स्वराज’ नहीं पढ़ा क्या?/ हां, पढ़ा तो है-/ तो फिर जनता से कहो कि उसे/ किसी वकील की ज़रूरत नहीं-/ लोकतंत्र की हर अदालत को ख़ारिज करते हुए उसने कहा।’ दरअसल, प्रेम में पड़े हुए भी हम सिर्फ़ प्रेम कहां करते हैं, प्रेम के साथ आसपास की ज़िंदगी भी तो जीते रहते हैं। बल्कि प्रेम करते हुए राजनीति को ज़्यादा तीखे ढंग से समझते हैं। कविता में जनता के अधिकारों के प्रति कवि का यह अटूट विश्वास हमें आश्वस्त करता है। किसी कवि की प्रेम कविता में किसी प्रेमिका ने शायद ही अपने प्रेमी से संवाद करते हुए जनता का इतना स्पष्ट पक्ष लिया हो।

दिलीप शाक्य के इस संग्रह की कविताएं कहीं-कहीं बहुत एबसर्ड हैं। हो सकता है यह कविता में नया प्रयोग हो : ‘नदी नीली थी और लहरों का रंग ब्लान्ड था/ धूप से चमकते एक तट पर बैठी वह/ स्ट्राबेरी खा रही थी/ कानों से ईयर फ़ोन निकालते हुए/ मैंने कहा-हैलो, आइ एम मनु फ्रॉम कामायनी/ धूप का चश्मा निकालते हुए उसने/ मेरी आंखों में देखा-/ इफ़ यू आर मनु, व्हेयर इज़ श्रद्धा?/ मैंने आश्चर्य से पूछा-हैव यू रेड कामायनी/ उसने कहा-/ ऑफ़ कोर्स! आइ एम ऑल्सो फ्रॉम कामायनी/ माई नेम इज़ इड़ा’।  इस संवाद में स्त्री का अपने को इड़ा के रूप में प्रस्तुत करना संभवतः इस बात का प्रतीक है कि स्त्रियां अब इड़ा के पक्ष में हैं। कवि ने गंभीर वैचारिक विमर्शों को भी बहुत सरल, सहज और रोचक ढंग से कविता में अभिव्यक्त किया है। प्रेम करते हुए मनुष्य असंभव को भी साध लेने की आकांक्षा और उम्मीद करता है : ‘चेन ब्रिज पर टहलते हुए मैंने उससे कहा-/क्यों न कभी पीसा की मीनार से ताजमहल देखें?/ उसने चुहल की- हां, संभव है अगर तुम/ बर्लिन की दीवार को/ टेलिस्कोप में बदल सको/ मैंने भी चुहल की-/बर्लिन क्या दुनिया की सारी दीवारों को / टेलिस्कोप में बदल दूं/अगर तुम मेरा माइक्रोस्कोप बयानो।’ कवि की इस चुहलबाज़ी में ही यह सत्य सामने आता है कि ‘दीवारें’ ही हैं जो हमारे चारों ओर खड़ी कर दी गयी हैं जिनमें कि हम क़ैद हैं। कवि इन दीवारों को टेलिस्कोप में बदल देना चाहता है। एक दूसरी कविता में ‘बुदापैश्त नॉयर देखने के बाद पुश्किन मोजी से बाहर निकलते हुए/ उसने पूछा-/क्या तुम बेला तार को जानते हो?/उतना नहीं जितना तारकोव्स्की को-/बारिश में रेनकोट पहनते हुए मैंने कहा।/ उसने दूसरा प्रश्न किया-/ सिनेमा में कम्युनिज़्म को जिंदा रहना चाहिए/ या डेमोक्रेसी को ?/मैंने भी दूसरा उत्तर दिया-/ क्या फरक पड़ता है? सिनेमा अंततः/ पूंजीवाद की कला है’। कवि की नज़र आज की दुनिया के महत्वपूर्ण मसलों पर भी है। इस संग्रह की कविताओं  में दर्शन से लेकर समाज, संस्कृति, राजनीति और निजी जीवन की उदासी तक अनेक विषय हैं। इन कविताओं में ऐसे स्थलों, लोगों और वस्तुओं के नाम आये हैं जो ‘बुडापेस्ट’ से संबंधित है। कही-कहीं हंगेरियाई भाषा के शब्द भी आ गये हैं। जैसे: ‘योकुलसारलोन’ के विशाल ग्लेसियार, ‘सभ्यता के टेरर हाउस’, ‘उदास रविवार’, ‘बालातोन का पानी’, ‘रूइन-पब’, ‘चेन-ब्रिज’, ‘डेन्युब’, ‘योजेफ़ अतिल्ला’, ‘नोर्माफा’, ‘मारगित सिगेत’, ‘सियास्तोक’, नैम एरत्युक’ आदि शब्द ऐसे हैं जो अबूझ से लगते हैं, लेकिन कविता के बोध ग्रहण में कोई बाधा खड़ी नहीं करते हैं। इन कविताओं से गुज़रना एक दिलचस्प अनुभव है। कविता में बिंब इतने सुंदर हैं कि बार-बार पढ़ने का मन होता है। भाषा में ग़ज़ब की ताज़गी है। दिलीप जी शब्दों को चुनने में बहुत संजीदा हैं। शब्द व्यंजना से भरे हैं। इसका उदाहरण पूरा संग्रह ही है।

                                                                         मो. 9911364615

  पुस्तक संदर्भ

1. अभी कुछ आग है बाक़ी : पी.एम.एस. ग्रेवाल, प्रोग्रेसिव प्रिंटर्स, दिल्ली, 2019

2. यह तीसरा पहर था :  गोबिंद प्रसाद, अनुज्ञा, नयी दिल्ली, 2018

3. मैं और वह : दिलीप शाक्य, नयी किताब प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2019

 

  

 

               

 

 

 

 

 

   

       

             

 

 

 

  

 

 

 

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