काव्य चर्चा-7

रिश्तों की धूप और जीवन की भाषा

हृदय कुमार

 समय और समाज की संवेदनशीलता कविता में संरक्षित रहती है। अपने समय और समाज को समझने के लिए कविता बेहतर माध्यम है। हर पीढ़ी का कवि अपने ढंग से अपने समय और समाज को समझता है, उससे जूझता है और उसे बदलने की कोशिश करता है। सूचना तकनीक ने हमारे समय और समाज को बदल दिया है। विकास और विनाश जैसे पर्याय हो गये हैं। बाज़ार प्रायोजित सूचना-क्रांति ने मनुष्य की मननशीलता को निष्क्रिय कर दिया है। भू-मंडीकरण के दौर में कविता या कविकर्म पर बात करना कठिन होता जा रहा है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कहा था कि सभ्यता के विकास के साथ कविकर्म कठिन होता जायेगा और कविता की प्रासंगिकता बढ़ती जायेगी। सोशल मीडिया की वजह से आज कवि और कविता की बहुतायत हो गयी है। लेकिन हमारे लिए यह किसी सुखद बदलाव का संकेत नहीं है। सोशल मीडिया की आभासी दुनिया ने हमारी वास्तविक दुनिया को नकारा बना दिया है। सम्भवतः कार्ल मार्क्स ने पूंजीवाद की ऐसी ही किसी अवस्था की कल्पना की थी जिसमें उन्होंने सभी ठोस संबंधों के वाष्प हो जाने की बात की थी। हम देख रहे हैं कि समाजिक मूल्यों-मान्यताओं में लगातार गिरावट आ रही है। नैतिकता के प्रतिमान बदल रहे हैं। ऐसे में कविता करना वस्तुतः अपने को ढूंढ़ना है। मुक्तिबोध के शब्दों में, खोई हुई अभिव्यक्ति है कविता। कवि विनय विश्वास ने मिलना कविता में लिखा है :

मैं

अपने को ढूंढ़ रहा था

कि मिलीं तुम

अपने को ढूंढ़तीं।

विनय विश्वास का कविता-संग्रह धूप तिजोरी में नहीं रहती ऐसी ही एक तलाश है, जो कवि के शब्दों में आदमी के नाम पर आदमियत की वारदात को उद्घाटित करती है। कवि ने अपनी कविता में धूप शब्द को एक नया अर्थ दिया है। हम जानते हैं कि कवि ही शब्दों में नये अर्थ भरने का काम कर सकता है। हंस रही है तो हंस रही है कविता का यह अंश देखिए :

लड़की हंस रही है तो हंस रही है सिर्फ़

उसे क्या पता कि इस तरह हंसते हुए

वह धूप हुई जा रही है

दुनिया-भर के घूंघटों और बुरक़ों के अंधेरे में

खुलकर खिलती धूप!

कवि ने अपने काव्य-संग्रह में मानवीय रिश्तों की बनावट और बुनावट में हो रहे परिवर्तन को रेखांकित किया है। मित्रता और दोस्ती जैसे सहज मानवीय रिश्ते, कैसे अवसरवादिता की चपेट में हैं, इसका अंकन कवि ने अपनी कविताओं में प्रमुखता से किया है। हमें मानवीय रिश्तों के प्रति संवेदनहीनता अपने चरम पर दिखती है। कविता तेरी टूटन है मेरा जश्न में कवि ने मित्रता-आत्मीयता में होनेवाले भावनात्मक बदलाव को इन शब्दों में लक्षित किया है :

मेरे भय से तू डरता था

तेरी जेब के चारों पैसे समेट मैं फ़ार्म भरता था

मैं रिजैक्ट हुआ तो तेरे हाथों से

धैर्य के सिक्के छूटे थे

तेरी नौकरी लगी तो मेरे मन में

कैसे लड्डू फूटे थे

...

आपस में ज़ख्मों का दर्द-शहद पिया करते थे

मैनेज नहीं करते थे हम रिश्तों को

जिया करते थे

अब तू रोता है तो मुझे शक होता है

तू हंसता है तो मुझे साज़िश की बू आती है

पता भी नहीं लगता और तेरी टूटन

मेरा जश्न बन जाती है

पाठक रिश्तों के मैनेज होने की बात जब कविता में पढ़ता है तो अपने में होने वाले इस बदलाव को महसूस करने लगता है। जब इस बदलाव के कारण की पड़ताल करता है तो वह पाता है कि उसका मैं का तत्त्व अचानक महत्वपूर्ण हो गया है। कवि विनय विश्वास ने मनुष्य के स्वार्थी हो जाने की इस ख़तरनाक प्रवृत्ति को अपनी कविताओं का कथ्य बनाया है। कविताओं के शीर्षक से ही इस प्रवृत्ति का पता चल जाता है। जैसे मैं मैं मैं, मैं आदमी नहीं, दुनिया ... मेरी दुनिया आदि। मैं आदमी नहीं कविता का यह अंश देखिए :

होशियारी से अपने को इस तरह जोड़ता हूं

कि पार पहुंचते ही सबसे पहले

पुल तोड़ता हूं  

एक अन्य काव्यांश,  कविता दुनिया... मेरी दुनिया से देखिए :

हवा उतनी ही जितनी मेरी सांसों में रहे

रौशनी वही

जो मुझ पर पड़े

अंधेरा उतना ही जितना

परछाईं बने मेरी

मेरे कानों में जो गूंज सके

उसके अलावा कहां है संगीत

जो नाम नहीं लेती मेरा

वह आवाज़ गूंगापन नहीं तो और क्या है

लगता है दुनिया में जैसे खुदगर्ज़ी का जलवा है। व्यक्ति अपने अहं को लेकर कितना आक्रामक हो गया है, ये कविताएं इसकी बानगी भर है। हर बात में मैं को प्राथमिकता चाहिए। सफलता का इश्तिहार मैं  से लेकर तरक्क़ी का छोटा-सा मर्सिया तक कवि की निगाह में है :

रोटी-पानी-कपड़े-मकान की समस्या तो हल हो गयी:

अब शोटी-वानी-शपड़े-वकान में उलझा हूं 

सच पूछो तो तरक्क़ी इसी को कहते हैं

इस काव्य-संग्रह की एक विशेषता के रूप में स्त्री संबंधी कविताओं को परखा जा सकता है। नयी स्त्री कवि की चेतना में अकिंत है। हंसती हुई लड़की, काम पर सुबह-सुबह जाती हुई लड़की, पुरुषों से पिटती स्त्री, पुरुषों को चुनौती देती स्त्री, अपने प्रेमी से जलाकर या गिराकर न मारने की गुहार करती स्त्री का प्रेमिका-रूप आदि विविध छवियों-बिंबों के माध्यम से कवि विनय विश्वास ने मानो स्त्री-गाथा ही रच दी है। सुनो मर्दो कविता की पंक्तियां देखें :

मैं हंसी तो तुमने मेरे लिए रोने के इंतज़ाम कर दिये

रोयी तो कहने लगे- हंसी वरदान है

रुकी तो बोले- चलो

चली तो कहने लगे- रुकना सीखो

चुप रही तो बोले- बोलो

बोली तो कहने लगे- चुप रहो

कपड़े पहने तो बोले- उतारो

उतारे तो कहने लगे- बेशर्म

फिर भी तुम्हें शिकायत है कि मैं

तुम्हारी बात नहीं सुनती!

आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी विनय विश्वास की कविताओं के संदर्भ में लिखते हैं, 'घोर अंधेरे में थोड़ी-सी भी रौशनी भावी जीवन की अपार संभावना का मानो आश्वासन देती हो। घोर निराशा और उसमें यत्रतत्र बिखरे हुए मानवीय संबंधों के आलोक एक-दूसरे के प्रभाव को तीव्र कर देते हैं। इन सबको अपनी कविता में लिए हुए विनय विश्वास शायद इसलिए प्रधानतः प्रेम के कवि हैं। कारण यह कि दूरतर और असंभव होती जाती आत्मीयता के संकट काल में प्रेम आत्मीयता प्रदान करता है। वह जीवन को अभूतपूर्व सार्थकता और ताज़गी देकर उसे जीने लायक़ बना देता है।'  इस कविता-संग्रह की प्रेम कविताओं में, शायद उसको प्रेम हुआ था, आख़िर ऐसा क्या है तुममें, छुअन, कसके आयी याद, आगमन आदि उल्लेखनीय हैं। प्रेमिका के आगमन का प्रभाव कितना खूबसूरत है कि मिट्टी भी महकने लगती है। कवि का बिंबविधान देखिए :

थकान की दुनिया में

महक उठी मिट्टी

सन्नाटे में चहचहाने लगी ख़ुशी

पत्तों में हरियाली की तरह

रोम-रोम में भर गयी: हवा की लहरें

ग़ायब हो गया सहसा

लूओं का चलना और सड़कों का पिघलना

जैसे उदासियों-भरे मौसम में

बरगद की छांव गुनगुनायी हो

...अच्छा...ये तुम आयी हो!

आज़ादी और उससे जुड़े मूल्यों को हमने भुला दिया है। सांप्रदायिकता की राजनीति ने हमारे सामाजिक सौहार्द के ताने-बाने को विच्छिन्न कर दिया है। कोई भी संवेदनशील मनुष्य भारतीय समाज की इस परिणति से दुखी हो सकता है। देश के लिए शहीद होने वालों ने शायद ही ऐसा सोचा होगा। अपने पुरखों की सामाजिक सौहार्द की विरासत को नहीं बचा पाने पर कवि अपना क्षोभ व्यक्त करता है। हम तेरे वारिस हैं बापू कविता में कवि बापू से कहता है कि तुमने पत्थरों में देशभक्ति जगा दी थी/हमने देशभक्ति को पथरा दियाये आज़ादी वो आज़ादी कविता में आज़ादी के मायने बदल जाने को लक्षित किया जा सकता है। यह बदलाव कितना भयानक है, आप इसे समझें :

आज़ादी है चाहे जब कूट दो या कुट जाओ

लूट लो या लुट जाओ, डरा दो या डर लो।

नैतिकता जीते जाओ, ख़ाली पेट को बजाओ,

या उल्लू बनाओ जेब में करोड़ों भर लो।

इंसान को बना दो हिंदू या मुसलमान

या बना डालो सामान इस्तेमाल कर लो।

विपदा से मरो या सुविधा से, आज़ादी

है कि भूख से मरो या ज़्यादा खाके मर लो।

 

उदासियों भरे मौसम में बरगद की छांव के कवि हैं विनय विश्वास, तो अपनी कविताओं में प्रतिबद्ध दृष्टिकोण रखनेवाले एक महत्त्वपूर्ण कवि हैं भरत प्रसाद पुकारता हूं कबीर उनकी चुनी हुई कविताई है। कवि भरत प्रसाद ने इस काव्य-संग्रह में कबीर जैसे अनेक कवियों, महापुरुषों का उल्लेख किया है। उन्होंने इन कविताओं के माध्यम से भारतीय मनीषा की प्रासंगिकता को रेखांकित करने का उपक्रम किया है। काव्य-संग्रह पुकारता हूं कबीर में शहीद-ए-आज़म भगत सिंह, रवींद्रनाथ, नागार्जुन, प्रेमचंद पर कविताएं हैं। इस संग्रह की कविता पढ़ते हुए हमें मुक्तिबोध की बार-बार याद आती है। कह सकते हैं कि मुक्तिबोध की कविता अंधेरे में का भावनात्मक विस्तार इन कविताओं में मिलता है। कथ्य ही नहीं, भाषा और शैली में भी मुक्तिबोध की छाप दिखती है। उठाना चाहता हूं एक मुट्ठी धूल कविता का यह अंश देख सकते हैं :

मेरे आसपास, क़दम-क़दम पर

अनमोल पाठशालाएं खुली हुई हैं

कहीं खेत, कहीं बरगद तो कहीं चट्टान

अध्यापक की तरह सदियों से

हमें पाठ पढ़ा रहे हैं

धिक्कार है मुझे

माया के चक्कर में उलझे हुए कान

शोर के अलावा और कुछ सुनते ही नहीं ।

फिर मुक्तिबोध की कविता मुझे क़दम-क़दम पर का यह अंश देखिए :

मुझे क़दम-क़दम पर

चौराहे मिलते हैं

बाहें फैलाये!

एक पैर रखता हूं 

कि सौ राहें फूटती,

मैं उन सब पर से गुज़रना चाहता हूं,

बहुत अच्छे लगते हैं

उनके तजुर्बे और अपने सपने...

मुक्तिबोध ही नहीं, निराला की कविता और उनकी प्रगतिशीलता को कवि ने अपनी कविताओं में अभिव्यक्त किया है। निराला की कविता भिक्षुक अपने नये संस्करण,वह चेहरा के रूप में इस काव्य-संग्रह में स्थान पाता है। काव्यांश द्रष्टव्य है :

उसकी उम्र छ:-सात साल है ज़रूर

मगर वह बच्चा नहीं है

कूड़ा-करकट की सफ़ाई-दफ़ाई के प्रति

वह आश्चर्य की हद तक फुर्तीला है...

...

हूबहू अपनी ही तरह टूटा झाड़ू लेकर

वह प्लेटफ़ार्म पर कठपुतली की तरह नाचता फिरता है

कवि की सौंदर्य-चेतना के परिसर में तथाकथित हाशिये पर फेंक दिया गया समाज, परित्यक्त रेड लाइट एरिया, कूड़ाखोर, मैं सूअर हूं, ईंटवाली भी है। व्यवस्था का शिकार यह समाज, मनुष्यत्व की गरिमा से महरूम है। कवि ने अपनी संवेदना और आत्मीयता से ऐसे व्यक्ति और समाज को पाठक की निगाह में महत्त्वपूर्ण बना दिया है।

भरत प्रसाद की कविताओं पर कोई निर्णय देने से पहले हमें पश्चिम के कवि-आलोचक एलियट की काव्य संबंधी मान्यताओं को एक बार याद करने की ज़रूरत महसूस हो रही है। परंपरा और वैयक्तिक प्रज्ञा निबंध में एलियट कहते हैं कि कवियों को कविता की परंपरा का ज्ञान होना चाहिए। उनके अनुसार परंपरा का मूल्यांकन साहित्य की सृजनात्मकता के लिए आवश्यक है। समीक्ष्य काव्य-संग्रह का नामकरण पुकारता हूँ कबीर में हिंदी-काव्य परंपरा का काव्यात्मक मूल्यांकन है।

कवि ने भूमिका में लिखा है : यह कविता प्राय: प्रतिक्रिया, प्रतिरोध, मोर्चा या पक्षधरता का रचनात्मक अंदाज़ है, किंतु इस दुर्लभ अंदाज़ का असल रहस्य अनुभूति की अतल गहराइयों में उद्वेलित अलौकिक, अद्वितीय, ज्वलंत भाव हैं। कोई कह सकता है कि भावों का समयबद्ध या समयातीत तानाबाना ही कविता है...। कवि कविता की विशिष्टता के प्रति सचेत है, वह लिखता है कि कविता की पहली शर्त है- मौलिकता, नयापन, ताज़गी। यह मौलिकता प्राय: गूढ़ार्थ की होती है, भंगिमा की होती है और कभी-कभी केवल काव्य-शिल्प की। यदि यह मौलिकता तीनों रूपों (अर्थ, अंदाज़, और शिल्प) में सध उठे तो अचानक ही प्रदीर्घ आयु की कविता का जन्म हो जाता है।’

कविता या कविकर्म वस्तुतः शब्द, अर्थ और मर्म की अंत:क्रिया है। शब्दों में नये अर्थ भरना कविकर्म है, लेकिन बाज़ार पर आश्रित सामाजिक व्यवस्था ने हमारी संवेदना को भोथरा कर दिया है। प्रतीक बन कर कौन मरता है कविता का यह अंश देखिए :

कहां रह गये हैं शब्दों के अर्थ

बड़े-से-बड़े अर्थ, अब अर्थ कहां रहे

सिर से पांव तक भिगो दे जो शब्द

ऐसे शब्दों के मर्म अब कहां खो गये हैं

नज़रों में नज़र अब नज़र नहीं आती

ग़ायब है चेहरों में से चेहरा

चुप्पी का अर्थ किसी को सुनायी कहां देता है

झुके हुए हाथ न उठते हैं, न उठाते हैं।

कवि जन सामान्य की पीड़ा को वाणी देता है। सत्ता के दमन के हर रूप से वह हमें पहचान कराता है। चाहे वह शब्द की सत्ता ही क्यों न हो? व्यवस्था के गर्भ में हिंसा पलती है। कवि इत्यादि कविता में शब्द की सत्ता और हिंसा को उजागर करता है। कवि का शब्द-विधान हमें हिंसा के सूक्ष्म रूप की पहचान कराता है :

उपेक्षा की मार से छटपटाते

सैकड़ों शब्दों में से एक है (इत्यादि)

किसी के मुंह से सुनते ही

हिंसा की आहट सुनायी देने लगती है

हिटलरशाही की बू उड़ने लगती है

लगता है जैसे क्षण-भर में

असंख्य लोगों का क़त्ल कर दिया गया हो

...

इस शब्द की छाया पड़ते ही

आदमी दुनिया से ग़ायब हो जाता है

भुला दिया जाता है उसका जीवन-संग्राम

तोड़ सको तो तोड़ दो इस शब्द का तिलस्म

इस काव्य-संग्रह में कवि ने अपने समय और समाज को लेकर गहरी चिंता और कशमकश को वाणी दी है। कवि के अनुसार यह वक़्त समाज में व्याप्त विसंगति और विद्रूपता से मुठभेड़ करने का है। सिर उठाओ, बंधु कविता में कवि कहता है : सामने नाचते अंधकार से / नज़रें चुरा लेने का वक़्त नहीं है यह। मध्यवर्गीय स्वार्थपरता और कायरता को कवि धिक्कारता है ताकि हममें जीवन और समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व का बोध हो सके। अपने को सुरक्षित रखने की अवसरवादी मानसिकता और कच्छप प्रवृति का उद्घाटन मुझे बचाओ कविता में हुआ है :

जीवन भर अनेक मौक़ों पर

लड़ने से, अड़ने से बचा बचाकर

हमने अन्तरात्मा की अतल गहराई में

असुरक्षा का बीज बो दिया

हाय रे जानलेवा स्वार्थ

धर्म की सत्ता और उसकी वास्तविकता हमसे पारंपरिक मान्यताओं-विश्वासों की जांच की मांग करती है। बलि की प्रथा का समर्थन कोई भी सभ्य समाज नहीं कर सकता है। सदियों से धर्म के नाम पर हो रहे अत्याचार कवि को अस्वीकार हैं। अपनी कविता, कामाख्या मंदिर के कबूतर में वे कहते हैं :

हर साल की तरह इस साल भी

तांत्रिकों के हाथों बलि चढ़ गये बच्चे

यह सदियों की परंपरा है

मां कामाख्या देवी को पक्षियों के बच्चों का

तरोताज़ा खून ही पसंद है

...

हत्या की सत्ता यहां सदियों से क़ायम है

हिंसा की खेती लहलहा रही है वर्षों से

काल रात दिन तांडव नृत्य करता है

चलते-फिरते मुर्दे यहां खून पीकर जीते हैं

पढ़ी-लिखी भेंड़े यहां जीवन भर सड़ती हैं।

रघुवीर सहाय ने कवि-कर्म को राजनीति-कर्म माना था। देश में सांप्रदायिक राजनीति और लोकतांत्रिक-मूल्यों के पतन को कवि ने अपनी कविता का विषय बनाया है। गौरी लंकेश की हत्या की गयी थी, क्योंकि कुछ फ़िरकापरस्तों को उनकी गतिविधि आहत करती थी। गौरी लंकेश की शहादत को समर्पित कविता का शीर्षक है- मौत का नया पता। उसकी कुछ पंक्तियां आपकी नज़र हैं :

मौत अब तुम्हारी सांसों पर दावा करती

तम्हारी धड़कनों को छीनती हुई आयेगी

यह मौत तुम्हारे हर सही क़दम के ख़िलाफ़

निर्णायक फ़ैसले की तरह आयेगी।

 

मैं सीखता हूं बच्चों से जीवन की भाषा काव्य-संग्रह के कवि हैं : आलोक कुमार मिश्रा। यह काव्य-संग्रह स्कूल की यात्रा की काव्यात्मक अभिव्यक्ति है। कविता में वृत्तांत या आख्यान के संप्रेषण और भावों के संप्रेषण में अंतर होता है। यह अंतर कथा और कविता की भाषा में दिखता है। काव्यानुभूति के संप्रेषण में हर बार कुछ कहा जाये, यह ज़रूरी नहीं। कभी तो कवि केवल एक भाव, दृश्य, छवि आपके सामने रखकर चुप हो जाता है। हम पाठक-श्रोता अपने हिसाब से उसे देखने-समझने के लिए स्वतंत्र होते हैं। इस संदर्भ में कवि आलोक की पूर्ण, सुंदर, लाजवाब शीर्षक कविता देखिए :

कक्षा में

जब हो जाता हूं पानी

बच्चे बन जाते हैं मछली

और तैर जाते हैं मुझमें

इस छोर से उस छोर तक

जब मैं बन जाता हूं हवा

वो घुल जाते हैं मुझमें

बनकर खुशबू और

फैल जाते हैं हर तरफ़

...

इस तरह

रहकर हमेशा साथ

करते हैं वो मुझे

पूर्ण

सुंदर और

लाजवाब

इस कविता में कक्षा के परिवेश को व्यक्त किया गया है। कक्षा में अध्ययन-अध्यापन की प्रक्रिया में व्याप्त आत्मीयता को अनेक बिंबों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। यह आत्मीयता की ऊष्मा जो आलोक कुमार मिश्रा की कविताओं में मिलती है, यह उनके अध्यापकीय-जीवानुभव की उपज है। कवि अपने समय, समाज और परिवेश को अपनी कविता में रचता है। यह रचना हमारी समझ को परिष्कृत करती है। दुनिया को देखने के नज़रिये को और संवेदनशील बनाती है। आलोक की कविता को समझने के लिए हमें एक बार पुनः बच्चा बनना पड़ता है। ऐसा नहीं कि आलोक की कविताओं में समकालीन राजनीति, सत्ता-शासन की विसंगति, विभाजन की राजनीति की उपेक्षा है। शिक्षा व्यवस्था भी राज, समाज में व्याप्त बीमारी से ग्रस्त है। साज़िश कविता देखिए :

हज़ारों स्कूल

लाखों शिक्षक शिक्षिकाएं

करोड़ों किताबें

अरबों रुपयों का बजट

असंख्य प्रयास

कहने को

केंद्र में बच्चा

पर असल में

उन्हें मनचाहे सांचे में

ढालने की कोशिश

राज समाज की

आलोक अपनी कविताओं के माध्यम से स्कूल और उसके परिवेश का जीवंत चित्र प्रस्तुत करते हैं। कविता के बहाने कवि स्कूल के वातावरण को एक नये ढंग से देखने-समझने का हमें अवसर उपलब्ध कराते हैं। वे शिक्षा, शिक्षक, पढ़ना, पढ़ाना जैसे पारंपरिक शब्दों के नये मायने हमारे सामने पेश करते हैं। कविता में कुछ नया जुड़ता है तभी वह कविता कहलाने की अधिकारी बनती है। इन कविताओं में गुरु कुम्हार शिष्य कुंभ जैसी पारंपरिक मान्यताओं को पुनः जांचने-परखने की कोशिश है तो खेती-किसानी का नया रूपक गढ़ने की कोशिश भी आप देख सकते हैं। कक्षा में चाक कविता का यह अंश देखिए :

कक्षा में चल रही है चाक

पर ध्यान रहे

मिट्टी नहीं हैं बच्चे

कुम्हार नहीं है शिक्षक

दरअसल दोनों में

दोनों सने हैं कुछ-कुछ

एक दूसरी कविता मैं करता हूं खेती का अंश देखिए :

मैं करता हूं खेती

जोतता हूं मनों को

प्रश्नों की फाल से

सींचता हूं उसे

प्रेम, समता, स्वतंत्रता

की धार से

बोता हूं अक्षरों के बीज

विचारों के पानी में भिगोकर

अवसर की खाद

डालता हूं हर दम

छिड़क कर तर्क काटता हूं

उग आये विकारों को

इस तरह

लहलहा उठता है ज्ञान

बच्चों में निहित

संभावना की मिट्टी में

आलोक की कविता हमारी रुढ़ हो गयी शिक्षण-पद्धति को चुनौती देती प्रतीत होती है। हट जाता हूं दायरे से कविता में शिक्षक की भूमिका जिस आदर्श स्थिति को व्यक्त करती है, वह हमें वर्तमान शिक्षा-व्यवस्था की विसंगति पर विचार करने को विवश करती है। यही कविता की उपलब्धि हो सकती है कि वह आपको झकझोर के रख दे। स्कूल-कक्षा में एक शिक्षक की भूमिका क्या होनी चाहिए, कवि के शब्दों में देखिए :

मैं शिक्षक हूं

पर आपको क्या लगता है

कि मैं पढ़ाता हूं

या कि बच्चों के दिमाग़ में

ज्ञान और विशेषज्ञता भरता हूं

नहीं, बिल्कुल नहीं

मैं तो बस उन्हें

स्थान, समय, सम्मान और

मौक़ा देता हूं

उनके अंतस में धंसे

प्रतिभा के बीज को

अंकुरित करने के लिए

हटाता हूं व्यवधान

डालता हूं थोड़ा अपनेपन का ताप

प्रेम का जल, समय की खाद

और फिर हट जाता हूं

उनके दायरे से

जिससे वे फल-फूल सकें

अगर शिक्षक इस रीति से अपनी कक्षाओं में पढ़ाते हों, तो बच्चे का खिलना लाज़िमी है। कवि कहता है :

मौक़ा मिलते ही बच्चे खुलते हैं

किसी पोटली की तरह

और बिखर जाते हैं कक्षा में

बनकर खुशबू

महका देते हैं आसपास की नीरसता को

वे फैल जाते हैं हवा की तरह

घुल जाते हैं रग-रग में

जीवन बनकर

आलोक की कविता स्कूल और उसके परिवेश को अपने काव्यानुभूति का केंद्र बनाती है। इस काव्य-संग्रह में ऋषि वैली स्कूल में शीर्षक से तीन कविताएं हैं।  कविताओं की भाव-व्यंजना से स्पष्ट होता है कि कवि के मानस पर इस स्कूल के वातावरण का ज़बर्दस्त प्रभाव पड़ा है। पाठक अपनी सुविधा के लिए कह सकते हैं कि कवि के आदर्श स्कूल की कल्पना का आधार ऋषि वैली स्कूल हो सकता है। इसकी वजहों को आपसे साझा करता है कवि अपनी कविताओं में। कविता ऋषि वैली स्कूल में-1 में कवि आपको स्कूल के अहाते में ले जाता है और दिखाता है :

सब अलग है यहां

इमारत, सोच, लोग और

उनके तरीक़े भी

यहां कुछ पढ़ाया नहीं जाता

बस उगाया जाता है

देकर

स्नेहिल स्पर्श का ताप

अवसर की खाद

जुड़ाव का पानी

और फिर

संभावनाओं की ज़मीन पर

लहलहा उठते हैं बच्चे

कवि का आदर्श स्कूल देख लेने के बाद अब वर्तमान यथार्थ स्थिति से भी मिल लेते हैं। एक कविता का शीर्षक है मिड-डे-मील से ठीक पहले’, इसमें बच्चे और उनकी भूख का संदर्भ आता है। जैसा कि हमें पता है कि मिड-डे-मील का प्रावधान ग़रीब बच्चों को ध्यान में रखकर बनाया गया है। भूख के कारण मील के पीरियड तक बच्चे पढ़ने-समझने की क्षमता खो देते हैं। भारत के भविष्य के लिए यह त्रासद है। एक दूसरी कविता है जिसमें एक बच्ची स्कूल फ़ीस जमा नहीं कर पाने का कारण अपने शिक्षक से साझा करना चाहती है लेकिन व्यस्तता के कारण शिक्षक उस बच्ची की बात नहीं सुनता है। कविता के मर्म तक कवि हमें पहुंचा देता है :

अब वह कमरे से बाहर जाने लगी

पर जाते-जाते दे गयी: सीख

यह कहकर कि-

आख़िर मुझसे ज़रूरी क्या काम है?

कवि आलोक अपनी कविताओं के माध्यम से हमें शिक्षा-व्यवस्था की वर्तमान स्थिति मे रू-ब-रू कराता है, साथ ही उस बदलाव की ओर संकेत करता है जिससे यह व्यवस्था बेहतर हो सके। 'बोता हूं अक्षरों के बीज' के कवि की सफलता इसमें है कि वह जोतता है मनों को प्रश्नों की फाल से

मो. : 7042855380/ 9250296372

 पुस्तक संदर्भ

1.  धूप तिजोरी में नहीं रहती : विनय विश्वास, नयी किताब प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2019

2 . पुकारता हूं कबीर : भरत प्रसाद, अमन प्रकाशन, कानपुर, 2019

3.  मैं सीखता हूं बच्चों से जीवन की भाषा : आलोक कुमार मिश्रा, बोधि प्रकाशन, जयपुर, 2019

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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