संपादकीय

पुस्तक चर्चा की अहमियत 

 सूचनाक्रांति के इस दौर में पढ़े लिखे लोगों का अधिक समय फ़ेसबुक, व्हाट्सऐप और सोशल मीडिया के तमाम अन्य उपकरणों पर लगता है। इस स्थिति को, इस दौर की कोविड-19 की महामारी ने और अधिक विकट कर दिया क्योंकि सभी उम्र के लोगों को इस महामारी ने ज़बरन इन माध्यमों से जोड़ दिया। आफ़िस, स्कूल, कालेज सभी इन्हीं नये माध्यमों से काम चला रहे हैं। बड़ी कंपनियां, राजनीतिक पार्टियां, अनेक संगठन वीडियो कांफ्रेंसों के माध्यम से अपनी बैठकें, सेमिनार (‘वेबिनार’) और अन्य सामूहिक काम, यहां तक कि रोज़मर्रा की वस्तुओं की ख़रीदारी का काम भी घर से ही चला रहे हैं। पुस्तकालयों में जा कर पुस्तकें पढ़ने का परंपरागत ढर्रा अब समाप्तप्राय हो गया है। बहुत सी किताबें भी डिजिटल हो गयी हैं, इंटरनेट के माध्यम से कहीं भी, किसी भी वक़्त बैठकर या लेटे लेटे उन किताबों को पढ़ा जा सकता है। यह सब होते हुए भी काग़ज़ पर छपी किताबों का सिलसिला जारी है। बड़ी तादाद में लेखक और चिंतक सक्रिय हैं। वे अपने मन की बात, अपना ज्ञान और अपनी संवेदना का इज़हार करने के लिए छपी किताब को ही माध्यम बनाना पसंद कर रहे हैं। जहां डिजिटल मंचों पर विचारधारात्मक संघर्ष चल रहा है, वहीं छपी किताबों के माध्यम से भी विचारों का यह घमासान जारी है। इसी घमासान की एक बानगी पेश करने के मक़सद से नया पथ का यह अंक 'पुस्तक चर्चा' पर केंद्रित किया गया है। कोशिश यह की गयी है कि इधर के दो चार बरसों में प्रकाशित किताबों पर चर्चा केंद्रित हो, सभी विधाओं की, और साहित्येतर भी, कुछ किताबें शामिल की जायें जिससे इस दौर के रचनाकारों और विचारकों के माध्यम से व्यक्त सामाजिक यथार्थ की पहचान की जा सके। इन किताबों के माध्यम से इस दौर के बहुविध विमर्शों की झलक भी इस चर्चा में समाहित है। 

          पिछले कुछ बरसों में देश की राजनीति पर जो ताक़तें झूठे आश्वासनों, मिथ्या भ्रमजाल और झांसों से अवाम को गुमराह करके हावी हो गयी हैं, वे जन और जनतंत्र के लिए बुरे दिन लाने में मशगूल हैं। उनकी मूल विचारधारा फ़ासीवादी है, देशी विदेशी वित्तीय पूंजी ने फ़ासीवाद की मौजूदा राजनीतिक संरचना को अपार धनबल से लैस कर दिया है, इस धनबल से उसने अपने लिए मानवसंसाधन भी अपार मात्रा में जुटा लिये हैं। इस समयउसके पास दलबदल कराने के लिए भी धन की कमी नहीं है। शानदार पार्टी आफ़िस हर ज़िले में इस धनबल से ही बने हैं, चुनावी प्रक्रियाओं पर उसकी पकड़ अन्य राजनीतिक संगठनों के मुक़ाबले कहीं बेहतर है। मतदाता सूची में पन्नों के हिसाब से प्रभारी, बूथ के हिसाब से प्रभारी बना दिये हैं और इसी तरह की पूरी संरचना फ़ासीवादी ताक़तों ने तैयार कर ली है। इसलिए इन ताक़तों को काडरविहीन राजनीतिक दल शिकस्त देने में कामयाब नहीं हो पा रहे हैं। 

           सत्ता के नशे में चूर इन फ़ासीवादी ताक़तों के शासन में महिलाओं, दलितों और अल्पसंख्यकों पर अत्याचारों में इस दौरान लगातार बढ़ोतरी हुई है। यों तो भाजपा शासित उत्तर प्रदेश में शायद ही कोई दिन ऐसा हो जब इस तरह के अत्याचारों की ख़बर न आती हो, मगर 14 सितंबर 2020 के दिन हाथरस के पास एक गांव में उन्नीस वर्षीय दलित महिला के साथ बलात्कार और हिंसा की जो बर्बर घटना हुई, उसने तो मानवता को शर्मसार ही कर दिया। उस महिला की मौत 29 सितंबर को दिल्ली के सफ़दरजंग अस्पताल में हुई, उत्‍तर प्रदेश पुलिस ने उस महिला का शव परिवारजनों को सौंपे बग़ैर रात में ही उसके गांव के बाहर जला दिया, पूरी दुनिया ने उस वीडियो को देखा, फिर उमड़ा प्रतिरोध का सैलाब, पूरी दुनिया ने इस बर्बरता की निंदा की और हाथरस की इस ’निर्भया’ के लिए न्याय की आवाज़ बुलंद की। संवेदनाहीन फ़ासीवादी ताक़तों के नेतृत्व और प्रशासन ने हत्यारों का पक्ष लिया। यह है भाजपा नेतृत्व का असली चेहरा, चाल और चरित्र। ऊंची जातियों के लोगों की पंचायतों को कुछ भी करने की छूट दी गयी, दलित पीड़िता के परिवार से सहानुभूति रखने वालों पर चलाया दमन चक्र। 

           देश की शासनव्यवस्था का ऐसा कोई खंभा नहीं है, जिसमें फ़ासीवादी तंत्र न घुसा हो, संवैधानिक संस्थाओं, ज्ञानविज्ञान के संस्थानों पर उसने पूरी तरह कब्ज़ा कर लिया है। लोकतंत्र दिखावे भर के लिए है। इधर महामारी ने और मनमाने ढंग से लागू की गयी तालाबंदी ने भी ग़रीब शोषित अवाम और मध्यवर्ग व छोटे उद्योग धंधों को तबाह कर दिया, लेकिन बड़े कारपोरेट घरानों और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी को मंदी की भयंकर चपेट से कोरोनाकाल ने उबार लिया। पूरी पूंजीवादी दुनिया में उत्पाद के लिए मांग का संकट पहले ही था जिसे कोरोनाकाल से पहले 'महामंदी' कहा जा रहा था, मगर इस दौर में उत्पादन के ठप होने से मज़दूरी की बचत हो गयी, ऑफ़िस का ख़र्च भी बच गया और उत्पाद भी धीरे धीरे महंगे दामों पर बिकने लगे। पूंजीवादी अर्थशास्त्री इस 'पुनर्जीवन' से खुश हैं। एक ओर सरकारों की ओर से अच्छा ख़ासा पैकेज हासिल कर लिया, दूसरी ओर सबसे बड़ी उत्पादक शक्ति यानी मज़दूर वर्ग पर कुछ भी ख़र्च नहीं करना पड़ा। जब प्रधानमंत्री ने देश को नसीहत दी कि 'कोरोना काल को अवसर में बदल लो' तो बीजेपी शासित कई राज्यों ने ऐसे श्रम क़ानून बना लिये, जिनसे कारपोरेट घराने मनमाने तौर पर मज़दूरों की छंटनी कर सकते हैं। केंद्र सरकार ने भी इसी तरह का क़ानून बना लिया। पक्की नौकरी देने का सिलसिला तो बहुत पहले लगभग सभी क्षेत्रों में ख़त्म हो चुका था, इसलिए असंगठित मज़दूरों की तादाद में ही बेतहाशा बढ़ोतरी होती रही, तालाबंदी के दौरान जो जन सैलाब महानगरों से गांव जाने के लिए उमड़ा था, वह इस सच्चाई का प्रमाण है। उनकी कमाई बंद हो गयी थी, मगर गोदामों में पहले से ही बना हुआ माल भरा पड़ा था, उसकी खपत इस दौरान हो जाने से कारपोरेट पूंजी को दोहरा लाभ मिल गया। कोरोना काल उनके लिए वरदान साबित हुआ, ग़रीबों के लिए वज्रपात। 

          मज़दूरों के ख़िलाफ़ श्रमक़ानूनों में संशोधन करने के बाद केंद्र सरकार ने किसानों को कारपोरेट घरानों के अधीन करके उनके शोषण में इज़ाफ़ा करने के मक़सद से तीन क़ानून पारित कर लिये, जिनका प्रतिरोध आजकल जारी है। अब तक के रवैये से लगता है कि फ़ासीवादी विचारधारा से लैस केंद्र सरकार शायद ही किसानों की मांगें माने क्योंकि वह महामारी को भी 'अवसर' के रूप में इस्तेमाल करने के फ़लसफ़े में यक़ीन रखती है। आंदोलन के दबाव में आकर किसान संगठनों से मिलकर बातचीत ज़रूर की है, मगर क़ानून वापस लेने का उसका कोई इरादा नहीं दिखता। 

             ऐसे माहौल का असर साहित्यकारों की संवेदना को, या समाजशास्त्रियों की चेतना को न छुए, यह संभव नहीं। इस सबकी जानकारी हमें किताबों से ही मिल सकती है, क्योंकि किताबें ज्ञान और संवेदना की वाहक होती हैं, मानवसभ्यता को समृद्ध करने में उनका ऐतिहासिक योगदान रहा है, हमेशा रहेगा। समाज में चल रहे वैचारिक संघर्षों की तसवीर भी इन्हीं में दिखायी देती है। इसीलिए पुस्तक चर्चा की अहमियत हमेशा रहेगी। 

          मराठी के मशहूर जनकवि अन्नाभाऊ साठे का यह जन्‍मशती वर्ष है। इस अंक में हम उन्‍हें स्‍मरण करते हुए उन पर एक लेख छाप रहे हैं और यह अंक उन्‍हीं की स्मृति का समर्पित कर रहे हैं।

          इस अवधि में हमारे बीच कई साहित्यकार, कलाकार, लेखक नही रहे। नया पथ की ओर से कपिला वात्स्यायन, राहत इंदौरी, पंडित जसराज, इब्राहिम अल्काज़ी, मुकुंद लाठ समेत उन सभी को भावीभीनी श्रद्धांजलि। 

मुरली मनोहर प्रसाद सिंह 

चंचल चौहान

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