स्मृतिशेष : विष्णु चंद्र शर्मा


विचंश : विद्रोही प्रकृति और प्रतिरोध का जज़्बा

 महेश दर्पण

हवा आज़ाद है

गीले कपड़े उड़ाने को

और तुम आज़ाद

जनता को सब्ज़बाग दिखाने को।

छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी कविताओं में एक तरफ़ अपनी डायरेक्ट पोलिटिकल अप्रोच और दूसरी तरफ़ तरल, सूक्ष्म और मानवीय स्पर्श से आपूरित रचनाएं देने वाले विष्णु चंद्र शर्मा 2 नवंबर, 2020 को नहीं रहे। अंतिम दिनों तक वे कविताएं लिखते रहे, पुस्तकें सुनते रहे और इस बात पर प्रसन्न भी हुए कि अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में ट्रंप को पराजय हाथ लगी। लघु पत्रिका, कवि और सर्वनाम के ज़रिये विष्णु जी ने जो इतिहास रचा, उस पर अब संभवतः अध्येता विचार करें। प्रारंभ से ही विद्रोही प्रकृति और प्रतिरोध का जज़्बा लिये विष्णु चंद्र शर्मा को संक्षिप्त नाम विचंश मिला। शर्मा, उनके पिता अपने नाम के साथ काशी आकर लगाने लगे। मूलतः वे अमृतसर के एक बग्गा-परिवार से थे। विचंश ने अस्वीकार और असहमति को अपनी जीवन शैली, पिता के प्रभाव में ही बनाया था। खुद उनके पिता कृष्ण चंद्र शर्मा अपने पिता जमतालाल बग्गा की तरह पौरोहित्य नहीं करना चाहते थे। इसीलिए वे पढ़ने के लिए अमृतसर से पं. रामनारायण मिश्र के साथ काशी चले आये। स्वाधीनता आंदोलन की लहर के साथ ही आर्य समाज से भी वे गहरे में प्रभावित थे।

पं. रामनारायण मिश्र न सिर्फ़ मदनमोहन मालवीय के संपर्क में रहे, उन्हें काशी में लोग छोटा मालवीय ही कहने लगे। बाद में इन्होंने श्याम सुंदर दास, शिवकुमार सिंह के साथ मिलकर काशी नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना की। वे सभा के सचिव तो थे ही, उन्होंने चंदा एकत्र कर सभा के लिए ज़मीन भी ख़रीदी। इन्होंने अपनी बेटी शिवदेवी का विवाह कृष्ण चंद्र से किया। इनकी छह संतानों में एक थे विष्णु चंद्र शर्मा। बचपन में ही सुभाष चंद्र बोस को कपूर की माला पहनाकर उनसे प्रभावित हुए और प्रसाद, निराला, राहुल सांकृत्यायन से संस्कार लिये। संपूर्णानंद के नज़रुल पर लिखे एक लेख से विष्णु इतने आकृष्ट हुए कि फिर काज़ी नज़रुल इस्लाम की जीवनी लिखने में लग गये। अग्निसेतु पढ़ने वाले जानते हैं कि यह नज़रुल की एक प्रामाणिक जीवनी है।

यों तो नौकरी के बंधन में बंधकर न रहना विचंश का मिजाज़ ही था, फिर भी उन्होंने शब्द-सागर, नागरी मुद्रण, कहानी, जनयुग आदि में कुछ-कुछ समय संपादन कार्य किया। कहानी से तो नौकरी छोड़कर विचंश दक्षिण भारत की यात्रा पर ही निकल गये। यात्रा उनके जीवन की एक अनिवार्यता ही बन गयी। इस अर्थ में वे राहुल जी के पक्के शिष्य थे। समय साम्यवादी शीर्षक राहुल की जीवनी तो उन्होंने बाद में लिखी, वे भारत के बाहर भी खूब घूमे। कभी कोई उनकी विदेश यात्राओं का इतिहास लिखेगा तो अनेक रोमांचक तथ्य सामने आयेंगे। उल्लेखनीय यह है कि ये तमाम यात्राएं उन्होंने अपने दम पर की थीं। किसी स्पांसर या सरकारी ख़र्च पर नहीं। उनकी कविता और यात्रा साथ-साथ चलती थी। उनके सत्रह कविता संग्रहों में एक इसीलिए यात्रा में कविताएं शीर्षक से भी है। एक तरह से तो उनका पूरा जीवन ही कवितामय था। तीन कहानी संग्रह, दस उपन्यास, नौ संस्मरण पुस्तकें, छह जीवनियां, आठ आलोचना पुस्तकें, दो यात्रा वृत्तांत, दस संपादित ग्रंथ और अनेक डायरियों के साथ ही उनके लिखे सहस्रों पत्र बताते हैं कि वे जीवन भर कितने सक्रिय रहे! उनके भीतर एक आक्रोश भरी बेचैनी हर वक्त़ ज़ोर मारती रहती थी :

कमरे चुप हैं

मेरी बेचैनी को

सुनने के लिए

सुनो, धीरे-धीरे सुनने से

घर बोल पड़ेगा।

उनकी पद्य, गद्य रचनाओं के विषय इतनी विविधता लिये हैं कि उनकी रचना का भूगोल समझने के लिए पर्याप्त तैयारी की ज़रूरत है। काशी से दिल्ली आकर वे कुछ समय रघुनाथ सिंह (सांसद) के यहां रहे ज़रूर, पर फिर उन्होंने एक कहानी क्या लिखी, उसके बाद उन्हें वह घर ही छोड़ देना पड़ा। इसके बाद वे एक घर किराये पर लेकर रहने लगे। नाना और पिता के कारण अनेक शीर्ष राजनेतओं से निकट का परिचय होने के बावजूद विचंश सदा सत्ता के प्रलोभनों से दूर रहे।

कभी कवि पत्रिका के माध्यम से मुक्तिबोध सरीखे कवि को हिंदी-जगत में एक स्थायी पहचान दिलाने वाले इस व्यक्ति ने जब मुक्तिबोध की आत्मकथा लिखी, तब प्रबुद्ध समाज यह समझ सका कि मुक्तिबोध के जीवन के मर्म से विचंश का कितना गहरा नाता था! उनकी पुस्तक स्वराज्य के मंत्रदाता तिलक यद्यपि आकार में लघु किंतु एक महत्वपूर्ण कृति है। रांगेय राघव, राजेंद्र यादव और विचंश के अन्यतम मित्र रहे मनमोहन ठाकौर। उन पर विचंश ने एक अनूठी पुस्तक लिखी, हम अकेले कहां हैं मनमोहन ठाकौर! वे किसी भी तरह, इस धरती को मूल रूप में सुरक्षित रखने के हक़ में लड़ते रहना चाहते थे :

धरती गोल है

और उसे बांटने

या लड़ाने वाले

चौकन्ने हैं।

अराजक माहौल उन्हें क़तई न सुहाता। वे जटिल समकालीन यथार्थ से निरंतर टकराने में यक़ीन रखते हुए चुटीला व्यंग्य करते थे :

बैंकों को लूटने वाले शरीफ़ हैं

घर को जलाने वाले आज़ाद हैं

चुनाव जीतने वाले धनवान हैं

कर्ज़ में फंसी जनता जली है

और धनवान देश को बदलने में

जागरूक हैं

देश विकास के पथ पर

तेज़ रफ़्तार से बढ़ रहा है।

वे भारतीय प्रजातंत्र की असलियत की कलई कई तरीक़े से अपनी रचनाओं में खोलते हैं और जनता को जगाने का काम करते हैं :

चुनाव जीतने के बाद

फ़ैसला हो रहा है

कौन मंत्री बनेगा

कौन मुख्यमंत्री

जनता कुछ देर नेता को

लड्डू खाते देख रही है

फिर तबाही

फिर भुखमरी

फिर कर्ज़ में डूबने की

रोज़मर्रा की कहानी।

दिल्ली में सादतपुर का स्थायी पता हासिल करने के बाद उनका घर हर पीढ़ी के रचनाकारों की अगवानी करता रहा। इससे पूर्व वे यूसुफ़ सराय के कृष्ण नगर, सफ़दरजंग एनक्लेव आदि में रहकर यह जान चुके थे कि दिल्ली की हवा से खुद को कैसे बचाकर रखा जा सकता है! यहीं से वे शिवदान सिंह चौहान, रामविलास शर्मा, नागार्जुन, त्रिलोचन और अपने अनेक मित्रों के संपर्क में रहते थे। उनका बग़ीचा था, पत्नी पुष्पा जी थीं और प्रिय साथी शेरू था। इसी मकान में कभी कुबेर ने उनकी लंबी शूटिंग की थी और लिखी थी उन पर एक ‘अंतिम शीर्षक’ लंबी कविता। जब कई बार चोरी-चकारी ने उन्हें परेशान कर दिया, तब उन्होंने तय कर लिया था कि अब इस पुराने मकान में नहीं रहेंगे। रहे सादत पुर में ही, पर ज़मीन के मोह को छोड़कर। उन्होंने अपने पास कुछ न रखा। वही थे, जो लंबे समय बाद भी राजधानी में अपने मित्र राजकमल चौधरी की स्मृति में एक सम्मान प्रारंभ कर सके और हमारे समय के दो महत्वपूर्ण रचनाकार इब्बार रब्बी और पंकज बिष्ट इस रूप में सम्मानित हुए।

कभी वे कबीर को याद करते तो कभी ग़ालिब को। निराला, राहुल, नज़रुल तो उनकी सांस-सांस में थे। उनका एक संपादक रूप यह भी था कि वे शिवदान सिंह चौहान को फिर से नयी पीढ़ी के समक्ष लेकर आये। उन्होंने अरघान के माध्यम से त्रिलोचन की कविताओं को प्रस्तुत किया। रामविलास और त्रिलोचन ही नहीं, नागार्जुन और शमशेर पर भी अपनी व्यावहारिक आलोचना दी। उनके राह दिखाये कितने ही रचनाकार बाद में चर्चित हुए।

विचंश की चिंताएं समाज, विश्व मानवता और साहित्य को लेकर अनंत थीं। वे रचना को परंपरा के साथ भी और इसे तोड़ते हुए भी देखना चाहते थे। पर इधर के साहित्यिक परिदृश्य से वे खुश नहीं थे :

दोहा, चौपाई, छप्पय

अनुष्टुप

किताबों में बंद हैं

मैं खुद छंद से

वाक्य को फैलाने

या समेटने में

तल्लीन हूं

कविता की मौत पर

अध्यापक खुश हैं

कवि जहं-तहं

प्रकाश फेंक रहे हैं।

विचंश एक अप्रैल, 1933 को काशी में जन्मे थे। हम मित्रगण उनके जन्म दिन पर एकत्र होते, तो खूब हंसी-मज़ाक़ चलता एक अप्रैल के बहाने। यह तब की बात है, जब उनका दुर्वासा रूप बहुत बदल चुका था। वे पत्नी पुष्पाजी के निधन के बाद बेहद अकेले हो गये थे। इस अकेलेपन को, दिल को मला करे है उपन्यास में पढ़ा जा सकता है। मुझे उनका असीम स्नेह मिलता रहा। मुझे भी लगता रहा कि रमाकांत के बाद सादतपुर में वे एक बड़ा सहारा थे। अब लगता है वे उस इतिहास का एक हिस्सा हैं जिससे सादतपुर बनता था, जिसकी गलियों में होकर नागार्जुन ख़रामा-ख़रामा उन तक पहुंचते थे और बताते थे, ‘विष्णु, तुम्हारे अमरूद के पेड़ के पत्ते बता रहे हैं कि इसमें बहुत मीठा फल होगा।’

फलों की बहार थी विचंश के यहां - पपीता, जामुन, केला, अमरूद, गन्ना...और सब्ज़ियां तरह-तरह की...फूलों का क्या कहना...पर अब वे सब स्मृतियों में ही हैं। उनका होना तो अब विचारों में है जिनके लिए आज के मगध में जगह कितनी रह गयी है, यह खुद एक विचार का विषय है। जो काम विचंश जीते जी करते थे, वे अब उनकी रचनाएं करेंगी, यह यक़ीन ज़रूर है। उनके चाहने वालों को चाहिए कि अब उनकी रचनाओं पर बात करें।

मो. 9013266057

 

 

 

 

 

 

 

  

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