ज्योति रीता


दो कविताएं
 
1. राजनीति हे राम!!

तुम्हारे नहीं होने से
कहां रुकता है
सुबह का होना
शाम का डूब जाना
,
भागती है ट्रेनें धड़ाधड़
चढ़ते
-उतरते लोग
चाय
- पीते खांसते
रुमाल से हाथ पोंछते
आगे बढ़ जाते लोग
तुम्हारे नहीं होने से कहां फ़र्क़ पड़ता है
,

सड़क पर दौड़ते बच्चे
घास चरती गायें और
  बकरियां
वह देखो जाता सांड़
जलती बसें
टूटते कांच
घुटते लोग
अधपकी
  लाशें
बिलखते बच्चे
दहाड़ती
  मांएं
जाने किसका रक्त मज्जा
मांस का लोथड़ा
चीखते चिल्लाते इक्का
-दुक्का
अश्रु धारा बहाते परिजन
तमाशबीन तमाम लोग
कहां जान पाते हैं दर्द व पीड़ा
अपनों से अपने के बिछड़ने की
,
छह माह का बच्चा
मां के दूध से सटा सुकून में
घर में कोहराम
राजनीति हे राम
!!
तुम्हारा होना
ना होना
बस तिल
- सा फ़र्क़
कौन कहां समझ पाया
तुम्हारे होने ना होने का
असहनीय दर्द
अकल्पनीय पीड़ा।।

2.  गांव ना लौट पाने की पीड़ा

मैं लौटना चाहता हूं घर
करना चाहता हूं छप्पर की मरम्मत
बनाना चाहता हूं द्वार पर एक मचान
भोरे
- भिनसारे गाय को कुट्टी - सानी देकर
बुहारना चाहता हूं गौशाला
अपने छोटे से खेत में
लगाना चाहता हूं गरमा धान
पिता जो कल तलक कर्कश थे
आज बैठना चाहता हूं देह लगकर

पत्नी कहती है
..
मांजी से मिलने का बड़ा मन कर रहा
अब मांजी के साथ रहकर सेवा करूंगी
चूल्हा लीपूंगी
खाना पकाऊंगी
साग
  खोटूंगी
नून संग रोटी खा लूंगी
पर शहर कभी ना लौटूंगी

आज याद आ रहे सारे गंवार दोस्त
जामुन- बेर की डाली
आवारगी से लौटने पर
गरम
- गरम रोटी थापती मां
दौड़कर पानी लाती बहन
..

पर सुना है ...
गांव के आख़िरी मुंडेर पर
बड़ा सख़्त पहरा है
...
जो लोग जाते ही गले लगाते थे
आज लाठी
-डंडे लेकर खड़े रहते हैं ।                                                                                            
                                                                                मो0 8252613779

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