उर्दू कहानी

 जन्नत नसीबी

नूर ज़हीर


रकीबन बी का दिल बल्लियों उछल रहा था। उनकी ख़ुशी का ठिकाना न था; बस ‘आजकल पांव ज़मी पर नहीं पड़ते मेरे’ वाली हालत थी।  वैसे रकीबन बी की उम्र, दिल के बल्लियों उछलने की न थी। भला बहत्तर की उम्र में किसी का दिल ख़ुशी से उछलता है? उछलता भी है तो बस एक बार, 'टैं' हो जाने के लिए।  लेकिन वही मसल है न कि उम्र ढल जाती है दिल कहां बुढ़ाता है? सो इनके बूढ़े वजूद में जवान दिल, कुलाटियां भर रहा था; और भई बात भी तो ख़ुशी की थी; ज़िंदगी भर दूसरों के घर में चाकरी करके, जूठन, उतरन पर गुज़र करके, पहाड़ जैसी ज़िंदगी परायों की गालियों, कोसनों के सहारे काट देने वालों को भी कहीं हज नसीब होता है? वह तो अल्लाह भला करे अक्कन मियां का, जो विलायत में रह कर ग्यारह सालों में तो अपनी मां को झांकने भी न आये, लेकिन उनके लिए हज करने के पैसे भेज कर अपने लिए जन्नत की बुकिंग पक्की कर रहे थे। इतना ही नहीं, अक़ील अहमद, उर्फ़ अक्कन मियां ने विलायत से यह हुकुम भी जारी किया था कि उनके साथ कंचे और गुल्ली डंडा खेले हुए, उनके लंगोटिया यार, जो अब इस क़स्बे की शिया मस्जिद के छोटे इमाम थे, अम्मी के साथ मक्का जायेंगे, वरना भला अरबी में होने वाले उमरा को सीधी साधी हिंदुस्तानी ज़बान में अम्मी को कौन समझायेगा? और पैंसठ साल की अम्मी की हज़ारों ख़्वाहिशों, ज़रूरतों को पूरा करने के लिए भी तो कोई चाहिए? लिहाज़ा उनके साथ रकीबन बी का जाना भी उन्होंने ही तय कर दिया था। 

वैसे रक़ीबन बी का जवानी के दिनों से यही रोल रहा है। वो चौबीस साल की जवान जहान बेवा थीं, जिन्हें नयी नवेली दुल्हन के साथ ससुराल भेजा गया था कि वहां परदेस में उनकी ज़रूरतों, ख़्वाहिशों का कौन ख़याल रखेगा? यह भी उन्हीं की, यानी हशमत आरा बेगम की ज़रूरत ही थी कि दुबई तक पानी के जहाज़ से सफ़र करना तय हुआ।  अक्कन मियां तो हवाई जहाज़ का किराया देने को तैयार थे।  दस दिन का सफ़र घंटों में पूरा हो जाता। लेकिन हशमत आरा बेगम को हवाई जहाज़ में बैठने के ख़याल से ही दिल में हौल उठने लगता था। सो सफ़र लंबा तो खिंचा ही, साथ ही पुरानी बाबा आदम के ज़माने की खड़बड़िया एम्बेसडर में लखनऊ जाने और फिर हवाई अड्डे पर हवाई जहाज़ में फुदकने के बजाय,  रेल से मुंबई और वहां से जहाज़ में दुबई और दुबई से बस से मक्का जाना तय किया गया। तीनों तरह के सफ़र एक साथ करने को मिलेंगे यह तो रकीबन बी ने ख़्वाबो-ख़याल में भी न सोचा था। 

बिटिया के, यानी 65 साला हशमत आरा बेगम के सारे गरारे कुर्ते रकीबन बी ने ख़ुद धोये, सारे दुपट्टे कलफ़ देकर बड़े जतन से चुने; लोबान, धूप से सारे कपड़े बासे, ताकि एक बार पहनने के बाद ही बदलने की ज़रूरत न पड़े । सफ़ेद सरसों दूध में भिगोकर, उबाली, सुखायी  और तेरह जड़ी बूटियों के साथ पीस कर कपड़े  की थैलियों में बांधी। भला बिटिया हज पर साबुन से नहायेंगी? मौलवी साहब के लिए भी चार नये जोड़े बनवाने दर्ज़ी के पास वही गयीं और अपने लिए भी दो नये सफ़ेद छालटीन  के गरारे ख़ुद ही सी डाले। इतनी तैयारी तो उनकी ज़िंदगी में बस एक ही बार हुई थी--बिटिया के ब्याह में! इतना लंबा सफ़र तो दूर वह तो ज़िले के बाहर भी न झांकी थीं और हज से तो उनके ख़्वाबों तक ने किनारा कर लिया था।  

वैसे पूरे मोहल्ले पर ही एक ख़ुशी का आलम तारी था। हज की रवानगी  की ख़बर मिलने के दिन से ही हर जुमेरात को नज़र देकर हलवा बंटने लगा। रकीबन बी, जो घर की माली हालत से वाक़िफ़ थीं इस ख़र्च के बिलकुल ख़िलाफ़ थी। अक्कन मियां की, जिनको उन्होंने गोद  खिलाया था, कमाई की ऐसी बर्बादी उनका दिल कचोट रही थी। मौलवी साहब भी हर वक़्त हाथ में क़ुरआन शरीफ़ और बग़ल में जानमाज़ दबाये नज़र आते। आख़िर उन्हें हर आयत, हर हुक्म के मतलब जो समझाने थे। उन्होंने ख़ुद ही कहा था कि बेगम साहब फ़िक्र न करें, वे चल रहे हैं न साथ, सब समझाते, बताते चलेंगे।

हज के सफ़र से पहले कई अदद छोटे सफ़र करने पड़े। पासपोर्ट फ़ॉर्म भरने, दाख़िल करने, पुलिस जांच और फिर हज कमिटी के दफ़्तर में जमा कराने में तीन चक्कर तो लखनऊ के लगे।  एक बार दिल्ली जाना पड़ा, पांच मुल्कों के पांच दूतावास में वीज़ा की मोहर लगवाने। हज के साथ साथ कर्बला की ज़ियारत भी कर लेंगे, ईरान की फ़िरोज़ा मस्जिद और तुर्की में रूमी की क़ब्र पर भी फ़ातिहा पढ़ लेंगे। हर दफ़्तर की हर मेज़ पर जो भी सुनता कि ये लोग हज को जाने वाले हैं तो फ़ौरन अपने लिए दुआ करने की फ़रियाद करता। हिंदू तक अपना दुखड़ा सुनाने लगते और इल्तिजा करते कि उनके दुःख निवारण के लिए हशमत आरा बेगम ज़रूर काबे शरीफ़ में दुआ करें। मौलवी साहब का तो काम ही है सबको संतुष्ट करना, लेकिन बिटिया भी फ़ौरन वादा कर लेतीं। अंतिम  दफ़्तर में रकीबन बी से रहा नहीं गया, बिगड़ कर बोलीं, 'लो भला बताओ, हम हर किसी की मुराद पूरी करने की दुआ मांगते रहे तो हमारे अपनों का तो नंबर ही न आने का! न भैये, दुआ तो हम अपने और अपनों के लिए ही मांगेंगे, विसी के लिए तो जा रहे हैंगे, साफ़ बात।' 

आख़िर सफ़र शुरू करने का दिन आया, ट्रैन से तीनों मुंबई पहुंचे और वहां से उस जहाज़ पर सवार हुए जो हज पर जाने वाले मुसाफ़िरों से भरा था। जहाज़ क्या था, इस्लाम का एक द्वीप जैसा था; हर तरफ़ से तलावत की गूंजती आवाज़ें आबोहवा को पाक रखतीं, हर वक़्त लोग बदना लिये वज़ू के लिए दौड़ते नज़र आते। अक़ीदत का यह आलम था कि जहाज़ ज़रा डगमगाया कि लोग जहां होते वहीँ सजदे में गिर जाते। मज़हब, दीन और ईमान से लबालब भरे इस तालाब में किसी ने छपाक से एक ढेला मारा। किसी बेचारे का काफ़ी क़ीमती कश्मीरी दोशाला चोरी हो गया! नमाज़ पढ़ने को, वज़ू से पहले दुखिया ने उतारकर तह करके एक तरफ़ रखा था। और फ़ारिग़ होकर जब वहां पहुंचा तो दोशाला नदारद! रकीबन बी पहले तो सकते में आ गयीं। ऐसा कैसे हुआ? यानी हज को जाने वाले सब नेक बंदे नहीं हैं, उनमे से कुछ चोर बेईमान भी हैं जो हज के सफ़र पर भी अपनी आदतों से बाज़ नहीं आते। भला ऐसी हज का क्या फ़ायदा? वैसे उनके दिल को जहाज़ पर चढ़ते ही एक धक्का लग चुका था जिसके बारे में उन्होंने मौलवी साहब से पूछा भी था। 'हज पर जाने वाले तो सब मुसलमान हैंगे, तो भला नमाज़ की इतनी जमातें क्यों लगती हैंगी?' उन्होंने भोलेपन से पूछा। 

मौलवी साहब ने डपटते हुए कहा, 'लो भला बताओ, यहां शिया हैं, सुन्नी हैं, वहाबी है, बोहरी हैं, खोजे हैं, मैमन हैं, इस्माइली हैं...सबकी जमात भला एक कैसे हो सकती है।' 

'पर हैंगे तो सब मुसलमान और सब हज करने को जा रहे हैं जो एक ही तरह से की जाती है, तो सब उस अल्लाह के हुज़ूर में एक साथ नमाज़ क्यों नहीं पढ़ सकते?' रक़ीबन बी ने तर्क किया। 

'बेकार बहस न करो।' मौलवी साहब ने बिगड़ कर कहा I 

'जो बात तुम्हारी समझ से बाहर है उसमे क्यों 'दख़ल देती हो?' हशमत आरा बेगम ने समझाया। रकीबन बी चुप हो गयीं। इस चोरी वाले हादसे से दिल में उमड़ते सवालों को भी उन्होंने दबाये रखा, मगर सतर्क हो गयीं। गरारे पहनने छोड़ दिये, बिटिया का बैग ठीक अपने पीछे रखती और सजदे में झुकते हुए, चुस्त चूड़ीदार पजामों में जकड़ी टांगों के बीच में से झांक कर इत्मीनान कर लेतीं कि सामान अपनी जगह सुरक्षित है। भला ऐसा सजदा कितने दिन छुपता और मौलवी साहब तो आये ही इसीलिए थे कि सब पर नज़र रखें कि वह दीन की पाबंदियां निभा रहे हैं या नहीं। जब सवाल-जवाब हुआ तो रकीबन ने साफ़ कह दिया, 'तो क्या हुआ, अल्लाह मियां को सजदा भी करते हैंगे, अपने माल की हिफाज़त भी करते हैंगे। इसमें ग़लत क्या हैगा ?'

दुबई से बसों, जीपों, मोटर गाड़ियों का लंबा क़ाफ़िला मक्का की तरफ़ रवाना हुअ। हज शुरू होने में अभी तीन दिन बाक़ी थे। तीन दिन उनके ड्राइवर और गाइड ने उन्हें हर वो निशान दिखाया जो अल्लाह ने बतौर अपने होने के सुबूत में इस ज़मीन पर छोड़ा है। कहीं ऐसा पेड़ था जिसकी जड़ें ऊपर आसमान में और तना ज़मीन में घुसा था, कहीं सुलगती रेत के बीचोबीच ऐसा ठंडा पानी का चश्मा फूट रहा था कि क्या कहिए। लोग थे कि सजदा करने में एक दूसरे के ऊपर गिरे पड़ते थे। रकीबन बी हैरान, आंखें फाड़ फाड़ कर सब कुछ देख रही थीं। बात ही कुछ ऐसी थी। हर नया निशान देख कर मौलवी साहब सजदे में लोटपोट हो जाते, बिटिया शुक्राने की दुआयें पढ़ते हुए आंसू बहातीं कि अल्लाह ने उन्हें इस क़ाबिल समझा कि वह हज अदा करें और सब अपनी आंखों से देखें। 

रक़ीबन बी को अजीब लग रहा था। उन्होंने तो ज़िंदगी में इतने पेड़ देखे थे जो पत्तियां झड़ जाने पर यूं मालूम होते हैं जैसे जड़ें ऊपर हवा में किये खड़े हों और अगर धूप में रख देने से सुराही का पानी बर्फ़ जैसा ठंडा हो जाता है तो तपती रेत से ठंडे पानी का चश्मा फूट पड़ने पर ख़ुदा का शुक्र मानना तो समझ में आता है लेकिन उसे भला चमत्कार क्यों क़रार दिया जाये?

उमरा शुरू होने से पहले, हज के लिए हुक्म और काबा शरीफ़ का इतिहास मौलवी साहब ने बड़ी तफ़्सील से सुनाया। उनका अंदाज़े बयां इतना अच्छा था और इतनी सीधी साधी भाषा में होता था कि आसपास के लोग भी जमा हो जाते। ये ज़्यादातर ग़रीब हिंदुस्तानी, पाकिस्तानी या बांग्लादेशी थे जो जहाज़ों की सबसे निचली श्रेणी में, ज़मीन पर दरियां, चादरें बिछाये, मामूली बसों में धक्के खाते, कई बार पैदल चलते, दिल में हज की ललक लिये यहां तक पहुंचे थे। मौलवी साहब इन ग़लीज़, गंदे, ख़ब्बीसों की मौजूदगी पर बिगड़ जाते। इनके पास से उन्हें बदबू आती थी। असल में रकीबन बी जो दिन भर बस में बैठे बैठे उकता जाती थीं, अपनी टांगें खोलने, रात को रुके पढ़ाव भर में हर तरफ़ डोलती फिरतीं और अपने मौलवी साहब की तारीफ़ें कर करके मजमा जमा कर लेतीं। इतने बड़े मजमे के आगे धर्म का बखान करना मौलवी साहब को अच्छा लगता मगर यह क्या बात हुई कि रकीबन बी, वहीं सबके सामने अल्लाह और रसूलल्लाह की शान में मौलवी साहब की हर दलील पर सवाल उठायें, ऐतराज़ जतायें? और उस दिन तो उन्होंने हद ही कर दी। मौलवी साहब काबे के पत्थर का ज़िक्र कर रहे थे । कैसे यह पत्थर हज़रत इब्राहिम के वक़्त से भी पहले, एक दिन अचानक आसमान से आकर ज़मीन पर गिरा; कैसे सब क़बीलों के लोग इस आसमानी नेमत को देखने जमा हो गये और इसकी रंगत, रूप और इसमें से निकलने वाली रौशनी से चकाचौंध हो गये। तभी एक आकाशवाणी हुई, 'ऐ बंदो, यह हमारे ही जलाल का हिस्सा है, और तुम इसे हमारा ही नुमाइंदा मानकर इसकी परिक्रमा करना और इसी की तरफ़ सजदा करना।'  रकीबन बी ने बड़े उत्साह से पूछा, 'तो हम लोग इस अजूबे पत्थर को कब देख पायेंगे, कब हमारी आंखें अल्लाह के नूर का जलवा देख पायेंगी?'  मौजूदा भीड़ में एक उत्साह की लहर दौड़ गयी, 'हां कब, आख़िर कब?'

मौलवी साहब ने नाराज़ होकर कहा, 'उसे देखा नहीं जा सकता । हिफ़ाज़त के लिए उसके चारों तरफ़ बारह फ़ुट ऊंची दीवार है और ऊपर सपाट छत। जो घनाकार काबाशरीफ़ की तस्वीरों में नज़र आता है उसके अंदर यह पत्थर महफ़ूज़ है। उमरा इसी के चारों तरफ़ करना पड़ता है और हर चक्कर के पूरा होने पर उसकी तरफ़ उंगली उठानी पड़ती है।' 

रकीबन बी का सारा धार्मिक जोश ठंडा हो गया। बिगड़कर बोलीं, 'लो भला, जिसे अल्लाह ने इसी जगह पर फेंका है, उसे यहां से हिला पाने की कौन जुर्रत कर सकता है? और अल्लाह के जलाल के हिस्से को अगर किसी ने चुरा लेने की कोशिश की तो उसका हाथ न जल जावेगा?' श्रोताओं ने भी रकीबन बी से हां में हां मिलायी और एक दो ने तो इस पूरे इंतज़ाम को सऊदी साज़िश बताया जो चाहते ही नहीं कि उनके अलावा कोई दूसरे मुसलमान पूरी हज कर सकें और उसका पुण्य कमायें।

इन सब लोगों को डांट कर चुप कराया गया और मौलवी साहब को आगे की दास्तान सुनाने का निवेदन किया गया। उनका मूड उखड़ गया था लेकिन फिर भी काबे के इतने बड़े तीर्थ बनने की दास्तान ऐसे मोड़ पर थी कि उसे रोक देना किसी तरह मुनासिब ना था। ख़ैर, इतिहास की कथा आगे बढ़ी और वहां पहुंच गयी जहां हर अरब क़बीले और यहूदी क़बीले ने पैग़ंबर इब्राहीम को हुई भविष्यवाणी को सही मान लिया और इस जगह को एक पवित्र स्थान का दरजा देते हुए यहां आकर पुण्य कमाना अपना मज़हबी फ़र्ज़ स्वीकार कर लिया 


 
ज़्यादातर अरब क़बीलों के अपने अपने इष्ट देवता थे। इस पत्थर के चारों तरफ़ इमारत को बनाने में सबने मदद की और अपने देवताओं की प्रतिमाएं यहां रख दीं। 

हज़रत मोहम्मद पर अल्लाह का राज़ खुलने के बाद सारे अरब क़बीलों ने इस्लाम धर्म क़ुबूल कर लिया। उसके बाद सिर्फ़ मुसलमान और यहूदी ही यहां आते, तीर्थ पूरा करते और पुण्य कमाते। लेकिन उनकी रस्में और तौर तरीक़ा मुसलमानों से अलग थे, इसलिए पैग़ंबर ने बैठकर यह संधि कर ली कि जब वे आयेंगे तब मुसलमान नहीं आयेंगे और जब मुस्लमान यहां होंगे तो यहूदी दूर रहेंगे ताकि एक दूसरे के धार्मिक रीति रिवाज में कोई ख़लल न पड़े।  

रकीबन बी की आंखों में पैग़ंबर की इंसाफ़पसंदी पर फ़क़्र के आंसू छलक आये। इसीलिए तो उनके बाद अल्लाह को कोई दूसरे पैग़ंबर को भेजने की ज़रूरत नहीं रही। इंसाफ़ करना, सबको बराबर मानना, ऊंच नीच का भेद मिटा देना तो कोई इस्लाम से सीखे। बड़ी उत्सुकता से बोलीं, 'अच्छा ! तो हम मुसलमान तो यहां बकरीद के महीने में हज करने आते हैं। यहूदी यहां कब आते हैं? '

  मौलवी साहब की पहाड़ी नदी सी कल कल करती ज़बान लड़खड़ा गयी। कुछ पल तो वे सन्नाटे में आ गये, फिर ज़रा संभलते हुए बोले, 'यहूदी यहां नहीं आते। पैग़ंबर अले सलाम ने उनका यहां आना बंद कर दिया था!'

'ये ग़ज़ब ख़ुद का क्यों?' रकीबन बी तक़रीबन चीख पड़ीं। 

'यहूदियों ने उन्हें पैग़ंबर मानने से इंकार कर दिया'

'ऐ है, तो क्या हुआ? यह तो उन्हीं की जगह है न, और अल्लाह ने काबे का पाक पत्थर भी हज़रत इब्राहीम के लिए भेजा था और उन्हीं के बेटे इस्माइल के प्यास से बिलखने और पाक पैरों के रगड़ने से रेगिस्तान का सीना चीरकर आबे ज़म ज़म का चश्मा बह निकला था जो आज तक बह रहा है। फिर उन्हें कैसे बेदख़ल कर दिया पैग़ंबर ने? ये तो बड़ी नाइंसाफ़ी की बात कर दी उन्होंने!'

रक़ीबन बी का इतना कहना था कि कोहराम मच गया। भला इतने अकीदतमंद मुसलमानों की मौजूदगी में कोई पैग़ंबर को अन्यायी कहने की जुर्रत करे! मौलवी साहब तो बस फट ही पड़े और अपना बोरिया बिस्तर लपेटकर वापस हो जाने पर आमादा हो गये। इस तरह के दहरिये (नास्तिक) काफ़िर के साथ वे हज करके क्यों ख़ुद को गुनाहगार करते?

हशमत आरा बेगम के कहने पर कि वे इतना बड़ा गुनाह कैसे कर सकते हैं कि मक्का के दरवाज़े से लौट जायें, वे रुआंसे होकर बोले कि 'गुनाहगार तो रकीबन बी हुई और वह तो क़यामत के दिन उन्ही का दामन पकड़ेंगे, जिन्होंने ऐसे हालात पैदा कर दिये कि एक नेक, पाबंद मुस्लमान हज करने से महरूम रह गया। उसके बाद रकीबन बी ने तौबा कर ली, हशमत आरा बेगम की ज़रूरतों के अलावा वह मुंह नहीं खोलेंगी। किसी तरह मौलवी साहब वहीँ बने रहने पर राज़ी हुए। 

रकीबन बी अपने वादे की ऐसी पक्की निकलीं कि अपने होंट सी लिये। जो कुछ मौलवी साहब कहते उसे ख़ामोशी से निभातीं और एक कोने में सिमट रहतीं। हां, रात के वक़्त हशमत आरा बेगम उन्हें अक्सर, करवटे बदलते,  इधर उधर टहलते, बड़बड़ाते और ठंडी आहें भरते सुनतीं 

   हज के सारे अनुष्ठान पूरे हो गये थे, बस आख़िरी शैतान को पत्थर मारना यानी संगसार करना रह गया था। मक्का के बाहर, तीन बड़े बड़े खंभे हैं जिन्हें हज करने वाले, शैतान मानकर पत्थर मारते हैं। हर दूसरे तीसरे साल पथराव करने के जोश में यहां भगदड़ मच जाती और कई लोग ज़ख़्मी होते, कुछ कुचल कर मारे भी जाते। ऐसा इस वजह से होता क्योंकि लोग खंभों के दोनों तरफ़ खड़े होकर पत्थर फेंकते।  'कम्बख़्तों के सर पर पत्थर पड़े थे क्या?' रकीबन बी ने दिल में सोचा। 'भला दोनों तरफ़ से पथराव होगा तो किसी न किसी का तो निशाना चूकेगा ही और सर फुटव्वल होगा ही।' ख़ैर, अब तो तीनों स्तंभों के बीच में दीवार खींच दी गयी है। पुलिस का सख़्त पहरा भी रहता है, गिनकर लोग पथराव करने के लिए भेजे जाते हैं और उनके लौट आने के बाद ही दूसरे भेजे जाते हैं। हर किसी के हाथ में पत्थर भी सात से ज़्यादा नहीं होने चाहिए। ये पत्थर मीणा के दक्षिण पूरब में मुज़्दालिफ़ा मैदान से जमा करने होते हैं।  

रकीबन बी के दिल में मौलवी साहब की सुनायी कहानी गश्त कर रही थी। कैसे हज़रत इब्राहिम को रास्ता दिखाते हुए फ़रिश्ते जिब्रील ने तीन बार पत्थरों के ढेर की तरफ़ इशारा करके कहा, 'इसे मारो, ये शैतान है !' उसी की याद में ये खंभे हैं जिन्हें मारना हज का हिस्सा है। 

रकीबन बी ने तड़के सवेरे जाकर अपने और बिटिया के लिए पत्त्थर जमा कर लिये थे। पथराव करने वाली क़तार में वे लग भी गयी थीं। उनके चारों तरफ़ लोग जोश में आकर शैतान को संगसार कर रहे थे और गालियां दे रहे थे। लेकिन रकीबन बी चेहरे से परेशान, दिल में सोच रही थीं, ' ऐ बेचारा दुखिया, पहले तो अल्लाह के सबसे अज़ीज़ पद से गिराया गया, फिर जन्नत से निकाला गया। उसके बाद आदम और हव्वा से दुश्मनी न करता तो क्या उन्हें गोद खिलाता? ख़ुद लालच में आकर आदम और हव्वा ने सेब खाया और इलज़ाम शैतान के सर धर दिया। अब बेचारे लावारिस के पास ज़मीन में इधर उधर डोलने के अलावा चारा ही क्या है? हर जगह से बेचारा ठुकराया जाये, न कोई ठौर न ठिकाना। ऐसे दर दर भटकने को और क्या पत्थर मारकर फटकारना? मैं ख़ुद गुनहगार, क्या इस दुखिया पर पथराव करूं? रकीबन बी ने एक एक करके सातों पत्थर ज़मीन पर गिरा दिये और आगे बढ़ गयीं।

कहते हैं क़यामत के रोज़ जब सबकी नेकियों का हिसाब होगा और जन्नत और जहन्नुम भेजे जाने का फ़ैसला किया जायेगा, तब अगर किसी की, बस एक नेकी कम पड़ रही होगी और वह सबसे भीख मांगता फिरेगा कि अपनी एक नेकी मुझे दे दो ताकि मैं जन्नत में जा सकूं, और कोई ऐसा होगा जिसके पास सारी ज़िंदगी की बस एक नेकी ही होगी, और यह शख़्स अपनी एक नेकी क़ुरबान कर देगा तो अल्लाह उसकी फ़िराक़दिली से ख़ुश होकर उसे जन्नत में जगह देगा। 

क्या अल्लाह शैतान पर किये इस एहसान को नेकी मानेगा? और गुनहगार रकीबन बी के लिए जन्नत के दरवाज़े खोलेगा?

मो. 9811772361

 

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