कहानी


लॉकडाउन
प्रहलाद चंद्र दास

‘आज सबेरे ही मैं मकान मालकिन से मिली थी। उनसे विनती की कि आंटी इस महीने के भाड़े में थोड़ी देर होगी, माफ़ कीजियेगा; तो वह मान गयी। हां, बोली, ‘ज़रूर कि अगले महीने दोनों का जोड़ कर दे देना।’ सुनीता ने ख़बर दी तो महेश का मन हल्का हो गया। अब तक घर-भाड़ा न चुका पाने के तनाव से उसे आजकल ठीक से नींद नहीं आ रही थी। मकान मालकिन के सामने आने से भी डर रहा था। दरअसल, सामान्य दिनों में हरेक महीने की दो तारीख़ को वह भाड़ा ज़रूर चुका देता था। यही उसका क़रार था। हालांकि मौखिक था। पर, ग़रीब तो अपने ईमान पर ही जीता है।  इस क़रार को वह शुरू से निभाता आया था। पर, पिछली 25 तारीख़ को ही शहर पूरा लॉकडाउन में चला गया है। उसका धंधा अचानक से ठप्प हो गया। सिर्फ़ उसी का धंधा क्यों, पूरा बाज़ार बंद हो गया है। सिर्फ़ दवा और राशन की दुकानें खुलती हैं, वह भी एक ख़ास अवधि के लिए। दवा की दुकान सुबह आठ बजे से रात के आठ बजे तक और राशन की दुकान सुबह आठ बजे से शाम चार बजे तक। बाक़ी समय में सड़कों पर एक भी आदमी नज़र नहीं आना चाहिए, यह सुनिश्चित करने के लिए पुलिस की गाड़ियां शहर में दनदनाती घूमती रहती हैं।
दो हज़ार बीस का यह साल महेश कभी भूल न सकेगा। महेश ही क्यों, इस पीढ़ी का कोई भी व्यक्ति नहीं भूल सकेगा! इस साल का नाम हो जायेगा ‘कोरोना साल’ ! सुनीता इसे ‘रोना’ साल कहती है – रोने का साल !  कोरोना – कोई-कोई इसे कोविड-19 भी कहते हैं। कोविड-19, इसलिए कि इसकी उत्पत्ति का वर्ष 2019 था। हां, फैला 2020 में। ‘सिर्फ़ फैलने का नहीं, पूरी दुनिया को श्मशान में बदल देने का साल है यह! ऐसा लगता है कि इस बार पूरी सृष्टि का नाश हो जायेगा। कम-से-कम आदमी तो नष्ट हो ही जायेंगे, क्योंकि अभी तक इसने पशु-पक्षियों को अपनी गिरफ्त़ में नहीं लिया है!’ महेश सुनीता को समझाता है। वह जब ज़रूरत की एकाध चीज़ लेने की लिए बग़ल की राशन दुकान पर जाता है, तो लोगों के मुंह से ये सारी बातें सुनता है।
‘परंतु, मालकिन कितने दिनों तक मानेगी? जैसी ख़बरें आ रही हैं, ये दुर्दिन जल्दी जाने वाले नहीं हैं। सिर्फ़ घर-भाड़े की ही बात तो नहीं है। इतने दिनों की जो जमा-पूंजी थी, धीरे-धीरे वह भी ख़त्म होती जा रही है। दो छोटे-छोटे बच्चे हैं। ऊपर से सुनीता की बीमार मां भी आकर रुक गयी है। रुक क्या गयी है, लॉकडाउन ने रोक दिया है। उसका खाना-पीना, उसकी दवा-दारू …’ महेश के पसीना चू गया। कंधे के गमछे से उसने अपना पसीना पोंछा और उठ कर बैठ गया।
‘चाय पियोगे?’ सुनीता की आवाज़ सुन कर, जैसे वह नींद से जागा।
‘हां, … बनाओ! पर चीनी है?’ 
‘लो, कर लो बात! तुम तो कहते हो कि मेरे छू देने से चाय मीठी हो जाती है !’ कहती हुई सुनीता महेश की ओर देख कर हंस दी। इस उदासीन माहौल में भी महेश मुस्कुराये बिना नहीं रह सका!
सुनीता का यही स्वभाव है - थोड़े में संतुष्ट और सुखी! हंसी उसके होठों पर बिखर पड़ने के लिए मचलती रहती है, जैसे! हंसने से उसकी सुंदरता भी बढ़ जाती है। इसी हंसी ने महेश को भी क़ैद किया था। अपने हल्के-फुल्के क्षणों में महेश क़बूल करता है।
सुनीता के पिता की मृत्यु उसके बचपन में हो गयी थी। उसकी मां ने अपने दो बेटों और इस बेटी को इधर-उधर मज़दूरी कर के पाला-पोसा था। सुनीता के लिए यह लड़का बड़ी मुश्किल से मिला था। शादी के समय उसके दूर के रिश्ते के चाचाओं ने अवश्य मदद कर दी थी। वे अभिभावक बन कर खड़े हुए थे और शादी करायी थी। एक ग़रीब लड़की के लिए यह बहुत बड़ी नेमत थी, क्योंकि उसे एक ‘कमाऊ’ लड़का मिला था। महेश उस समय टाटा नगर में किसी निजी कारख़ाने में कार्यरत था और उसे छः हज़ार रुपये प्रति माह की पगार मिलती थी। 2008 में इतनी रक़म काफी होती थी। लेकिन, शादी के बाद जब वह कारख़ाने में दुबारा गया तो वहां की स्थिति बदल चुकी थी। वह कारख़ाना बंद हो चुका था। उस समय देश में कल-कारख़ाने यों ही बंद होने के क्रम में थे। वह ‘बेकार’ होकर लौटा था। सुनीता उदास हो गयी थी। ‘कमाऊ’ पति पाकर कहां वह इतरा रही थी, अचानक से वह पति ‘बेकार’ हो गया था। बोली, ‘मेरा दुर्भाग्य!’ पर, महेश ने उसे ढाढ़स बंधाया। उसे लाड़ करते हुए बोला, ‘तुम चिंता मत करो। मैं तुम्हें तकलीफ़ होने नहीं दूंगा। मज़दूर का भाग्य ललाट नहीं, उसके हाथ होते हैं!’ फिर, उसे अपनी बांहों में कस लिया था।
उसके बाद, महेश कभी धनबाद तो कभी बोकारो में जाकर कुछ-कुछ छोटे-मोटे काम करने लगा। लेकिन मामला जम नहीं रहा था। एक बार तो उसने अपने गांव के लड़कों के साथ गुजरात निकल जाने का प्लान भी बनाया पर, सुनीता और घर से दूर हो जाने के भय ने उसके क़दम बांध लिये।
उसी समय उसके घर उसके वे संबंधी आये, जिन्होंने उसे गांव छोड़ने का सुझाव दिया। बोले ‘सुरेश, काम-धंधे की बात करते हो तो शहर जाओ और अपना कुछ धंधा करो। और, मैंने देखा है कि खाने-पीने की चीज़ का धंधा अच्छा होता है। उसमें नगद बिक्री होती है और हाथ में सब समय पैसे रहते हैं। किंतु जात–पांत की वजह से गांव में तो तुम्हारा वह धंधा चलेगा नहीं। इसलिए तुम्हें गांव-घर छोड़ना पड़ेगा। मेरे गांव के एक लड़के ने बोकारो शहर में ‘मोमो’ की दुकान की है। अभी वह अच्छे पैसे कमा रहा है।’
‘मोमो की दुकान ?’
‘हां, मोमो चीनी आइटम है। पर, हमारे देश में अभी ख़ूब चल रहा है। इसे अच्छे-अच्छे लोग खाना पसंद करते हैं। ख़ूब बिक्री होती है। तुम रात भर सोच कर देखो। सबेरे अगर ‘हां’ कहोगे तो मैं अपने गांव के उस लड़के का पता दे दूंगा। तुम जाओ। उसके यहां कुछ दिन ‘फ्री’ काम करो। वह तुम्हें रहने की जगह भी देगा। काम सीख जाओगे मने, मोमो बनाने का काम, तो तुम वहीं कहीं अपना धंधा शुरू कर देना! तुम जब कहोगे, मैं उसके लिए पूंजी भी तुम्हें दे दूंगा।’
रात में उसने सुनीता के साथ विचार-विमर्श किया। सुनीता उसे परेशान-हाल देख ही रही थी। उसे नैहर से तो कोई उम्मीद न थी। शादी के बाद से ही रिश्तेदार ऐसे ग़ायब हुए थे जैसे गधे के सिर पर से सींग! वे दुबारा हाल-चाल पूछने तक नहीं आये थे।
‘कुछ दिन तुम्हें अकेली रहना पड़ेगा।’ महेश बोल उठा था।
‘रह लूंगी। तुम कुछ ‘लायक़’ बन कर आओ, मैं इंतज़ार कर लूंगी।’ सुनीता ने कहा था।
सबेरे महेश ने संबंधी को अपनी राय बता दी थी, और उसी दिन निकल पड़ा था, बोकारो शहर के लिए!                 
अभी महेश की मोमो दुकान बोकारो की प्रसिद्ध मोमो दुकान है। रोज़ सुबह वह सालन के लिए निकल जाता है। सालन तो ख़ैर, एक दिन लाने से दो-तीन दिन का काम चल जाता है, लेकिन कीमा तो एक़दम फ्रेश चाहिए होता है। हां, वह दो तरह के मोमो बनाता है – वेज और नॉन-वेज। वेज के लिए सालन और नॉन-वेज के लिए कीमा। तब तक सुनीता इधर मैदा, मसाला आदि सब तैयार कर के रखती है। महेश लौट कर आता है तो दिनों मिल कर मोमो बनाना शुरू कर देते हैं। यह सब करते हुए दोपहर हो जाती है। तब थोड़ी देर के लिए महेश आराम फरमा लेता है। फिर, चार बजते-बजते सारी चीज़ साइकिल में सजा कर अपने ठीये पर निकल जाता है। पांच बजते-बजते दुकानदारी शुरू हो जाती है। दुकान के सामने एक बैनर टांग देता है – मुनुर मोमो! ‘मुनुर’ सुनीता का बचपन का नाम है, कोई जानता है, कोई नहीं जानता। हाल के दिनों में तो वह ज़ोमैटो से भी जुड़ गया था और हर दिन 12-15 प्लेट मोमो के ज़ोमैटो से बुक होते थे। रात के नौ बजते-बजते हज़ार-बारह सौ की बिक्री हो जाती थी। लागत काट कर भी पांच-छः सौ की  शुद्ध बचत हो जाती थी। घर की गाड़ी अच्छे ढंग से चलने लगी थी।
घर क्या, यहां के क्वार्टर का एक आउट-हाउस था। जिसे वह मकान मालिक कहता है वे बीएसएल के एक बड़े अधिकारी हैं। उनके क्वार्टर में नौकर-चाकरों के रहने के लिए आउट-हाउस बने हुए हैं। इस आउट-हाउस को अधिकारी ज़रूरतमंदों को भाड़े पर दे देते हैं। यह आमदनी ‘मेम साहबों’ के बटुवे में जाती है। तब, इधर दोनों जने यह भी सोचने लगे थे कि कुछ दिनों में और पैसे जमा हो जायें तो यहीं ख़ाली पड़ी किसी ज़मीन में ख़ुद की एक झोपड़ी ‘टान’ लेंगे जैसा, यहां उसके जैसे अनेक लोगों ने किया हुआ है। अब तक उसने अपने बेटे को मकान मालिक ‘साहब’ की सिफ़ारिश पर एक अच्छे स्कूल में दाख़िला दिला दिया था। सुनीता ने अपनी बेटी के लिए झुन-झुन बजने वाली चांदी की पायल और नाक के लिए सोने की एक नथ बनवा दी थी।
ठीक इसी समय आ गया यह सर्वनाशी कोरोना ! भाड़े वाली मेम साहब बताती हैं, ‘इस बीमारी को चीन देश ने बनाया है और अन्य देशों को तबाह करने के लिए उनके यहां छोड़ दिया है। रोग नहीं, इसे वे ‘वायरस’ कहती हैं। पूरी दुनिया में इसकी कोई दवाई नहीं बनी है। अभी सारे देश इसकी दवाई बनाने में जुटे हैं।’ 
एक दिन दुकान से लौटने के बाद महेश ने समझाया, ‘यह छुआछूत की बीमारी है। जो बीमार हुआ है, उससे छू जाने से यह बीमारी हो जाती है। फिर जो-जो आदमी उससे छुआता है, सब में यह चली जाती है! पहले सर्दी-खांसी होती है, फिर बुख़ार आता है, सांस लेने में दिक्क़त होने लगती है और अंत में सांस नली ही जाम हो जाती है और आदमी, बस्स’ …।’ महेश ने अपनी जीभ बाहर निकाल कर मरने का स्वांग किया  था। सुनीता बिगड़ उठी थी – ‘मरें हमारे दुश्मन!’ महेश हंस दिया था। बोला था, ‘मरने से बचना है तो बाहर मत निकलो। निकलना ही पड़े तो हरेक आदमी से कम- से- कम, तीन फ़ीट की दूरी बना कर चलो। इसका नाम दिया गया है – सोशल डिस्टेन्सिंग, सामाजिक दूरी! बाहर निकलो तो मुंह को रूमाल या मास्क से ढंक कर रखो!’ उस दिन वह सब के लिए मास्क भी ख़रीद कर लेता आया था।
‘लो, छुआछूत की बीमारी यहां भी आ गयी, जिसके डर से गांव घर छोड़ कर भागे! वह भी जान मारती है, यह भी। दोनों अपने-अपने ढंग से! बच्चू, इस देश में इससे छूट मिलने वाली नहीं है! सामाजिक दूरी की तो अपनी आदत बनी हुई है।’ सुनीता बोल कर हंस दी थी। महेश चुप हो गया था। ‘उस’ छुआछूत पर बात करने का अभी समय नहीं था।
उधर कोरोना और उसकी ख़बर जंगल की आग की तरह पूरे विश्व में फैलने लगी थी। विकसित, अविकसित सारे देश इसकी चपेट में आने लगे थे। चीन के वुहान शहर से तो इसकी शुरुआत ही हुई थी, देखते-देखते फ्रांस, इटली, स्पेन, अमेरिका… सब जगह यह मंडराने लगा था। अमेरिका ने इसे पहले तो सर्दी-जुकाम जैसी कोई छोटी-मोटी बीमारी समझ रखा था और इससे सावधान रहने की चेतावनियों को नज़र-अंदाज़ करता रहा। पर, अब वह भी डरा हुआ लगने लगा था। अपने देश में भी उसी ‘नज़र-अंदाज़ी’ के तहत ‘नमस्ते ट्रम्प नामक’ एक बड़ा आयोजन अहमदाबाद में हुआ जिसमें क़रीब तीस लाख लोगों के भाग लेने की बात सामने आयी। इसी समय एक इस्लामिक सेक्ट ‘तबलीगी जमात’ का एक बड़ा आयोजन दिल्ली में हुआ जिसमें उन देशों के लोगों ने भाग लिया था, जहां कोरोना फैला हुआ था। इस आयोजन में शामिल हुए लोग जहां-जहां गये, अपने साथ यह ‘वायरस’ लेते गये। कारण जो भी रहा हो, पहले यह वायरस धीरे-धीरे, फिर द्रुत और द्रुततर गति से पूरे देश में फैलने लगा। इसके आरंभिक लक्षण बहुत साधारण थे- सर्दी, जुकाम और बुख़ार। पर, तुरत ही सांस नली संक्रमित हो जाती, व्यक्ति सांस नहीं ले पाता और चंद घंटों में उसकी मौत हो जाती। प्रचलित दवाएं काम नहीं कर रही थीं और नयी दवा इतनी आसानी से खोजी भी नहीं जा सकती थी। बड़े पैमाने पर लोग संक्रमित हो रहे थे। यहां तक कि मरीज़ों के उपचार में लगे नर्स और डॉक्टर भी संक्रमित होने लगे थे। इनका मनोबल बढ़ाने के लिए इन्हें ‘कोरोना वारियर्स’ अर्थात कोरोना से लड़ने वाले योद्धा के रूप में अभिहित किया गया। स्वास्थ्य विभाग ने संक्रमण से बचने के उपाय बताये - कहा, ‘ लोगों से दूरी बनाये रखें, बार-बार अपने हाथ धोयें, बेवजह घरों से न निकलें। लोगों से दूरी बनाये रखें’। झारखंड में संक्रमण देर से फैला। दिल्ली के जमात के आयोजन में भाग लेकर कुछ लोग वापस रांची लौटे थे। राज्य का पहला केस वहीं से मिला। कुछ लोगों ने शोर मचाया। कहा, ‘एक ख़ास समुदाय के लोग कोरोना फैला रहे हैं।’ फिर एक दिन प्रधान मंत्री ने देश के नाम एक संबोधन के पश्चात् अचानक से एक दिन का जनता कर्फ्यू का ऐलान किया। कहा, दिन भर घरों के अंदर रहें, शाम पांच बजे अपनी-अपनी खिड़की और बालकनी पर खड़े होकर ताली बजा कर कोरोना योद्धाओं के प्रति अपनी एकजुटता दिखावें।’ लेकिन, अपना देश तो अपना देश! यहां कुछ लोगों ने सोचा, शायद आवाज़ से कोरोना भाग जाता हो! इसलिए उस दिन पांच बजे लोगों ने सिर्फ़ ताली और थाली ही नहीं बजायी, पटाखे भी फोड़े। ऐसा करते हुए वे सड़कों पर निकल लिये। ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ की धज्जियां उड़ गयीं! पर, 23 मार्च को झारखंड के मुख्यमंत्री ने पूरे राज्य में सात दिनों का ‘लॉक डाउन’ घोषित कर दिया। लोग इस ‘लॉकडाउन’ को समझ पाने की कोशिश कर ही रहे थे कि 24 मार्च को प्रधान मंत्री ने 14 अप्रैल अर्थात 21 दिनों तक का देशव्यापी लॉकडाउन घोषित कर दिया! कहा, ‘घर की दहलीज़ को लक्ष्मण रेखा मानें, उसे न लांघें! महाभारत का युद्ध 18 दिनों में जीता गया था। हम कोरोना युद्ध 21 दिनों में जीत लेंगे।’          
जो जहां था, वहीं रुक गया। वाहन चलने बंद हो गये। हाट-बाज़ार सब बंद, जीवन-यापन के लिए आवश्यक सामग्रियों की दूकानों को छोड़ कर!
अब क्या करे महेश ?
फिर भी, पहले दिन उसने हिम्मत बटोरी और कुछ मोमो लेकर अपने ठिये पर चला गया था। लेकिन, ख़रीदार कहां थे? पूरा बाज़ार सूना पड़ा था। थोड़ी देर में पुलिस गाड़ी आ गयी। पुलिस ने उसे डंडे जमाये और वहां से भगा दिया। बस, सारी उछल-कूद शांत !
दो-तीन दिन बीते तो महेश की चिंता गहराने लगी। स्वयं पति-पत्नी और दो बच्चे, कुल चार जन और एक सास बूढ़ी। सास बूढ़ी अर्थात सुनीता की मां, तारा देवी, जो लॉकडाउन के पहले यहां आ गयी थी। तो कुल पांच जन हुए। उसके पास जितने पैसे हैं और जो राशन उसके पास उपलब्ध है, उससे क्या तीन सप्ताह का ख़र्चा निकल जायेगा? चूँकि, रोज़ की आमदनी थी, रोज़ का ख़र्चा था। कुछ संग्रह करने की ज़रूरत ही कभी नहीं समझी। सरकार ने कहा है, मुफ़ का राशन मिलेगा। पर, कहां? उसका तो राशन कार्ड ही नहीं था। एक बार कहा गया कि बिना कार्ड के भी राशन मिलेगा। पर, जहां मिलता होगा, मिलता होगा। वह तो दो बार लौट आया!
तारा देवी की भी अपनी रामकहानी है! उसके दोनों बेटे रांची शहर में मज़दूरी करते हैं। पांच-छ: हज़ार रुपये कमाते हैं। भाड़े के घर में रहते हैं, दोनों अगल-बग़ल। तारा देवी अब तक वहीं थी, बेटों के पास। वे उसे बारी-बारी से खिला-पिला रहे थे। उनके ठेकेदारों के टेंडरों की मियाद ख़त्म हो चुकी थी और वे नये टेंडर खुलने का इंतज़ार कर रहे थे तभी इनका भी काम चालू होता। पर, तभी लॉकडाउन हो गया। न टेंडर खुला न उनका काम! सारी गतिविधियां बंद हो गयीं। उन्होंने मां को गांव पहुंचा दिया। वहां उसकी तबियत बिगड़ी तो सुनीता की ज़िद पर महेश जाकर ले आया। तारा देवी ख़ुश कि अब कुछ दिन बेटी के पास रह लेगी। दामाद की दूकान की बरकत तो अच्छी है! पर, तब तक यह हाल हो गया! अभी पूरा शहर रुका हुआ था। किसी तेज़  चलती गाड़ी में जैसे अचानक से ब्रेक लग गये और वह चीखती हुई रुक गयी हो! यहां सिटी सेंटर में शाम को कितने रेहड़ी वालों की दुकानें सजती थीं जो प्रतिदिन रात को दूकान समेटते तक दो-तीन हज़ार तक की कमाई कर लेते थे! बड़ी-बड़ी दूकानों और शो-रूम में काम करने वाले सेल्समैन, सेल्सगर्ल; होटल और रेस्त्रां में काम करने वाले कुक और अन्य कर्मचारी; अगल-बग्ल के गांव और झोपड़ियों से यहां विभिन्न मोड़ पर मज़दूरी की तलाश में आ जुटने वाले मज़दूर, जिन्हें हफ्त़े में एक-दो दिन काम मिल ही जाते थे; नाई, धोबी, बढ़ई, मोची, गली-गली आवाज़ देकर अपने समान बेचकर गुज़ारा करने वाले फेरी वाले … कहां तक गिनाऊं ? सब बेकार हो गये थे – यह सब सोचते हुए महेश घबराने लगता है। यह तो एक शहर की बात थी। पूरे देश में तो जाने कितने शहर और कितने लोग बेकार हो गये होंगे! टीवी में ख़बर आने लगी कि बड़े शहरों में कमाने के लिए गये मज़दूरों को मकान मालिक घरों से निकाल रहे थे, क्योंकि वे भाड़ा नहीं दे पा रहे थे। उनके खाने के लाले पड़ने लगे थे, भाड़ा कहां से देते? वे पैदल अपने घरों के लिए निकल पड़े थे। मोबाइल में फ़ोटो देखती हुई सुनीता ने पूछा, ‘इतनी दूर से पैदल चल कर ये घर पहुंच पायेंगे? वह भी इतने असबाब के साथ? किसी के माथे पर संदूक है तो किसी के गठरी। किसी की गोद में बच्चा है तो किसी के बच्चा होनेवाला है!’ सात-आठ साल के बच्चे मां-बाप के साथ क़दम से क़दम मिला कर चलने की कोशिश कर रहे थे!
महेश क्या जवाब देता? उसके निज के हलक सूख रहे थे। कम तो नहीं। फ़िलहाल तो 21 दिन कहा है। ख़बर है कि यह लॉकडाउन बढ़ेगा! ‘घर में कितने पैसे बचे हैं?’ उसने धीरे से पूछा।
‘थोड़े ही होंगे। गिन कर बता दूंगी!’ कह कर सुनीता चुप हो गयी।
उसे भी कुछ अनुमान था। उसने आगे कुछ नहीं पूछा।
तारा देवी प्रतिदिन खाने की थाली देख कर अनुमान करने लगी थी कि बेटी-दामाद की हालत गड़बड़ा रही है। उसदिन वह नींद से जगी तो सुना, सुनीता अपने बड़े भाई से फ़ोन पर बात कर रही थी ‘दादा, हमलोगों की हालत ठीक नहीं है। खाने-पीने की बहुत किल्लत हो रही है। ‘ये’ अब मां को लेकर मुझे ताने देने लगे हैं। मां को तुम लोग अपने पास ले जाओ!’ मोबाइल का स्पीकर ऑन था। दोनों तरफ की आवाज़ सुनायी पड़ रही थी। उधर से आवाज़ आसी, ‘हम लोगों का भी वही हाल है, कमाई का कोई जुगाड़ नहीं है। पैसे ख़त्म हो गये हैं। भर पेट मांड़-भात भी नसीब नहीं है। सिर्फ़ बच्चों को दोनों बेला खिलाते हैं। बड़े लोग सिर्फ़ शाम को भर पेट खाते हैं …। किसी तरह यह समय पार होने दो। फिर, मां को ले आते हैं!’
तारा देवी और सुन न सकी। वह कान-मुंह ढंक कर पलट गयी, जैसे पुरज़ोर नींद में हो!
अगले दिन महेश के घर से एक फ़ोन आया, किसी संबंधी के मरने की ख़बर लेकर! उसके सीने में दर्द हुआ था। परिवार वालों को उसे अस्पताल ले जाने का लिए कोई गाड़ी नहीं मिली और उसकी मौत हो गयी! नज़दीकी था। गाड़ी चलती तो वह शोक में शामिल होने चला जाता। दुःख हुआ। लेकिन, अधिक दुःख हुआ यह जान कर कि गांव का कोई व्यक्ति उसकी लाश को लेकर श्मशान जाने के लिए नहीं निकला! अंत में, उसके दो बेटे और दो भतीजे उसे लेकर श्मशान गये! इंसानियत खा रहा था लॉकडाउन!
महेश ने तारा देवी की ओर नज़र उठा कर देखा। वह निश्चिंत सो रही थी। अचानक एक ख़याल उसके मन में आया, इनकी तबियत तो पहले से ख़राब चल रही है। कहते हैं, बीमार और बूढ़ों को यह वायरस जल्दी चपेट में लेता है। अगर इन्हें यहां पर कुछ हो गया तो वह क्या करेगा? उसके हाथ-पांव फूल गये! उसी समय मकान-मालिक साहब की आवाज़ सुनायी दी – ‘महेश, घर पर हो क्या?’
‘यह साहब क्यों पुकारने लगे आज? मेम साहब ने कहीं भाड़े वाली बात बता दी और ये घर ख़ाली करने के लिए तो नहीं कहने लगे?’ डरा हुआ मन जो न सोचे! महेश दरवाज़ा खोल कर बाहर निकला।
लेकिन बाहर अच्छी ख़बर थी।
‘हम लोग कुछ साथी मिल कर बग़ल के क्लब में लॉकडाउन से प्रभावित लोगों के लिए नि:शुल्क भोजन वितरण कर रहे हैं। लॉकडाउन अभी और बढ़ने के आसार हैं। पैसे-वैसे हैं तो बचा कर रखना। खाना में ख़र्चा मत करना! पूरा परिवार खाने के समय वहां चले जाना।’ कहने के बाद उन्होंने भोजन वितरण का समय भी बता दिया।
‘साहब नेक दिल इंसान है। मेम साहब ने तो पहले ही घर भाड़ा माफ़ कर दिया था। अब साहब ने खाने-पीने की भी व्यवस्था कर दी!’
‘यह हालत हो गयी हमारी? यह कोरोना क्या भिखारी बना कर ही छोड़ेगा?’ साहब के जाने बाद सुनीता ने अपना उद्गार व्यक्त किया। महेश चुप ही रहा। किसी दिन दुर्भाग्य की बात करने पर उसने सुनीता को जो ढाढ़स बंधाया था कि मज़दूर के हाथ ही उसके भाग्य होते हैं, वह उसे अनायास याद आ गया। अपने हाथों से क्या करे वह? किसने इन हाथों को बांध दिया है? उसने ग़ौर किया है, इधर सुनीता के मुंह की हंसी लुप्त हो गयी है। उदास रहने लगी है। सुनीता बोली, ‘हम लोग तो चले जायेंगे पर, मां क्लब घर तक कैसे जायेगी? वह तो चल ही नही सकेगी, इतनी दूर!’ फिर जवाब भी उसी ने दिया। बोली, ‘अभी वहां जाने की ज़रूरत नहीं है। अभी हमारे गहने तो हैं। कुछ हमने बनवाये, कुछ शादी में भी मिले थे। इन्हें बेच दो!’
‘पागल हुई हो? कौन सा महाजन तुम्हारे गहने ख़रीदने के लिए दुकान खोल कर बैठा है?’
‘फिर तो बच्चों के गुल्लक फोड़ने होंगे। पता नहीं, कितने पैसे हों?’ सुनीता ने उदास मन से कहा।
उस रात तारा देवी को बुख़ार आ गया। एकाध बार खांसी भी हुई। कहते हैं न, कि विपत्ति अकेली नहीं आती  है! महेश डर गया। उसने कोरोना के जो लक्षण सुन रखे थे, सारे उससे मिलते-जुलते लग रहे थे। उसने अपना सर ठोंक लिया। संकट के समय दिमाग़ भी ठीक से काम नहीं करता है। उसने सुनीता की ओर देखा, सुनीता ने उसकी ओर! दोनों की आंखों में डर तैर रहा था। रात भर दोनों का ध्यान तारा देवी की खांसी की ओर बंटा रहा। बच्चे दोनों नानी के साथ सो रहे थे। सुनीता ने धीरे से उठा कर दोनों को अपने साथ सुला लिया। फिर उसे कब नींद आ गयी, पता ही नहीं चला।
सुबह जगी तो मां बिस्तर पर नहीं थी। ‘शायद बाथरूम गयी हो!’ सोच कर वहीं बैठ गयी। बहुत देर के बाद भी जब नहीं आयी तो वह बाथरूम की तरफ़ चली गयी। बाथरूम खुला था और वहां कोई नहीं था! ‘मां कहीं चली गयी!’ सुनीता ने महेश को झकझोर कर जगाया। 
‘अयं, क्या बोली?’
‘बोली, कि मां घर में नहीं है। कहीं चली गयी!’ बोलती हुई सुनीता झपट कर बाहर निकली और इधर-उधर देखने लगी। उसके घर से एक सड़क पूरब की ओर और एक दक्षिण की ओर जाती थी। पहले वह पूरब की ओर गयी। फिर दक्षिण की ओर भागी। मां का कहीं अता-पता नहीं था। वह बैठ कर रोने लगी।’
‘रो मत, चलो खोजते हैं!’
बच्चे जग गये थे। उन्हें समझा-बुझा कर वे दोनों निकल पड़े। बड़ी सड़क पर आये तो गाड़ी की बात छोड़िए, एक साइकिल वाला भी नहीं दिख रहा था। मां किस रास्ते से और किधर जा सकती है? दोनों ने अनुमान कर उस रास्ते को चुना जिससे वह पहले उसके घर आती जाती रही थी। वे पहले बड़ी चौक पर गये, इधर-उधर देखा। फिर नया मोड़ की ओर चल पड़े। नया मोड़ पहुंचते पहुंचते उनके पैर दुखने लगे। सुनीता एक पेड़ के नीचे बैठ गयी।
तभी साइरन बजाती हुई एक पुलिस की गाड़ी उनके पास आकर रुक गयी। एक पुलिसवाले ने डपट कर कहा, ‘पता नहीं है, घर से निकलना मना है! क्यों निकला है अभी घर से?’
‘हुजूर, मेरी बूढ़ी मां सबेरे उठ कर कहीं चली गयी है। हम उसी की खोज में निकले हैं।’ सुनीता ने हाथ जोड़ कर पुलिस वाले को बताया।
‘अभी-अभी हम लोग एक बुढ़िया को ‘चास’ नाम के क़स्बे के कोरोंटाइन सेंटर में छोड़ कर आये हैं।’
‘कैसी थी बुढ़िया, साहब?’ महेश ने पूछा तो पुलिसवाले ने जो हुलिया बताया उससे वे समझ गये कि वह  सुनीता की मां ही थी।
‘वही थी साहब!’ महेश बोला।
‘तब, अब निश्चिंत हो कर घर जाओ। गाड़ी चढ़ने के पहले वह पूछ रही थी, ‘वहां खाना-पीना मिलेगा न साहब?’ तो हमने उसे सब समझा दिया। पहले डॉक्टर उसका चेक करेंगे, सब कुछ ठीक मिलेगा तो चौदह  दिनों के बाद उसकी छुट्टी हो जायेगी। तुम लोग चौदह दिन बाद चास के सेंटर में आ जाना।’
‘अभी जाने से भेंट करने देंगे, हुजूर ?’ सुनीता ने दयनीय भाव से पुलिसवाले से पूछा। पुलिस वाला बिगड़ उठा। कड़क कर बोला, ‘एक़दम नहीं! जाओगे तो तुम लोगों को भी सेंटर में डाल देंगे!’
वह सकपका कर पीछे हट गयी। 
पुलिस की गाड़ी साइरन बजाती हुई आगे बढ़ गयी।
वे वापस लौट पड़े। लौटते वक्त़ उनके पैर मन-मन भर के हो रहे थे।
‘सुनीता’ महेश ने एक चढ़ाई पर सुनीता को सहारे के लिए अपना हाथ बढ़ते हुए कहा, ‘इतनी-सी दूरी में हमारी हालत पस्त हो रही है। ज़रा उनके बारे में सोचो जो सैकड़ों-हज़ारों किलोमीटर पैदल चलने के लिए निकल पड़े हैं!’
‘मैं तो उन्हें यहीं से प्रणाम करती हूं।’ कहती हुई उसने प्रणाम की मुद्रा में हाथ जोड़ कर अपने ललाट से सटा लिया।
थक कर चूर दोनों जब वापस घर पहुंचे तो मकान-मालिक साहब बाहर ही मिल गये। ‘पता है, लॉकडाउन फिर पंद्रह दिन के लिए बढ़ गया है?’ उन्होंने महेश को पुकार का कहा।
‘और पंद्रह दिन?’ वह साहब के मुंह की ओर ताकता रह गया। फिर पूछा, ‘कितने दिनों तक चलेगा यह, साहब?’
‘दिन मत गिनो। देखते जाओ!’
‘पर, कहा तो गया था कि महाभारत की जंग अठारह दिन में जीती गयी थी, हम कोरोना को 21 दिन में  जीत लेंगे! अभी आप बोल रहे हैं, कि दिन मत गिनो, देखते जाओ ! देखने के लिए अब रह क्या गया है, साहब ? दिन ही गिनने हैं अब तो!’ महेश ने सर उठाया तो साहब वहां नहीं थे। वह अपने घर में घुस गया।
उस दिन से दोपहर का खाना वे क्लब-घर में खाने लगे।
साहब आजकल एक दिन छोड़ कर एक दिन प्लांट जाते हैं। भीड़ कम करके ‘सोसल डिसटेंसिंग’ बनाये रखने के लिए ऐसा किया गया है, साहब बताते हैं। प्लांट में अभी सिर्फ़ जरूरी इकाइयों को चलाया जा रहा है। इसलिए उत्पादन भी कम हो गया है। इतने दिन इस शहर में रहते-रहते महेश भी इनका मतलब समझने लगा है। साहब और भी बहुत कुछ बताते हैं। वे बताते हैं कि कोरोना का जितना हौआ खड़ा किया गया है, उतना खौफ़नाक यह है नहीं। इससे अधिक मौतें तो प्रतिवर्ष टीबी, फ्लू , मलेरिया और टाइफ़ाइड आदि बीमारियों से होती हैं। अभी भी दूसरी बीमारियों से हुई मौतों को कोरोना से हुई मौत के तौर पर दिखाया जा रहा है, ताकि इसका खौफ़ बढ़े और दवाई कंपनियों की बिक्री बढ़े। इस खौफ़ की आड़ में सरकारों को लॉकडाउन लागू करने का मौक़ा मिले। अभी लॉकडाउन का उपयोग सरकार अपने एजेंडे को लागू करने में कर रही है। मज़दूरों के क़ानून बदले जा रहे हैं। काम के घंटे आठ घंटे से बढ़ा कर बारह-चौदह घंटे किये जा रहे हैं। महेश को सारी बातें समझ में नहीं आतीं पर, साहब पढ़े-लिखे आदमी हैं, कहते हैं तो ठीक ही कहते होंगें। एक बात जो उसकी समझ में अच्छे से आ गयी वह यह कि लॉकडाउन के सर्वाधिक पीड़ित ग़रीब मज़दूर हुए हैं जो पलायन को मजबूर हो गये हैं। ये प्रायः निचली जातियों के लोग हैं जो गांव से जातिगत उत्पीड़न से राहत पाने के लिए शहर को भागे थे। यहां पर महेश  को अपनी कहानी भी याद आ जाती है। अगर उसके गांव में जात-पांत और छुआछूत नहीं होती तो मोमो की यह दुकान वह वहीं लगा सकता था! एक दिन उन्होंने बताया कि अभी अस्पताल और गाड़ियों के बंद होने से भी काफ़ी मौतें हो रही हैं। उसने अख़बार में भी पढ़ा कि रांची में एक गर्भवती महिला की मौत इसलिए हो गयी कि उसकी गाड़ी को पुलिस ने लॉकडाउन के चलते आगे जाने ही नहीं दिया। एक दिन रेलवे ट्रैक पर पैदल चल कर थके-हारे मज़दूर सो गये तो ट्रेन से कट कर सोलह व्यक्ति मर गये। कुछ मज़दूरों को ट्रकों ने कुचल दिया तो कुछ को तेज़  चलती कारों ने। इसलिए उसे साहब की बातों पर भरोसा करने का मन करता है। उसके गांव में ही जो पिछले दिनों उसके संबंधी की मौत हुई, अस्पताल ले जाने के लिए गाड़ी मिलती तो शायद वह भी बच जाता!        
लॉकडाउन के जब 32 दिन बीते तो महेश की हिम्मत जवाब दे गयी। दोपहर का खाना अब वे नियमित क्लब घर जा कर खाने लगे थे। लेकिन, सुबह बच्चों के लिए, कम-से-कम, नाश्ते का इंतज़ाम करना पड़ता था। बीच-बीच में बच्चे बिस्कुट आदि की भी ज़िद करने लगते थे। कई बार तो छोटी बेटी बेतहाशा रोने लगती थी। सुनीता ने गुल्लक कब का फोड़ दिया था। वे पैसे भी अब ख़त्म हो चुके थे। तीन बार वह अपने ठिये पर के फल वाले से पैसे उधार मांग कर लाया। लेकिन, उसकी ख़ुद की बिक्री नहीं के बराबर हो रही थी। फिर, महेश के पैसे वापस कर देने की सूरत भी वह नहीं देख रहा था। अंततः उसने उधार देने से मना कर दिया। उसे अब कोई अन्य उधार देने वाला भी नहीं सूझ रहा था। सुनीता ने कई घरों में घरेलू काम के लिए पूछा। पर, सबों ने मना कर दिया। अभी तो अपने नियमित काम करने वाली औरतों को भी लोगों ने कोरोना फैलने के डर से घर आने से मना कर दिया था।           
महेश ने कहा, ‘लॉकडाउन तो अंधेरी सुरंग की तरह लग रहा है सुनीता, जिसके दूसरे छोर का कुछ  अता-पता नहीं है। आमदनी की कोई सूरत नज़र नहीं आ रही है। क्या किया जाये?’
‘घर ही चला जाये!’ सुनीता ने कहा, जैसे उसने बहुत पहले से सोच रखा था।
‘सोच तो मैं भी यही रहा था। पर, यह भी सोच रहा था कि वहां कमाई कहां से होगी? इधर कुआं है, तो उधर खाई! सिर्फ़ एक छप्पर भर तो है वहां!’
‘एक छप्पर ही सही। यहां तो उस छप्पर के लिए भी रुपये गिनने पड़ रहे हैं! फिर, गांव-गोतिये के लोग हैं, कम-से-कम बच्चों को भूखे मरने नहीं देंगे।’
‘तो चलो, कल सुबह निकल चलते हैं।’ 
‘चल लेंगे इतनी दूर?
‘चलना पड़ेगा! बच्चे और सामान साइकिल में ले कर ठेल कर चलेंगे। तुमने तो देखा है, लोग हज़ारों किलोमीटर पैदल चलने के लिए तैयार होकर निकल पड़े हैं! हां, तुम याद कर मेम साहब को बोल देना कि हमलोग लॉकडाउन खुलने के बाद आयेंगे तो कमा कर आपका भाड़ा चुकता कर देंगे।’    
सुनीता उदास मन कपड़े-लत्ते समेटने में लग गयी। उसके मुंह की हंसी तो जाने कब ग़ायब हो गयी थी! 
मो0 9431743074  
               
                                      







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