संपादकीय

 पुस्तक चर्चा अंक-2 आपके सामने है। इसमें लगभग 55 पुस्तकों की चर्चा विभिन्न रचनाकारों और समीक्षकों ने की है। कोशिश यही रही है कि पिछले तीन चारवर्षों में प्रकाशित पुस्तकों के माध्यम से हिंदी के रचना संसार के परिप्रेक्ष्य को समझा जा सके। पुस्तक चर्चा अंक-1 में 63 पुस्तकों की चर्चा हो चुकी है। कुछ पुस्तकों पर, वायदे के बावजूद लेख उपलब्ध नहीं हो सके। महामारी भी अनेक बाधाओं में से एक प्रमुख कारण रही । अंक-1 को आशातीत प्रशंसा मिली। सभh का आभार।

       पुस्तक चर्चा अंक-1 के समय ही तीनों काले कृषि क़ानूनों की वापसी का आंदोलन शुरू हो चुका था। पर तब यह आंदोलन किसान अपने अपने राज्यों में कर रहे थे। उस अंक में भी हमने मोदी सरकार की बदनीयती और हठधर्मिता का ज़िक्र किया था। तीन चार महीनों तक लगातार किसान अपने राज्यों से ही केंद्र सरकार को अपनी मांगों की आवाज़ देते रहे, पर मोदी सरकार ने कुछ भी नहीं सुना। तब किसानों ने सरकार की नीयत से लड़ने तथा बहरों को ऊंचा सुनाने के लिए संविधान दिवस 26 नवंबर को दिल्ली में धरना प्रदर्शन और डेरा डालने का ऐलान किया। करो या मरो नारे की तरह क़ानून वापसी तभी घर वापसी के नारे के साथ 24 नवंबर से किसानों ने दिल्ली कूच शुरू कर दिया। आप सभी जानते हैं कि भाजपा सरकारों ने किसानों को दिल्ली पहुंचने से रोकने के लिए उनके साथ किस तरह की बर्बरता की, लाठी, आंसूगैस, पानी की बौछार, सड़क पर खाई खोदने और सीमेंट के बड़े बड़े ब्लाक लगाने व कंटीले तार आदि से तरह तरह के व्यवधान पैदा करने, किसानों को उकसाने और उनका मनोबल तोड़ने की सारी कोशिशें कीं, मगर देश भर के किसानों क सैकड़ों जत्थे सारी बाधाओं को पार करके दिल्ली की सीमा पर पहुंच गये, उन्हें रामलीला ग्राउंड नहीं जाने दिया गया, तो वे वहीं दृढ़ संकल्प के साथ सारी चुनौतियों का सामना करने के लिए धरने पर बैठ गये और तब से महीना से ऊपर हो चुका है। क़रीब 70 किसान कड़ाके की सर्दी में गुज़र गये हैं । मोदी सरकार ने संवेदना/ श्रद्धांजलि का एक शब्द भी बोलने से परहेज़ किया हुआ है। भाजपा के नेता उन्हें कभी आतंकवादी, कभी ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’ से प्रेरित बताकर देश के अन्नदाता का अपमान कर रहे हैं। पर किसान डटे हुए हैं। प्रतिरोध का नया इतिहास रच रहे हैं। नागरिक समाज का उनके शांतिपूर्ण आंदोलन को अपार सहयोग मिल रहा है। विदेशों में रह रहे भारतीय भी उनके समर्थन में जगह जगह सड़कों पर उतरे हैं।

  दुखद और हास्यास्पद स्थिति यह है कि लौह पुरुष सरदार पटेल के ये नक़लची आज जनता का दमन और उत्पीड़न करने के लिए लौह पुरुष और मज़बूत नेता बनने का दिखावा कर रहे हैं। सरदार पटेल ने देश की एकता के लिए अंग्रेज़ों के पिट्ठू राजे रजवाड़ों के साथ सख्ती का रुख़ अपनाया था न कि देश की आम जनता या मज़दूर-किसानों को दबाने या लूटने के लिए लौह पुरुष कहलाये थे। मोदी सरकार ने नोटबंदी, जी एस टी, नागरिकता संशोधन क़ानून, जम्मू कश्मीर का राज्य दर्जा छीनने का क़ानून थोप कर और श्रम क़ानूनों में बदलाव करके अवाम के विभिन्न हिस्सों पर अत्याचार के साधन ईजाद किये और अब किसानविरोधी तीन कृषि क़ानून, तमाम संवैधानिक परंपराओं को धता बताते हुए पारित कर लिये। ये सारे क़दम जनता को लूटने, तबाह करने और बांटने के लिए तथा पूंजीपतियों व कारपोरेट घरानों को और अधिक फ़ायदा पहुंचाने के लिए उठाये गये हैं और लागू किये जा रहे हैं। इस आंदोलन में शामिल किसान यह सच्चाई जान चुके हैं, इसीलिए वे अपनी मांगों पर अडिग और दृढ़संकल्प हैं। मोदी सरकार बातचीत का ढोंग रचकर तारीख़ें देती जा रही है जिससे किसानों का धैर्य टूट जाये, इस बीच वह आंदोलन को बांटने और निष्प्रभावी बनाने के उपाय भी सोच रही है। बारदोली किसान आंदोलन से सरदार बने वल्लभ भाई पटेल का अब और अधिक अपमान क्या हो सकता है कि आज उनके नाम की माला जपने वाले किसानों की समस्याओं और आशंकाओं का निदान करने के बजाय कारपोरेटों की सेवा में लगे हैं! फिर भी ख़ुद ही लौह पुरुष का तमगा लटका कर अपना ढोल  पीट रहे हैं । इतिहास गवाह है कि तानाशाह ऐसा ही करते रहे हैं।

  सरकार और किसान प्रतिनिधियों के बीच अनेक बार की बेनतीजा बातचीत से यह और साफ़ हो गया है कि सरकार कृषि क्षेत्र को कारपोरेट पूंजी के हवाले कर न्यूनतम समर्थन मूल्य के साथ ही सार्वजनिक राशन वितरण प्रणाली तथा अनाज मंडी की व्यापक व्यवस्था से मुक्त होना चाहती है। नीति आयोग के आलेखों और वित्त मंत्री के पिछले वर्ष मंडी व्यवस्था के बारे में संसद में दिये वक्तव्यों से मोदी सरकार की ये मंशाएं इन तीनों काले क़ानूनों के ज़रिये खुल कर सामने आ चुकी हैं। किसान भी आम जनता के काफ़ी बड़े तबक़ों के समर्थन से इन क़ानूनों को रद्द कराने के लिए दिल्ली की चार सीमाओं पर डेरा डाल कर धरना दे रहे हैं। परंतु सरकार की यह समझ है कि हिंदुत्व के छल प्रपंचों, उन्मादी राष्ट्रवाद एवं महामारी व गोदी मीडिया के बल पर किसान आंदोलन से पार पा लेगी। 

साथियो, 1907, 1917-18  एवं 1936-37 के किसान आंदोलनों के संघर्षों का इतिहास और प्रेमचंद, प्रसाद, निराला, पंत तथा राहुल सांकृत्यायन आदि के साहित्य ने हमारी संवेदना और वैचारिकी को निरंतर समृद्ध किया है। रंगभूमि के सूरदास के आत्मदाह, गोदान के होरी की त्रासद मृत्यु, मैला आंचल में प्रतिबिंबित शोषकों की कुत्सित स्वार्थ लिप्सा और रागदरबारी में वर्णित सवर्णों की पुलिस प्रशासन से मिल कर की गयी दबंगई के आख्यान हमें अकस्मात याद आते हैं। आज का किसान शोषकशासक वर्गों की चालाकियों और मंशाओं को समझ रहा है। यह किसान आंदोलन एक ऐतिहासिक घटना है, यह एक विशाल जनवादी उभार है, इसलिए इस किसान आंदोलन को और अधिक समर्थन देकर मज़बूत बनाना लोकतंत्र को मज़बूत बनाना है। गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर अन्न के उत्पादन को मात्र एक क्रिया या कर्म नहीं मानते थे। उन्होंने उसे समरस प्रकृति का उत्सव माना है: धरणी के अन्न भंडार से हम केवल क्षुधा शांति की ही आशा नहीं करते, उसमें सौंदर्य का अमृत भी है। वृक्ष में लगे फल हमें पुकारते हैं केवल पौष्टिक अन्न पिंड बन कर नहीं, रूप, रस, गंध, वर्ण लेकर। इससे हिंसा को प्रेरणा नहीं मिलती, यह सौहार्द की पुकार है। यह असंवेदनशील सरकार क्या प्रकृति के सौंदर्य और सौहार्द को बचायेगी?  

 

साथियो, इस अंक में हम नोबल पुरस्कार से इस वर्ष सम्मानित अमरीकी कवि, लुईस ग्लुक की पांच कविताओं और इज़रायल के युवा कवि अल्मोग बेहार की दो कविताओं के अनुवाद दे रहे हैं।

हम अत्यंत शोक संतप्त हो आदरणीय विष्णु चंद्र शर्मा, शम्सुर्रहमान फ़ारुख़ी और प्रिय मंगलेश डबराल के असामयिक निधन पर उनकी स्मृति में दो दो स्मृति लेख प्रकाशित कर रहे हैं। अपने विशिष्ट व्यक्तित्व और महत्वपूर्ण रचनात्मक योगदान से वे हमेशा साथ रहेंगे। इसी दौरान नृत्य की बड़ी हस्ती अस्ताद देबू, कथाकार फ़िल्मकार नरेन एवं कवि-अनुवादक चंद्र किरण राठी के निधन पर नया पथ गहरा दुःख प्रकट करता है। साहित्य, कला जगत और परिवार के दुख में नयापथ शामिल है, हम इन दिवंगत प्रतिभाओं को पुष्पांजलि अर्पित करते हैं। साथ ही हम धरना प्रदर्शन के बीच दिवंगत किसान साथियों को भी सलाम और उनके परिवारजनों के साथ संवेदना व्यक्त करते हैं। 

 

                                मुरली मनोहर प्रसाद सिंह

                                चंचल चौहान

 

      

 

 

 

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