उपन्यास चर्चा-1

  प्रत्यंचा, टिकटशुदा रुक़्क़ा और तिलोका वायकान

राकेश तिवारी

 पहली पढ़त में किसी औपन्यासिक कृति को लेकर कोई सरल निष्कर्ष निकालना जल्दबाज़ी ही समझी जानी चाहिए। रचना पाठकों के बीच पहुंच कर केवल एक बार में पूर्ण नहीं होती, बल्कि उसे समय की कसौटी पर कसे जाने की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। फिर भी यह कहना होगा कि प्रत्यंचा (संजीव) और टिकटशुदा रुक़्क़ा  (नवीन जोशी) उपन्यास के पारंपरिक स्वरूप के साथ और तिलोका वायकान (नवल शुक्ल) उपन्यास की सीमा के अतिक्रमण के बावजूद ऐसी कृतियां हैं जिन पर निश्चित ही बात होनी चाहिए। ये तीनों अगल-अलग प्रकृति के उपन्यास हैं, किंतु तीनों के सरोकार समान हैं। अपने समय पर तीनों उपन्यासकारों की पैनी नज़र है और समय के क्राइसिस को पकड़ने, सामाजिक विसंगतियों, अंतर्विरोधों को उभारने में वे काफ़ी हद तक सफल हुए हैं। तीनों उपन्यासों में एक कॉमन बात है— दलितों और आदिवासियों का जीवन, उनके हालात, संघर्ष और अंतर्द्वंद्व। दो कृतियों के केंद्र में दलित हैं तो एक के केंद्र में आदिवासी। असल में दलितों का जीवन व हालात और उनके प्रति समाज के दूसरे वर्गों का रवैया केवल इन कृतियों के केंद्र में ही मौजूद नहीं है बल्कि धमनियों की तरह पूरे उपन्यास में व्याप्त है। दृष्टिकोण की समानता के बावजूद, प्रत्यंचा और टिकटशुदा रुक़्का में इन समस्याओं को 'डील' करने का तरीक़ा, उनसे उठे सवालों से टकराने की प्रविधि परंपरागत है, जबकि तिलोका वायकान में, चूंकि उसमें विभिन्न विधाओं की आवाजाही है, सामाजिक प्रश्नों से जिरह कहीं प्रत्यक्ष तो कहीं परोक्ष है।

   ग़ुलामी से छोटी नहीं यह त्रासदी    

 संजीव का उपन्यास प्रत्यंचा छत्रपति शाहूजी महाराज की ऐसी जीवन गाथा है जिसमें एक राजा को हम जातिप्रथा के ‍ख़िलाफ़ अलख जगाने वाले तेजस्वी महानायक के रूप में खड़ा होते देखते हैं। सामूहिक त्रासदी को व्यक्तिगत लाभ में बदल लेने यानी आपदा में अवसर तलाशने वाले इस दौर में यह गाथा उस राजा के प्रति नतमस्तक कर देने वाली है जिसने ग़रीब, दबे-कुचले और जातीय अपमान की मर्मांतक पीड़ा झेल रहे लोगों की सामूहिक मुक्ति के प्रयत्न में ख़ुद का जीवन झोंक दिया। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध (लगभग शुरुआत) की यह कथा शाहू जी की केवल जीवन गाथा नहीं है, बल्कि हमारे समकाल को समझने और उसके तुलनात्मक अध्ययन के सूत्र भी हमें पकड़ाती जाती है। यों तो ऐतिहासिक चरित्र लेखक को एक सीमा में बांध देते हैं, इसके बावजूद यह लेखकीय कौशल है कि वह ऐतिहासिक आख्यान को सामयिक और प्रासंगिक बना दे। यह उपन्यास ऐसा ही एक उदाहरण है। 

  शुरुआत में पाठक को राजा के साथ आम नायक या जननायक जैसा सहज संभव तादात्म बैठाने में दिक़्क़त अवश्य पेश आती है। राजा से कैसी सहानुभूति और कैसा जुड़ाव? वह भी एक अंग्रेज़परस्त राजा से। फिर यह प्रश्न मन में उठता है कि कहीं जातीय विमर्श की एक सोची-समझी युक्ति का इस्तेमाल करते हुए उपन्यास को एक तय सांचे में तो नहीं ढाला गया है? यह सवाल इसलिए उठता है क्योंकि हिंदी पट्टी में जाति-उन्मूलन के शाहू जी महराज के प्रयासों के बारे में बहुत ज़्यादा जानकारी नहीं है। इसके अलावा उपन्यास ब्राह्मणवाद के प्रति अतिरिक्त आक्रोश की अभिव्यक्ति भी लगता है। लेकिन इस आक्रोश को उस वक़्त किसी भी तर्क से अस्वाभाविक नहीं ठहराया जा सकता जब ऐतिहासिक तथ्यों के आलोक में ब्राह्मणों की, ख़ासतौर पर पंडा-पुरोहितों की कारगुज़ारियां और दांव-पेंच पाठक के सामने आते हैं। कथा के आगे बढ़ने के साथ ही सारी शंकाएं निर्मूल साबित होने लगती हैं। हेनरी फ़ील्डिंग ने अपने उपन्यास, जोनाथन वाइल्ड में सत्य को किस रूप में प्रकट किया, यह बताते हुए रैल्फ़ फ़ॉक्स ने एक लेख में लिखा है कि सत्य की यह अभिव्यक्ति एक ऐसे भयानक और निर्मम आक्रोश के साथ उसने की, जो अमर है, क्योंकि वह मानवीय जीवन के अधोपतन के प्रति मानवीय आक्रोश का मूर्त रूप है।

   उपन्यास के केंद्र में, आज़ादी की लड़ाई के छिटपुट ब्योरों के साथ चली एक अहम लड़ाई है जातीय भेदभाव मिटाना। इस लड़ाई के नायक शाहू जी कहते हैं देश आज नहीं तो कल आज़ाद हो ही जायेगा, मगर जातीय भेदभाव और पाखंडों से इसे कब मुक्ति मिलेगी ?’ ग़ुलामी की त्रासदी से भी बड़ी जातीय भेदभाव की त्रासदी है, ऐसा शाहू जी का मानना था और यह स्थापित करना या इसके पक्ष में पाठक की राय बनाना किसी उपन्यासकार के लिए भी एक बड़ी चुनौती है। शाहू जी की अंग्रेज़परस्ती खटकती ज़रूर है, पर वह एक ऐसा तथ्य है जिसका उल्लेख करते हुए लेखक ने आंख नहीं चुरायी है। कई मौक़ों पर शाहू जी अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ विद्रोह कर रहे व्यक्तियों और समूहों की छिटपुट तौर पर ही सही, गोपनीय ढंग से आर्थिक सहायता करते हुए भी दिखायी देते हैं। लेकिन शाहू जी का एक बड़ा मक़सद जातीय भेदभावों से मुक्ति का प्रयास था, इसलिए उनकी यह गाथा उसी के इर्दगिर्द चलती है। वे एक तरफ़ इस बुराई के ख़िलाफ़ सटीक तर्क प्रस्तुत करते हैं, तो दूसरी ओर उसे मिटाने के लिए अपनी कोशिशों को अमली जामा भी पहनाते हैं। कहते हैं, 'दुनिया में कहीं भी कमज़ोर इंसानों को इतनी बेहयाई के साथ असहाय बनाये रखने की वैसी साज़िश नहीं रची गयी, जैसी कि अपने देश में सनातनियों ने रची।...ख़ुद को कहते हैं रामभक्त और राम के विरुद्ध आचरण। देवताओं के कंधे पर बंदूक रख कर दागते हैं ये पाखंडी।'

   जातिभेद आज जिस तरह फिर से उभार पर है, दलितों के साथ जो सलूक हो रहा है, उसके मद्देनज़र शाहू जी की यह कथा अत्यंत प्रासंगिक है। राजा होते हुए भी जातीय दंश को स्वयं शाहू जी ने झेला, तो उस दौर में आमजन की स्थिति क्या होगी, इसे समझा जा सकता है। कोल्हापुर के राजा छत्रपति शाहू जी महाराज ने इसे केवल झेला ही नहीं, बल्कि इसके ख़िलाफ़ खुली जंग भी छेड़ी। इतिहास में नायक का दर्जा केवल राजा होने से नहीं मिलता। लेकिन यहां यह भी कहना होगा कि शाहू जी जहां नायक के रूप में उभरते हैं, वहीं उपन्यास के चरित्र के रूप में वे एक सामान्य मनुष्य की तरह नहीं उभरते। यानी उनके दुख, संशय, द्वंद्व और अपने आप से टकराहटों का ज़्यादातर अनुपस्थित-सा रहना खटकता है। 

  कहानी 1894 में शाहूजी के राजतिलक से शुरू होती है। छत्रपति शिवाजी के 220 वर्ष बाद उनके सिंहासन पर शाहूजी विराजमान हो रहे हैं। ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ 1812 में हुई संधि के बाद कोल्हापुर स्वतंत्र राज्य न रह कर रियासत बन चुका है। अपने पहले ही आदेश में शाहू कोई भी खाद्य सामग्री पैसा देकर ख़रीदने का स्पष्ट निर्देश देते हैं। अपने गुरु फ्रेज़र से बातचीत में यह चिंता जतायी जा रही है कि प्रशासनिक मशीनरी में कितने अफ़सर ब्राह्मण हैं और खानगी विभाग में कितने। यह भी हिसाब लगाया जाता है कि शिक्षितों में 80 प्रतिशत ब्राह्मण हैं। व्यापार और कारोबार में भी ज़्यादातर ब्राह्मणों का कब्ज़ा है। या फिर यूरोपियन्स और पारसी हैं। पुणे के अभिनंदन समारोह में कहते हैं, मेरी नज़र में हिंदू ही नहीं, मुसलमान और अन्य सांप्रदायिक इकाइयां भी हैं। सबमें परस्पर स्नेह और सौहार्द्र होना चाहिए। इस बात से सबके कान खड़े हो जाते हैं। क्या हिंदुत्व के आधार पर नहीं चलेंगे शाहू ? पर शाहू जी तो देवस्थानों, मठों की संपत्ति दरबार में शामिल करने का हुक्म जारी कर अपने तेवर का परिचय दे चुके हैं। कल्याणकारी योजनाओं के लिए पैसा चाहिए और वे जानते हैं कि उसका यही एक उपाय है। अपनी रियासत में ग़ैरब्राह्मणों की नियुक्तियां करते हैं, तो दीवान तारापोरवाला शाहूजी को आगाह करते हैं कि इससे अंग्रेज़ और ब्राह्मण ख़िलाफ़ हो जायेंगे। पर शाहू नहीं सुनते। एक अंग्रेज़ अफ़सर तक को सार्वजनिक निर्माण विभाग की नौकरी से बाहर कर देते  हैं।

  विकास का उनका मॉडल अत्याधुनिक और व्यावहारिक है। पन्हालगढ़ की ढलानों में चाय की खेती का विचार मन में आया तो चाय के साथ रबर की खेती भी शुरू हो गयी। यूरोप की तरह नयी-नयी क़िस्म की खेती का विचार। फ़िज़ूलख़र्ची पर रोक का फ़रमान जारी करते हैं। आतंकित कर या धमका कर ज़बरन लगान वसूली के ख़िलाफ़ सख़्त रुख़ दिखाते हैं। चुनौतियां केवल बाहरी नहीं, अंदर से भी खड़ी हो रही हैं। ख़ुद दीवान तारापोरवाला अफ़वाह फैला रहे हैं। ब्राह्मणों ने शाहू जी पर ब्राह्मणविरोधी होने का ठप्पा लगा दिया है। लेकिन शाहू का अभियान जारी है। जनता के बीच जाकर उसकी तकलीफ़ें देखने का फ़ैसला करते हैं। नरसोवाबाड़ी (शिरोल) में कुष्ठ रोगियों को देख कर उनके इलाज की व्यवस्था के बारे में सोचते हैं। अकाल में ग़रीबों का और किसानों का ही नहीं, पशुओं तक का ध्यान रखते हैं। प्लेग फैल गया तो लगान की वसूली स्थगित कर दी। लगान वसूली स्थगित होने से युवा गवर्नर रे की भृकुटियां तन गयीं। उसने अंततः षडयंत्र रचा। ऐसे कई बवंडर आते हैं। ब्राह्मणवादी ताक़तों का नेतृत्व करने वाले बाल गंगाधर तिलक से लगातार खटपट चल रही है। हालांकि शाहू जी को उनकी देशभक्ति पर संदेह नहीं है, लेकिन चूंकि वे ग़ैरब्राह्मणों की बड़ी आबादी के अधिकारों की लड़ाई की कमान संभाले हुए हैं तो तिलक से मुठभेड़ करते रहते हैं। एक मुलाक़ात के दौरान तिलक से कहते हैं, 'आपका राष्ट्रप्रेम प्रणम्य है लोकमान्य, अलबत्ता सिर्फ़ राष्ट्र, राष्ट्र का जन नहीं। जन वहां ब्राह्मण है, शूद्र है।' उसके बाद पूछते हैं, 'राष्ट्र का जन राष्ट्र से अलग होता है क्या?' जन की चिंता के बिना राष्ट्र की चिंता मौजूदा दौर का कितना बड़ा छद्म है, यह लेखक ने शाहूजी और तिलक की बातचीत से रेखांकित करने का प्रयास किया है।

   सन् 1899 का वाक़या। कार्तिक पूर्णिमा का स्नान है। पुरोहित नारायण भट स्नान का मंत्र पढ़ रहे हैं। शाहू के विद्वान मित्र राजाराम शास्त्री पंडित से पूछते हैं कि यह वेदोक्त स्नानमंत्र है? पंडित जी बताते हैं कि पुराणोक्त है। वेदोक्त मंत्र क्षत्रियों के लिए है, शूद्रों के लिए नहीं। शाहू जी को भारी ठेस लगती है। मर्मांतक पीड़ा, कि वे क्षत्रिय नहीं शूद्र हैं! छत्रपतित्व और राजत्व के बावजूद शूद्र। और यह तय करने वाला उन्हीं का अधीनस्थ एक वेश्यागामी ब्राह्मण। इससे पहले (दो सौ साल से ज़्यादा पहले) महाराष्ट्र के ब्राह्मणों ने शिवाजी को क्षत्रिय नहीं माना था और उनका राजतिलक करने से इनकार कर दिया था। शाहू जी महराज के साथ जो हुआ, वह सतारा में प्रताप सिंह के साथ बहुत पहले हो चुका था।

  शाहू को भारी चोट लगी है। शूद्र होने के उलाहने को भूल नहीं पाते। शाहू जी एक शासक हैं। उनकी तुलना में समाज के सबसे निचले पायदान पर रह रहे दबे-कुचले लोगों की पीड़ा कितनी गहरी होगी, जिनकी छाया भी सवर्णों पर नहीं पड़नी चाहिए और जिन्हें अपने पीछे झाड़ू बांध कर चलना होता है। उपन्यास में इसका उल्लेख करते हुए लेखक ने पाठकों की चेतना और विवेक को झकझोरा है। ज्योतिबा के पागल चेले की ओर से गूलर के कीड़ों की तरह अपने देश को ही सारी दुनिया समझने वालों का उल्लेख या ऐसे तमाम दृष्टांतों से लेखक ने हमारे इस दौर की नब्ज़ पर भी लगातार हाथ रखा है। ज्योतिबा का वही चेला बताता है कि 'इन्होंने (ब्राह्मणों ने) भगवान को भी जाति और जनेऊ दे दिया, हनुमान जी को भी...।' इस कथन को हनुमान जी की जाति बताये जाने के इधर के वर्षों के प्रयासों के आलोक में देख सकते हैं। यही नहीं, सनातनी ब्राह्मणवादी शक्तियों द्वारा एक सत्यशोधक की हत्या का प्रसंग भी उल्लेखनीय है, जिसे गांधी से लेकर नरेंद्र दाभोलकर, पानसरे, कलबुर्गी और गौरी लंकेश की हत्या के संदर्भ में देखा-समझा जा सकता है और ख़ुद लेखक ने फ़ुटनोट में इसका उल्लेख किया है।

   शाहू के बचपन का एक घाव हरा हो गया है, जब उन्हें उस जगह जाने से रोक दिया गया जहां भोजन बन रहा था। इसकी प्रतिक्रिया क्या हो सकती है, इसका अनुमान शाहू जी की प्रतिक्रिया से लगाया जा सकता है। वे सोचते हैं, जो ब्राह्मण समाज बिल्ली से अपवित्र नहीं होता, मुझसे हो जाता है, वह मेरा समाज कैसे हो सकता है?’ ब्राह्मणों की संगठित और शक्तिशाली सत्ता के आगे अकेले खड़े युवा नरेश शाहू जी उम्मीद करते हैं कि वेदोक्त प्रकरण में तिलक सत्य का पक्ष लेते हुए उन्हीं का समर्थन करेंगे। पर तिलक ने आंखें मूंद कर अपनी जाति का समर्थन और उनका विरोध किया। इस प्रसंग में उपन्यास में आया यह कथन ध्यान देने योग्य है कि यह तर्क का नहीं आस्था का युद्ध था और आस्था आधारित होती है आग्रहों और कल्पना विलासी मिथकों पर। आग्रहों और कल्पना विलासी मिथकों पर आधारित आस्था से युद्ध आज भी जारी है। यही शाहू जी की जीवन-गाथा की प्रासंगिकता है।

   अंग्रेज़ों ने शिक्षा पर ध्यान दिया, भले ही उच्च शिक्षा उनकी प्राथमिकता हो। इसके विपरीत ज्योतिबा फुले ने अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा पर ज़ोर दिया। शाहू जी ने अपनी रियासत का दौरा किया तो हक़ीक़त से सामना हुआ। स्कूल ही नहीं हैं तो शिक्षा कहां से मिलेगी। ब्राह्मणों को छोड़ कर ज़्यादातर लोग अशिक्षित हैं। फिर यह भी पता चला कि कुनबियों और कमेरी जातियों, अस्पृश्यों की स्कूल में शिक्षक ही खिल्ली उड़ाते हैं। तब शुरू होता है शाहू का प्राथमिक स्तर पर अनिवार्य शिक्षा का अभियान। ग़ैर-ब्रह्मणों में पढ़ने के इच्छुक और योग्य छात्रों को सहायता देने का अभियान। स्कूल और छात्रावास खोलने का अभियान। छांट-छांट कर और खोज-खोज कर ला रहे हैं ऐसे युवकों को। दलितों, और विशेष रूप से गुनहगार जमात क़ायदा एक्ट के तहत लायी गयी घुमंतू जातियों के प्रति एक राजा की सवा सौ साल पुरानी सोच कितनी प्रगतिशील और आधुनिक है,  यह जान कर हैरत होती है। जब इन घुमंतू जातियों को भेड़-बकरियों, रेहड़ों की तरह घेर कर अनुशासनात्मक कार्रवाइयां चल रही होती हैं, उन्हें थानों में दिन में तीन-चार बार हाज़िरी देनी पड़ती है तो उसी दौर में एक दिन महारानी पूछती हैं, 'सुना, अब कोल्टा, पारधी लोग दीवान-दरोग़ा बनेंगे?' राजा उल्टा प्रश्न करते हैं— 'क्या नहीं बनना चाहिए?' ये सब एक राजा की अद्भुत चिंताएं हैं। यही नहीं, स्त्रियों के साथ होने वाली हिंसा की घटनाओं के मद्देनज़र घरेलू हिंसा के क़ायदे की नींव पड़ी, स्त्री उत्तराधिकार क़ानून बनाया। नौकरियों में पचास प्रतिशत रिक्तियां पिछड़े वर्ग से भरे जाने का निर्देश दिया। बाद में जातिगत प्रतिनिधित्व उनका अगला क़दम था। आरक्षण के निर्देश से ब्राह्मण और उनके अख़बार बिदक गये। अपने स्तर पर अपनी रियासत में वे जो कर रहे थे, वह तो था ही, महाराष्ट्र के दूसरे इलाक़ों पर भी नज़र थी। युवा आंबेडकर को अख़बार निकालने के लिए सहयोग दिया, दक्षिण अफ्रीका में महात्मा गांधी और रमाबाई पंडित को सहयोग दिया।

  1917 की बात है। चारों तरफ़ होमरूल का शोर था। 27 दिसंबर को खामगांव में शाहू कहते हैं, 'होमरूल प्राप्त करने के लिए ज़रूरी है आप जाति-प्रथा की बुराइयों से निजात पायें।' महाराज रानी को बताते हैं कि बौद्ध, सिख, जैन, लिंगायत पहले हिंदू ही थे, ब्राह्मणों के अपमान के चलते ही अलग हुए। तिलक का अपना स्वराज है तो शाहू का अपना। शाहू योद्धा हैं, पर ऐसे जो युद्ध के मैदान की जगह सारा पराक्रम जातिवाद से लड़ाई के मैदान में दिखा रहे हैं। नासिक के मराठा बोर्डिंग हाउस की आधारशिला रखे जाने के अवसर पर व्यंग्य से कहते हैं, 'लोगों को शिक्षा नहीं चाहिए। उन्हें विघ्नों से मुक्ति चाहिए...।' यह पाखंडों पर उनकी लगातार चोट करते रहने की कोशिश है। देशप्रेम और विशेष रूप से तिलकीय देशप्रेम पर कई तरह से सवाल उठाये गये हैं। मसलन, यह कैसा राष्ट्रवाद और कैसा देशप्रेम है जिसमें तिलक और सनातनवादी तो हैं पर लिंगायत और अन्य नहीं। पता नहीं यह असहिष्णुता और बर्बर उन्माद देश को कहां ले जायेगा? यह उन्माद मौजूदा दौर की सबसे बड़ी चिंता है, जिसे इतिहास के आइने में समझने और समझाने की कोशिश लेखक ने की है। लेकिन यह कहना होगा कि उपन्यास को प्रामाणिक बनाने के लिए तथ्यों की भरमार कथा को कई जगह बाधित करती है।  

  बहरहाल, इस दौर में सामाजिक ग़ैरबराबरी, विकास के नाम पर हो रही धोखाधड़ी, पूंजीपतियों के हाथों सरकारी संपत्तियों व सेवा क्षेत्र को बेचे जाने तथा शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार को प्राथमिकता सूची से हटाने के जो प्रयास हो रहे हैं, उन्हें ध्यान में रखते हुए एक शासक के कामों को देखना बड़े महत्व का और प्रासंगिक है। यह उपन्यास ख़ास तौर से मौजूदा दौर की उस जातीय समस्या को देखने की दृष्टि भी देता है, जिसकी जड़ें अतीत में बहुत गहरी हैं और जो ग़ुलामी से बड़ी नहीं तो उससे छोटी त्रासदी भी नहीं है। इस दौर में, जब इतिहास को झूठ में बदलने के प्रयास तेज़ हुए हैं और असल नायकों के गुम होने या उनके योगदान को धूमिल कर दिये जाने का संकट खड़ा हुआ है, ऐसे में भी छत्रपति शाहूजी महराज पर इस उपन्यास का आना एक ज़रूरी पहल है।

  हमारे समय का स्याह-सफ़ेद

 नवीन जोशी का उपन्यास टिकटशुदा रुक़्क़ा अपने समय के कुछ ऐसे बड़े सवालों से मुठभेड़ करता है, जो उत्तराखंड के एक दलित परिवार के शोषण, अपमान और दलित युवक के संघर्ष की दहला देने वाली कथा से उठते हैं। ये पहाड़ के जीवन की सामाजिक विसंगतियों से उपजे सवाल तो हैं ही, उसके बहाने उठे कई ऐसे प्रश्न भी हैं जिनका विस्तृत परिप्रेक्ष्य है। नवीन जी राजनीतिक रूप से अत्यंत सजग लेखक और पत्रकार हैं। अपनी पक्षधरता के मामले में लेखक की दृष्टि निश्चय ही साफ़ होनी चाहिए। पर उसके विचारों को कथा-स्थितियों और चरित्रों के अंदर उसी तरह गुंथा हुआ और व्याप्त होना चाहिए जैसे हमारे भीतर हमारे आसपास की हवा। हिंदी कहानी की इक्कीसवीं सदी (संजीव कुमार) की भूमिका में भाववादी और यथार्थवादी रचनाकारों के बारे में मार्क्स के हवाले से जो संदर्भ आया है उसमें कहा गया गया है, वह (यथार्थवादी रचनाकार) चरित्रों और कथा स्थितियों को स्वाभाविकता और विश्वसनीयता की शर्तों पर स्वतंत्र रूप से विकसित होने देता है और कृति उसकी निजी मान्यताओं, पूर्वाग्रहों आदि का अतिक्रमण कर वास्तविकता को जीवंत रूप में आयत्त कर पाती है। इस सिलसिले में आगे कहा गया है कि बालज़ाक इसीलिए मार्क्स के प्रिय उपन्यासकार थे— उनकी पूरी सहानुभूति ध्वस्त होते सामंतवाद के प्रति थी, लेकिन उनके उपन्यास उनकी वर्गीय सहानुभूति और राजनीतिक पूर्वग्रहों के ख़िलाफ़ जाते थे। नवीन जोशी लेखक के रूप में कथा स्थितियों की स्वाभाविकता का भरसक निर्वाह करते हैं। यह उनके पहले उपन्यास, दावानल में भी, जो मूलतः जनविरोधी वन नीतियों के ख़िलाफ़ स्वतःस्फूर्त आंदोलन की कथा है, नज़र आता है। लेकिन उनके अंदर का अति सजग पत्रकार और एक्टिविस्ट कभी-कभी इमोशनल होने की हद तक अपनी मान्यताओं पर डटा हुआ लगता है। लेखक से कभी-कभार उसकी कलम भी आज़ादी की मांग करती है। ऐसे में कहानी को उसके पात्र तय डेस्टिनेशन से इधर-उधर भी ले चलते हैं और लेखक को उन्हें वह आज़ादी देनी पड़ती है। इस संदर्भ में रैल्फ़ फ़ॉक्स के कथन को उद्धत करना चाहूंगा, वे (उपन्यास और लोकजीवन में) कहते हैं, 'निश्चय ही पात्रों के अपने विचार हो सकते हैं, और होने चाहिए भी, किंतु शर्त यह है कि वे पात्रों के अपने ही विचार हों, लेखक के विचार नहीं।' बहरहाल, यह कहना होगा कि टिकटशुदा रुक़्क़ा उनके पहले उपन्यास, दावानल की तरह ही पठनीय उपन्यास है, बल्कि कुछ मामलों में उससे अधिक परिपक्व है।

  उपन्यास के बारे में प्रसिद्ध कथाकार शेखर जोशी का यह कथन शब्दशः सही है कि प्रस्तुत उपन्यास पहाड़ के जीवन की सामाजिक विसंगतियों और प्रतिरोधी चेतना को 'नये आयाम के साथ रेखांकित करता है। नया आयाम यह भी है कि आज जहां दलितों के बीच से नया अभिजात वर्ग उभर रहा है, वहीं दूसरी ओर शेष दलितों की स्थिति जस की तस बनी हुई है। वहां सामाजिक चेतना अब भी नहीं पहुंची। उपन्यास में दीवान राम एक बंधुआ हलवाहे की संतान है, जो उच्च शिक्षा पाकर कारपोरेट दुनिया में क़दम रखता है। एक बहुराष्ट्रीय कंपनी एस.जी का डी.जी.एम (इनोवेशन) है। एडल्ट डायपर पर प्रजेंटेशन देते हुए वह सनक जाता है। यह सनकना उसका अंतरद्वंद है जो पहाड़ के संघर्षपूर्ण जीवन की स्मृतियों और वर्तमान की सुविधाभोगी जीवन शैली से उपजा है। सनकने की हालत में वह जो बड़बड़ा रहा है,  वह उत्तराखंड में इष्ट देवता को प्रसन्न करने के लिए लगाई जाने वाली जागर और उस जागर में सृष्टि की उत्पत्ति का बखान है। बड़बड़ाते हुए वह ख़ुद से प्रश्न करता है कि इस कथा में तो यह नहीं बताया गया है कि पहला मानुष कौन था — ब्राह्मण, क्षत्रिय या शिल्पकार (दलित) ? जातिवाद के संदर्भ में यह मूलभूत प्रश्नों में से एक है और संयोग से प्रत्यंचा की तरह टिकटशुदा रुक़्का की केंद्रीय चिंता में भी ऐसे ही प्रश्न हैं।

   दीवान राम अस्पताल में है। दिवानी ओ मेरा दिवानी का एक कातर स्वर नीम बेहोशी की हालत में भी लगातार दीवान का पीछा करता है। डॉक्टर एक तरह का हिस्टीरिया का दौरा बता रहे हैं। कंपनी को अपनी एडल्ट डायपर की महत्वाकांक्षी परियोजना की चिंता है, जिसे दीवान देख रहा है। पीछा कर रही आवाज़ दीवान की मां की है जिसे बचपन में कुष्ठ रोग हो गया था। इसकी भनक लगते ही गांव वाले यानी सवर्ण मालिक लोग दीवान के पिता दौलत राम से कहते हैं अगर उसने सरुली को भगाया नहीं तो वे ख़ुद उसे गांव से खदेड़ देंगे। यह उपन्यास का सर्वाधिक मार्मिक प्रसंग है। मालिकों के आगे दौलत राम की सारी मिन्नतें व्यर्थ हो रही हैं। सरुली ख़ुद सामने आकर गांव वालों से विनती करती है कि वे गोद के बच्चे (दीवान) को पाल लेने दें, फिर वह ख़ुद चली जायेगी। पर कोई मानता नहीं। अंततः एक साल के बच्चे की ज़िम्मेदारी अपनी दस वर्षीय बेटी को सौंप कर वह गांव की सीमा से बाहर एक खंडहर कोठरी में चले जाने को मजबूर कर दी जाती है। जब दीवान छह साल का हुआ और बहिन की शादी तय हो गयी तो एक दिन बहिन ने अपने मन का बोझ कम करने के लिए बता दिया कि किस तरह बड़ा भाई सुबह-शाम खंडहर की कोठरी के दरवाज़े से सरका कर इजा (मां) को रोटी दे आता था। किस तरह एक रात इजा ने उससे मिलने की ज़िद की और किस तरह गांव के ही धरणीधर की पत्नी उसे और उसकी बहन को साथ ले जा कर इजा से मिलवा लाईं। उस दिन किस तरह इजा ने एक बार बच्चे तो अपना दूध पिलाने की ज़िद की और किस तरह बीमारी की भयावहता के बारे में विचार कर धरणीधर की पत्नी ने सरुली को एक आख़िरी बार बच्चे को गोद में देने से इनकार कर दिया। किस तरह मां मेरा दिवानी कह कर तड़पती और पुकारती रह गयी। किस तरह वे रात के अँधेरे में सबसे छुपते-छुपाते घर लौटे और किस तरह मां ने उसी रात ख़ुद को फांसी लगा ली।

  कुष्ठ रोग को एक समय लाइलाज बीमारी माना जाता था और कुष्ठ रोगियों का इसी तरह सामाजिक बहिष्कार कर दिया जाता था। इलाज के बिना अंत में इसी तरह उनकी दर्दनाक मृत्यु हो जाती थी। बहरहाल, बचपन से ही शुरू हो जाती है बालक दीवान की संघर्ष-कथा। वह पढ़ना चाहता है, लेकिन अनपढ़ पिता और दो बड़े भाई सोचते हैं, बड़े होकर दीवान को भी तो गांव के मालिक लोगों का हलवाहा ही बनना है, तो पढ़ कर क्या करेगा। बड़ी बहन चाहती है वह पढ़े। स्कूल भेजती है, लेकिन सवर्णों को यह अच्छा नहीं लगता। वे उसके परिवार को ताने मारते हैं। गांव के बीठ (सवर्ण) बच्चे हमेशा परेशान करते हैं, पिटाई तक कर देते हैं। स्कूल में उससे दूरी बना कर बैठते हैं और उससे छू जाने से परहेज़ करते हैं। स्कूल में जिन सुंदर सिंह मास्साब की वजह से दीवान को प्रवेश मिलता है, वे उसे पढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं। पर उनके रिटायर होते ही 'नये आये ब्राह्मण अध्यापक ने दीवान को स्कूल की सफ़ाई के काम में लगा दिया। उन्होंने उसे पढ़ने के लिए कक्षा में भी नहीं बैठने दिया। उसके लिए बैठने की जगह बाहर बारामदे में मुक़र्रर कर दी गयी। लेकिन सुंदर सिंह मास्साब रिटायरमेंट के बाद भी उस प्रतिभाशाली बच्चे दीवान को पढ़ाई में मदद करते हैं। अगर वे न होते तो दीवान शिक्षा की यह कठिन यात्रा कभी पूरी न कर पाता। इस यात्रा में उसकी दीदी और भाभी जैसे कुछ सहयोगी भी मिलते रहे। कुल मिला कर एक दलित बच्चे के लिए गौला गांव जैसे गांव-क़स्बों में पढ़ाई करने की राह में कितनी अड़चनें आती हैं, इसकी रोंगटे खड़े कर देने वाली दास्तान है टिकटशुदा रुक़्क़ा

   कॉलेज में दीवान का सहपाठी सुरेश पासी, जो बाद में कांशीराम के बहुजन आंदोलन में शामिल होता है और मैदानी क्षेत्र के दलित-पिछड़ों की राजनीतिक-सामाजिक जागृति का सेनानी बनता है, दीवान को समझाता है कि उसके पिता अवश्य ही बंधुआ मज़दूर होंगे। तब गांव जाने पर दीवान का वास्तविकता से सामना होता है। वह अब तक सचमुच भोला था। उसके पिता को तो अब भी अपने बंधुआ होने का अहसास नहीं है। ख़ुद दीवान राम भी दलित चेतना के उभार का साक्षी सुरेश के ज़रिये ही बनता है। तभी आगे चल कर उसमें उत्तराखंड के भोले-भाले दलितों में शिक्षा और सामाजिक जाग्रति फैलाने की तड़प पैदा होती है। यह चिंगारी उसके भीतर पहले से मौजूद तो थी, लेकिन सुलगती तब है जब पिता और दादा के नाम के सौ-सौ रुपये और पच्चीस रुपये कर्ज़ के रुक़्क़े वह देखता है। इन और ऐसे कुछ रुक़्क़ों के ज़रिये ली गयी मामूली रक़म के कारण वे दास बने हुए थे। इस तरह शुरू होता है भीषण अंतर्द्वंद्व। उसे अफ़सोस होता है और ख़ुद पर क्रोध आता है कि वह किताबों में डूबा रहा लेकिन अपने घर, गांव और समाज की विसंगतियों पर उसकी नज़र नहीं गयी।

   उपन्यास में 1980 की एक सच्ची घटना का ज़िक्र है, जिसे कफल्टा कांड के नाम से जाना जाता है। रानीखेत (जिला अल्मोड़ा) के पास कफल्टा गांव के ठाकुरों ने डोली में बारात निकाल रहे शिल्पकारों (दलितों) को डोली से उतरने के लिए कहा था। इसी में फसाद हो गया और किसी शिल्पकार बाराती ने एक फ़ौजी सवर्ण को चाकू मार दिया। इसके बाद कफल्टा के सवर्ण बौखला गये और मरने-मारने पर उतर आये। शिल्पकार जान बचा कर भागे और अपने एक परिचित के घर में घुस गये। ठाकुरों ने मकान में आग लगा दी। इसमें कई शिल्पकार ज़िंदा जल गये। पर्यावरण की चिंता भी उपन्यास का एक महत्पूर्ण पक्ष है। मसलन, चौड़े पत्तों वाले वृक्षों की जगह चीड़ के जंगलों के विस्तार से होने वाले दुष्परिणामों की चर्चा लेखक ने की है। बताया है कि चीड़ के पेड़ों के कारण वनों में केवल आग ही नहीं लगती, पानी की भी कमी हो गयी है। गधेरे (छोटी नदियां), नौले सूख गये हैं। निश्चित ही यह पर्वतीय राज्य में विकास के नाम पर उस अंधी दौड़ का ही दुष्परिणाम है जिसका एकमात्र मक़सद धन की लूट है।

   उपन्यास का एक पहलू कॉरपोरेट जगत की वह तस्वीर है जिसका स्याह पक्ष या तो हमें दिखायी नहीं देता या जिसे हम स्वीकार कर चुके हैं। यह स्याह पक्ष दीवान की कथा के माध्यम से बहुत की सहज और स्वाभाविक रूप में उभर कर सामने आया है। दीवान मानसिक असंतुलन से गुज़र रहा है और जिस बहुराष्ट्रीय कंपनी में वह काम करता है वह दीवान के जल्द से जल्द ठीक होने के सारे प्रयत्न इसलिए कर रही है क्योंकि उसके एडल्ट डायपर को मार्केट में लांच करने में विलंब हो रहा है। इस कवायद में कारपोरेट दुनिया का एक बेहद बेरहम और अमानवीय चेहरा सामने आता है। आज के युवाओं की त्रासदी यह है कि कारपोरेट दुनिया और वहां का पैसा उन्हें बहुत आकर्षित करता है, लेकिन उस दुनिया में प्रवेश करने के बाद उन्हें पता चलता है कि किस मानसिक श्रम के बदले उन्हें वह सब हासिल हो रहा है, बाहर से भव्य और कभी-कभी उदार दिखने वाला वह चेहरा अंदर से कितना क्रूर, स्वार्थी और संवेदनहीन है। ज़्यादा पैसा देकर ज़्यादा से ज़्यादा निचोड़ लेने वाली कारपोरेट दुनिया इतनी अमानवीय और बेशर्म है कि आप जिस दिन संकट में घिरते हैं या आप जिस पल उनके काम के नहीं रह जाते उसी पल वे आपसे किनारा कर लेते हैं।

   अत्यंत ग़रीबी में ज़िंदगी गुज़ार चुका एक युवक कारपोरेट दुनिया के लिए इसलिए उपयोगी है क्योंकि उसके पास ग़रीबों और मध्यवर्गीय लोगों के जीवन-व्यवहार के बहुत सारे उपयोगी अनुभव हैं। वह बता सकता है कि कंजूस या किफ़ायत पसंद भारतीय उपभोक्ता से टूथपेस्ट की ट्यूब का मुंह चौड़ा करके ही ज़्यादा पेस्ट ख़र्च करवाया जा सकता है, अन्यथा नहीं। वही व्यक्ति जब बीमार पड़ने के बाद बेहोशी की हालत से बाहर निकला तो कंपनी के इंडिया प्रेसीडेंट को सिंगापुर मुख्यालय का गोपनीय संदेश मिलता है— यह अच्छी ख़बर है कि दीवान राम ठीक हो गये हैं लेकिन उनकी बीमारी से यह साबित हुआ है कि मानसिक रूप से वे दृढ़ नहीं हैं। वे कंपनी के लिए काफ़ी उपयोगी रहे हैं किंतु अब इनोवेशन डिवीजज़न की कमान ऐसे व्यक्ति के हाथ में रखना उचित नहीं होगा जिसका चित्त स्थिर नहीं है।... जिस दौर में बड़े गुपचुप तरीक़े से और बड़ी तेज़ी से सरकारी और स्थायी नौकरियां समाप्त हो रही हैं और कारपोरेट कल्चर पनप रहा है, जिस दौर में दलित चेतना का उभार फिर से ज़रूरी लगने लगा हो, ऐन उसी दौर में इस उपन्यास का आना जितना सामयिक और सुखद है, उपन्यास पाठक को उतना ही बेचैन भी कर देता है।

   दीवान का विवाह एक ऐसे दलित परिवार की बेटी शिवानी से होता है, जो दलितों में उभरे नवधनाढ्य वर्ग से है। शिवानी के पिता दीवान के अपने लोगों के बीच लौटने और काम करने के संकल्प की हर क़दम पर हवा निकालते रहते हैं। वह अध्यापक बन कर गांव जाना चाहता है, लेकिन शिवानी के पिता उसके इरादे पर झल्ला पड़ते हैं। दीवान के भीतर भारी द्वंद्व छिड़ा था, जिसका प्रभाव नौकरी और वैवाहिक जीवन, दोनों पर पड़ रहा था। एक ओर वह लीकप्रूफ़ एडल्ट डायपर पर इनोवेशन कर रहा है और दूसरी ओर दिमाग़ में यह ख़याल कौंध रहा है कि असली इनोवेशन तो कांशीराम जी (बहुजन समाज पार्टी के नेता) ने किया। उनके इनोवेशन से दलित समाज का सामाजिक-राजनीतिक सशक्तीकरण हुआ, जबकि मैं यहां एडल्ट डायपर पर इनोवेशन कर रहा हूं। लानत है। दूसरी ओर नौकरी छोड़ कर गांव लौट पड़ने पर परिवार का सहयोग मिलने और नहीं मिलने का प्रश्न है।

  जब वह नौकरी छोड़ने का फ़ैसला करता है तो शिवानी के पिता बहुत चीखते-चिल्लाते हैं कि कैसे वह परिवार के साथ पहाड़ के उजाड़ गांव में रहेगा। लेकिन शिवानी उसका साथ देती है। दीवान और उसकी पत्नी का दीवान के गांव जाने का फ़ैसला सुखद तो है लेकिन यह आदर्शवाद किसी साहित्यिक कृति के लिए बहुत आदर्श स्थिति का द्योतक नहीं कहा जा सकता। यथार्थ स्वीकार्य न होने की हद तक कटु बेशक हो, लेकिन साहित्यिक विश्वसनीयता की बुनियाद वही है। अच्छी बात यह है कि नवीन जोशी ने इस उपन्यास में सामाजिक अंतर्विरोधों को वास्तविकता से बहुत अधिक तीव्र नहीं होने दिया है। यह संतुलन टिकटशुदा रुक़्का को पठनीय और उल्लेखनीय बनाता है। नवीन जोशी के साहित्य पर, उनकी पत्रकारीय पहचान से अलग विचार किये जाने की ज़रूरत है।

 द्रवीभूत होकर भरा हुआ विचार

नवल शुक्ल के उपन्यास तिलोका वायकान में कथा के बहुतेरे आयाम या बहुतेरी कथाओं से बुना-बिंधा कोई वृहद् आख्यान दृश्यमान नहीं है। यह एक जीवन-खंड की कथा है जिसका पूरा टेक्सचर व स्ट्रक्चर सांकेतिक है, इसलिए यह कृति एक लंबी कहानी की तरह लगती है—एक औपन्यासिक कथा। हालांकि यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि केवल इसलिए कोई कृति उपन्यास विधा से बेदख़ल नहीं की जा सकती कि वह उपन्यास के परंपरागत ढांचे में फ़िट नहीं बैठती। अगर देरिदा पर भरोसा करें तो वे जो मानते थे,  वह यह है कि हर साहित्यिक कृति साहित्य के मानदंडों से धोखा करती है। कम से कम ऐसा तो नहीं हो सकता कि उपन्यास-रूप एक हो। परमानंद श्रीवास्तव (उपन्यास के विरुद्ध उपन्यास) कहते हैं कि लूकाच ने उपन्यास-रूप की उस विशिष्टता को स्वीकार किया है जो एक सीमित कथा में भी बड़ा स्पेस बनाती है। उदय प्रकाश के मेंगोसिल को वे इसी युक्ति का प्रमाण बताते हैं। यह बात तिलोका वायकान पर भी लागू होती है। बहरहाल, इस कृति में अनकहे को पढ़ना ही उसका वास्तविक पाठ है। अगर इस कृति का पाठ लंबी कहानी की तरह ही किया जाये और नामवर सिंह के हवाले से कहा जाये (निर्मल वर्मा की कहानी के टेक्स्चर पर बात करते हुए जो उन्होंने कहा था) तो कहानी में वाक्यों की शृंखला इतनी लयबद्ध चलती है कि संपूर्ण विन्यास अनजाने ही मन को संगीत की लहरों पर आरोह-अवरोह के साथ बहाता चलता है। और आगे वे कहानी के इस विन्यास को कथा-तत्वों द्वारा उत्पन्न प्रभावान्विति को समृद्ध करने में जिस रूप में सहायक बताते हैं, तिलोका वायकान पर वह काफ़ी हद तक लागू होता है। मानो वह कोई सूत्र हो। उपन्यास के फ़्लैप में अमिताभ राय ने लिखा है कि पूरे उपन्यास की संवेदनात्मक संरचना विवरणात्मक नहीं है। उसमें बिंबों, प्रतीकों, अप्रत्यक्ष कथनों की प्रभावी भूमिका है। चूंकि ये सारे उपकरण काव्य संवेदना के हैं इसलिए इस उपन्यास में लय और राग की अंतर्वर्ती धारा सदैव मौजूद है।

   असल में यह एक अलग तरह का लघु उपन्यास/नॉवलेट या लंबी कहानी है, जिसमें कथा के समानांतर एक कथा शेडो की तरह चलती है। उसे पहचानने और उसका अपने तईं पाठ करने के लिए लेखक उसे पाठकों पर छोड़ देता है। अन्यथा बहुत छोटी-सी कहानी है जो धूल-मिट्टी में खेलने वाली एक लड़की की खोज से जुड़ी है। यह लड़की नरेटर के स्वप्न में बार-बार आती है और उसे खोजने के लिए ही वह आदिवासी अंचल की यात्रा करता है। एक दिन वही या वैसी ही लड़की जब उसे मिलती है और जब वह उसके समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखता है तो उसकी क्या प्रतिक्रिया होती है, यही कही गयी कहानी है। वाचक स्वयं इसका मुख्य पात्र है लेकिन इस प्रथम-पुरुष शैली के कारण उपन्यास की सीमा यह बन जाती है कि पूरे घटनाक्रम में दूसरे पात्रों का नज़रिया बहुत स्पष्ट नहीं हो पाता। बहरहाल, पूरी कथा में जो अनकहा है, जिसके संकेत मात्र मिलते हैं वह असल में वास्तविक कथा है। आदिवासियों का जीवन इसमें एक छाया की तरह चलता है। यानी यह मूल प्रश्न कहानी में रक्त और मज्जा की तरह विद्यमान है कि आदिवासी जीवन को हम बाहर से कैसे देखते हैं, वह दृष्टि क्या है और आदिवासी जीवन वास्तव में क्या है। अमिताभ राय फ़्लैप में लिखते हैं कि तिलोका तक पहुंचने में वाचक जो यात्रा तय करता है, वह यात्रा कई मायने में विशिष्ट है। आधुनिक विकास की जो यात्रा है, यह उसका एक क़िस्म से प्रत्याख्यान है। विकास की भौतिक यात्राएं मुख्य भूमि की ओर होती हैं। परंतु वाचक की यात्रा मुख्य भूमि से दूर उस आदिवासी अंचल तक की यात्रा है, जहां मनुष्य प्रकृति के विजेता के रूप में नहीं है, वह उसका सहचर है, उसका अभिन्न अंग है।

  मनुष्य प्रकृति का अभिन्न अंग है, यह मंतव्य वाचक के ज़रिये शुरू में ही स्पष्ट हो जाता है जब वह स्वप्न का ज़िक्र करते हुए कहता है कि यह जंगल मुझे अपने बाबा का जंगल क्यों लग रहा है ? ये पेड़ इतने आत्मीय क्यों हैं?’ अगर नामवर जी के शब्दों में कहा जाये तो यही आधारभूत विचार द्रवीभूत होकर तिलोका वायकान के शरीर में भरा हुआ है। असल में आदिम जीवन ही हमारा मूल है। मुख्य यात्रा तो वही है। बाक़ी की हमारी यात्राएं केवल विकास-यात्राएं हैं और विकास कैसा हो, यह हम समझना या समझाना नहीं चाहते। हमने विकास के नाम पर प्रकृति का और उसके संसाधनों का दोहन भर किया। तथाकथित विकास करते हुए, अपने मूल को और प्रकृति के साथ अपने संबंधों को हम भूल गये। आदिवासियों को देखने की हमारी दृष्टि पर भी यह उपन्यास तीखा व्यंग्य है। इसे वाचक ने दूसरी ओर का आकर्षण कहा है और ख़ुद से सवाल किया है कि क्या मैं प्रश्नकर्ता पर्यटक की तरह हूं जो हर जगह थोड़ा-थोड़ा समय बिताता हुआ, सिर्फ़ शब्दों से सूचना प्राप्त करता हुआ गुज़र जाता है ? आज के विकास के मॉडल में आदिवासी अंचल, आदिवासियों का जीवन, उनकी संस्कृति में ऐसा आकर्षण है, जिसे पर्यटन की दृष्टि से या आनंद के लिए, मनोरंजन के लिए हम देखना भर चाहते हैं। जबकि प्रकृति के सहचरों का जीवन बहुत ही सरल व स्वाभाविक है और वे प्रदर्शन के लिए कुछ नहीं कर रहे हैं। वे आपके देखने लिए या ख़ुद को दिखाने के लिए कुछ नहीं करते। वे जो कर रहे हैं, चाहे नृत्य हो या कोई और गतिविधि वह प्रकृति जैसी स्वाभाविक है और उसमें करने जैसा कुछ नहीं है, बल्कि इस तरह है मानो ख़ुद हो रहा है। वाचक जब स्वप्न में जंगल में पहुंचा है और उनका गायन-वादन सुनता और नृत्य देखता है तो कहता है कि वे नहीं चाहते थे जिस तरह मैं अपने सपने में उनके नाच को देख रहा हूं, उसी तरह वे मेरे सपने में आयें और मेरे द्वारा देखते हुए नाच को देखें। वे मेरे सपने में आना और मेरे देखते हुए को देखना नहीं चाहते थे। आगे और स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि 'हमें जैसे ही नाचने या गाने का अहसास होता है, वैसे ही वह गतिविधि विशेष होने लगती है। उसमें एक सोच, क्रमबद्धता और पूर्णता आने लगती है।...यहां जो गीत गाये जा रहे हैं वे ऐसे हैं मानो उन्हें कहीं जाना नहीं है। समुद्र पर हिलती नाव की तरह यहीं रहना है।' 

   जीप में बैठ कर आदिवासियों के गांव की तरफ़ जाते हुए रास्ते में लंगोट या एक ही कपड़ा पहने स्त्री-पुरुष मिलते हैं जो जीप को हाथ देते हैं। उनमें से किसी के कंधे पर धनुष लटके हैं, तो किसी के कुल्हाड़ी। जीप के ड्राइवर के माथे पर पसीना चुहचुहा आता है। ड्राइवर उपन्यास के वाचक को एडवेंचर के लिए आया यात्री जान कर पूछता है कि आप तो इसीलिए आये हैं न? यही सब देखने? क्या आपको इसमें मज़ा आता है? असल में आदिवासियों के बारे में क़िस्से-कहानियां प्रचलित हैं कि वे ख़तरनाक होते हैं। वाचक एक जगह सोच रहा है— 'हम (जो उन जैसे नहीं हैं) बातों और भावनाओं के मामले में चालाक होते हैं। हम भ्रम की स्थिति अपने व्यवहार से खड़ी करते हैं। हम ऐसे कुशल व्यवहार के अनुपात को आवश्यकतानुसार कम या अधिक करते रहते हैं।' आदिवासियों के बारे में उसकी राय है कि 'जंगल के साथ रहने वाले लोग अपनी पहचान को बनाये रखते हैं। उनमें दोहरापन नहीं के बराबर होता है। ...वे जो होते हैं, उसे बताने, समझाने के लिए अपने को प्रदर्शित नहीं करते। जबकि हमारा काम प्रदर्शन के बिना असंभव हो जाता है।'

  असल में नरेटर की यह यात्रा विकास के हमारे मॉडल को देखने और समझने की यात्रा भी है। अतिवादी और उन्मादी शक्तियां जिस तरह समाजिक तानेबाने के लिए ख़तरा हैं, उसी तरह मनुष्य का लालच, स्वार्थ हमारे पर्यावरण और प्रकृति को संकटग्रस्त कर देते हैं। इस तरह ये दोनों मनुष्यता को ही संकटग्रस्त करते हैं। एक तरफ़ आदिवासी हमारे लिए नुमाइश की चीज़ हैं, दूसरी ओर हम जंगलों पर या उन संसाधनों पर कब्ज़ा करने के उद्देश्य से ही उनके और उनके क्षेत्र के विकास की योजनाएं बना रहे हैं। जो अंततः उनकी जीवन-पद्धति पर, उनकी संस्कृति, उनकी भाषा पर एक तरह का हमला साबित होती हैं। जो बात लेखक ने वाचक के माध्यम से कही उसका आशय दरअसल यही प्रतीत होता है। इसीलिए नरेटर सोचता है, यदि मैं इस जगह के लिए, अपने इन आत्मीय और सुखद लोगों के लिए अलग से कुछ कर नहीं पाया तब तो इनके साथ का मेरा संबंध व्यर्थ है। फिर वह सोचता है कि यदि मैं इनके लिए कुछ भी करूंगा तो वह अंततः एक योजना होगी। विकास से संबंधित, पानी से संबंधित, शिक्षा, संस्कृति या जीवन से संबंधित। और इतना तो निश्चित है कि यह योजना यहां के लिए आयातित ही होगी।...जबकि परिवर्तन जो भी होना चाहिए,  वह वहीं के ढंग से, वहीं की सोच से और उन्हीं के द्वारा होना चाहिए। हमें उसमें सहयोगी मात्र की भूमिका निभानी चाहिए।

   दूसरी ओर, तिलोका वायकान प्रेम की भी अद्भुत कथा है। तिलोका और वाचक के बीच प्रेम है। इसके बावजूद तिलोका विवाह बंधन में बंधने से इनकार कर देती है। इनकार के बावजूद दोनों एक-दूसरे से प्रेम करना जारी रखते हैं। यह प्रेम प्रकृति से भी है, मनुष्यों से भी है। इसमें गहरा विश्वास है, समर्पण है, एक-दूसरे की हिफ़ाज़त करने, ध्यान रखने की अदम्य इच्छा है। अगर अविश्वास कहीं है तो संभ्रांत और सभ्य कहे जाने वाले समाज की ओर से है। वह आदिवासियों के बारे में शंका करता है, क्योंकि वह उस तरह प्रेम नहीं कर सकता या उनकी तरह निःस्वार्थ भाव से न प्रकृति को देख सकता है और न मनुष्यों को। अन्यथा आदिवासी समाज में इतना अपनापन और ऐसे रागात्मक रिश्ते हैं कि वहां सब एक-दूसरे के हैं। वे प्रेम करते हैं , पर उसके बारे में व्यक्त कम करते हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण वड्डे और अइतो का वाचक के प्रति निःस्वार्थ प्रेम और अपनापन है। वहां सब कुछ स्वप्न की तरह है। वहां यह पता नहीं चलता कि स्वप्न क्या है और यथार्थ क्या। स्वप्न यथार्थ की तरह है और यथार्थ स्वप्न की तरह। स्वप्न और यथार्थ जब मिलते हैं तो तिलोका वायकान की रचना होती है। इसकी सामर्थ्य यह है कि इसके कई पाठ हो सकते हैं। यह एक ऐसे काव्यात्मक आख्यान की तरह है जिसकी रिदम को आप पढ़ने से अधिक महसूस कर सकते हैं और इस तरह यह संगीत जैसी या कविता जैसी संप्रेषणीय कृति है। इस उपन्यास को पढ़ना वैसा ही है जैसे वाचक का अपने सपने में चांदनी रात की पगडंडी पर तिलोका को जाते देखना। अलबत्ता उपन्यास में थोड़े और विस्तार की गुंजाइश अवश्य थी।

  मो. 9811807279

 पुस्‍तक संदर्भ

प्रत्यंचा : संजीव, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2019

टिकटशुदा रुक़्क़ा : नवीन जोशी, नवारुण, वसुंधरा, ग़ाज़ियाबाद, 2020

तिलोका वायकान : नवल शुक्ल, सेतु प्रकाशन, नोएडा, 2020 

 

 

 

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